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चित्तसंभूतीय
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सुख बताता है और त्याग में दुःख नहीं है किन्तु सच्चा सुख है यह सिद्ध कर देता है।
त्याग यह तो परम पुरुषार्थ का फल है। त्याग ,की शरण में बलवान पुरुप ही पा सकते है। सिंहनी का दूध जैसे सुवर्ण पात्र में ही ठहरता है वैसे ही त्याग भी सिंहवृत्ति वाले पुरुष में ही ठहरता है। सभी जीव आत्म प्रकाश से भेट करने में लालायित रहते है। थोड़ा बहुत पुरुषार्थ भी करते है। अपार दु ख भी उठाते हैं फिर भी वासमा की गुत्थी मे फंसे हुए प्राणी का पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है और (तेली की घाणी) का बैल जिस तरह तमाम दिन चक्कर लगाते हुए भी जहाँ का तहां ही रहता है वैसे ही विचारे संसारी जीवों का आसक्ति के सामने कुछ वश नहीं चलता। इस आसक्ति रोग का नाश चित्त शुद्धि से ही हो सकता है। और ऐसे ही अन्तःकरण मे वैराग्य भावना सहज ही जागृत होती है। (१) चांडाल के जन्म में ( कर्मप्रकोप से) अपमानित होकर
संभूति मुनीश्वर ने हस्तिनापुर में (सनत्कुमारचक्रवर्ती की समृद्धि देखकर ) नियाण (ऐसी ही समृद्धि मुझे भी मिले तो क्या ही अच्छा हो-इस वासना में अपना तप बेच डाला) किया और उससे पद्मगुल नाम के विमान से चयकर (दूसरे भवमें) चुलनी राणी के उदर में ब्रह्मदत्त
के रूप में जन्म लेना पड़ा। पणी-ऊपर के वृत्तांत में सविस्तर कथा दी है इसलिये उसे यहाँ
र लिखने की आवश्यकता नहीं है। पद्मगुल विमान में प्रथम वर्ग तक दोनों भाई साथ २ थे। इसके बाद ही संभूति जुदा हो
इसका कारण यह कि उसने नियाण किया था । नियाण