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________________ इषुकारीय १४३ . गया वैभव राजा को लेते देखकर राजमहिषी कमलावती (राजा के प्रति ) पुनः २ यों कहने लगी:(३८) हे राजन् ! जो पुरुष किसी के उल्टी किये हुए भोजन को खाता है उसे कोई अच्छा नहीं कहता। वैसे ही इस ब्राह्मण द्वारा उगला हुआ धन श्राप ग्रहण करना चाहते । हो यह किसी भी प्रकार योग्य नहीं है। (३९).हे राजन् ! यदि कोई तुम को सारा जगत या जगत का सारा धन दे दे तो भी वह आपके लिये पूर्ण न होगा (तृष्णा का पार कभी आता ही नहीं ) तथा हे राजन् ! और यह धन आपको कभी भी शरण रूप नहीं होगा। 14४०) हे राजन् जब कभी इन सब मनोहर कामभोगों को छोड़ कर श्राप मृत्यु पश होंगे उस समय यह सब आपको शरण रूप न होगा। हे राजन् ! उस समय तो श्रापका कमाया हुआ धर्म ही आपको शरणभूत होगा। इसके सिवाय दूसरा कुछ भी (धनादि) काम न आयगा । 'टिप्पणी-रानी के ये वचन उनके गहरे हृदयवैराग्य के द्योतक हैं। महाराजा ने परीक्षा के लिये पूछा-यदि इतना समझती हो तो । भय भी गृहस्थाश्रम में क्यों रहती हो?" (४१) जैसे पिंजड़े में पक्षिणी आनन्द नहीं पा सकती वैसे ही - (राज्यसुख से परिपूर्ण इस अन्तःपुर में ) मुझे आनन्द नहीं मिलता है । इसलिये मैं स्नेह रूपी तन्तु को तोड़कर जथा. प्रारंभ ( सूक्ष्म हिंसादि क्रिया) और परिप्रह भिलपह वृत्ति) के दोष से निवृत्त, अकिंचन, निरासक्त सुनका संहार में गमन करूंगी।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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