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इषुकारीय
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. गया वैभव राजा को लेते देखकर राजमहिषी कमलावती
(राजा के प्रति ) पुनः २ यों कहने लगी:(३८) हे राजन् ! जो पुरुष किसी के उल्टी किये हुए भोजन को
खाता है उसे कोई अच्छा नहीं कहता। वैसे ही इस
ब्राह्मण द्वारा उगला हुआ धन श्राप ग्रहण करना चाहते । हो यह किसी भी प्रकार योग्य नहीं है। (३९).हे राजन् ! यदि कोई तुम को सारा जगत या जगत का
सारा धन दे दे तो भी वह आपके लिये पूर्ण न होगा (तृष्णा का पार कभी आता ही नहीं ) तथा हे राजन् !
और यह धन आपको कभी भी शरण रूप नहीं होगा। 14४०) हे राजन् जब कभी इन सब मनोहर कामभोगों को छोड़
कर श्राप मृत्यु पश होंगे उस समय यह सब आपको शरण रूप न होगा। हे राजन् ! उस समय तो श्रापका कमाया हुआ धर्म ही आपको शरणभूत होगा। इसके
सिवाय दूसरा कुछ भी (धनादि) काम न आयगा । 'टिप्पणी-रानी के ये वचन उनके गहरे हृदयवैराग्य के द्योतक हैं।
महाराजा ने परीक्षा के लिये पूछा-यदि इतना समझती हो तो । भय भी गृहस्थाश्रम में क्यों रहती हो?" (४१) जैसे पिंजड़े में पक्षिणी आनन्द नहीं पा सकती वैसे ही - (राज्यसुख से परिपूर्ण इस अन्तःपुर में ) मुझे आनन्द
नहीं मिलता है । इसलिये मैं स्नेह रूपी तन्तु को तोड़कर
जथा. प्रारंभ ( सूक्ष्म हिंसादि क्रिया) और परिप्रह भिलपह वृत्ति) के दोष से निवृत्त, अकिंचन, निरासक्त
सुनका संहार में गमन करूंगी।