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उल्लेखनीय संघ रत्न
छह हजार चार सौ नब्बे (६४९०) गाथाओं में ग्रथित बृहत्कल्पभाष्य भाष्य परम्परा में एक उल्लेखनीय ग्रंथ है। बृहत्कल्पसूत्र पर भाष्य से पहले नियुक्ति लिखी गई थी। वर्तमान में नियुक्ति और भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ हो गए। टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस बात का उल्लेख करते हुए लिखा है- 'सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः । " इस उल्लेख से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि टीकाकार मलयगिरि के समय तक छेद सूत्रों की नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहा।
बृहत्कल्प भाष्य पीठिका सहित छह खण्डों में प्रकाशित है। प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, परम्परा आदि की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रंथ का अपना महत्व है। साध्वाचार के विधिनिषेधों के निरूपण क्रम में ग्रंथकार ने प्रासंगिक रूप में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, भौगोलिक, चिकित्साशास्त्रीय, आर्थिक, व्यावहारिक आदि विभिन्न परिस्थितियों का भी समीचीन अंकन किया है। भाष्यकार जैन मुनि थे। मुनिचर्या का पालन करते हुए उन्होंने अनेक जनपदों में परिव्रजन किया था और लोकजीवन का अध्ययन भी किया था, ऐसा प्रतीत होता है। उनके विशालकाय भाष्य को पढ़ने वाले सहज ही इस सचाई से परिचित हो सकते हैं।
जैन शासन की सेवा
ग्रंथ रचना अपने आप में एक साधना है जिस युग में मुद्रण व्यवस्था का विकास न हो, स्वाध्याय के लिए ग्रंथ सुलभ न हो और लेखन सामग्री का भी पर्याप्त विकास नहीं हुआ हो, उस युग में ऐसे विशालकाय ग्रंथ की रचना तो किसी भी प्रकार की विशिष्ट तपस्या से कम नहीं है। ऐसी तपस्या वे ही कर सकते हैं, जिनके ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम हो, मानसिक एकाग्रता सधी हुई हो, धृतिबल एवं मनोबल मजबूत हो ग्रंथ की रचना में कितना समय लगा, इसका कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत ग्रंथ को आदि से अन्त तक पढ़ने में भी कई वर्ष बीत जाते हैं। इस आधार पर कल्पना की जा सकती है कि ग्रंथकार ने कितने वर्षों के समय और श्रम का इसमें नियोजन किया होगा इस बात को गौरव के साथ स्वीकार किया जा सकता है कि उन मनीषी आचार्यों ने ऐसे ग्रंथ रत्नों का सृजन कर जैन शासन की महान् सेवा की है।
बृहत्कल्पभाष्यम
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अनुवाद : एक श्रमसाध्य कार्य
भाष्य की भाषा प्राकृत है। क्योंकि उस युग में प्राकृत भाषा जनभाषा थी। किन्तु इन शताब्दियों में प्राकृत भाषा के पाठक और अध्यापक खोजने पर भी कम मिलते हैं। आम आदमी के लिए तो प्राकृत भाषा विदेशी भाषा की भांति अपरिचित है। ऐसी स्थिति में उस भाषा में निबद्ध गंभीर ग्रंथों के स्वाध्याय का स्वप्न देखना भी कठिन है। स्वाध्याय के अभाव में ज्ञान की परम्परा विच्छिन्न होने की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। यह एक ऐसी समस्या है, जिसका सामना प्राचीन भाषा में रचित सभी धर्म ग्रंथों को करना पड़ रहा है। इस समस्या का एकमात्र समाधान है - युगीन भाषा (हिन्दी, अंग्रेजी आदि) में उनका अनुवाद |
१. बृभा. वृ. पृ. २।
किसी भी ग्रंथ का अनुवाद मूल ग्रंथ की रचना से अधिक श्रमसाध्य है। स्वतंत्र लेखन में लेखक की ऐसी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती, जिससे उसको दूसरों का अनुगमन करना पड़े। तीव्र अनुभूति और अन्तर को उघाड़ने की अकुलाहट का योग होने पर सृजन-चेतना जीवंत हो जाती है। उन क्षणों में लेखक / कवि अपनी कलम की नोक कागज पर टिकाता है तो वह अनिरुद्ध गति से चलती रहती है किन्तु भाषान्तर करते समय ग्रंथ की भाषा में ही नहीं, ग्रंथकार के भावों में भी अवगाहन करना जरूरी हो जाता है। बृहत्कल्पभाष्य जैसे बृहत्तम ग्रंथ का अनुवाद कार्य तो समय-साध्य और श्रमसाध्य ही नहीं, विशिष्ट मेधा-साध्य भी है, क्योंकि इसकी रचनाशैली संक्षिप्त होने के साथ विशिष्ट परम्पराओं, परिभाषाओं और सांकेतिक उदाहरणों से अनुस्यूत है।
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