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परिषह
(नय के बाद दूसरा अध्ययन परिपहों का पाता है।
परिपह अर्थात अनेक प्रकार से (शारीरिक कष्ट) सहन करना-इसका नाम परिपह है। इन अनेक प्रकारों में से यहां कवल २२. (वाईस)का वर्णन किया है। तपश्चर्या तथा परिपही में यह अन्तर है कि उपवासादि तपश्चर्या में भूख, प्यास, टंडी, गसी श्रादि कष्ट स्वेच्छा से सहे जाते हैं किंतु भोजन की इच्छा होने पर भी अथवा थाली में भोजन रहने पर भी किसी श्राकस्मिक कारण से वह न मिले अथवा खाया न सा सके, फिर भी मन में विकार न लाकर अथवा प्रतिकार माय न लाते हुए मममावपूर्वक उस कष्ट को सहन करना उलको परियह (परिपालय) कहते हैं । इस अध्ययन में, यद्यपि संयमी को लक्ष्य करके वर्णन किया गया है किन्तु गृहस्थ साधक को भी ऐसे यनेक प्रसंगों का सामना करना पड़ता है। सहनशीलता के विना संयम नहीं हो सकता, संयम के बिना न्याग नहीं, त्याग के बिना प्रात्मविकाश नहीं और जहां प्रात्मविकास नहीं है यहां मानयजीवन के अंतिम उद्देश्य की सिद्धि भी नहीं है।