Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 784
________________ अनगारधर्मामृतषिणी टी० श्रु. २ च. १ अ. १ कालीदेवीवर्णनम् ७६९ खलु श्रमणाय भगवते महावीराय यावत् सिद्विगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तुकामाय, चन्दे खलु भगवन्तं तत्थगयं ' तत्रगतं-जम्बूद्वीपे राजगृहनगरस्य गुणशिलको. द्याने समयसृतम् ' इहगया' इहगता-चमर चञ्चाराजधानी स्थिताऽहम् , पश्यतु मां भगवान् तत्रगत इहगतम् , 'त्ति कडु' इति कृत्वा इत्युक्त्या वन्दते नमस्यति, पन्दित्त्वा नमस्यित्वा सिंहासनबरे 'पुरत्याभिमुही 'पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिशाभिमुखी 'निसण्णा' निषण्णा-उपविष्टा । ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अयमेत. जाय संपाविउकामस्स बंदामि गं भगवंतं तत्थ गयं इह गया पासउ में भगवं तत्थ गए इह गयं तिकटु वंदइ नमसइ, यदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुही निसण्णा तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था) यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए अहंत भगवंतों के लिये मेरा नमस्कार हो । सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने की कामनायाले श्रमण भगवान महावीर को मैं नमस्कार करती हूँ। जंबूद्वीप में राजगृह नगर के गुणशिलक उद्यान में इस समय विराजमान उन भगवान को मैं इस चमर चंपा नाम की राजधानी में रही हुई नमस्कार कर रही हूँ। यहां पर रहे हुए वे प्रभु मुझे यहां पर रही हुई देखे। इस प्रकार कहकर उसने उनको वंदना की -नमस्कार कियो-वंदना नमस्कार करके फिर यह अपने उत्तम सिंहासन पर आकर पूर्व दिशाकी ओर मुंह करके बैठ गई। इसके बाद उस काली देवी के यह इस प्रकार का यावत् मनः संकल्प उत्पन्न हुआ(सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता जाय पज्जुयासित्तए त्ति तत्थ गए इह गयं त्ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुही निसण्णा-तएणं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे जााच समुप्पज्जित्था) યાવત્ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત થયેલા અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે. સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવાની કામનાવાળા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને હું નમસ્કાર કરું છું. જબૂ દ્વીપના રાજગૃહ નગરના ગુણશિલક ઉદ્યાનમાં અત્યારે વિરાજમાન તે ભગવાનને હું આ ચમચંચા નામની રાજ. ધાનીમાં રહેતી નમસ્કાર કરી રહી છું. ત્યાં વિરાજમાન તે પ્રભુ અહીં રહેતી મને જુએ. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કર્યા અને નમસ્કાર કર્યા. વંદન અને નમસ્કાર કરીને તે પિતાના ઉત્તમ સિંહાસન ઉપર આવીને પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને બેસી ગઈ. ત્યારપછી તે કાળી દેવીને આ જાતનો યાવત્ મનઃ સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે કે– श्री शताधर्म अथांग सूत्र : 03

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