Book Title: Agam Suttani Satikam Part 24 Aavashyaka
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 358
________________ अध्ययनं-१ - [नि.९१८] ३५५ भणइ-बहुं सुणेइ कन्नेहिं सिलोगो । वीमंसाए चंदगुत्तो राया चाणक्केण भणिओ-पारत्तियंपि किंपि करेजासि, सुसीसो य किर सो आसि, अंतेउरे धम्मकहणं, उवसग्गिजंति, अन्नतित्थिया य विनट्ठा, निच्छूढा य, साहू सद्दाविया भणंति-जइ राया अच्छइ तो कहेमो, अइगओ राया ओसरिओ, अंतेउरिया उवसग्गेति, हयाओ, सिरिघरदिटुंतं कहेइ । कुसीलपडि-सेवणाए ईसालू य भज्जाओ चत्तारि रायसंणायं, तेन घोसाविय-सत्तवइपरिक्खित्तं घरं न लहइ कोइ पवेसं, साहू अयाणंतो वियाले वसहिनिमित्तं अइयओ, सो य पवेसियल्लओ, तत्थ पढमे जामे पढमा आगया भणइ-पडिच्छ, साहू कच्छां बंधिऊण आसणं च कुम्मबंधं काऊण अहोमुहो ठिओ चीरवेढेणं, न सक्किओ, किसित्ता गया, पुच्छंति-केरिसो ?, सा भणइ-एरिसो नत्यि अन्नो मनूसो, एवं चत्तारिवि जामे जामे किसिऊण मयाओ, पच्छा एगओ मिलियाओ साहंति, उवसंताओ सड्डीओ जायाओ। तेरिच्छा चउव्विहा-मा पओसा आहारहेउं अवच्चलयण सारक्खणया, भएण सुणगाई डसेजा, पओसे चंडकोसिओ मक्कदाडी वा, आहारहेउं सीहाइ, अवच्चलेणसारक्खणहेउं काकिमाइ । आत्मना क्रियन्त इति आत्मसंवेदनीया, जहा उद्देसे चेतिए पाहुडियाए, ते चउविहा-घट्टणया पवडणया थंभणया लेसणया, घट्टणया अच्छिमि रयो पविट्ठो चमढिउं दुक्खिउमारद्धं अहवा सयं चेव अच्छिमि गलए वा किंचि सालुगाइ उट्ठियं घट्टइ, पवडणया न य पयत्तेणं चंकमइ, तत्य दुक्खाविजइ, थंभणया नाम ताव बइठ्ठो अच्छिओ जाव सुत्तो थद्धो जाओ, अहवा हनुयाजंतमाई, लेसणया पायं आउंटित्ता अच्छिओ जाव तत्थ व तत्थ वाएण लइओ, अहवा नटें सिक्खमित्ति अइणामिं किंचि अंगं तत्थेव लग्गं, अहवा आयसंवेयणिया वाइया पित्तिया संभ्यिा संनिवाइया एए दव्वोवसग्गा, भावओ उवउत्तस्स एए चेव, उक्तं च "दिव्या मानुसगा चेव, तेरिच्छा य वियाहिया । आयसंवेयणीया य, उवसग्गा चउव्विहा ।।१।। हासप्पओसवीमंसा, पुढोवेमाय दिव्विया । मानुस्सा हासमाईंया, कुसीलपडिसेवणा ॥२॥ तेरिच्छिगा भया दोसा, आहारट्ठा तहेव य । अवच्चलेणसंरकखणट्ठाए ते वियाहिया ॥३॥ घट्टणा पवडणा चेव, थंभणा लेसणा तहा। आयसंवेयणीया उ, उवसग्गा चउविहा ॥४॥" इत्याद्यवं पसङ्गेन, एतन्नामयन्तो नमोऽर्हाइति व्याख्यातमयं गाथार्थः ।। साम्प्रतं प्राकृतशैल्याऽर्हच्छब्दनिरुक्तसम्भवं निदर्शयन्नाहनि. (९१९) इंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे । एए अरिणो हंता अरिहंता तेन वुच्चंति ।। वृ- इन्द्रियादयः पूर्ववत्, वेदना त्रिविधा-शारीरी मानसी उभयरूपा च, ‘एए अरिणो हंता' इत्यत्र प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात् 'सुपां सुपी' त्यादिलक्षणतः एतेषामरीणाां हन्तारः यतोऽरिहन्तारः 'तेनोच्यन्ते' तेनाभिधीयन्ते, अरीणां हन्तारोऽरिहन्तार इति निरुक्तिः स्यात्, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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