Book Title: Shrutsagar 2014 11 Volume 01 06
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * श्रुतसागर शुar श्रुतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (MONTHLY) November 2014 Volume : 01, Issue : 06 Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/Editor : Hiren Kishorbhai Doshi श्री राणकपुर तीर्थमा बिराजित श्री नन्दीश्वरदीप तीर्थ पट्ट आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पू. आचार्यदेव श्री अमृतसागरसूरीश्वरजी म. सा. नी पुनित प्रेरणाथी पंचांगी ताडपत्रीय प्रतना समर्पण पर्व निमित्ते पीस्तालीस आगम पूजानी केटलीक विशिष्ट क्षणो For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रुतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-१, अंक-6, कुल अंक-6, नवम्बर-२०१४% Year-1, Issue-6, Total Issue-6, November-2014 वार्षिक सदस्यता शुल्क-रू. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/ अंक शुल्क - रू. १५/- * Issue per Copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. *संपादक हिरेन किशोरभाई दोशी एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ नवम्बर, २०१४, वि. सं. २०७१, कारतक वद-८ निआ बीर प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (०७९) २३२७६२०४, २०५, २५२ फेक्स : (०७९) २३२७६२४९ Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम १ संपादकीय हिरेन के. दोशी २ गुरुवाणी आचार्य पद्मसागरसूरि 3 Beyond Doubt Acharya Padmasagarsuri s ४ श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितजिनभवनपूजा मुनिश्री सुयश/सुजशचंद्रविजयजी ११ ५ योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरजी कृत 'आत्मदर्शन' अने 'आत्मतत्वदर्शन ग्रंथो विशे थोड्रंक कनुभाई ल. शाह ६ हस्तप्रत लेखन परंपरा से सम्बद्ध विद्वान परिचय संजयकुमार झा ७ समराइच्च कहा परिचय __पं. श्री धुरंधरविजयजी ८ सम्राट संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो हिरेन के. दोशी ९ पंचाचार्यपदप्रदानाष्टकम् संजयकुमार झा १० पुस्तक समीक्षा डॉ. हेमन्त कुमार ४७ प्राप्तिस्थान: आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर परिवार डाईनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org संपादकीय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिरेन के. दोशी श्रुतसागरनो छठ्ठो अंक तमारा हाथमां छे. विशेष अंकनी आ वर्षनी श्रेणिमां आ बीजो अंक प्रस्तुत छे. आम तो आ अंकने प्रकाशित करवानो समय व्यतीत थयो, पण थोडा दिवसो बाद एक विशिष्ट अवसर अमारा सहु माटे होई ए अवसर प्रसंगना आलंबने आ अंक प्रकाशित थई रह्यो छे. वात नाकोडा तीर्थमां उजवाता एक सोना जेवा अवसरनी छे. एक साथे पांच पांच श्रमण भगवंतो नमस्कार महामंत्रना तृतीय स्थाने बिराजमान थवाना छे. वीतरागस्तोत्रमां जे कलिकालनी हेमचंद्राचार्य प्रशंसा करे छे ए कलिकालने परमात्माना शासननी स्पर्शना कराववामां श्रमण भगवंतोनो बहु उदार फाळो छे. नमस्कार स्तोत्र पछी तरत ज पंचिंदिय सूत्रनी स्थापना द्वारा गुरु पदनी महत्ता अने आवश्यकता बतावी छे. गुरुतत्त्वनी महत्ता भारत के दुनियानी कोई पण संस्कृति माटे श्वासवायुना स्थाने रही छे. अने एमांय खास करीने भारतनी सांस्कृतिक परंपरामां गुरुतत्त्वनो महिमा जे रीते गवायो छे एवो प्रायः अन्य कोई संस्कृतिए के परंपराए गायो नथी. गुरुतत्त्वनी प्राप्ति माटे पश्चिम जेवा बाह्य सुख-समृद्धि प्रचुर देशना मानवने पण पूर्वनो आशरो लेवो पड्यो छे. आवा विशिष्ट गुरुतत्त्वनी उपासना अने आराधना करवानो अवसर आपणने सहुने सद्भाग्ये प्राप्त थयो छे. आपणे सहु ए अवसरने आदरपूर्वक वधावीए... आ अंकनी वातः गया अंकमा प्रकाशित वाक्संयम अंगे पूज्य गुरुदेवश्रीए आपेल प्रवचनने आ अंकमा एज प्रवचननो आगळनो भाग प्रकाशित कर्यो छे. तो साथे साथे वाचकोनी मांगणीने अनुसार पूज्य गुरुभगवंत श्रीए आपेल प्रवचनोने गुजराती अने अंग्रेजी भाषामां पण प्रकाशित करवानुं प्रारंभ कर्तुं छे. आ अंकमां आचार्य श्री रत्नशेखरसूरिजी कृत नन्दीश्वरद्वीप स्थित जिनभवनपूजा प्रकाशित करी छे. आखी पूजा संस्कृतमां छे. आवा विशिष्ट विषयोने आवरी लेती गीर्वाणभाषानी आ प्रकारनी कृति पूजा साहित्यमां एक नवी भात पाडे छे. श्रुतसागर पत्रिकाना माध्यमे आ कृति सौ प्रथम वार प्रकाशित थवा पामी रही छे. एनो अमने खूब आनंद छे. आ प्रकारनी विशिष्ट कृति पाठववा बदल पू. मुनिवर्य सुयश-सुजसचंद्रविजयजी म. सा. अगणित आभारना अधिकारी छे. श्री ज्ञानमंदिरमां संगृहीत माहितीओना आधारे नन्दीश्वर द्वीप संबंधी अन्य कृतिओनी सूचि अत्रे आपी छे, जे उपयोगी नीवडशे. नन्दीश्वर द्वीपनी प्रस्तावनामां नन्दीश्वर द्वीप संबंधी संक्षिप्त माहितीओ प्रकाशित करी छे. नन्दीश्वर द्वीप संबंधी वधु For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 जाणवा ईच्छुक वाचकोए बृहत्संग्रहणी, क्षेत्रसमास, जैन कॉस्मोलॉजी जेवा ग्रंथोनुं अवलोकन करवुं... 4 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कषायोनुं उपशमन करवा माटे आपणे त्यां कथा साहित्यमां श्रेष्ठ कही शकाय एवी अजोड कथा एटले समरादित्य... आ कथा मूळ तो प्राकृतमां छे. अने एना कर्ता पू. हरिभद्रसूरिजी महाराज एटले एमां वहेता रस अने कथाना आलेखनमां शुं बाकी रहे? अलबत् कथाना सर्व रसो अने एना परिपूर्णांग वाळी कथा कही शकाय. आ कथा उपर वर्तमानमां विविध भाषामां घणुं साहित्य उपलब्ध छे. ए उपलब्ध साहित्यमां पण एक नोखी भात पाडतुं श्री प्रियदर्शननी पोतीकी कलमे लखायेलुं समरादित्य आजे जैन अने जैनेतर समाजमां अत्यंत लोकप्रिय छे. ए संपूर्ण कथानुं हिन्दी रूपांतरण नवा साज सज्जा साथे श्री नाकोडातीर्थे सूरि सिंहासनारोहण महोत्सव प्रसंगे (भाग १-९नुं) विमोचन थई रह्युं छे. श्रुतसागरना वाचकोने समरादित्यनो परिचय थाय, जीवनमां सर्जाता कषायो, आवेगो, उकळाट, अने अशांति खरेखर आवी औषध जेवी कथाना वाचनथी उपशमे एज आशयथी जैन सत्यप्रकाशमांथी समराईच्च कहानो परिचय अत्रे साभार प्रकाशित कर्यो छे. आगामी दिवसोमां आ कथा ज्ञानमंदिरना वितरण स्थळेथी आप प्राप्त करी शकशो. योगनिष्ठ प. पू. आ. गुरुदेव श्री बुद्धिसागरसूरिश्वरजी म. सा. नुं आचार्यपदनुं शताब्दिवर्ष अत्यारे प्रवर्तमान छे त्यारे पू. बुद्धिसागरसूरिश्वरजी म. सा. ना साहित्य सर्जननी पाछळ छुपायेली एमनी आध्यात्मिक प्रतिभानो परिचय करावी आपतो लेख 'योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरसूरिजी कृत आत्मदर्शन अने आत्मतत्त्वदर्शन ग्रंथो विशे थोडुंक' अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. आम तो आवा सर्जक के एमना सर्जन विशे ज्यारे लखातुं होय छे, त्यारे एमना विशे वांचवा मळता अने लखाता शब्दो खरेखर ओछा पडता होय छे. एमना सर्जनने के सर्जकने मूलववा... अने एटले ज लेखमां 'थोडुंक' शब्द खास उमेर्यो छे. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरना प्रोग्राममां केवा केवा प्रकारनी माहितीओ अने केवी झीणवट राखवामां आवे छे. एनो वाचकोने परिचय थाय अने एना परिचय द्वारा वाचकोने आ प्रकारना स्वाध्याय माटे रुचि वधे ए हेतुसर आ प्रकारनी लेख श्रेणिमां गया अंकमां प्रकाशित 'हस्तप्रत लेखन परंपरा से सम्बद्ध विद्वान परिचय 'नो आगळनो भाग अत्रे प्रकाशित कर्यो छे. तो विशेषांकनी श्रेणिमां सम्राट संप्रति संग्रहालयना धातुविभागमा रहेला धातुबिंबोना लेखो अले प्रकाशित कर्या छे. तो साथे साथे दर अंकमा प्रकाशित थता पुस्तक परिचयमां आ वखते चिकागो प्रश्नोत्तरनो संक्षिप्त परिचय प्रकाशित करवामां आव्यो छे. साथे साथे पदारोहण प्रसंगने पामीने पंचाचार्यपदारोहण संबंधी एक अर्वाचीन कृति 'पंचाचार्यपदप्रदानाष्टकम्' अत्रे प्रकाशित कर्तुं छे. