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उत्तराध्ययन सूत्र
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(४२) जैसे जंगल में दावाग्नि लगने से और उसमें वन जन्तुओं
को जलते देखकर दूर के प्राणी रागद्वेष वश क्षणिक श्रानन्द प्राप्त करते हैं (कि हम तो बचे हैं) परन्तु उन,
भोले प्राणियों को यह खबर नहीं कि कुछ ही देर में . हमारी भी यही दशा होने वाली है। (४३) इसी तरह कामभोगों में आसक्त बने हुए हम राग तथा
द्वेष रूपी- अग्नि से जलते हुए मारे जगत को मूढ़ की
तरह जान नही सकते हैं। (अर्थात् रागद्वेषरूपी अमि , सभी को भक्षण करती चली आ रही है तो वह, हमें भी
भक्षण कर जायगी) (४४) जिस तरह अप्रतिबंध पक्षी आनन्द के साथ स्वच्छन्द,
आकाश में विचरता है वैसे ही हमें भी भोगे हुए भोगों
को स्वेच्छा से छोड़कर तथा आनन्द के साथ संयम . धारण कर, गाम नगर आदि सभी स्थानों में निराबाध
विचरना चाहिये । (४५) हमें प्राप्त हुए ये कामभोग कभी स्थिर नहीं रहनेवाले हैं
(कभी न कभी ये हमें छोड़ देंगे) तो फिर हम ही
इन चारों ब्राह्मणों की तरह इन्हें क्यों न छोड़ दें ? ' (४६) जैसे गिद्ध को मांस सहित देखकर अन्य पक्षी उससे छीन
लेने के लिये उसको त्रास देते हैं, किन्तु मांस रहिन पक्षी को कोई त्रास नहीं देता वैसे ही परिग्रह रूपी मां को
छोदकर में निरामिप (निरासक्त) होकर विचलंगी. (४७) ऊपर कही हुई गिद्ध की उपमा को बराबर प र
और कामभोग सगे बढ़ाने पर जोकर