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उत्तराध्ययन सूत्र
शीवता और अधिक सरलता से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। वास्तविक रीति से तो जैन दर्शन में त्याग ही मुक्ति का अनुपम साधन माना गया है फिर भले वह साधु नीवन में हो और चाहे वह गृहस्थ जीवन में हो।
देवों के निवास स्थान कैसे होते हैं ? (२६) देवों के स्थान अत्यंत उत्तम, अत्यंत प्राकपंक, अनुक्रम
से उत्तरोत्तर अधिक दिव्य कांतिमान्, यशस्वी होते हैं और वहां उच्च प्रकार के देव निवास करते हैं ।
वहां विराजमान देव कैसे होते हैं ? (२७) वहां के निवासी देव दीर्घ आयुष्यवान , अत्यन्त समृद्धि
मान् , काम-रूप (इच्छानुसार रूप धारण करने वाले ) दिव्य ऋद्धिमान, सूर्य के समान कान्तिमान् , और मानों अभी हाल ही पैदा हुए हैं ऐसे सुकुमार दैदीप्यमान्
होते हैं। (२८) जो संसार की आसक्ति (ममत्व) से निवृत्त होकर
संयम तथा तपश्चर्या का सेवन करता है वह चाहे साधु हो या गृहस्थ हो इन (उपरोक्त) स्थानों में अवश्य
जाता है। _(२९) सच्चे पूजनीय, ब्रह्मचारी (जितेन्द्रिय) और संयमियों
का (वृत्तान्त) सुनकर शीलवान् तथा वहु सूत्री (शाख का यथार्थ नाता) साधक मरणांत काल में दुःख नहीं
पाता है। (३०) प्रज्ञावान् पुरुप दया धर्म और क्षमा द्वारा (वाल तथा
पंहित मरणों का) तोल करके उसमें विशेष ध्यान देकर