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आचार्य पद्मसागरसूरि ‘पादौ न तीर्थगतौ' 'इन पाँवों से कभी तीर्थ यात्रा इसने नहीं की। कभी सत्पुरुषों की सेवा में इन पाँवों का प्रयोग नहीं किया। कभी कोई धर्म प्रवचन में या धर्म यात्रा में ये पाँव नहीं गये। इसलिए इसे तू पूरा का पूरा ही छोड़ दे। भूखे मरना, तेरे लिए भले ही पुण्य न बने परन्तु इसका भक्षण करना, पाप अवश्य बन जाएगा।' कितना भयंकर दुरुपयोग हमने अपने पावों का किया है। न जाने दिन में गर्मी में कहाँ पाँव दौडे। पैसे के लिए उस भयंकर गर्मी में भी हम दौडते रहे। परन्तु परमात्मा के दर्शन के लिए या साधु सन्तों के दर्शन के लिए कभी अपने पुण्य पुरुषों की सेवा के लिए हमने आज तक पाँवों का प्रयोग नहीं किया तो फिर ये किस काम आए? हमने अपनी इन्द्रियों का आज तक उपयोग केवल पाप के आगमन के लिए किया है। इन्हें पाप का प्रवेशद्वार बना कर रखा है। पाप के उपार्जन में सारी इन्द्रियाँ माध्यम बन गईं : जबकि इसका उपयोग धर्म का साधन बनने के लिए थे। किन्तु यह उपयोग धर्म साधना के क्षेत्र में आज तक नहीं किया गया। मोक्ष प्राप्ति का जो साधन था। वह साधन संसार उपार्जन में निमित्त बना। यह बहुत विचारणीय प्रश्न है। पाँव को यदि आपने देख लिया होता, समझ लेते पाँव ही की भाषा से उसके भावों को यदि यह जान लेते, बहत कुछ पा जाते। पाँव की भी एक भाषा है। आज तक इस भाषा को हम समझ नहीं पाए। आपने कभी पांव की नम्रता देखी? इस पाँव की साधुता को देखा? कभी इसने असहयोग भाव से जीवन में अशान्ति उत्पन्न की? कभी हड़ताल की? आपकी आज्ञा का यथावत् पालन किया। यदि पाँव जितनी अकल भी हमारे अंदर आ जाए, तो ये सारी यात्रा मोक्ष की ओर, परमेश्वर की यात्रा बन जाए। पाँव जितनी भी बुद्धिमानी हमारे पास में नहीं। आप देखना, जब हम चलते हैं, एक पाँव आगे जाता है दूसरा पीछे रहता है। वह कहता है, भई! तुम आगे चलो। मैं तुम्हारे पीछे हूँ, तुम्हारे सहयोग में उपस्थित हूँ। तुम्हारे सहयोग में तैयार हूँ। तुम आगे बढ़ो, जैसे ही वह पाँव आगे बढ़ता है, रुक जाता है। मानो कहता है तुम्हें For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 6 NOVEMBER-2014 लिए बिना मैं आगे नहीं बढूँगा। तुम आगे आओ। इन दोनों पाँवों की मैत्री क्या कभी आपने देखी ? कैसा प्रेम पूर्वक आमन्त्रण है! एक इंच भी पिछला पाँव आगे नहीं जाता। कभी साथ चलने का प्रयास नहीं करता । कभी इनमें यह दुर्भावना नहीं आती कि यह ही आगे क्यों बढ़ता है या मैं ही आगे आगे चलूँगा। हुआ है कभी ऐसा? एक पाँव आगे जाएगा दूसरा पाँव पीछे रहेगा । मैं तुम्हारे लिए सहयोग में, मैं तैयार हूँ। तुम आगे बढो । जो आगे बढेगा वह तुरंत रुक जाएगा। तुम को छोड़कर मैं आगे नही बढूँगा। तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हारी सेवा में तैयार हूँ। जैसे पाँव आगे आएगा, पिछला रुक जाएगा। अगला रुका तो वह तुरंत कहेगा तेज आगे आओ। दोनों का प्रेम देखो! आपको यहाँ से घर तक पहुँचा देते हैं। घर, दुकान, मकान तक ले जाते हैं। इनमें अगर वैर हो जाए, कटुता आ जाए तो क्या आप यहाँ से जा सकेंगे? पाँव जितनी भी नम्रता आ जाए, सहयोग की भावना आ जाए तो भी हमारा कल्याण हो जाए। हमने न तो अपनी इन्द्रियों से कुछ सीखा । न अपनी शारीरिक रचनाओं में से कोई अध्यात्मिक चेतना या जागृति प्राप्त की । मात्र जगत् की चिन्ता में सारा जीवन बरबाद हो गया । सियार ने साधु की आज्ञा का पालन किया और कहा- मैं भले मर जाऊँ पर इसे न खाऊँगा। आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। ऐसे पापी आदमी की लाश का भक्षण मैं कभी नहीं करूँगा। यह कवि - कल्पना है, बड़ी सुन्दर कल्पना है । यह सारी कल्पना हमारे उपकार के लिए है। हमें जागृत करने के लिए है । उस महान आचार्य भगवन्त ने भी यह निर्देश इसीलिए दिया । 'सर्वत्र निन्दा संत्यागो' । जीभ का कितना घोर दुरुपयोग किया। आपने कभी सोचा । ढेर सारी मिठाई आप खा गए। जन्म से लेकर आज तक लड्डू पेडा कितना ही खा गए। क्या जीभ के अन्दर मिठास आई? आज तक नहीं आई खाते-खाते आनी चाहिए थी । आपकी वाणी को मीठा बन जाना चाहिए था । क्षमापना करते समय संवत्सरी के पारणे में मिठाई से क्षमापना करना कि मैंने तुम्हारा बहुत ही दुरुपयोग किया। आज के बाद कभी दुरुपयोग नहीं करूँगा । जन्म से आज तक तुम्हारा स्वाद लिया, तुम्हारा परिचय For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 7 नवम्बर २०१४ किया। न जाने कितना-कितना तुम्हारा आहार किया । परतु उस माधुर्य का स्वाद मेरे शब्दों में आज तक नही आया। कडवापन ही रहा। मिठाई खा कर के भी मिठास नही आई। फिर हम रोज खाते हैं। उससे भी क्षमापना करिए । तुम्हारे परिचय से मुझमें परिवर्तन क्यों नहीं आया? संकल्प करिये कि ऐसा माधुर्य मेरे शब्दों मे आना चाहिए। स्तोकम्, मधुरम्, और निपुणम् शब्द के जो गुण चल रहे हैं। जिसका वर्णन चल रहा है कि कैसे बोलना चाहिए। कैसी मधुरता आनी चाहिए । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपुणम् जब आप बोलते हैं तो उस कार्य के अंदर उस वाणी के व्यापार के अंदर, आपकी बौद्धिक कुशलता का परिचय मिलना चाहिए, चालबाजी का नहीं, चापलूसी का नहीं । बुद्धि पूर्वक, आत्मा के अनुकूल कुछ बौद्धिक कुशलता का लोगों को परिचय मिलना चाहिए। उसका उपयोग मैं आत्म हित में करूँ | ताकि कार्य के क्लेश से, क्लेश के आगमन से, यह आत्मा मुक्त बने । बुद्धि का उपयोग इस प्रकार से किया जाए । अन्तर जगत में मेरी आत्मा के गुण लूटे न जाएं। हमने कभी इस प्रकार से विचार नहीं किया, जो होशियार व्यक्ति को करना चाहिए। बाहर लुटने से बचने की हम बहुत कोशिश करते हैं । परन्तु अन्दर लुटने से बचने के लिए, हमने आज तक किसी उपाय पर विचार नहीं किया । * ܀ ܀ ज्ञानमंदिरना आगामी प्रकाशनो १. समरादित्य महाकथा, भाग १ - ९, भाषा हिन्दी १. शोध प्रतिशोध, २. द्वेष- अद्वेष विश्वासघात ४. वैर-विका ५. संबंध संघर्ष ७. प्रद्वेष - प्रशम ८. चल-अचल २. जैन गच्छ मत प्रबंध ३. ६. स्नेह - संदेह ९. आक्रोश- आलोक ३. रास पद्माकर भाग - ३ ४. तपागच्छ गुर्वावली- सागर स्मरणावली For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ગુરુવાણી અહંકાર પતનનું મૂળ આચાર્ય પદ્મસાગર સૂરિ સાયિક ભાવ ઉત્તમ છે. પથમિક ભાવ મધ્યમ છે. ઔદેયિક ભાવ ખરાબ છે, મલિન છે. પ્રીતિને ક્રોધ હણી નાંખે છે અને ક્રોધ તે ઔયિક ભાવ છે. ક્રોધમાં માનવતા ભૂલી જવાય છે. ક્રોધનું પરિણામ ભયંકર છે. ઊકળતું પાણી જેમ ઠંડું થાય તેમ ક્રોધના આવેશ જતાં તે ઠંડો પડી જાય છે. ક્રોધમાં મનનો પ્રકોપ થાય છે. વિનય અવમાનથી હણાય છે. વિનય અંહકારથી પણ નાશ પામે છે. તીર્થકરના દીકરા બાહુબલિજીને પણ અહંકારથી વિનય ગુમાવવો પડ્યો હતો. વિનય ન હોય તેને કદી મોક્ષ મળતો નથી. જેમ પહાડ આડો હોય તો સૂર્યનો પ્રકાશ મળતો નથી તેમ અહંકાર રૂપી પહાડ આડો હોય તેને કદી કેવળજ્ઞાનનો પ્રકાશ મળતો નથી. સ્થૂલિભદ્રજીએ જેની સાથે બાર વર્ષ સુધી કામરાગ ભોગવ્યો હતો તે જ કોશ્યાની સાથે ચોમાસું કર્યું. ચાર મહિના સુધી કર્મથી, મનથી અને વચનથી બ્રહ્મચર્ય પાળ્યું. એક ચેલાએ સિંહની ગુફામાં, એકે કૂવાના કાંઠે અને એક સાપના રાડા ઉપર અને ચોથાએ કોશ્યાને ત્યાં ચોમાસું કર્યું. ત્રણેને ગુરુએ દુષ્કર કહ્યું પણ ચોથાને તો દુષ્કર દુષ્કર કહ્યું. જે કામ સિંહ કરી શકે તે કામ શિયાળ કરવા જાય તો શિયાળ મરી જાય છે. ત્રણે મુનિઓ કોશ્યાને ત્યાં ચોમાસું કરવા ગયા પણ તે ત્રણે ચરિત્રથી પડી ગયા. આવા ત્યાગી સ્થૂલિભદ્રને પણ એક વાર અહંકાર આવ્યો અને પોતે સિંહનું રૂપ ધારણ કર્યું. મુનિ મોક્ષને મેળવવા માટે ત્યાગને સહન કરે છે. ત્યાગનો દેખાવ નથી કરવાનો પણ ત્યાગ તો આત્માને ઊંચે લઈ જવા માટે છે. સ્થૂલિભદ્રને મનનો ઔદેયિક ભાવ આવતા વિનય ચાલ્યો ગયો. અને તેને કારણે તેમને ચારપૂર્વના અર્થ શીખવા ન મળ્યા. માયા મૈત્રીને મારી નાખે છે. માયા આવે એટલે દંભ ઊભો થાય છે. માયાને પડદો ચાલ્યો જતાં સમભાવ આવે છે. સાચા ધ્યેયને સિદ્ધ કરવા માટે પણ માયા નથી કરવાની. મલ્લિકુંવરીને પણ માયાને લીધે સ્ત્રીનો અવતાર લેવો પડ્યો હતો. સબળ ધ્યેયને મેળવવા સાધનો પણ સબળ જોઈએ. મોક્ષ આપણા જીવનનું ધ્યેય છે. અને તેને પ્રાપ્ત કરવા ઊંચામાં ઊંચા દર્શન અને ચરિત્ર જોઈશે, અને માર્ગ ઉપર ચાલતાં મોક્ષ પ્રાપ્ત થશે. માયા આપણી સહૃદયતાને તોડી નાખે છે. માયાને લીધે માણસનો ભ્રમ તૂટી જાય છે. દેવિકભાવથી લોભ પણ આવી જાય છે. For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Beyond Doubt Acharya Padmasagarsuri It was then that the gods said: यदि त्रिलोकी गणनापरा स्यात्त स्याः समाप्तिर्यदि नायुषः स्यात् । पारे परार्द्ध गणितं यदि स्यात्ग णयेन्न शेषगुणोऽपिस: स्यात् ।। “If all the beings of this world endlessly count, without being interrupted by death and reach a number beyond billions, they will never be able to measure the greatness of Lord Mahavira.” On hearing this, Indrabhuti was more disturbed than before. Pride and jealosy had severely wounded his petty ego and the glory added fuel to fire. At this moment, when he heard the devas praising Lord Mahavira rather than praising him, he was annoyed and was left with no peace of mind. Indrabhuti was now confident that the person annoying him was no ordinary person, but a great magician and an impostor (cheat). Otherwise, who can delude such a huge crowd of people and also the devas at the same time. His presence was intolerable since there never can be two suns in the sky, two lions can never abide in a single cave and two swords can never fit in one scabbard. Indrabhuti at once decided to defeat the person in question in scholarly debate and said to himself: “Though he has not invited me for a debate, it doesnt really matter, for the sun never awaits an invitation