Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Saubhagyachandra
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जीवाजीवविभक्ति
टिप्पणी-नरक एवं देवगति की पूर्ण आयुष्य भोग लेने के बाद अन्त.
राल सिवाय दूसरे ही भव में उस गति की प्राप्ति नहीं होती इसी
लिये इन दोनों की आयुस्थिति तथा कायस्थिति समान कही है। (१६८) नारकी जीव अपने शरीर को छोड़ कर उसीको फिर
धारण करे इसके अन्तराल का जघन्य प्रमाण अंतर्मुहूर्त
एवं उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तकाल तक का है। (१६९) इन नरक के जीवों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और संस्थान
की अपेक्षा से हजारों भेद होते हैं। • (१७०) तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव, दो प्रकार के कहे हैं:-(१) संमू
छिम पंचेन्द्रिय और (२) गर्भज पंचेन्द्रिय । (१७१) इन दोनो के दूसरे ३-३ भेद हैं:- (१) जलचर, (२)
स्थलचर, और (३) खेचर (आकाश में उड़नेवाला)। अब क्रम से इन सबके भेदः कहता हूँ-उन्हे तुम ध्यान
पूर्वक सुनो। (१७२) जलचर जीवों के ये ५ भेद हैं:-(१) मछली, (२) कछा
(३) ग्राह, (४) मगर, और (५) सुसुमार ( मगरमच्छ
आदि)। (१७३) ये समस्त जीव समस्त लोक में नहीं किन्तु उसके अमुक . भाग में ही स्थित हैं। अब उनके कालविभाग को चार
प्रकार से कहता हूँ। (१७४) प्रवाह की अपेक्षा से ये सब जीव अनादि एवं अनन्त
हैं किन्तु आयुष्य की अपेक्षा से ये सादि-सान्त हैं । 1 ) जलचर पंचेन्द्रिय जीवों की आयु कम से कम अन्तमहत
की और अधिक से अधिक एक पूर्व कोटी की कही है।

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