Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Saubhagyachandra

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Page 533
________________ ४४९ जीवाजीवविभक्ति (२४२) पांचवें सर्वार्थसिद्धि नामक महाविमान में सब देवों को आयुस्थिति पूरे ३३ सागर की है। इससे अधिक या कम नही है । (२४३) देवों की जितनी जघन्य अथवा उत्कृष्ट आयुस्थिति है उतनी ही उनकी कायस्थिति सर्वज्ञ भगवान ने कहीं है । टिप्पणी- देवगति की आयुष्य पूर्ण होते ही दुसरा भव देवगति में नहीं होता । देव होने के बाद अन्य गांत में जाना पड़ता है। (२४४) देव अपनी काया छोड़कर उस काया को फिर पावें इस अन्तराल का प्रमाण कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त का अथवा उत्कृष्ट अनंतकाल तक का है । · (२४५) उनके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा संस्थान की अपेक्षा से हजारों भेद हैं । (२४६) इस तरह रूपी तथा अरूपी - इन दो प्रकार के अजीवों, तथा संसारी एवं सिद्ध इन दो प्रकार के जीवों का वर्णन किया । (२४७) मुनि को उचित है कि यह जीव एवं अजीव संबंधी विभाग को ज्ञानी पुरुष के द्वारा बराबर समझे-समझकर उस पर दृढ़ प्रतीति लावे और सर्व प्रकार के नय निक्षेप ( विचारों के वर्गीकरण ) द्वारा बराबर घटाकर ज्ञानदर्शन की प्राप्ति करे और आदर्श चारित्र में लीन हो । (२४८) इसके बाद बहुत वर्षों तक शुद्ध चारित्र को पालन कर निम्नलिखित क्रम से अपनी आत्मा का दमन करे । (२४९) (जिस तपश्चर्या द्वारा पूर्वकमों तथा कषायों का क्षय होता है ऐसी दीर्घ तपश्चर्या की रीति बताते हैं ) २९

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