to pierce the darkness, fire never pardons the hands touching it, the kings and warriors do not tolerate the attacking enemy For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 10 NOVEMBER-2014 and also a lion does not tolerate the one playing with its mane. Then how can I tolerate the wisdom of someone else? I have defeated great pandits and this person is no better than them. A straw is not of much importance against a hurricane which uproots huge trees and is not mighty enough to withstand the current of a flooded river which sweeps away big elephants. Many years ago, I went on an expedition and till date, I have remained victorious and unparallelled. Since then I have been eagerly waiting for an opportunity like this, whereby I can quench my thirst of debating. With great difficulty I have got a chance and I should not miss this chance." Saying this, Indrabhuti began to prepare himself for the visit. When his younger brother, Agnibhuti saw him doing this he said: "Brother, is there any need for an army to trap an ant? An axe is not necessary to cut a straw nor is an elephant required to uproot the beautiful lotus. I do not see the need of a great scholar like you to defeat that so called kevali1. I request you to grant me the permission to go and defeat Him". Hearing this, Indrabhuti told Agnibhuti: "Brother, you are absolutely correct. Actually speaking I do not see the necessity for you also to go and debate with Him. Even the youngest of my fivehundred disciples is capable of defeating Him, but I am unable to continue my enthusiasm to defeat Him. A thorn, even if small, is bound to prick; therefore, I myself intend to go. As it is, I have posted victory against all scholars and debators, but just as little grains drop from the mouth of an elephant while eating and while cooking and roasting. For Private and Personal Use Only (Continue...) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीरत्नशेखरसूरिकृता श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितजिनभवनपूजा मुनिश्री सुयश-सुजशचन्द्रविजय नन्दी एटले समृद्धि अने ईश्वर एटले वैभववाळो दीपतो जे द्वीप ते नंदीश्वरद्वीप... जंबूद्वीप फरते वलयाकारे वीटळायेलो १,६३,८४,००,००० (एकसो तेसठ क्रोड चोर्यासी लाख) योजननो वलयाकारे विष्कंभ धरावतो द्वीप ते नंदीश्वरद्वीप... त्रण चातुर्मासिक पर्व-सिद्धचक्राराधनपर्व अने पर्युषणापर्वना प्रसंगोमा तेमज श्रीजिनेश्वरप्रभुना जन्म वगेरे कल्याणकोनी उजवणी पछी देव-देवीओ अट्ठाई महोत्सव करवा जाय ते स्थळ एटले नंदीश्वरद्वीप... जीवाभिगम सूत्र-स्थानांगसूत्र वगेरे आगमग्रंथोमां तेनुं वर्णन प्राप्त थाय छे ते वर्णनना आधारे बनावेल तेनी प्रतिक रूपलाकडानी रचना सुरतना सैयदपुरा विस्तारमां आवेल श्रावक शेरीना जिनालयमां जोवा मळे छे. ते जरीते आरसनी बनावेल अन्य रचनाओ अमदावादना दोशीवाडानी पोळमां तेमज पालीताणामां उपर उजमफईनी ढूंकमां जेवा मळे छे. पालीताणा, आबु, गिरनार, राणकपुर विगेरे तीर्थस्थळोमां आ नंदीश्वरद्वीपना कोतरणीयुक्त प्राचीन पट्टो जेवा मळे छे. आ द्वीपनो स्थूल परिचय आपणे करीशुं जंबुद्वीपने वलयकारे वीटळायेलो आ नंदीश्वर द्वीप आठमो द्वीप छे तेना अतिमध्यभागे चारे दिशामां अंजनरत्नना श्याम वर्णना चार अंजनगिरि पर्वत छे, ते भूमितळथी चोर्यासी हजार योजन उंचा एक हजार योजन विस्तारवाळा छे. (मतांतरे ९४०० योजन विस्तारवाळा छे). आ चार अंजनगिरि शाश्वत छे अने ते चारे उपर एक एक शाश्वत जिनभवन चैत्य छे उपरोक्त चार अंजनगिरिमांना . १. पूर्वदिशाना अंजनगिरि उपर सौधर्मेन्द्र, २. उत्तरदिशाना अंजनगिरि उपर ईशानेन्द्र, ३. दक्षिणदिशाना अंजनगिरि उपर चमरेन्द्र, ४. पश्चिमदिशाना अंजनगिर उपर बलेन्द्र अठाई महोत्सव करे छे. ए दरेक वावडीना मध्यभागे उज्जवल वर्णना स्फटिकरत्नना चोसठ हजार योजन For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 12 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 एक हजार योजन भूमिमां उंडा, मूळमां तथा शिखर उपर दस हजार योजन लांबा पहोळा धान्यना प्याला जेवा एक एक दधिमुखपर्वत होवाथी कुल सोळ चैत्यो दधिमुख पर्वतो छे, ते दरेक पर्वत उपर एक एक शाश्वत चैत्य होवाथी कुल सोळ चैत्यो दधिमुख पर्वत उपर होय छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मां पूर्वदिशाना चार दधिमुखचैत्योमां सौधर्मेन्द्रना चार लोकपाल, उत्तर दिशाना चार दधिमुखचैत्योमां ईशानेन्द्रना लोकपाल, दक्षिणदिशाना चार दधिमुखचैत्योमां चरमेन्द्रना लोकपाल तथा पश्चिमदिशाना चार दधिमुख- चैत्योमां बलीन्द्रना लोकपाल अठ्ठाई महोत्सव करे छे. उपरोक्त सोळ वावडीनी चारे दिशाए पांचसो पांचसो योजन दूर गये पांचसो योजन पहोळा, एक लाख योजन लांबा एक एक वन होवाथी कुल चोसठ वन छे. दरेक अंजनगिरिने फरती आवेली चार-चार वावडीओना आंतरमां दरेकमां बे बे रतिकर पर्वत होवाथी एक अंजनगिरिने फरता आठ आठ एम कुल चार अंजनगिरिने फरता कुल मळी बलीश रतिकर पर्वतो होय छे. ते दरेक पद्मरागमणिमय (मतांतरे सुवर्णमय) होय छे. ए दरेक पर्वत उपर, शाश्वतजिन चैत्य होवाथी कुल बत्रीस जिनचैत्य रतिकर पर्वत उपर होय छे. चार अंजनगिरि, एक-एक एवा सोळ दधिमुखपर्वत, अने बलीस रतिकरपर्वत एम कुल मळीने पर बावन शाश्वत जिन चैत्यो थया. वधुमां श्रीनंदीश्वर द्वीपना अतिमध्यभागे चार विदिशामां चार रतिकरपर्वत छे, आंतराना बे बे रतिकरपर्वतथी आ रतिकर जुदा छे. ते सर्वे रत्नना बनेला, गोळ दस हजार योजन उपर-नीचे विस्तारवाळा, एक हजार योजन उंचा, बसो पचास योजन भूमिमां दटायेला छे. तेथी झालर (घंटा) जेवा छे. ते रतिकर पर्वतोमा अग्निखूणा अने नैऋत्यखूणाना रतिकरनी चारे दिशाए एक-एक राजधानी छे. ते बे रतिकरनी कुल आठ राजधानीओ सौधर्मेन्द्रनी अने आठ ईन्द्राणीओनी छे. ते ज रीते वायव्य अने ईशानखूणाना रतिकरनी चारे दिशानी मळी कुल आठ राजधानीओ ईशानेन्द्रनी अने आठ ईन्द्राणीओनी छे कुल सोळ राजधानी छे. ते दरेक राजधानीमां एक-एक शाश्वत जिनचैत्य छे, तेथी सोळ शाश्वत जिनचैत्यो ईन्द्राणीनी राजधानीमां थया. (मतांतरे दरेक रतिकरनी चारे दिशामां एक एकना स्थाने बे बे राजधानी गणता चार रतिकरनी कुल बत्रीस राजधानीओ थाय अने एटले कुल बत्रीस शाश्वतजिनचैत्यो थाय सर्व मळीने बावन अंजनगिरि प्रमुखना सोळ (ईन्द्राणीनी राजधानीना) जिनचैत्यो भेगा थई अडसठ चैत्यो नंदीश्वर द्वीपना थया (मतांतरे ईन्द्राणीनी राजधानीना बत्रीश जिनचैत्यो गणता कुल चैत्योनी संख्या चोर्यासी थई अंजनगिरि वगेरे बावन शाश्वत For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ चैत्योमा प्रत्येकमां एकसो चोवीस शाश्वत जिनप्रतिमाजी छे. तेथी बावन जिनचैत्योनी कुल प्रतिमा संख्या छ हजार चारसो अडतालीस थई, ईन्द्राणीनी राजधानीना चैत्योमां प्रत्येकमां एकसो वीस प्रतिमाजी छे तेथी सोळ राजधानीनी जिनप्रतिमा एक हजार नवसो वीस थई, मतांतर मुजब जिनप्रतिमानी संख्या त्रण हजार आठसो चालीस थई प्रस्तुत कृतिमा मात्र उपरोक्त बावन जिनालयोनी स्तवन-पूजा करवामां आवी छे. __ आ सिवाय वावडीना नामो, सर्वे जिनचैत्योर्नु स्वरूप, तेना द्वारोनुं स्वरूप, जिनभवननी अंदर रहेल मणिपीठिका-प्रतिमा, परिकर, उपकरण विगेरेनुं विशद स्वरूप, प्राप्त थाय छे. परंतुं विस्तार भयथी अहीं जणाव्यु नथी, विशेष स्वरूप जाणवा माटे. नन्दीश्वरद्वीपस्तव, लोकप्रकाश, क्षेत्रसमासप्रकरण वगेरे ग्रंथोनुं अध्यपन करवू. ___मात्र नंदीश्वर द्वीपर्नु ज वर्णन होय तेवा स्तोलो,स्तुतिओ, स्तवनो, पूजाओनी प्राचीन-अर्वाचीन कृतिओनी कुल संख्या प्रायः ५० नी आसपास छे. जेनी नोंध कृतिना अंते अने आपेली छे. भिन्न-भिन्न कर्ताओनी बनावेली प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर, हिन्दी भाषानिबद्ध 'नंदीश्वरद्वीप पूजा करता प्रस्तुतकृति मात्र संस्कृत भाषामां रचायेली होय विशिष्ट छे. वळी अन्य पूजाओमां प्रायः एक साथे समग्न नंदीश्वरद्वीपना बधा ज जिनालयोनी अष्टप्रकारी पूजा होय छे. ज्यारे प्रस्तुत कृतिमां दरेक दिशानां जिनालयोनी अनुक्रमे अष्टप्रकारी पूजा करी छे. कृति एकंदरे मजानी छे. तेमां इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, अनुष्टुब, वसन्ततिलका प्रमुख गणमेळ छंद अने अन्य मात्रमेळ छंद कविए प्रयोज्या छे. क्यांक क्यांक तेमां स्खलना थई होय तेवू जणाय छे. कर्त्ता तरीके 'आ . श्री रत्नशेखर सूरिजी मनुं नाम कृतिमां प्राप्त थाय छे. तेओश्रीना जीवनसंबंधी, गुरुपरंपरा संबंधी कोई माहिति कृतिमां मळती नथी. श्री सुरेन्द्रनगर जैन संघना ज्ञानभंडारमाथी प्रस्तुतकृति संपादन माटे मळी छे. ते माटे ते श्री संघना वहीवटकर्ताओनो खूब - खूब आभार प्रान्ते "चत्वारोऽञ्जन शैलगा दधिमुखोत्तं सश्रियः षोडश, द्वात्रिंशच्च निदेशतो रतिकरेष्वेवं द्विपञ्चाशतम्। इन्द्राणीवरराजधान्युपगता द्वात्रिंशतोऽमूञ्चतु र्युक्ताऽशीतिमहं जिनेन्द्रनिलयान् वन्दे च नन्दीश्वरे॥" नंदीश्वरद्वीपना ते शाश्वतजिनचैत्योमा बिराजमान सर्व शाश्वत जिनबंबोने भाव ' सभर वंदना For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीरत्नशेखरसूरिकृता श्रीनन्दीश्वरद्धीपस्थित जिनभवनपूजा एकैकस्य हि दिग्भागे, त्रयोदश हि पर्वताः । तत्र प्रत्येकचैत्यं(त्ये) तु, पूजां कुर्वे शिवाप्तये ॥