Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 4
________________ आशीर्वचन 'अनाश्रया न शोभन्ते, पण्डिता वनिता लताः'-संस्कृत साहित्य की प्राचीन मान्यता है कि पंडित, वनिता और लता ये सब निराश्रित होकर शोभित नहीं होते। ये आश्रय के सहारे बढ़ते हैं, विकसित होते हैं। लताएं मौन हैं, अतः उनके लिए आज भी वह सत्य बदला नहीं है। वनिताएं स्वाश्रय होने को उत्सुक हैं और विश्व के कई अंचलों में हो चुकी हैं, आज पंडित भी पराश्रित नहीं हैं। स्वाश्रित और पराश्रित ये सापेक्ष अभिव्यक्तियां हैं। परंपरागत आश्रय से मुक्त होने का अर्थ है पराश्रित न होना और नए आश्रय को स्वेच्छया स्वीकृत करने का अर्थ है स्वाश्रित होना। कोई भी स्वाश्रित ऐसा नहीं हैं जो पराश्रित न हो और कोई भी पराश्रित ऐसा नहीं है जो स्वाश्रित न हो। आचार्यश्री तुलसी ने आगम-दोहन के कार्य में अनेक साधु-साध्वियों को व्यापृत और निष्णात किया है। उनका जीवन आगमाश्रित हो गया है। वे आगम के आश्रय के बिना शोभित नहीं होते। उनमें एक मुनि दुलहराजजी हैं। वे प्रारंभ से ही इस आगम-दोहन के कार्य में प्रवृत्त हैं। उन्होंने इसी कार्य से शक्ति अर्जित की है और इसी कार्य में उनका उपयोग किया है। शक्ति का अर्जन और उपयोग, फिर शक्ति का अर्जन और उपयोग यह क्रम चलता रहता है। पूज्यपाद ने लिखा है यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि ।। यथा यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि । तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।। जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व उपलब्ध होता है वैसे-वैसे विषयों के प्रति अनासक्ति

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