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प्रस्तावना
पूर्वाचार्यों ने वीतराग वाणी रूपी 32 आगमों के तीन भेद किए हैं (1) आत्मागम, (2) अनन्तरागम, (3) परम्परागम। तीर्थंकर भगवंतों के लिए जो 'आत्मागम' है, वही गणधरों के लिए 'अनन्तरागम' है। गणधर भगवंतों ने अपनी प्रखर एवं निपुण बुद्धि से तीर्थंकरों द्वारा प्रारूपित अर्थ के आधार पर जिन सूत्रों की रचना की वह उनके लिए आत्मागम है जबकि गणधर शिष्यों के लिए अनन्तरागम है। गणधर शिष्यों के पश्चात् आगे की स्थविर शिष्य परम्परा के लिए ये अर्थ और सूत्र दोनों ही परम्परागम है । उत्तरोत्तर काल में इन 32 जैन आगमों की रचनाएँ दो प्रकार से हुई है (1) कृत, (2) निर्यूहण। जिन आगमों की रचना स्वतन्त्र रूप से हुई है, जैसे गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना तथा भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा उपांग साहित्य का निर्माण आदि ये सभी कृत आगम कहलाते हैं।
निर्यूहण आगम मुख्यतया छह हैं (1) दशवैकालिक, (2) आचार चूला, (3) निशीथ, (4) . दशाश्रुतस्कंध, (5) बृहत्कल्प, (6) व्यवहार । इनमें से चार छेद सूत्रों दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ का निर्यूहक श्रुतकेवली आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी को माना जाता है।
इन छेदसूत्रों में जैन श्रमण और श्रमणियों के जीवन से सम्बन्धित आचार विषयक नियमोपनियम का विशद् विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा नियम भंग हो जाने पर श्रमण- श्रमणियों द्वारा अनुसरणीय विविध प्रायश्चित्तों का विधान भी छेत्रसूत्रों में वर्णित है।
सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने श्रमणसंघ की सुदृढ़ आचार संहिता पर बल देते हुए खंडित व्रतों एवं प्रतिसेवित दोषों की शुद्धि हेतु प्रायश्चित्त संहिता का निर्माण किया है। उस समय भारतवर्ष में अनेक भिक्षुक संघ थे जिनमें अनेक प्रकार की अमर्यादित क्रियाएँ एवं कुप्रवृत्तियाँ प्रचलित
इन कुप्रवृत्तियों को श्रमणसंघ के श्रमण अथवा श्रमणी देखा-देखी न अपना लें, इस दृष्टि से श्रमण महावीर ने इन कुप्रवृत्तियों का निषेध किया। यदि किसी श्रमण या श्रमणी ने कदाचित इन कुप्रवृत्तियों को किसी कारणवश अपना लिया है तो उनके प्रायश्चित्त का विधान किया।
इस प्रकार इन चार छेदसूत्रों में विविध दृष्टियों से निषेध और प्रायश्चित्त विधियों का प्रतिपादन किया गया है। अत: चारित्र में किसी प्रकार की स्खलना होने पर, दोष लगने पर छेदसूत्रों के आधार पर
की शुद्धि होती है। ये छेदसूत्र गुप्त गोप्य ग्रन्थ हैं यानि उन्हें छिपाकर रखा जाता है। जिस प्रकार रहस्यमयी विद्या, मंत्र-तंत्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धि वाले व्यक्ति को नहीं बताई जाती उसी प्रकार ये छेदसूत्र अल्प सामर्थ्यवान साधक को नहीं दिए जाते। जो साधक पूर्ण पात्र और परिपक्व बुद्धि वाले होते हैं उन्हें ही छेदसूत्रों को पढ़ने के योग्य माना जाता है । छेदसूत्र के सभी सूत्र स्वतन्त्र हैं। इनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है।
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