Book Title: Agam Suttani Satikam Part 24 Aavashyaka
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 317
________________ ३१४ आवश्यक मूलसूत्रम्-१ पइदियहं वड्डति, चिंता जाया-अस्थि धम्मफलंति, तो महं हिरण्णादि वड्डति, ता पुण्णं करेमित्तिकलिऊण भोयणं कारितं, दानं च नेन दिन्नं, ततो पुत्तं रज्जे ठवेऊण सकततंबमयभिक्खाभायणकडुच्छुगोवगरणो दिसापोक्खियतावसाण मज्झे तावसो जातो, छट्ठट्ठमातो परिसडियपंडुपत्ताणि आनिऊण आहारेति, एवं से चिट्ठमाणस्स कालेण विभंगणाणं समुप्पन्नं संखेज्जदीवसमुद्दविसयं, ततो नगरमागंतूण जधोवलद्धे भावे पन्नवेति । अन्नता साधवो दिट्ठा, तेसिं किरियाकलावं विभंगानुसारेण लोएमाणस्स विसुद्धपरिणामस्स अपुवकरणं जातं, ततो केवली संवुत्तोत्ति ६ । संयोगविओगओऽवि लब्मति, जधा दो मथुराओ-दाहिणा उत्तरा य, तत्य उत्तराओ वाणियओ दक्खिणं गतो, तत्थ एगो वाणियओ तप्पडिमो, तेन से पाहुण्णं कतं, ताहे ते निरंतरं मित्ता जाता, अम्हं थिरतरा पीती होहितित्ति जति अम्ह पुत्तो धूता य जायति तो संयोगं करेस्सामो, ताहे दक्खिणेण उत्तरस्स धूता वरिता, दिन्नाणि बालाणि, एत्यंतरे दक्खिणमथुरावाणियओ मतो, पुत्तो से तंमि ठाणे ठितो, अन्नता सो हाति, चउद्दिसं चत्तारि सोवण्णिया कलसा ठविता, ताण बाहिं रोप्पिया, ताणं बाहिं तंख्यिा, ताण बाहिं मट्टिया, अन्ना य ण्हाणविधी रइता, ततो तस्स पुव्वाए दिसाए सोवण्णिओ कलसो नट्ठो, एवं चउद्दिसंपि, एवं सव्वे नट्ठा, उहितस्स ण्हाणपीढंपि णटुं, तस्स अद्धिती जाता, णाडइजाओ वारिताओ, जाव घरं पविट्ठो ताधे उवट्ठविता भोयणविही, ताधे सोवण्णियरूप्पमताणि रइयाणि भायणाणि, ताधे एक्केवं भायणं णासिउमारद्धं, ताहे सो पेच्छति नासंति, जावि से मूलपत्ती सावि नासिउमाढत्ता, ताहे तेन गहिता, जत्तियं गहियं तत्तियं ठितं, ससं नटुं, ताधे गतो सिरिघरं जोएति, सोऽवि रित्तओ, जंपि निहाणपउत्तं तंपि णटुं, जंपि आभरणं तंपि नत्थि, जंपि वुडिपउत्तं तेवि भणंति-तुमं न याणामो, जोऽवि दासीवग्गो सोऽवि नट्ठो, ताधे चिंतेतिअहो अहं अधन्नो, ताधे चिंतेति-पव्वयामि, पव्वइतो। थोवं पढित्ता हिंडति तेन खंडेण हत्थगयेण कोउहल्लेणं, जइ पेच्छिज्जामि, विहरंतो उत्तरमधुरंगतो । ताणिऽवि रयणाणि ससुरकुलं गताणि, ते य कलसा, ताहे सो मजति, उत्तर माथुरो वाणिओ उवगिजंतो जाव ते आगया कलसा, ताहे सो तेहिं चेव पमज्जितो, ताहे भोयणवेलाए वट्टमाणी वीयणयं गहाय अच्छति, ताहे सो साधु तं भोणयभंडं पेच्छति, सत्थवाहेण भिक्खा णीणाविता, गहितेवि अच्छति, ताहे पुच्छइ-किं भगवं ! एवं चेडिं पलोएह, ताहे सो भणति-ण मम चेडीए पयोयणं, एयं भोयणभंडं पलोएमि, ततो पुच्छति-कतो एतस्स तुज्झ आगमो ?, सो भणति-अज्जयपज्जयागतं, तेन भणितं-सब्भावं साह, तेन भणियं-मम हायंतस्स एवं चेवण्हाणविही उवट्ठिता, एवं सव्वाणिऽवि जेमणभोयणविही सिरिघराणिऽवि भरिताणि, णिक्खित्ताणि दिट्ठाणि, अदिट्ठपुव्वा य धारिया आणेत्ता देंति, साहू भणति-रूयं मम आसी, किह ?, ताहे कहेति-हाणादि, जइ न पत्तियसि ततो नेन तं भोयणवत्तीखंडं ढोइतं, चडत्ति लग्गं, पिउणो य नामं साहति, ताहे नातं जहा एस सो जामातुओ, ताहे उढेऊण अवसायित्ता परुण्णो भणति- एयं सव्वं तदवत्थं अच्छत, एसा ते पुव्वदिन्ना चेडी पडिच्छसुत्ति, सो भणति-पुरिसो वा दुव्वं कामभोगे विप्पजहति, कामभोगा वा पुव्वं पुरिसं विप्पहयंति, ताहे सोऽवि संवेगमावण्णो ममंपि एमेव विप्पयहिस्संतित्ति पव्वइतो। तत्थेगेण विप्पयोगेण लद्धं, एगेण संयोगेण सामाइयं लद्धति । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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