________________
बृहत्कल्पभाष्यम्
सूत्र में सर्वप्रथम 'नो' शब्द को अमांगलिक मानकर उसके प्रयोग को लेकर उठाए गए प्रश्न को यौक्तिक-विधि से समाहित किया गया है। निर्ग्रन्थ शब्द की मीमांसा में बाह्य ग्रंथ और आभ्यन्तर ग्रंथ-ये दो भेद किए गए हैं। बाह्य ग्रंथ को समझाने के लिए उसके दस प्रकार बताए हैं। आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकारों का उल्लेख हुआ है। इस प्रसंग में सैद्धांतिक दृष्टि से भी कुछ विवेचन किया गया है। प्रस्तुत विवेचन भाष्यकार की सैद्धांतिक अवधारणाओं को भी उजागर करता है।'
आम शब्द की व्याख्या में भी भाष्यकार ने अनेक दृष्टियों का उपयोग किया है। सामान्यतः 'आम' शब्द का अर्थ होता है-अपरिपक्व/सचित्त। किसी भी निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी के द्वारा साधु जीवन स्वीकार करते समय सब प्रकार की
प्रवृत्तियों का तीन करण और तीन योग से त्याग किया जाता है। सचित्त फल का स्पर्श, ग्रहण और भक्षण पापकारी प्रवृत्ति है। इस आधार पर हर अपरिपक्व फल साधु के लिए अग्राह्य और अभक्ष्य होता है। ऐसी स्थिति में अपरिपक्व तालप्रलंब फल के ग्रहण का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि शैक्ष साधुओं को विस्तार या स्पष्टता से समझाने के लिए इस सूत्र की रचना की गई है।
यहां प्रश्न यह है कि सूत्र में सब प्रकार के आम फलों का निषेध होता तो वह बुद्धिगम्य हो जाता। किन्तु केवल प्रलंब फल का ही निषेध क्यों ? भाष्यकार ने अपनी ओर से यह प्रश्न तो उपस्थित नहीं किया। पर निक्षेप-पद्धति से 'आम' शब्द की व्याख्या के प्रसंग में भाव आम का अर्थ किया है-उद्गम, उत्पादन और एषणा दोष को भाव आम समझना चाहिए। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक आदि जीवों का उपमर्दन रूप असंयम भी भावतः आम विधि है। क्योंकि इससे चारित्र अपक्व होता है। उक्त प्रश्न के समाधान हेतु सूत्रकार और भाष्यकार की विवक्षा को समझना आवश्यक है। प्रलंब और भिन्न शब्दों को भी निक्षेप-पद्धति से समझाया गया है।
प्रलम्ब-ग्रहण की स्थिति के अनेक विकल्पों का निरूपण करके भाष्यकार ने उनका अलग-अलग प्रायश्चित्त भी बताया है। प्रायश्चित्त का आधार है-संयम-विराधना और आत्म-विराधना। ये दोनों प्रकार की विराधना कैसे होती है और कितनी विराधना होने पर क्या प्रायश्चित्त होता है, यह भी निर्दिष्ट किया गया है। प्रायश्चित्त की प्रस्तुत विधि का निर्देश किसी परम्परा के आधार पर किया गया है अथवा भाष्यकार ने अपनी मति से निर्धारण किया है, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। मासकल्प विहार की विधि
प्रथम उद्देशक के पांच सूत्रों में तालप्रलंब फल की ग्रहण विषयक विधि, निषेध और प्रायश्चित्त का विधान है। छठे सूत्र में ग्राम, नगर आदि में साधुओं के प्रवास-काल का विधान है। भाष्यकार ने नय और निक्षेपविधि से ग्राम शब्द का विशद विवेचन किया है। भावग्राम के निरूपण में उन्होंने तीर्थंकर, जिन (केवली), चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, असम्पूर्ण दशपूर्वधर, संविग्न, असंविग्न, सारूपिक, अणुव्रतधारी श्रावक, दर्शनश्रावक और सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत प्रतिमा का ग्रहण किया है। यह पूरा प्रसंग ग्राम शब्द को विविध दृष्टिकोणों से समझने में सहायक बनता है।"
सूत्र में समागत मास शब्द को भी निक्षेपविधि से समझाया गया है। मासकल्प विहार की विधि में भी एकरूपता नहीं है। जिनकल्पिक, शुद्ध परिहारिक, अहालंदक, गच्छवासी-स्थिरकल्पिक तथा आर्यिकाओं के लिए मासकल्प की विधि अलग-अलग बताई गई है। प्रस्तुत संदर्भ में जिनकल्पिक साधु की प्रव्रज्या, शिक्षा आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। शिक्षा के प्रसंग में भाष्यकार ने उदाहरणों के माध्यम से शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता पर बल दिया है। आगमों के अध्ययन और स्वाध्याय में रुचिवर्धन की दृष्टि से यह प्रकरण बहुत उपयोगी है।६ आगम-अध्ययन का महत्त्व
भाष्य गाथा ११४४-११४६ में शिष्य ने ज्ञान के प्रति उदासीनता प्रकट करते हुए जिज्ञासा की-'गुरुदेव मैं १. बृभा. वृ. पृ. २५७-७०।
४. बृभा. गा. १०९४-१११९ वृ. पृ. ३४३-३५०। २. बृभा. वृ. पृ. २७०-२७२।
५.बृभा.गा.११२६। ३. बृभा. गा. ८६१-८८९ ३. पृ. २७५-२८३।
६. बृभा. गा. १९३१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org