२॥ द्विपञ्चाशन् महीन्ध्रेषु, द्वीपञ्चाशज्जिनगृहाः । गृहे गृहे चतुर्विंशाधिकं जिनशतं स्थितम् ॥३॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || अथ श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितजिनभु(भ)वनपूजाप्रारम्भः ॥ श्रीमत्पार्श्व जिनाधीशं प्रणम्य परया मुदा । वक्ष्ये नन्दीश्वरद्वीप-पूजाक्रममहोत्सवम् ॥१॥ मुनिश्री सुयशचन्द्रविजय [श्रीपूर्वदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा ] प्राच्यां दिशि श्रीगिरिरञ्जनः स्यात्, तत्र स्थितं श्रीजिनराजवृन्दम् । चये जलाद्यैः सुरवृन्दवन्द्यं, सदा पवित्रं सुखदं सुगात्रम् ॥ ॥ अथाष्टकम् ॥ सद्धेमभृङ्गारविनिर्मितेन (प्रतिष्ठितेन), पवित्रवारा ह्यतिशीतलेन । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥१॥ जलम् ॥ १ [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं समर्पयामीति (यजामीति स्वाहा ॥ १ ॥ ॥] सुगन्ध (न्धि) गन्धेन सुचन्दनेन, श्रीखण्डकाश्मीरमनोहरेण । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥२॥ चन्दनम् ॥ १ . ‘भवनाशनाय’ पदस्थाने 'जिनराजवृन्दम्' पदं योग्यं स्यात् । [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं समर्पयामीति (यजामीति स्वाहा ||२||] For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 15 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अत्युज्ज्वलैः खण्डविवर्जितैश्च, सत्तण्डुलैर्मौक्तिकतुल्यवर्णैः । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥३॥ अक्षतम् ॥ नवम्बर २०१४ [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं समर्पयामीति (यजामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ ] मन्दारपुष्पैः सुमनोहरैश्च, सुवर्णमिश्रः सरसैः सुमैश्च । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥४॥ पुष्पम् ॥ [ ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं समर्पयामीति (यजामीति) स्वाहा ॥४॥॥] समस्तमिथ्यान्धविनाशदक्षैः (क्षै)- रत्नप्रदीपैर्बहुधाप्रकारैः । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ||५|| दीपम् ॥ [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्यो दीपं समर्पयामीति (यजामीति स्वाहा ॥५॥] कृष्णागुरुधूपसमुद्भवेन, धूमेन मेघाधिपमेचकेन । नन्दीश्वरे पूर्वगज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥६॥ धूपम् ॥ [ ॐ ह्रीँ [ श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्यो धूपं समर्पयामीति (यजामीति) स्वाहा ॥ ६ ॥] रसाल- पूगा - मल-मोच निम्बू - द्राक्षाफलैः सर्वफलप्रधानैः । नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥७॥ फलम् ॥ [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्यः फलं समर्पयामीति (यजामीति) स्वाहा ॥७॥॥] अनेक पक्वान्नविधानभूत्यै (तैः), नानारसव्यञ्जनपूरितैश्च नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, चर्चामि नित्यं भवनाशनाय ॥८॥ नैवेद्यम् ॥ For Private and Personal Use Only [ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिग्स्थिताञ्जनगिरौ [श्री] जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं समर्पयामीति (यजामीति स्वाहा ॥८॥ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 NOVEMBER-2014 SHRUTSAGAR तोयैः सुगन्धैः सुकुसुमा-ऽक्षतौधै-श्चरु-प्रदीपैर्वरधूपधूमैः। नन्दीश्वरे पूर्वगकज्जलाद्रौ, संचर्चयामि जिनराजपूजाम् (बिम्बम्)॥९॥ [ॐ ह्रीं [श्री) नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिरिस्थताजनगिरौ [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽघ यजामीति स्वाहा ॥९॥] ॥ इति श्रीपूर्वदिगञ्जनगिरिरास्थितजिनबिम्ब/पूजा ॥ [श्रीपूर्वदिग्गतदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा] पूर्वप्राचीनदिग्भागे, गिरिर्दधिमुखो मतः। तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं, चर्चयामि शिवाप्तये ॥१॥ श्रीपूर्वदिग्सुरवरेश[सुशोभमानो, नाम्ना युतो दधिमुखो गिरिराजतुल्यः। तत्र स्थितं सुरनतं जिननाथबिम्बं, चर्चाम्यहं सकलकर्मविनाशनार्थम् ॥२॥ श्रीपूर्वस्यां दिशायां च, तृतीयो हि दधिमुखः। तत्रस्थजिनबिम्बानि, चर्चये पापशात(न्त)ये ॥३॥ तत्र प्राचीदिशायां च, चतुर्थो हि दधिमुखः। तत्रस्थजिनबिम्बानि, पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥४॥ ॥अथाष्टकम् ॥ तीर्थोदकै(तमलैरमलस्वभावैः, शश्वन्नदी-नद-सरोवर-सागरोत्थैः। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे त्रिजगतीपतिमर्चयामि ॥१॥ ॐ हीं [श्री| नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ सच्चन्दनेन घनसारविमिश्रितेन, कस्तु(स्तू)रिकाद्रवयुतेन मनोहरेण। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे त्रिजगतीपतिमर्चयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ जाती-जपा-बकुल-चम्पक-पाटलाद्यैः, पुष्पैः सुगन्धिशतपत्र-वराऽरविन्दैः। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे त्रिजगतीपतिमर्चयामि ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 17 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ ॐ ह्रीं [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ उद्योतयामि पुरतः जिननायकस्य, दीपं तमःप्रशमनाय शमाम्बुराशेः। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे धुतमदस्य सदोदितस्य ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ कृष्णागुरुप्रपचितं सितया समेतं, कर्पूरपूरसहित(त) विहितं च धूपम्। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे जिनसमीपमहं करोमि ॥५॥ ॐ ह्रीं [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ ज्ञानं च दर्शनमथो चरणं विचिन्त्य, पूजात्रयं च पुरतः प्रविधाय भक्त्या। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरेऽक्षतगणैः कुरु(यजे) स्वस्तिकं च ॥६॥ ॐ ह्रीं [श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ सन्नाभिकेर-पनसा-ऽऽमल-बीजपूरैः, [नानाविधैः सुमधुरैर्बहुभिः फलैश्च] । प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे त्रिजगतीपतिमर्चयामि ॥७॥ ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ सन्मोदकै-र्वटक-मण्डक-शालि-दालै(ल)-मुख्यैरसङ्ख्यरसशालिभिरन्न(न्य)भोज्यैः। प्राचीदिशादधिमुखाद्रिचतुष्ककेऽहं, नन्दीश्वरे त्रिजगतीपतिमर्चयामि ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्व दिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ पयोधारा-त्राया-मलयजरसै-रक्षतचयैः, प्रसूनैनैवेद्यैः प्रमदभरितो(तै)दी(H)पनिकरैः। वरैधूपोद्गारैः फलचयकुशाठ्यै(ग्र्य)श्च रचितं, विदध्नो(यो)ऽघु नन्दीश्वरदधिमुखादौ जिनवरान् ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 18 ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽर्यं यजामीति स्वाहा ॥ ९॥ श्रीदेवेन्द्रस्य सम्बन्धि-दिग्मार्गे यो रतीकरः । तत्रस्थं विश्वरूपं च, पूजयेऽहं जिनाधिपम् ॥२॥ इन्द्राधिष्ठितदिग्भागे, वर्त्तते यो रतीकरः । तत्रस्थं पूज्यपादं च, पूजयेऽहं जिनेश्वरम् ||३|| ॥ इति श्रीपूर्वदिगाश्रितदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ [श्रीपूर्वदिग्गतरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा ] त्रिदि (द) शेन्द्रस्य सम्बन्धि-दिशायां यो रतीकरः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं, पूजयेऽहं शिवाप्तये ॥ १॥ श्रीमदिन्द्रस्य सम्बन्धि - दिशायां यो रतीकरः । तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं, पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥४॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देव-देवस्य दिग्भागे, सुखदोऽस्ति रतीकरः । तत्रस्थं श्रीजगत्पूज्यं, पूजयामि जिनेश्वरम् ॥५॥ प्राचीन बर्हिदिग्भागे, संस्थितो यो रतीकरः । तत्रस्थमकलङ्कं च, पूजयामि जिनेश्वरम् ॥६॥ इन्द्राणीपतिदिग्भागे, संस्थितो यो रतीकरः । तत्रस्थं जिनसूर्यं च, पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥७॥ NOVEMBER-2014 त्रिदशेन्द्रस्य दिग्भागे, विद्यते यो रतीकरः । तत्रस्थितं (तत्रस्थं) जिनबिम्बं [च], पूजयामि सुभक्तिभाक् ॥८॥ ॥ अथाष्टकम् ॥ गङ्गादितीर्थभवपावनवारिपूरै स्तीर्थोदकैर्धुतमलैर्मुनितुल्यचित्तैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे (म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥१॥ For Private and Personal Use Only ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [ श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥ १ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ श्रीचन्दनैः कनकवर्णसुकुङ्कुमाद्यैः, कृष्णागुरुद्रवयुतैर्घनसारमित्रैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ।।२।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ हेमाभचम्पक-वराऽम्बुज-केतकीभिः, सत्पारिजातकचयै-र्बकुलादिपुष्पैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्) नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ रत्नादि(भासोम-घृतदीपचयैः रघघ्न-निकहेतुभिरत्नम(ल)प्रहतान्धकारैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ कृष्णागुरुप्रमुखधूपभरैः सुगन्धैः, कर्मेन्धनाग्निभिरहो विविधो विधिनोपनीतैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ स्वल्पैः सुगन्ध(न्धि)कलमाक्षतचारुपुजै-हीरोज्ज्वलैः शुभतरैरिव पुण्यपुजैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्व दिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री) जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ स्वर्गापवर्गसुखदैर्वरपक्ववासै- रिङ्ग-निम्बु-पनसा-[ऽऽमलका]-ऽऽमकैर्वा। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ||७|| ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 20 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 शाल्योदनैः सुखकरैघृतपूरयुक्तैः, शुद्धैः सदा मधुरमोदक-पायसान्नैः। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे(म्बान्), नन्दीश्वरे वरगिरौ परिपूजयामि ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ वा-र्गन्धशालि-जसुपुष्पचयैर्मनोज-नैवेद्य-दीप-वर(फल)-धूपलतादिभिर्वा। प्राचीदिशारतिकराष्ट[क]चैत्यबिम्बे प्रोत्तारयामि वरमर्घमिहाष्टकेऽहम् ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकेषु [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽयं यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥ इति श्रीपूर्वदिगाश्रितरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा । पूजाष्टकस्तुतिमिमामसमामधीत्य, योऽनेन चारुविधिना वितनोति पूजाम्। भुक्त्वा नरामरसुखान्यविखण्डिताक्षः(क्षो) धन्यः स वासमचिराल्लभते शिवेऽपि॥१॥ ॥इति श्री पूर्वदिगाश्रितत्रयोदशगिरि(स्थित)जिनबिम्बपूजा समाप्ता । ___ [श्रीदक्षिणदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा] दक्षिणस्यां दिशि योऽसा-वजनो नाम पर्वतः। तत्रस्यं जिनबिम्बं च, पूजयामि गुणाप्तये॥ ॥अथाऽष्टकम्॥ गङ्गापगातीर्थसुनीरपूरैः, शीतैः सुगन्धैर्घनसारमित्रैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीचन्दनैर्गन्धविलुब्धभृङ्गः, सर्वोत्तमैर्गन्धविलासयुक्तैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ।।२।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ मन्दार-जाती-बकुलादिकुन्दै(पुष्पैः), सौरभ्यरम्यैः शतपत्रपुष्पैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताञ्जनगिरी श्रीजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ विश्वप्रकाशैः कनकावदातै-दीपैश्च कर्पूरमयैर्विशालैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ कर्पूर-कृष्णागुरु-चन्दनाद्यै-धूपैः सुगन्धैर्वरद्रव्ययुक्तैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ चन्द्रावदातैः सरलैः सुगन्धै-रनिन्द्यपात्रैर्वरशालिपुजैः। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिस्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ खजूर-राजादि(द)नि-नालिकेरैः, पूगैः फलैर्मोक्षफलाभिलाषैः(फलेच्छयाऽहम्)। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ बाष्पायमानै(सद्गन्धयुक्तै-)द्भुतपूरपूरै-र्नानाविधैः पात्रगतैरसाढ्यैः(श्च भोज्यैः)। नन्दीश्वरे दक्षिणकज्जलाद्रौ, सम्पूजये श्रीजिनराजबिम्बम् ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताजनगिरी श्रीजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ जल-गन्धा-ऽक्षत-पुष्प-नैवेद्यै-र्दीप-धूप-फलनिकरैः। नन्दीश्वरदक्षिणकज्जल-गिरिजिनमर्घमिह दद्यात् ॥९॥ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्योऽघ यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥ इति श्रीदक्षिणदिगञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा । [श्रीदक्षिणदिग्गतदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा] श्रीमद्दक्षिणदिग्भागे, नाम्ना दधिमुखो गिरिः। तत्रस्थं श्रीजिनं पद्यै-श्चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥१॥ दक्षिणस्यां दिशायां च(यो), द्वितीयो हि दधिमुखः। तत्रस्थं श्रीजिनं पद्यै-श्चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥२॥ यमाश्रितदिशायां च(यो), तृतीयो यो दधिमुखः। तत्रस्थं श्रीजिनाधीशं, चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥३।। दक्षिणस्यां दिशायां च(यो), चतुर्थो यो दधिमुखः। तत्रस्थं वीतरागं च, चायेऽहं तद्गुणाप्तये ॥४॥ [ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो(भ्यः) पूजां यजामीति स्वाहा ॥] ॥अथाऽष्टकम् ॥ स्वर्गसिन्धुसमुद्भवेन सुवारिणा मलहारिणा, हेमकुम्भसमाश्रितेन जरामरणनिवारिणा। नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ चन्दनागुरुमिश्रितेन सुगन्धिनाऽऽतपवा(ना)शिना, केसरोत्करघर्षितेन सुकर्पूरौघसुवासिना। नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 23 चम्पका ऽमलकेतकी मचकुन्द-जाति- सुचम्पकैः, पारिजातक - मल्लिका- बकुलोद्गमादिप्रसूनकैः नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥३॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥ २॥ भासुरैरत्नसञ्चयैस्तिमिरापहैर्मणिदीपकै-, हेमभाजनसंस्थितैर्घनसारयुग्मविनिर्मितैः (?)। नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरूहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥४॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ||३|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ शुद्धधूप- दशाङ्गमिश्रितधूमधूमितदिक्चयैः, गन्धिद्रव्यसभव्यनिमि (र्मि) तसञ्चयैरघदाहकैः (?) । नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥५॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ शुद्धशालिसमुद्भवेन मनोज्ञपङ्कजवासिना, निस्तुषामल - खण्डवर्जित- तण्डुलामलराशिना । नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥६॥ नवम्बर २०१४ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 24 दाडिमाऽऽमल मोच पूग-रसाल - द्राक्ष सदाफलैः, नी(नि)म्बु-श्रीफल-चिर्भटा-दिक (ऽऽम्रक) बीजपूर-लवङ्गकैः । नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥७॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यः (भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ नव्यगव्यसुधारसाश्रितपायसान्न - शुभोदनैर्व्यञ्जना-ऽमलमोदकैर्वरमण्डकै नैवेद्यकैः (बहुभोज्यकैः )। नन्दीश्वरे दक्षिणदिगाश्रितदधिमुखाद्रिचतुष्कके, जिनराजचरणसरोरुहं संचर्चयामि सुभक्तितः ॥८॥ ॐ ह्रीँ श्री नन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ पयोधारात्राया (?) - मलयजरसै- रक्षतचयैः, प्रसून नैवेद्यैः प्रमदभरितो (तै)-र्दीपनिकरैः । वरैर्धूपोद्गारैः फलचय - कुशाढ्यै (ग्र्यैश्च रचितं, विदद्योऽर्यं नन्दीश्वरदधिमुखादौ जिनवरान् ॥९॥ श्रीमद्दक्षिणदिग्भागे, द्वितीयो रतिकरो गिरिः । तत्रस्थित (तान् ) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥२॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ ह्रीँ श्री नन्दीश्वरद्वीपे याम्यदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्योऽर्यं यजामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ ॥ इति श्री दक्षिणदिग्गतदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ [श्रीदक्षिणदिग्गतरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा ] दक्षिणस्यां दिशायां च रतिकरो हि पर्वतः । तत्रस्थित (तान्) जिनाधीशान, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥१॥ दक्षिणस्यां दिशायां यो, रती (ति) करस्तृतीयकः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान, पूजयेऽहं गुणाप्तये || ३ || For Private and Personal Use Only NOVEMBER-2014 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 25 नवम्बर-२०१४ तत्र दक्षिणदिग्भागे, चतुर्थो(तुर्यो) रतिकरो गिरिः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयामि सुभक्तितः॥