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अनुयोग / व्याख्या की विधि
श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए आचायों ने अनुयोग / व्याख्या की व्यवस्था की है। अनुयोग की विधि का निरूपण करते हुए भाष्यकार ने लिखा है
पहली परिपाटी में सूत्र का कथन करना चाहिए। दूसरी परिपाटी में नियुक्तिमिश्रित सूत्र का कथन करना चाहिए । तीसरी परिपाटी में सम्पूर्ण अनुयोग का कथन करना चाहिए।' इस क्रम में पद, पदार्थ, चालना, प्रत्यवस्थान से विस्तृत कथन करना चाहिए। अनुयोग की यह विधि ग्रहण धारणा समर्थ शिष्यों के लिए है। मन्दमति शिष्यों के लिए अनुयोग की विधि यह है
१. शिष्य गुरु की वाचना को मौन होकर सुने ।
२. दूसरी बार शिष्य गुरु की वाचना को हुंकार देकर सुने, वन्दना करे।
३. तीसरी बार शिष्य गुरु की बाचना सुनकर बाढकार करे यह ऐसा ही है, इस रूप में प्रशंसा करे।
४. चौथी बार प्रतिपृच्छा करे भंते! यह कैसे होता है? इस प्रकार प्रश्न करे।
५. पांचवीं बार विमर्श करे प्रमाण की जिज्ञासा करे।
६. छठी बार में शिष्य उपदिष्ट विषय का पारायण कर लेता है।
७. सातवीं बार में परिनिष्ठा को प्राप्त हो जाता है-गुरु की भांति व्याख्या करने में समर्थ हो जाता है।" सूत्र और अर्थ का पौर्वापर्य
अनुयोग क्या होता है? और कब होता है? इस विषय में भाष्यकार का मन्तव्य यह है-अनु के साथ योग शब्द जुड़ने से अनुयोग शब्द बनता है। अनु का अर्थ है - पश्चात्भूत। अणु के साथ योग शब्द जुड़ने से अणुयोग शब्द निष्पन्न होता है। अणु का अर्थ है थोड़ा इस शब्द संयोजना के अनुसार जो पश्चात्कृत है, अल्प है, वह सूत्र है। सूत्र की रचना बाद में होती है तथा वह संक्षिप्त होती है, इसलिए उसे अणु / अनु कहा जाता है। अर्थ का कथन पहले होता है तथा वह विपुल / विस्तृत होता है, इसलिए अनणु/ अननु कहलाता है।
आचार्य द्वारा अनुयोग की मीमांसा सुनकर शिष्य ने जिज्ञासा की पहले सूत्र होता है और प्रकाश / अर्थ उसके बाद होता है। लौकिक लोग भी यही चाहते हैं। सूत्र पेटी के सदृश होता है जैसे पेटी में अनेक वस्त्रों का समावेश होता है, वैसे ही सूत्र में अनेक अर्थपदों का समावेश होता है। लौकिक लोगों का अभिमत निम्नलिखित श्लोक से ज्ञात होता है
बृहत्कल्पभाष्यम्
पूर्व सूत्रं ततो वृत्तिर्वृत्तेरपि च सूत्रवार्तिकयोर्मध्ये ततो भाष्यं
पहले सूत्र होता है फिर सूत्र की वृत्ति होती है । वृत्ति के बाद वार्तिक होता है। सूत्र और वार्तिक के मध्य में अपेक्षानुसार भाष्य का निर्माण किया जाता है।
१. बृभा. गा. २०९ ।
२. बृभा. गा. २१० वृ. पृ. ६७ ।
वार्तिकम् । प्रवर्तते ॥ *
शिष्य का तर्क यह है कि पेटी का उदाहरण सूत्र के संक्षिप्त होने को प्रमाणित नहीं करता, क्योंकि पेटी बड़ी होती है तभी उसमें अधिक वस्त्र समाते हैं। इससे पेटास्थानीय सूत्र में बहुत अर्थपदों का समावेश घटित हो जाता है। इस आधार पर पहले सूत्र और बाद में अर्थ की संगति बैठती है । "
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शिष्य के तर्क को निरस्त करने के लिए भाष्यकार ने कहा- अर्हत् अर्थ का कथन करते हैं । उसी को गणधर सूत्ररूप में ग्रथित करते हैं। अर्थ के बिना सूत्र कैसे हो सकता है? यदि होता भी है तो वह असंबद्ध होता है लौकिक शास्ता भी पहले अर्थ देखकर ही सूत्र की रचना करते हैं, क्योंकि अर्थ के बिना सूत्र की निष्पत्ति ही संभव नहीं है।
३. बृभा. वृ. पृ. ६२ ।
४. बृभा. वृ. पृ. ६२।
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