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बृहत्कल्पभाष्यम्
प्रश्न होता है जब निर्ग्रन्थी को वस्त्र-याचना की अनुज्ञा नहीं है तो फिर उनके वस्त्र की पूर्ति कैसे होती थी? जब साध्वियां भिक्षा के लिए घर-घर जा सकती हैं तो वस्त्र की भिक्षा के लिए क्यों नहीं जा सकती? उन्हें वस्त्र मिलता भी है, परन्तु परंपरा के अनुसार उन्हें वस्त्र लेने की आज्ञा नहीं है। वे अपनी आवश्यकता आचार्य को बताती हैं और आचार्य उनकी उस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। आचार्य उन्हें पूछते हैं-वर्षाकल्प और अन्तरकल्प आदि में से आपके पास कौनसी उपधि नहीं है? वह उपधि पहले से आचार्य के पास हो तो वह साध्वियों को दे और यदि न हो तो लब्धिसंपन्न मुनियों को इस कार्य में व्याप्त कर कहे-'आर्यो! संयतियों के प्रायोग्य वस्त्र की गवेषणा करो।' वे जाते हैं और वस्त्रों को ग्रहण कर आचार्य को समर्पित कर देते हैं। वे वस्त्र परिभुक्त या सुगंधमय हों तो उनका कल्प करे, धोए और फिर उनको अपने पास रखें। अर्थात् उन वस्त्रों का प्रक्षालन कर, सात दिन तक पास में रखें। यदि उनमें कोई दोष या विकृति न लगे तो गणधर उन वस्त्रों को लेकर जाए और प्रवर्तिनी को दे दे। प्रवर्तिनी उन वस्त्रों को, जिन-जिन आर्याओं को आवश्यक हों उनको दे।
कुछेक मुनि वस्त्र-आभिग्राहिक होते हैं। वे स्वयं आचार्य के समक्ष आकर कहते हैं-'हम वस्त्रों की गवेषणा करेंगे।' आचार्य की आज्ञा प्राप्त कर वे जाते हैं, वस्त्र लाकर आचार्य को समर्पित कर देते हैं।
जो वस्त्र सुगंधमय हों, अपरिभुक्त हों, फिर भी उनको प्रक्षालित कर, सात दिन तक रखकर, स्थविर मुनि उनको पहन-ओढ़कर परीक्षा करते हैं। यदि उनमें कोई अभियोग-विकार न हो तो उसे गणधर गणिनी-प्रवर्तिनी को दे देते हैं। यदि गणधर स्वयं आर्याओं को देते हैं तो वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
वस्त्र-ग्रहण इनकी निश्रा में करे-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणधर। इन सबके अभाव में प्रवर्तिनी स्वयं जाकर लाए। यदि आचार्य आदि अन्यान्य मुनि गण-कार्यों में व्याप्त हों तो स्थविरा आर्यिका प्रवर्तिनी की निश्रा में वस्त्र याचित करे, किन्तु तरुण साध्वियों के लिए वस्त्र-ग्रहण का सर्वथा निषेध है। यदि तरुण साध्वियों को उनके ज्ञातिजन वस्त्र-ग्रहण के लिए निमंत्रित करे, तो भी वे स्वयं जाकर वस्त्र न लाएं। प्रवर्तिनी स्वयं वहां जाकर वस्त्र लाए। यदि कोई न हो तो सामान्य साधु की या गृहस्थ की भी निश्रा ली जा सकती है। यदि प्रवर्तिनी न हो तो अभिषेका, गणावच्छेदिनी की निश्रा ली जा सकती है। यदि इनका भी अभाव हो तो साध्वियां परस्पर एक-दूसरे की निश्रा में वस्त्र ग्रहण कर सकती हैं।
यदि एकाकी साध्वी कहीं स्थित है और उसे कोई गृहस्थ वस्त्र के लिए निमंत्रित करे तो उसे कहे-मेरा शय्यातर या ज्ञाति वस्त्र के लक्षण जानते हैं, अतः उनके द्वारा परीक्षित यह वस्त्र मैं ले सकूँगी। तब वह प्रान्त वस्त्रदाता अपने दंभ के प्रगट होने के भय से दूसरे वस्त्र लाकर सामने रखता है। वह कहता है-पहले वाला वस्त्र अन्य साध्वी को दे दिया आदि। ऐसे व्यक्ति का वस्त्र नहीं लेना चाहिए। प्रश्न होता है कि मैथुन के लिए वस्त्र देने वाले को कैसे पहचाना जाए? भाष्यकार कहते हैं
'वेवहु चला य दिट्ठी, अण्णोण्णनिरिक्खियं खलति वाया।
देण्णं मुहवेवण्णं, ण याणुरागो य कारीणं॥' - उनके सामान्यतया ये लक्षण होते हैं-उनका शरीर प्रकंपित होता है, दृष्टि चल होती है। वह परस्पर दृष्टि मिलाने का प्रयत्न करता है। उसकी वाणी स्खलित होती है। मुख पर दीनता और वैवर्ण्य परिलक्षित होता है तथा उसका अनुराग हृष्टपुष्ट लक्षण वाला नहीं होता।
(२) मुनियों के शव का मुनियों द्वारा परिष्ठापन
भाष्यकाल तक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के कालगत होने पर शव के दाहसंस्कार की विधि नहीं थी। शव का स्थंडिलभूमी में परिष्ठापन किया जाता था। इसलिए जिस गांव या नगर में साधु-साध्वी जाते, वहां सबसे पहले स्थंडिलभूमी और शव-वहनकाष्ठ की गवेषणा करते, उसकी प्रत्युपेक्षा करते, जिससे अचानक मृत्यु हो जाने पर भी कोई कठिनाई नहीं होती थी।
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