४॥ कृतान्ताश्रितदिग्भागे, नाम्ना रतिकरो गिरिः। तत्रस्थित(तान्) जिनवरान् (जिनाधीशान्), पूजयामि सुभक्तितः ।।५।। श्रीमद् दक्षिणदिग्भागे, नाम्ना षष्ठो रतिकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेन्द्रांश्च, सुभक्त्या पूजयाम्यहं ॥६॥ दक्षिणस्यां दिशायां हि, सप्तमो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेशांश्च, दृढभक्त्या प्रपूजये ॥७॥ तत्र दक्षिणदिग्भागे, अष्टमोऽहि रतीकरः। तत्र संस्थितजिनवरान् (स्थितान् च जैनेन्द्रान्), पूजयामि पवित्रधीः ।।८।। [ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो(भ्यः) पूजां यजामीति स्वाहा ॥ ॥अथाष्टकम् ॥ मन्दाकिनीजातसुनीरजैश्च-शीताभ्रमोदागतभृङ्गवृन्दैः। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्ट)रती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीचन्दनैश्चन्दनसद्रसैश्च, वरेन्दुयोगाय(?) सुवर्णवर्णैः। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्टादिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ सहस्रपणैः सितपर्णिकाभिः, कुन्दादिजातैः (पुष्पैः) शुभकेतकीभिः। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 NOVEMBER-2014 SHRUTSAGAR दशेन्धनैर्दर्शितविश्वसाथै-स्तमोविनाशैर्जनरञ्जकैश्च। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्ट)रती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ श्रीखण्ड-कालागुरुधूपधूम-र्मोदान्वितैः कर्मविनाशकैश्च। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्ट)रती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ नरेन्द्रभोगादिसुशालिजातै-रभङ्गकोट्याकृतपुञ्जकैश्च(?)। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ घोटा(घोण्टा)ऽऽम्र-द्राक्षार्चक(क)-लाङ्गलीभि-रेवारुकर्कारु(?)सुमोचवोचैः। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्ट(दिगाश्रिताष्ट)रती(ति)करेषु ___ श्रीजिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ सघो(द्यो?)ष्णपक्वान्नसुशालिदालि(ल)-सद्व्यञ्जनैः सुन्दरमोदकैश्च। नन्दीश्वरे चाऽष्टरतीकरेषु, यजे जिनेन्द्रान् यमदिग्विभागे ॥८॥ ॐ ह्रीँ श्री नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणदिगाष्टादिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ वार्गन्धशालि-जसु-पुष्पचयैर्मनोजै-नैवेद्य-दीप-वर-धूप-फलादिभिर्वा) याम्य(म्या)दिशारतिकराष्टकजैनबिम्बे, प्रोत्तारयामि वरमर्घमिहाऽष्टकेऽहम् ।।९।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीधरद्वीपे दक्षिणदिगाष्टादिगाश्रिताष्टारती(ति)करेषु श्रीजिनबिम्बेभ्योऽध यजामीति स्वाहा ॥९॥ . ॥इति श्रीदक्षिणदिग्गतरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 27 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ पूजाष्टकस्तुतिमिमामसमामधीत्य, योऽनेन चारुविधिना वितनोति पूजाम्। भुक्त्वा नरामसुखान्यविखण्डिताक्षः(क्षो) धन्यः स वासमचिराल्लभते शिवेऽपि॥१॥ ॥ इति श्री दक्षिणदिगाश्रितत्रयोदशगिरि[स्थित/जिनबिम्बपूजा समाप्ता ॥ [श्रीपश्चिमदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा] श्रीमत्पश्चिमदिग्भागे, ह्यञ्जनो हि गिरिर्मतः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयामि शिवाप्तये ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो(भ्यः) पूजा यजामीति स्वाहा। ।। अथाऽष्टकम् ॥ क्षीरोदधिस्वच्छनीरैः (नीरैः क्षीरोदधिस्वच्छै:), सिताभ्रवरवासितैः। नन्दीश्वरे'ऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ नन्दनोद्भवश्रीखण्डैः, केसरादिसुमिश्रितैः (केसरादिसुसंयुतैः)। नन्दीश्वरेऽपरदिगाऽपरेदिश्य-Jञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ।।२॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ कुसुमै ङ्गसंसेव्यै-श्चम्पकादिसुपारिजैः[श्चम्पका-ऽम्बुज-पाटलैः] नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ।।३।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ प्रदीपैर्ध्वस्तध्वान्तौघैः, शिखाभङ्गः सुज्योतिभिः (?) नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥४॥ १. 'ऽपरदिग-अनाद्रौ' इत्यस्य स्थाने 'ऽपरे दिश्य-जनाद्रौ इति पाठः समुचितः? For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NOVEMBER-2014 SHRUTSAGAR 28 ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ कृष्णागुर्वादिसंधूप[सद्धूपै]-विश्वसामुखचासकैः(?) नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ।।५।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताञ्जनगिरौ __ श्रीजिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ तन्दुलैर्मुक्तसङ्काशै-र्दिव्यैः श्वतैरखण्डितैः। नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ पक्वनारिङ्ग-मोचा-ऽऽम्र-नालिकेरादिसत्फलैः। नन्दीश्वरेऽपरदिग-जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ नैवेद्यैर्विविधैः सारै-मिष्ट(ष्टैः) भव्यप्रतोषकैः। नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिस्थिताजनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ अष्टद्रव्यसुसम्पूर्ण-रघुरघविनाशिभिः। नन्दीश्वरेऽपरदिग-ञ्जनाद्रौ पूजये जिनान् ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिग्स्थिताञ्जनगिरौ श्रीजिनबिम्बेभ्योऽयं यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥इति पश्चिमदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा ।। [श्रीपश्चिमदिग्गतदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा] For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 29 पश्चिमायां दिशायां च, नाम्ना दधिमुखो गिरिः । तत्रस्थान् गतरार्गांश्च, पूजयामि जिनेश्वरान् ॥१॥ वरुणाश्रितदिग्भागे, द्वितीयो यो दधिमुखः । तत्रस्थान् [श्री ]जिनेन्द्रांश्च, पूजयामि सुभक्तितः ॥२॥ पश्चिमायां दिशायां च(यो), तृतीयो यो दधिमुखः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, भक्त्या सम्पूजयाम्यहम् ॥३॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्र पश्चिमदिग्भागे, चतुर्थो यो दधिमुखः । तत्रस्थित्(तान्) जिनाधीशान्, पूजयामि दृढात्मतः (सुभक्तितः) ॥४॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो (भ्यः) पूजां यजामीति स्वाहा ॥ ॥ अथाऽष्टकम् ॥ स्वर्गङ्गतोयैः परमैः पवित्रैः सच्छीतलैर्हेमघटाश्रितैश्च नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयै (ये) ऽहम् ॥१॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ काश्मीर - कर्पूर - सुचन्दनाद्यैः, सुगन्धद्रव्योत्कटपीतवर्णैः । नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥२॥ नवम्बर २०१४ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ सत्केतकी-जाति-कदम्बपुष्पै, रलीमद्यैश्चम्पकपारिजातैः । नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥३॥ रत्नप्रभाभासुरभाजनस्थैर्हतान्धकारैर्घनसारदीपैः । नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के __ श्रीजिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ दशाङ्गधूपोद्भवधूमजालैः, कृष्णागुरुस्थैर्नवनीरदाभैः। नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के ___श्रीजिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ अखण्डितैः शालिसमुद्भवैश्च, मुक्ताफलौघैरिव वावृषौधैः(तण्डुलौघैः)। नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥६॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के ___ श्रीजिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ सदाम्र-(मोचा-ऽऽम्र-)जम्बीर-सदाफलौघैः, सच्छ्रीफलैः पूग-लविङ्ग-द्राक्षैः। नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ सत्पायसान्नै-घनशर्कराद्यै (धूतपूरकैश्च), र्द(द)ध्योदनै-wञ्जन-सूप-पूपैः। नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के ____ श्रीजिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ नीरादिद्रव्यैर्विशदैस्त्रिशुद्ध्या-प्रोत्तारयामीति विभुं महाघम्। (कै-श्चन्दनैः पुष्प-सुदीप-धूपैः, सत्तण्डुलै-रन्न-फलैश्च सर्वैः) नन्दीश्वरे पश्चिमदिग्गतेषु, दधीमुखेषु प्रभुमर्चयेऽहम् ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पश्चिमदिगाश्रितदधिमुखचतुष्के श्रीजिनबिम्बेभ्योऽर्घ यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥ इति पश्चिमदिग्गतदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 31 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ [श्रीपश्चिमदिशाश्रितरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा] अपरायां दिशायां च, नाम्ना रतिकरोगिरिः। तत्र स्थितं जिनबिम्बं (जिनेशं च), पूजयामि सुभक्तिभाक् ॥