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भूमिका
साधुओं से रिक्त नहीं होता। रत्नाकर-समुद्र से अनेक प्रकार के रत्न निकालने पर भी उसको रत्नरहित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह रत्नों का उत्पादक है। इसी प्रकार गच्छ रूपी रत्नाकर भी रत्न सदृश जिनकल्पिकों के विनिर्गत होने पर रत्नरहित नहीं हो जाता, क्योंकि वह बाद में भी दूसरे मुनियों को रत्नभूत बनाता रहता है।' विहार क्षेत्र की सीमा
बृहत्कल्प के प्रथम उद्देशक का अंतिम सूत्र आर्य और अनार्य क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण करने वाला है। मूलसूत्र में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-चारों दिशाओं में समनुज्ञात क्षेत्रों का उल्लेख है। पूर्व दिशा में अंग एवं मगध, दक्षिण दिशा में कौशाम्बी, पश्चिम दिशा में स्थूणा जनपद और उत्तर दिशा में कुणाला जनपद तक की सीमा निश्चित करके सूत्र में निर्दिष्ट किया गया है कि आर्यक्षेत्र इतना ही है, इसलिए इस सीमा से बाहर साधु-साध्वियों के लिए विहार करना विहित नहीं है। सूत्रकार का यह वचन भी सापेक्ष है, क्योंकि सूत्र का अन्तिम अंश बताता है कि इससे आगे भी विहार किया जा सकता है, पर आधार एक ही है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विकास। यदि विकास की संभावना हो तो निर्धारित सीमा से आगे भी यात्रा की जा सकती है।
उक्त सूत्र के महत्त्व को अभिव्यक्ति देते हुए भाष्यकार ने लिखा है-जो आचार्य प्रस्तुत प्रथम उद्देशक का अंतिम सूत्र नहीं जानता अथवा सारा कल्प अध्ययन नहीं जानता, उसके लिए भाष्यकार ने निम्ननिर्दिष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है-चतुःशाला वाले घर के मध्यभाग में अथवा उसके प्रवेश और निर्गमन के स्थान पर दीपक जलाकर रख दिया जाता है तो वह दीपक सम्पूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है। उपाश्रय, शय्यातरपिण्ड और वस्त्र-रजोहरण
बहत्कल्पसूत्र के द्वितीय उद्देशक में साधु-साध्वियों के प्रवास की दृष्टि से उपयुक्त और अनुपयुक्त उपाश्रय का विवेचन किया गया है। प्रथम बारह सूत्रों में उपाश्रय का वर्णन है। भाष्यकार ने ३२९० से ३५१७ तक की गाथाओं में उपाश्रयपद की व्याख्या की है। प्रस्तुत उद्देशक में दूसरा प्रसंग सागारिक-शय्यातर का है। शय्यातर कौन होता है? कब होता है? उसका पिण्ड कितने प्रकार का है? वह अशय्यातर कब होता है? आदि अनेक प्रश्न उपस्थित कर भाष्यकार ने पूरे विस्तार के साथ इस प्रकरण को प्रस्तुत किया है। लगभग एक सौ गाथाओं में यह प्रकरण गुंफित है। इसी प्रकार निर्हत शय्यातरपिण्ड, आहृत शय्यातरपिण्ड, अंशिकापिण्ड और पूज्यभक्त के बारे में विवेचन है। साधु के लिए कल्पनीय वस्त्रों और रजोहरणों की संक्षिप्त चर्चा के साथ दूसरा उद्देशक समास होता है। उपाश्रय, वस्त्र आदि का विधान
तृतीय उद्देशक का प्रारंभ उपाश्रय के संबंध में विशेष निर्देश के साथ हुआ है। बिना कारण साधुओं को साध्वियों के उपाश्रय में तथा साध्वियों को साधुओं के उपाश्रय में जाने का निषेध किया है। अकारण उपाश्रय में जाने से संभावित दोषों की सूचना दी गई है। प्रस्तुत प्रसंग के बाद साधु-साध्वियों को वस्त्र कैसा लेना? कब लेना? किस क्रम से लेना आदि व्यवस्थाओं के बारे में विवरण दिया गया है। साधु-साध्वियों में परस्पर कतिकर्म-अभ्युत्थान और वन्दना की विधि इसी उद्देशक में वर्णित है। इसी प्रकार गृहान्तर में बैठना, शय्या-संस्तारक पुनः गृहस्थ को सौंपना आदि अनेक विषयों को विविध दृष्टियों से विश्लेषित किया गया है। सूत्रकार की संक्षिप्त सूचनाओं को भाष्यकार ने जिस रूप में प्रस्तुति दी है, उससे उस युग के साधु-साध्वियों की चर्या तथा सामान्य परम्पराओं का भी पूरा बोध हो सकता है। अनार्यदश बने विहारक्षेत्र
भाष्य में वर्णित राजाओं के कथानक भारतीय इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जानकारी देने वाले हैं। उदाहरण के रूप में सम्राट् सम्प्रति का प्रसंग यहां प्रस्तुत है-भाष्य के अनुसार राजा सम्प्रति सुविहित मुनियों का श्रावक हो गया। राजा ने एक बार सभी प्रात्यन्तिक-अनार्य देश के राजाओं को बुलाया और उनको विस्तार से धर्म-विषयक बात बताई।
३. बृभा. गा. ३२४४,३२४५।
१. बृभा. गा. २१२२-२१२४ विस्तार हेतु देखें वृ. पृ. ६०७-६०९। २. बृसू. १९४७
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