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भूमिका
जिनशासन कालजयी शासन है। इसकी चिरजीविता का मौलिक और पुष्ट आधार है-आगम। आगम का अर्थ हैआप्तवचन। यथार्थ ज्ञाता और यथार्थ वक्ता आप्त कहलाता है। उसे आगम भी माना गया है। वक्ता और वचन के अभेदोपचार से आगमपुरुष के वचनों को भी आगम कहा गया है। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी और दसपूर्वी मुनि आगमपुरुष कहलाते हैं। किन्तु जिन आगमों के आधार पर जिनशासन आज भी अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखे हुए है, उनका संबंध तीर्थंकरों के साथ है। तीर्थंकरों द्वारा अर्थरूप में निरूपित तथा गणधरों एवं स्थविरों द्वारा गुंफित शास्त्र आगम की अभिधा को अलंकृत करते हैं।
आगम मुख्यतः दो भागों में विभक्त हैं-अंग और अंगबाह्य। अंग बारह हैं। उनमें ग्यारह अंग मूलरूप में या थोड़ेबहुत परिष्कृत व परिवर्तित रूप में आज भी प्राप्त हैं। बारहवें अंग दृष्टिवाद में चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञान-संपदा थी। वर्तमान में दृष्टिवाद प्राप्त नहीं है, पर उसके कतिपय अंश नियूंढ़रूप में उपलब्ध है। पूर्यों से नि!हण का काम कई समर्थ आचार्यों ने किया। इससे कुछ दुर्लभ परम्पराएं सुरक्षित रह गईं। अंगबाह्य आगमों में बारह उपांगों के नाम आते हैं। इनकी रचना कई स्थविर आचार्यों द्वारा की गई है।
आगम-वर्गीकरण का एक क्रम इस प्रकार है-अंग, उपांग, मूल और छेद। प्रस्तुत संदर्भ में विमर्श का विषय छेदसूत्र बनते हैं। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति और महानिशीथ।' अन्य जैन परम्पराओं में भी एकरूपता नहीं है। तेरापंथ धर्मसंघ की परम्परा में चार छेदसूत्र मान्य हैं-निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प और दशाश्रुतस्कन्ध।
जैन आगम ग्रंथों में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन ग्रंथों में साधु जीवन में करणीय कार्यों की विधि और अकरणीय कार्यों के लिए निषेध का प्रावधान है। इसके साथ प्रमाद के लिए प्रायश्चित्त का भी विधान है। व्यवहारभाष्य के अनुसार अर्थ की दृष्टि से पूर्वगत को छोड़कर अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र अधिक शक्तिशाली हैं। आगमों का व्याख्या साहित्य
मूल आगम के गंभीर अर्थ को समझने के लिए उस पर व्याख्या ग्रंथ लिखने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। जैन आगमों पर अनेक विधाओं और भाषाओं में व्याख्या ग्रंथ लिखे गए हैं, जैसे-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचूरि आदि। इनमें प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं का उपयोग किया गया है। कालान्तर में राजस्थानी, गुजराती
आदि प्रादेशिक भाषाओं में भी टब्बा, वार्तिक, जोड़ आदि के रूप में व्याख्याएं लिखी जाती रहीं। छेदसूत्रों पर भी अनेक व्याख्याएं लिखी जा चुकी हैं।
चार छेदसूत्रों में एक सूत्र का नाम 'बृहत्कल्प' है। नन्दीसूत्र में दी गई कालिकसूत्रों की सूची में कल्पसूत्र का उल्लेख मिलता है। कल्पसूत्र पर दो भाष्य लिखे गए बृहत् और लघु। उत्तरकाल में बृहत् शब्द कल्प का विशेषण बन गया। इस आधार पर सूत्र का नाम बृहत्कल्प हो गया। छेदसूत्र जैनाचार्यों की स्वतंत्र रचना नहीं है। ये नियूँढ ग्रंथ हैं। इनका नि!हण पूर्वो से किया गया है।
१. A History of cannonical Literature of Jains P. 446.
२. जम्हा तु होति सोधी, छेयसुयत्थेण खलितचरणस्स।
तम्हा छेयसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं॥ (व्यभा. १८२९)
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