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उत्तराध्ययन सूत्र
भल (मैलापन) परिपह, (१६) सत्कार पुरस्कार (मानापमान) परिपह, (२०) प्रना (वुद्धि संवन्धी) परिपह, (२१) अज्ञान परिपह, (२२) अदर्शन परिपह। (१) हे जम्बू ! परिपहों के जिस विभाग का भगवान काश्यप
ने वर्णन किया है, वह मैं तुम्हें क्रम से कहता हूँ। तुम
उसे ध्यान से सुनो। (२) अत्यंत उग्र भूख से शरीर के पीड़ित होने पर भी आत्म
शक्तिधारी तपस्वी भिक्षु किसी भी वनस्पति सरीखी वस्तु को स्वयं न तोड़े और न (दूसरों से ) तुड़वावे; स्वयं न पकावे और न दूसरों से पकवावे ।
टिप्पणी-जैन दर्शन में सूक्ष्माति सूक्ष्म हिंसा का विचार किया गया
है। इसलिये जैन भिक्षु को चित्त (जीवरहित) और वह भी अन्य के निमित्त तैयार किये गये और प्रसन्नता पूर्वक दिये गये माहार ग्रहण करने का विधान किया गया है । इसके बड़े ही कड़े नियम हैं इसीलिये यहां टल्लेख किया गया है कि कैसी भी कड़ी भूख क्यों न लगी हो फिर भी भिक्षु किसी भी वनस्पति कायजीव की भी हिंसा न
करे और न दूसरों से करावे । (३) धमनी की तरह श्वासोच्छ्रास क्यों न चलने लगे, (भोजन
न मिलने से भले ही शरीर की नसें दिखाई देने लगें), शरीर सूख कर कांटा क्यों न हो जाय, और शरीर के सभी अंग कौए की टांग जैसे पतले क्यों न हो जाय फिर भी अन्नपान में नियम पूर्वक वर्तनेवाला साधु प्रसन्नचित्त से गमन करे।