________________
७४
उत्तराध्ययन सूत्र
(४२) (गृहस्थाश्रम कठिन है, इसीलिये) इस कठिन आश्रम को
छोड़ कर तू दूसरे आश्रम (सन्यस्थाश्रम) की इच्छा करता मालूम होता है। हे मनुष्यों के पालक महाराज ! यहा
ही (गृहस्थावस्था में ही) पौषध के अनुरागी वनो।। टिप्पणी-गृहस्थावस्था में भी धर्म नियमों का पालन कहां नहीं होता ?
इसलिये गृहस्थाश्रम में रह कर पौपध (उपवास करके केवल आत्मचिंतन में रात्रिदिवस व्यतीत करना) क्रिया में दत्तचित्त बनो ।
सन्यस्थाश्रम ग्रहण करने की क्या जरूरत है ? (१३) इस अर्थ को सुन कर, हेतु तथा कारण से प्रेरित नमिरा
जर्पि ने देवेन्द्र को यह उत्तर दिया :(४४) वाल (मुख) जन यदि एक एक महीने में केवल कुश के.
अग्र भाग (अत्यंत थोड़ा) जितना भोजन ग्रहण करे तो उनका यह उग्र तप (त्याग) सच्चे धर्मी के त्याग का १६
वां भाग के वरावर भी नहीं है (कुछ भी नहीं है)। टिप्पणी-जिसमें त्यागाश्रम की योग्यता न हो उसी को गृहस्थाश्रम • धर्म ग्रहण करने की आज्ञा है। परन्तु सच्चे त्याग के भागे
- गृहस्थाश्रम का त्याग अत्यन्त न्यून (नहीं के बरावर) है। इस ___ यात की सत्यता को हम अपने अनुभव से भी देखते हैं। (४५) इस तत्व को सुनकर, हेतु तथा कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने
, नमिराजर्पि को पुनः यों कहाः(४६) हे क्षत्रिय ! सोना, चांदी, मणि, मुक्ता, कांसा, वस्त्र,
सवारियाँ, भंडार आदि वढ़ाकर फिर जाओ। (४७) इस अर्थ को सुनकर, हेतु तथा कारण से प्रेरित नमि
राजर्षि ने देवेन्द्र को यह उत्तर दियाः-: