Book Title: Agam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ . बृहत्कल्पभाष्यम् बल। इन पांचों भावनाओं का समीचीन रूप में प्रतिपादन करने के बाद भाष्यकार ने बताया है कि ये सारी भावनाएं धृति और बल से युक्त होती हैं। ऐसा कोई साध्य नहीं है, जो धृतिमान पुरुष सिद्ध न कर सके। वैयावृत्त्य/सेवा का महत्त्व मासकल्प विहार के प्रसंग में बीमार मुनि की वैयावृत्त्य का सांगोपांग विवेचन है। मुनियों के अनेक गच्छ होते थे। अपने या दूसरे गच्छ के किसी साधु की बीमारी के बारे में अवगति पाकर भी जो मुनि बीमार साधु के पास नहीं जाता, दूसरा रास्ता लेकर अन्यत्र चला जाता है, उस मुनि के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। बीमारी की सूचना मिलने पर क्या करना चाहिए? इस विषय में भाष्यकार का दिशादर्शन यह है जह भमर-महुयरिगणा, निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे। ___ इय होइ निवइअव्वं, गेलन्ने कइवयजढेणं॥ जिस प्रकार भ्रमर और मधुकरी समूह कुसुमित आम्रखण्ड में मकरंद के लोभ से आते हैं, वैसे ही मुनि भी निर्जरालाभ का आकांक्षी होकर मायारहित होकर ग्लान की परिचर्या के लिए तत्काल उसके पास पहुंचे। ग्लान की सेवा करने से मुझे महान् निर्जरा का लाभ मिलेगा, ऐसा सोचने वाला श्रद्धावान् होता है। वह ग्लान के विषय में सुनकर सारे कार्य छोड़कर त्वरित गति से उसके पास पहुंचे और वहां नियुक्त उपचारकों से निवेदन करे-'भंते ! मुझे निर्देश दें कि मैं क्या करूं? आप मुझे किस कार्य में नियुक्त करना चाहेंगे? मैं इसी प्रयोजन से यहां आया हूं। मैं ग्लान की परिचर्या करूंगा अथवा ग्लान की सेवा में व्याप्त मुनियों की वैयावृत्त्य करूंगा। इस प्रकार करने से तीर्थ की अनुवर्तना और भगवान् की भक्ति होती है।' स्थविरों द्वारा प्रतिबोध संघ में अनेक मुनि होते हैं। सबकी मनोवृत्ति समान नहीं होती। अप्रशस्त मनोवृत्ति वाला मुनि स्वयं को परिचर्या करने में अक्षम अनुभव करता है। अपनी अक्षमता को प्रकट करते हुए कोई मुनि कहे-'मैं सर्वथा वराक/अशक्त हूं। ऐसी स्थिति में वहां ग्लान-परिचर्या में जाकर क्या करूंगा?' इस प्रकार कथन करने वाले मुनि को प्रायश्चित्त का भागी माना गया है। उक्त प्रकार की दुर्बल या अप्रशस्त मनोवृत्ति वाले मुनि को स्थविर प्रतिबोध देते हैं। उनके प्रतिबोध की भाषा यह है-आर्य! तुम ऐसा क्यों कहते हो? क्या तुम ग्लान का उद्वर्तन करना, खेलमल्लक को भस्म से भरना, संस्तारक बिछाना, रात्रि में जागरण करना, औषध आदि पीसना, भोजन-पात्रों को धारण करना, ग्लान तथा उसके परिचारकों की उपधि का प्रतिलेखन करना आदि काम भी करने में असमर्थ हो? जिससे अपने आपको अशक्त बता रहे हो।" महर्द्धिक/महत्त्वपूर्ण कौन ? जिनकल्पिक की प्रव्रज्या, शिक्षा, साधना आदि की सहज और प्रासंगिक विशद चर्चा के उपसंहार से भाष्यकार ने शिष्य की एक जिज्ञासा को मुखर होने का मौका दिया है। शिष्य ने पूछा-'गच्छ और जिनकल्पिक मुनि के मध्य कौन महर्द्धिक होता है?' आचार्य ने कहा-निष्पादक और निष्पन्न की अपेक्षा दोनों महर्द्धिक हैं। गच्छ सूत्रार्थ का प्रदाता है। उसी के आधार पर जिनकल्प होता है। गच्छ जिनकल्प का निष्पादक होने के कारण महर्द्धिक है। जिनकल्प ज्ञान, दर्शन और चारित्र में परिनिष्ठित होता है, इसलिए वह महर्द्धिक है। गच्छ और जिनकल्पिक की सापेक्ष महत्ता को प्रमाणित करने के लिए भाष्यकार ने दो महिलाओं और दो गायों के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। प्रस्तुत विषय के उपसंहार में बताया गया है कि जिनकल्पिक गच्छ में ही तैयार होता है। विशिष्ट साधना के लिए वह आगे जाकर गच्छ निरपेक्ष हो जाता है, गच्छ से मुक्त हो जाता है। किन्तु गच्छ जिनकल्पिक १. बृभा. गा. १३२८-१३५७ वृ. पृ. ४०७-४१२। २. बृभा. गा. १८७३। ३. बृभा. गा. १८७७,१८७८। ४. बृभा. गा. १८८५। ५. बृभा. गा. १८८६ वृ. पृ. ५५१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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