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1. अहिंसा का सिद्धांत
1.1 अहिंसा का स्वरूप अहिंसा का आदिस्रोत
____ अहिंसा की स्थापना का पहला दिन सुन्दर अतीत के गर्भ में है, इसलिए वह हमें ज्ञात नहीं है। अज्ञात के विषय में हम या तो कल्पना कर सकते हैं या अनुमान। कल्पना और अनुमान अपने-अपने संस्कारों के अनुसार चलते हैं, इसीलिए सारे कल्पनाकार और अनुमाता किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते।
फिर भी अहिंसा की व्याप्ति और स्वीकृति अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में अधिक है, इसलिए उसका अस्तित्व जैनदर्शन और धर्म की परम्परा में खोजना ही अधिक वास्तविक होगा। सामाजिक अस्तित्व और अहिंसा
सामाजिक अस्तित्व से पहले यौगलिक जीवन की पद्धति प्रचलित थी। पुरुष और स्त्री का सहजीवन था। वे लोग प्राकृतिक सम्पदा के सहारे जीते थे। खाने, रहने और पहनने-ओढ़ने के लिए वृक्षों पर निर्भर थे। यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि वे वृक्षोपजीवी थे।
आवश्यकताएं कम थीं, इसलिए प्रवृत्तियां भी कम थीं। जनसंख्या कम थी। इसलिए उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी सरलता से हो जाती थी।
इसलिए यौगलिक मनुष्यों के सामने संघर्ष की स्थितियां नहीं थीं। वे शांत जीवन जीते थे। क्रोध, अभिमान, माया और लोभ उपशान्त थे। संग्रह नहीं था, इसलिए न चोरी थी, न हिंसा और न लड़ाइयां। न कोई विधि-विधान था, न शासन और न कोई व्यवस्था । वे मुक्त और स्वावलम्बी जीवन जीते थे। . जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ नया मोड़ आ गया। तब प्राकृतिक वनसम्पदा उनकी आवश्यकता-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं रही। संघर्ष और छीना-झपटी के अंकुर पनपने लगे। इस परिस्थिति में सामाजिक जीवन और व्यवस्था का सूत्रपात हुआ।
प्रारम्भ में कुलों और कुलकरों की व्यवस्था हुई। कृषि, व्यापार और सुरक्षा के प्रवर्तन के साथ-साथ आवश्यकताएं और प्रवृत्तियां दोनों बढ़ गईं।
___ जहां अनेक आवश्यकताएं और अनेक प्रवृत्तियां होती हैं, वहां संग्रहवृत्ति का विकास होता है। संग्रह के परिपार्श्व में हिंसा, असत्य और चोरी को भी विकसित होने का अवसर मिलता है। सामाजिक प्रवृत्तियों के विकास के साथ
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