Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Saubhagyachandra

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Page 530
________________ ४४६ उत्तराध्ययन सूत्र wwnnnwww V ~ ~~ . .. (२१२) (४) मध्यम त्रिक के नीचे स्थान के देव, (५) मध्यम त्रिक के मध्यम स्थान के देव, और (६) मध्यम त्रिक के ऊपरी स्थान के देव । (२१३) (७) ऊपर त्रिक के नीचे स्थान के देव, (८) ऊपर की त्रिक के मध्यम स्थान के देव, और (९) ऊपर की त्रिक के ऊपर स्थान के देव-वेयक के देवों के ये ९ भेद कहे हैं। और ( १ ) विजय, (२) वैजयंत, (३) जयंत और (४) अपराजित । (२१४) और (५) सर्वार्थसिद्धि-ये पांच अनुत्तर विमान हैं। इनमें रहनेवाले वैमानिक देव इस प्रकार से ५ प्रकार (२१५) ये सब देवलोक के अमुक भाग में ही अवस्थित हैं सर्वत्र व्याप्त नहीं हैं। अब मैं उनका कालविभाग चार प्रकार से कहूँगा। (२१६) प्रवाह की अपेक्षा से तो ये सब देव अनादि अनन्त है किन्तु श्रायुष्य की अपेक्षा से सादि-सांत हैं। (२१७) भवनवासी देवों की आयुस्थिति कम से कम दस हजार वों की और उत्कृष्ट स्थिति एक सागर से कुछ अधिक कही है। (२१८) व्यंतर देवों की प्रायस्थिति कम से कम दस हजार वर्षों की तथा अधिक से अधिक एक पल्य की है। १२१९) ज्योतिष्क देवोंकी यायस्थिति नघन्य एक पल्य के पाठवें भाग की तथा स्कृष्ट श्रायु एक लाख वर्प सहित एक पल्य की है।

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