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बृहत्कल्पभाष्यम्
हमने संपूर्ण टेक्स्ट पुण्यविजयजी द्वारा संपादित ग्रंथ के अनुसार लिया है। कहीं-कहीं मूल पाठ और टीका में संवादिता नहीं है, फिर भी हमने मूल पाठ के साथ छेड़छाड़ नहीं की है। हमने पूर्वानुपर का अनुसंधान कर अनुवाद को आगे बढ़ाया है। छेदसूत्र का महत्त्व क्यों?
शिष्य ने प्रश्न किया कि मूल आगमों के होते हुए छेदसूत्रों का क्या महत्त्व है? आचार्य कहते हैं-अंग, उपांग आदि मूलसूत्र हैं। वे मार्गदर्शक और प्रेरक हैं। परन्तु यदि साधु संयम में स्खलना करता है और वह अपनी स्खलना की शुद्धि करना चाहता है तो वे मूल आगम उसको दिशा-निर्देश नहीं दे सकते। दिशा-निर्देश
और स्खलना की विशुद्धि छेदसूत्रों द्वारा ही हो सकती है। वे प्रायश्चित्तसूत्र हैं और प्रत्येक स्खलना की विशोधि के लिए साधक को प्रायश्चित्त देकर स्खलना का परिमार्जन और विशोधि कर साधक को शुद्ध कर देते हैं, इसीलिए उनका महत्त्व है।
व्यवहारभाष्य का कथन है कि छेदसूत्रों के पाठ का ज्ञाता भी बहुत बलशाली और महत्त्वपूर्ण होता है और अर्थ का विज्ञाता शेष आगमों के विज्ञाता से भी श्रेष्ठ होता है, कारण है कि वही प्रायश्चित्त देने का अधिकारी होता है। उसके अभाव में साधक भटक जाता है और संघ से विमुख होकर संयमच्युत हो जाता है। इससे तीर्थविच्छेद की स्थिति आ जाती है। भाष्यों की वाचना के विषय में कहा जाता है कि हर किसी को, हर किसी वेला में इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। ये रहस्य सूत्र हैं। सामान्य आगमों से इनकी विषयवस्तु भिन्न है। इनमें उत्सर्ग और अपवाद-विषयक अनेक स्थल हैं। हर कोई उन स्थलों को पढ़कर या सुनकर पचा नहीं सकता
और तब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन से विमुख होकर स्वयं भ्रांत होकर, अनेक व्यक्तियों को भ्रांत कर देता है, इसीलिए इनकी वाचना के विषय में पात्र-अपात्र का निर्णय करना बहुत आवश्यक हो जाता है। गृहस्थों को तो इनकी वाचना देनी ही नहीं है, साधुओं में सभी साधु इनकी वाचना देने योग्य नहीं होते।
छेदसूत्रों की वाचना के योग्य शिष्य
निर्ग्रन्थ प्रवचन में शिष्य तीन प्रकार के माने गए हैं-परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक। जो परिणामक शिष्य हैं वे ही इनकी वाचना के योग्य होते हैं। शेष दो प्रकार के शिष्य अयोग्य माने जाते हैं, क्योंकि इन सूत्रों के रहस्यों को पचा पाना बहुत कठिन होता है। उसके लिए धैर्य, विचारों की गंभीरता और शालीनता चाहिए। हर एक शिष्य अपवादों को देखकर विचलित हो जाता है। उसमें निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अन्यमनस्कता आ जाती है, मन संशयों से भर जाता है।
__ जो मुनि द्रव्यकृत, क्षेत्रकृत, कालकृत और भावकृत को जिनेश्वर ने जैसे कहा है, उस पर वैसी श्रद्धा रखता है, वह परिणामक है और जो उन पर वैसी श्रद्धा नहीं रखता वह अपरिणामक है। जो वस्तु जिस रूप में जिस काल में ग्राह्य-रूप में कथित है, उसे आपवादिक रूप में ग्रहण करने की मति वाला शिष्य अतिपरिणामक होता है। इस विषय को भाष्यकार ने एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया है।
एक आचार्य ने अपने तीन शिष्यों को बुलाया। उनमें एक था परिणामक, एक अपरिणामक और एक अतिपरिणामक। आचार्य उनकी परीक्षा करना चाहते थे। आचार्य ने कहा-'आर्यो! हमें आम चाहिए।' यह सुनकर परिणामक शिष्य बोला-'आम चेतन या अचेतन, भावित या अभावित, छोटे या बड़े, छिन्न या अछिन्न, कौन से आम लाऊं?' ___अपरिणामक शिष्य बोला-'आचार्यप्रवर! क्या आपके पित्त का प्रकोप हो गया है? आप आम लाने की बात कैसे कह रहे हैं? दूसरी बार ऐसा मत कहना। हम ऐसे सावध वचन सुनना नहीं चाहते।'
अतिपरिणामक शिष्य बोला-'आप आम खाना चाहते हैं। आम का काल बीत चुका है। फिर भी मैं प्रयत्न कर आम ला दूंगा। क्या आपके लिए दूसरे फल भी ले आऊं?'
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