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चरणविधि
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क्रियाएं थोड़ी देर के लिये बंद करने में समर्थ भी हों तो भी अपनी आन्तरिक क्रियात्मक प्रवृत्तियां तो चालू ही रहती हैं—वे तो होती ही रहती हैं, इसीलिये भगवान महावीर ने क्रिया को बंद करने का उपदेश न देकर, क्रिया करते हुए भी उपयोग को शुद्ध तथा स्थिर रखने का उपदेश दिया है। शुद्ध उपयोग ही आत्मलक्ष्य है और आत्मलक्षता की प्राप्ति होगई तो फिर क्रिया सम्बन्धिनी कलुषितता आसानी से ही दूर हो जाती है ।
भगवान बोले
(१) जीवात्मा को केवल सुख देनेवाली और जिसका आचरण करके अनेक जीव इस भवसागर को तैर कर पार हुए ऐसी चारित्रविधि का उपदेश करता हूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
(२) ( मुमुक्षु को चाहिये कि ) वह एक तरफ से निवृत्त हो और दूसरे मार्ग में प्रवृत्त हो (अर्थात् असंयम तथा प्रमत्त योग से निवृत्त हो तथा संयम एवं अप्रमत्त योग में प्रवृत्त हो )
(३) पापकर्म में प्रवृत्ति करानेवाले केवल दो पाप हैं- एक राग और दूसरा द्वेष । जो साधक भिक्षु इन दोनों को रोकता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता ।
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(४) तीन दण्ड, तीन गर्व, और तीन शल्यों को जो भिक्षु छोड़ देता है वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता ।
टिप्पणी-तीन दण्ड ये हैं-मनदण्ड, वचनदण्ड, और कायदण्ड ।' तीन गव के नाम ये हैं-ऋद्धिगवं, रसगर्व, सातागर्व । तीन शब्दों के नाम ये हैं- मायाशल्य, निदानशल्य, और मिथ्यात्वशल्य ।