Book Title: Agnantimirbhaskar Author(s): Vijayanandsuri Publisher: Atmanand Jain SabhaPage 11
________________ बहिरात्मा, अंतरात्मा अने परमात्मा ए त्रग प्रकारना आत्मानुं स्वरूप शास्त्रीय प्रमाणो साधे आ ग्रंथमां घणुं संदेपमा प्रा. पवामां आव्युं . कोइपण निष्पक्षपाती तत्वजिज्ञासु पुरुष आ ग्रंथर्नु स्वरूप प्राद्यंत अवलोकशे तो तेना जाणवामां पावशे के, एक जैनना समर्थ विछाने नारतवर्षनी जैन प्रजानो नारे नपकार कीयो . ते साथे प्रावा विच्छिरोमणि महाशय पुरुष सांप्रत काले विद्यमान नश्री, तेने माटे तेने अतुल खेद प्राप्त थशे. स्वर्गवासी ग्रंयकारे नारतनी जैन प्रजानो महान उपकार करी जैनोनी प्राचीन स्थितिनुं स्मरण कराव्यु . एक समये जैन प्राचीन विद्यानो बहु नत्कर्ष हतो अने कुमारपाल जेवा परम धार्मिक नदार महाराजाना आश्रय नीचे जैन विद्याने बहु सारां नत्तेजन अने पोषण मळ्यां करतां. तेवो काल जो फरीथी आवे अने आवा लेखको विद्यमान होय तो जैन प्रजा पानी पोताना पूर्व नत्कर्षना शिखर नपर स. त्वर आरूढ पाय, तेमां कांइपण आश्चर्य नथी. वटे अमारे आनंद सहित जणावq पमे ले के, स्वर्गवासी पूज्यपाद श्री आत्मारामजी महाराजना हृदयमां जे अनगार धमनीसाये परोपकार पणानी पवित्र गया पडी हती, ते गयाना घणा अंशो तेमना परमपूज्य शिष्य वर्गना हृदयोमां नतयाँ छे पोताना गुरुर्नु यथाशक्ति अनुकरण करवाने ते शिष्यवर्ग त्रिकरण शुझ्यिा प्रवर्ते जे. महात्माअोने पोतानी धार्मिकता अने विद्या साथे जे एकता होय , अने जे स्वार्पण तथा अहंतान्नाव होय , ते तेमना शिष्यवर्गमा प्रत्यक्ष मूर्तिमान् जोवामां आवे ने. तेन परम सात्विक होइ सर्वने तेवांज देखे ने अने तेवांज करवाने इच्छे . जैन सिशंतनी जेम तेमने गुरु सितनी नपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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