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बृहत्कल्पभाष्यम्
सूत्रकार और भाष्यकार
बृहत्कल्पभाष्य के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कल्प और व्यवहारसूत्र के बारे में प्रश्न उपस्थित किए हैं कि सूत्रकार, नियुक्तिकार और भाष्यकार कौन-कौन हैं ? इस प्रश्नत्रयी के समाधान में स्वयं टीकाकार ने लिखा है-चौदह पूर्वो में नौवां पूर्व प्रत्याख्यानपूर्व है। उसकी तीसरी आचार-वस्तु के बीसवें प्राभृत से इनका निप॑हण किया गया है। इस प्राभृत में साधु के मूलगुण और उत्तरगुण में प्रमाद होने पर उसकी विशुद्धि के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण आदि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। समय के प्रभाव से धृति, बल, वीर्य, बुद्धि, आयुष्य आदि का ह्रास होने से पूर्वो का अध्ययन दुर्बोध हो गया। उस स्थिति में प्रायश्चित्तविधि का विच्छेद न हो, इस दृष्टि से साधुओं पर अनुग्रह करके चतुर्दशपूर्वी भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र का नि!हण किया और दोनों सूत्रों पर सूत्रस्पर्शिका नियुक्तियों की रचना की।
नियुक्ति होने पर भी सूत्रों की शाब्दिक संरचना अर्थ की विशदता को देखते हुए अत्यधिक संक्षिप्त है। इधर दुःषमा काल के प्रभाव से मेधा, आयुष्य आदि गुणों में आने वाली न्यूनता के कारण ऐदंयुगीन लोगों के लिए वे दुर्बोध ही रहे। उनको समझना और धारणकर रखना कठिन हो गया। उन सूत्रों को सरलता से समझने और धारण करने के लिए भाष्यकार ने भाष्य का निर्माण किया।'
आचार्य मलयगिरि ने भाष्यकार का उल्लेख अवश्य किया है, पर किसी नामांकित भाष्यकार को प्रस्तुत नहीं किया। यहां प्रश्न उठ सकता है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? संभव है, भाष्यकार के बारे में प्राचीन आचार्यों में मतैक्य नहीं रहा हो। इस विषय की विस्तृत चर्चा मुनिश्री दुलहराजजी और समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने उनके द्वारा संपादित व्यवहारभाष्य के आमुख–'व्यवहारभाष्य : एक अनुशीलन' में की है। उन्होंने मुनि पुण्यविजयजी को उद्धृत करते हुए संघदासगणी को भाष्यकार स्वीकार किया है। इस मत की पुष्टि के लिए उनके द्वारा आचार्य क्षेमकीर्ति को भी उद्धृत किया गया है। संघदासगणी का अस्तित्व-काल विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी माना गया है।
भाष्य और उनका परिमाण
आगम के व्याख्या साहित्य में नियुक्ति के बाद भाष्य का स्थान है। नियुक्ति दस ग्रंथों पर लिखी गई। नियुक्तियों की भांति भाष्य भी दस ग्रंथों पर लिखे गए हैं आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति। "
दस भाष्यों में बृहत्कल्प, निशीथ और व्यवहारसूत्र पर बृहत्काय भाष्य मिलते हैं। जीतकल्प, पंचकल्प और आवश्यक (विशेषावश्यक भाष्य) पर मध्यम, ओघनियुक्ति पर अल्प तथा दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिंडनियुक्ति पर अत्यल्प परिमाण में भाष्य लिखे गए हैं। इन भाष्यों की गाथा संख्या इस प्रकार है१. बृहत्कल्पभाष्य-६४९०
५. पंचकल्पभाष्य-२६६६ २. निशीथभाष्य-६७०३
६. जीतकल्पभाष्य २६०६ ३. व्यवहारभाष्य-४६९४
७. ओघनियुक्तिभाष्य-३२२ ४. आवश्यकभाष्य
८. दशवैकालिकभाष्य-६३ • विशेषावश्यक भाष्य-३६०३ ९. उत्तराध्ययनभाष्य-३४ • मूलभाष्य-२५३
१०. पिंडनियुक्तिभाष्य-३७ प्रायः भाष्य मूलसूत्रों पर लिखे गए हैं। किन्तु दो भाष्य नियुक्ति पर लिखे गए हैं-पिंडनियुक्ति भाष्य और ओघनियुक्ति भाष्य। डॉ. मोहनलाल मेहता ने ओघनियुक्ति पर दो भाष्यों का उल्लेख किया है, पर वर्तमान में दूसरा बृहद्भाष्य अप्रकाशित है।
१. बृभा. वृ. पृ. २।
२. व्यभा. भूमिका पृ. ४३,४४।
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