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चित्तसंभूतीय
हम जैसे ( श्रासक्त
( श्रासक्ति) के कारण हैं परन्तु हे श्रार्य ! दुर्बलों द्वारा उनका जीतना महा कठिन है । पुरुषों से काम भोग छूटना बड़ी कठिन बात है | ) - (२८) हे चित्त मुनि ! ( इसीलिये ) हस्तिनापुर में महासमृद्धिवान् सनत्कुमार चक्रवर्ती को देखकर मैं काम भोगों में आसक्त होगया और अशुभ नियाण ( थोड़े के लिये अधिक का त्याग ) कर डाला ।
(२९) वह नियाण (निदान ) करने के बाद भी ( और तुम्हारे उपदेश देने पर भी ) आसक्ति दूर न की, उसी का यह फल मिला है । अब धर्म को जानते हुए भी कामभोगों की आसक्ति मुझ से नहीं छूटती ।
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टिप्पणी-वासना जगने पर भी यदि गम्भीर चिन्तन द्वारा उसका निवारण किया जाय तो पतन न होने पावे ।
(३०) जल पीने के लिये गया हुआ ( बहुत प्यासा ) किन्तु दलदल में फँसा हुआ हाथी ( जैसे ) किनारे को देखते हुए भी उसे नहीं पा सकता ( वैसे ही ) काम भोगों में आसक्त हुआ मैं ( काम भोग के दुष्ट परिणामों को मार्ग का अनुसरण नहीं
जानते हुए भी) त्याग
कर सकता ।
(३१) प्रति क्षण काल ( आयुष्य ) बीत रहा है और रात्रियां जल्दी २ बीतती जारही हैं । ( जीवन क्षय हो रहा है ) । मनुष्यों के ये भोगविलास भी सदा काल ( स्थिर ) रहने वाले नहीं हैं । जैसे नीरस वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं; श्री, ये कामभोग भी कभी न कभी इस पुरुष को भी