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२८६
उत्तराध्ययन सूत्र
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(३६) इस प्रकार संशय का समाधान होने पर वह विजयघोप
ब्राह्मण उन पवित्र वचनामतों को अपने हृदय में उतार
कर फिर जयघोष मुनिको संबोधन कर(३७) तथा सन्तुष्ट हुआ विजयघोष हाथ जोड़कर इस तरह
कहने लगा-हे भगवन् ! आपने सच्चा ब्राह्मणत्व अाज
मुझे समझाया! (३८) सचमुच आप ही यज्ञों के याजक (यज्ञ करनेवाले) हैं।
आप ही वेदों के सच्चे नाता है; आप ही ज्योतिष शास्त्रादि अंगों के जानकार विद्वान् हैं और आप ही धर्मों के
पारगामी हैं। (३९) आपही स्व-पर आत्माओं के उद्धार करने में समर्थ हैं;
इसलिये हे भिक्षुत्तम ! भिक्षाग्रहण करने की आप मुझ
पर कृपा करें। (४०)[साधु जयघोप ने उत्तर दियाः- हे द्विज ! मुझे तेरी
भिक्षा से कुछ मतलब नहीं है । तू शीघ्र ही संयममार्ग को श्राराधना कर । जन्म, जरा, मृत्यु, रोग आदि संकटों द्वारा घिरे हुए इस संसारसागर में अव तू अधिक गोते न खा।
(४१) कामभोगों से कमवन्धन होता है और उससे यह आत्मा
मलीन होती है। भोगरहित जीवात्मा शुद्ध होने से कर्मों से लिप्त नहीं होता है । भोगी श्रात्माएं ही इस संसारचक्र में परिभ्रमण करती रहती है और भोगमुक्त आत्माएं संसार को पार कर जाती है।