१॥ तत्र दिग् सुरपूज्यश्च, द्वितीयो यो रतीकरः। तत्र स्थिताज(न्) जगन्नाथान्, पूजयामि विशुद्धये ॥२॥ पश्चिमायां दिशायां च, तृतीयो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनवरान् (जगन्नाथान्), पूजयामि सुभक्तितः ॥३॥ अपरायां दिशायां च, चतुर्थो यो रतीकरः। तत्रस्थितं जिनवर्ग (जिनेशं च), पूजयामि दृढात्मतः (विशुद्धये) ॥४॥ अपरेदिग्विभागेऽस्मिन्, पञ्चमो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेन्द्रांश्च, पूजयामि शिवाप्तये ॥५॥ वारुणीदिशमाश्रित्य, स्थितः षष्ठो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेन्द्रांश्च. पूजयामि शिवाप्तये ॥६॥ अपरां दिशि(श)माश्रित्य, सप्तमो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेन्द्रांश्च, पूजयामि शिवाप्तये ।।७॥ श्रीमत्पश्चिमदिग्भागे, चाऽष्टमो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनेन्द्रांश्च, पूजयामि शिवाप्तये ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री| जिनबिम्बेभ्यो(भ्यः) पूजां यजामीति स्वाहा॥ [ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे] पश्चिमदिगाश्रितरती(ति)कराष्टकेषु श्रीजिनबिम्बेभ्यो(भ्यः) पूजां यजामीति स्वाहा॥] ॥अथाऽष्टकम्॥ गङ्गादितीर्थभवजीवनधारया च, संच(?)द्विषाऽखिलसुमङ्गलपुण्यमूर्तीन्। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 32 NOVEMBER-2014 ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री) जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीचन्दनैः कनकवर्णसुकुङ्कुमाद्यैः, कुष्णागुरुद्रवयुतैर्घनसारमित्रैः। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ हेमाभचम्पक-वराऽम्बुज-केतकीभिः, सत्पारिजातकचयैर्बकुलादिपुष्पैः। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टकाअष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ रत्नादि(भ)सोम(?)घृतदीपतरैरिवा:-(चयैरघघ्नै-) निकहेंतुभिरलं प्रहतान्धकारैः। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥४॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टकाअष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री| जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ कृष्णागुरुप्रमुखधूपभरैः सुगन्धैः, कर्मेन्धनाग्निभिरहो विविधो विधिनो]पनीतैः। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ शुभैः सुगन्ध(न्धि)कलमाक्षतचारुपुञ्जै-हीरोज्ज्वलैः सुखकरैरिव चन्द्रपूर्णैः(?)। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टकाअष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ स्वर्गापवर्गफलदैर्वरपक्ववासै-नारिङ्ग-निम्बु-कदली-पनसा-ऽऽमर्वा। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __33 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ षड्भीरसैश्च चरुभिघृतपूरयुक्तैः, शुद्धैः सुधामधुरमोदक-पायसान्नैः। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, नन्दीश्वरे जिनवरान् परिपूजयामि ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर] पर्वताश्रित [श्री| जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ वा-र्गन्धशालि-जसुपुष्पचयैर्मनोजै-नैवेद्य-दीप-वरधूप-फलादिभिर्वा। श्रीपश्चिमाश्रितरतीकरभूधरेषु, प्रोत्तारयामि वरमर्घमिहाष्टकेषुऽहम्) ।।९।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपस्थितरती(ति)कराष्टक[अष्टरती(ति)कर पर्वताश्रित [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽर्घ यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥ इति पश्चिमदिशाश्रितरती(ति)कराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ पूजाष्टकस्तुतिमिमामसमामधीत्य, योऽनेन चारुविधिना वितनोति पूजाम्। भुक्त्वा नरा-ऽमरसुखान्यविखण्डिताक्षः(क्षो) धन्यः स वासमचिराल्लभते शिवेऽपि ॥१॥ ॥ इति श्रीपश्चिमदिशाश्रितत्रयोदशगिरिस्थित/जिनबिम्बपूजा)। - [श्रीउत्तरदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा] उत्तरस्यां दिशायां च, नाम्ना ह्यञ्जनपर्वतः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयामि शिवाप्तये ॥१॥ ॐ ह्रीं|श्री नन्दीश्वरद्वीपस्थिताजनगिरिनिष्टि(ष्ठिीत जिननाथबिम्बपूजां यजामीति स्वाहा। ॥अथाऽष्टकम्॥ कनककुम्भभरेण शीतलवारिणा सुखकारिणा, त्रिदिवि(व)सिन्धुसमुद्भवेन महाघतापनिवारिणा। उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे(मुत्तम), भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री]नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 34 मलयपर्वतसम्भवागुरु-चन्दनैर्घनकुङ्कुमैः, सु-घनसारविमिश्रितैर्भवप्रबल (तीव्र) तापविनाशनैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे (मुत्तमं), भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ॥ २ ॥ ॐ ह्रीँ | श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ सरसिसम्भव-पञ्चका(चम्पका) - ऽमलपारिजात सुहेमकैर्जाति-कुन्द-सुगन्धपूरितदिक्चयैर्भमरप्रियैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे (मुत्तमं), भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ॥ ३॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमभाजनमणिनिविद्धसमाश्रितै र्बहुदीपकैः', सुघनसारविमिश्रितैस्तिमिरापहैर्मणिभासुरैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे (मुत्तमं), भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ||४|| ॐ ह्रीँ | श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ । श्री । जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ NOVEMBER-2014 अगुरु- चन्दन यक्षधूपभरैः सुगन्धसमाश्रितैभ्रमरपङ्क्ति-नवीनमेघसमानमेचकपूरकैः (वर्णकैः)। उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे (मुत्तमं), भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ||५|| ॐ ह्रीँ [श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ | श्री | जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ ॐ ह्रीँ [ श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ । श्री] जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ For Private and Personal Use Only १ . प्रथमचरणस्थाने - ‘रत्नटङ्कितहेमभाजनमाश्रितैर्बहुसङ्ख्यकैः ' पाठः चिन्त्यः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 35 मौक्तिकामलबहुलतन्दुलकमल (पद्म) वाससुवासितैः' रुभयकोशसमानखण्डितवर्जितैः सरलाक्षतैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे [मुत्तमं], भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे || ६ || ॐ ह्रीँ [श्री] नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ पनस - दाडिम- पूग-श्रीफल - मातुलिङ्ग-सदाफलैःमच निम्बु-रसाल-चिर्भटप्रमुखसत्फलसञ्चयैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे[मुत्तमं], भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ||७|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ ह्रीँ [श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [ श्री | जिनबिम्बेभ्यः (भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ विशदपायस - शर्करान्वितमोदकैर्धृतपाचितैः, सरसव्यञ्जननव्य-गव्यशुभोदनैश्च चरूत्तमैः । उत्तरस्थितकज्जलाद्रिजिनेशपङ्कजसुन्दरे [मुत्तमं], भक्तिनिर्झरभरितमनसा चर्चये नन्दीश्वरे ||८|| ॐ ह्रीँ | श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [ श्री जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ नवम्बर २०१४ नरे (जलै ) - र्गन्ध - चम्पकै श्चाऽक्षतैश्च, हव्यै दीपे धूपकैः सत्फलौघैः । अर्घं चाये कज्जलाद्री ह्युदीच्यां नन्दीद्वीपे शाश्वतान् जिनवरेन्द्रान् (श्रीजिनेशान्) ॥९॥ ॐ ह्रीं | श्री नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिग्गताञ्जनगिरौ [ श्री] जिनबिम्बेभ्योऽर्यं यजामीति स्वाहा ॥ ९॥ ।। इति श्रीउत्तरदिग्गताञ्जनगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ १. चरणद्वयस्य स्थाने ‘मौक्तिकामल-खण्डवर्जित-पद्यवाससुवासितैः, For Private and Personal Use Only जिनपपूजनयोग्यकैरथ तण्डुलैर्बहुसङ्ख्यकै' इति चरणयुगलं चिन्त्यम्। २. चरणद्वयस्थाने - ‘वटक-मण्डक-मोदकै घृतपूर- पायस-पूपकैः, सरसव्यञ्जन-तण्डुलैर्वरसर्वभव्य प्रतोषकैः' इति पाठः चिन्त्यः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 36 [ श्री उत्तरदिशाश्रितदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा ] श्रीमदुत्तरदिग्भागे, नाम्ना दधिमुखो गिरिः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥ १ ॥ उदीच्यां च दिशायां च (यो), द्वितीयो हि दधिमुखः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥२॥ उत्तरायां दिशायां च (यो), तृतीयश्च दधीमुखः । तत्रस्थितान् जिनाधीशान् पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥३॥ उत्तरस्यां दिशि ख्यातो, नाम्ना चतुर्थश्च दधिमुखः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥४॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशाधिष्ठितदधिमुखचतुष्के जिनपूजां यजामीति स्वाहा ॥ ।। अथाऽष्टकम् ॥ क्षीरनीर - हीर - तीर - गौरवारिधारयाऽमन्दकुन्द - चन्दनादिसौरभेण सारया । धीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥१॥ अर्कतर्कवर्जनै(?)रनर्घचन्दनद्रवैः, कुङ्कुमादिमिश्रितैरनल्पषट्पदाश्रितैः । दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे (नन्दीश्वरद्वीपे ) [ उत्तरदिग्गत | दधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥ १ ॥ NOVEMBER-2014 पारिजात - वारिसुत-कुन्द - हेमकेतकी, मालती-सुचम्पकादिसारपुष्पमालया । दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥३॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे (नन्दीश्वरद्वीपे ) | उत्तरदिग्गत ] दधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 37 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे(नन्दीश्वरद्वीपे) [उत्तरदिग्गत दधिमुखचतुष्के [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ रत्न-सौ(सो)म-सर्पिषादि(?)दीपकैः कृतोज्ज्वलैतिघाततोप(घातजात)कोपकम्परूपवर्जितैः। दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ।।४।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे(नन्दीश्वरद्वीपे) [उत्तरदिग्गतादधिमुखचतुष्के [श्री जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ सिलि(ह्र)का-ऽसिताऽगुरु-द्रधूपकैरलंश्रितैनिमानवर्द्धमानमानिनीमनोहरैः(?)। दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे(नन्दीश्वरद्वीपे) [उत्तरदिग्गत]दधिमुखचतुष्के [श्री जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ।।५।। औषधेन-सिन्धुफेन-हारभासमुज्ज्वलै रक्षतैः सुलक्षितैरजौत(घ)-खण्डवर्जितैः। दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥६॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे(नन्दीश्वरद्वीपे) [उत्तरदिग्गत दधिमुखचतुष्के |श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ।।६।। श्रीफला-ऽऽम्र-कर्कटी-सुदाडिमादिभिः फलैवर्णमिष्टसौरभादि(रिष्टवर्ण-सौरभेण) चक्षुरादिमोदनैः। दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ।।७।। ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे(नन्दीश्वरद्वीपे) [उत्तरदिग्गतादधिमुखचतुष्के |श्री] जिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 38 'व्यञ्जनेन पायसादिभिः समं च षड् रसैर्मोदको (कौ) दनादिभिः सुवर्णभाजनस्थितैः । धीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे, प्रपूजयामि नन्दिनाम्नि सौख्यधाम्नि चाऽष्टमे ॥८॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरे.. यजामीति स्वाहा ॥८॥ जीवना-ऽसितागुरु-प्रवाक्षतैः प्रसूनकैःश्चारुवत् प्रदीप-धूपरूपधूमसत्फलैः । दधीमुखे चतुष्कके जिनेन्द्रपादपङ्कजे', द्वीप सुनन्दिनाम्नि सन्दधेऽर्घमर्हते ॥९॥ उत्तरस्यां दिशायां च, नाम्ना रतिकरो गिरिः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरे (नन्दीश्वरद्वीपे ) [ उत्तरदिग्गत ] दधिमुखचतुष्के [श्री जिनबिम्बेभ्यो ऽर्यं प्रोत्तारयामीति स्वाहा ||९|| ॥ इति उत्तरदिशाश्रितदधिमुखचतुष्कस्थितजिनबिम्बपूजा ॥ [श्रीउत्तरदिगाश्रितरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा | उत्तरदिग्विभागेऽस्मिन्, तृतीयो यो रतिकरः । तत्रस्थितान् जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥३॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनदस्य दिशायां च, चतुर्थो यो रतीकरः । तत्रस्थित (तान् ) जिनाधीशान, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥४॥ NOVEMBER-2014 [श्री जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं उदीच्यां दिशि (उत्तरदिश) माश्रित्य, द्वितीयो रतिकरः स्थितः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान् पूजयेऽहं सुखाप्तये ॥२॥ For Private and Personal Use Only उत्तरायां दिशायां च पञ्चमो रतिकरो मतः । तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥५॥ प-मोदकादिभोज्यकै: १. चरणद्वयस्थाने - 'पायसान्न पूप- सूप - ‍ र्व्यञ्जनादियुक्तकै सुवर्णभाजनस्थितैः' इति पदयुग्मं योग्यम् । २ . अत्र चरणे 'सुनन्दिनाम्नि द्वीपके ददेऽहमर्धमर्हते' इति पाठः योज्यः । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 39 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ उदीच्यां च(उत्तरायां) दिशायां च (हि), षष्ठो रतिकराचलः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥६॥ उत्तरायां(उत्तरे हि)दिशाभागे, सप्तमो यो रतीकरः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥७॥ उत्तरदिग् स(दिश)माश्रित्या-ऽष्टमो रतिकराचलः। तत्रस्थित(तान्) जिनाधीशान्, पूजयेऽहं गुणाप्तये ॥८॥ ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशाश्रितरती(ति)कराष्टके [श्री) जिनबिम्ब (बिम्बेभ्यः] पूजां यजामीति स्वाहा ॥ ॥अथाऽष्टकम्॥ कुन्द-मौक्तिके-न्दुकौमुदी-तुषारभासुरैः, स्वादु-शीत-पुष्प-चन्द्रवासितान्तरैर्जलैः । द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः॥१॥ ॐ ह्रीं|श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रित]रती(ति)कराष्टके |श्री] जिनबिम्बेभ्यो जलं यजामीति स्वाहा ॥१॥ कुङ्कुमाकितैवरेन्दुवृन्दमिश्रितैः परैश्चन्दनैर्निवारिताखिलाप(घ)तापस(श)ङ्करैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री]नन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रितरती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्यश्चन्दनं यजामीति स्वाहा ॥२॥ हेमपुष्प-केतकी-कजैः सुगन्धशीतलैः (संयुतैः), पुष्पबाणचारणैः सुगन्ध(णैरनल्प.) पुष्पकैवरैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥३॥ १. अत्र चरणे ‘स्वादु-शीतलै लैः सुपुष्प-चन्द्रवासितैः' इति पाठः योज्यः। For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 40 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रितारती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्यः पुष्पं यजामीति स्वाहा ॥३॥ विल्विषान्धकारनाशनायबोधिनायजे राज्यरत्नदीपकैर्निशान्धकारनाशनैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥४॥ ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रितारती(ति)कराष्टके |श्री] जिनबिम्बेभ्यो दीपं यजामीति स्वाहा ॥४॥ वासनाऽऽगतद्विरेफनीलितान्तरिक्षकैःश्चन्दनोद्भवैः समं सुगन्ध(न्धि)धूप-सिह्नकैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥५॥ ॐ ह्रीँ श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रितारती(ति)कराष्टके [श्री) जिनबिम्बेभ्यो धूपं यजामीति स्वाहा ॥५॥ पुण्यपुञ्जकैरिवाक्षतै[व]रखण्डितैरिन्दुकान्ति-नीरनाथफेनभासुनिर्मलैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥६॥ ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तर दिशाश्रितारती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽक्षतं यजामीति स्वाहा ॥६॥ घोट(घोण्ट)-लाङ्गलीफलैः सुबीजपूर-निम्बुकैरंशुमत्फला-ऽऽम्रकैरभीष्टदानदक्षकैः। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥७॥ ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तरादिशाश्रित]रती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्यः(भ्यो) फलं यजामीति स्वाहा ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 41 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ पायसैः सुशर्करा-घृताङ्कि(न्वि)तैश्चरूत्तमै भूमिपात्रैरोपितैः कलादिशुद्धनिर्मितैःद्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः ॥८॥ ॐ ह्रीं [श्री]नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरादिशाश्रितारती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्यं यजामीति स्वाहा ॥८॥ नीर-गन्धना-ऽक्षतैः सपुष्पकैः सुदीपकैश्चारुरूप भोज्य]-सत्फलैः सधूपकैः जिनाऽर्घकम् (सुगन्धिभिः)। द्वीपनन्दिनामनीह चाऽष्टके रतीकरे, पूजयामि शाश्वतान् जिनेश्वरान् सुभक्तितः॥१॥ ॐ ह्रीं [श्रीनन्दीश्वरद्वीपे उत्तरदिशाश्रितारती(ति)कराष्टके [श्री] जिनबिम्बेभ्योऽयं यजामीति स्वाहा ॥९॥ ॥इति उत्तरदिगाश्रितरतिकराष्टकस्थितजिनबिम्बपूजा॥ पूजाष्टकस्तुतिमिमामसमामधीत्य, योऽनेन चारुविधिना वितनोति पूजाम्। भुक्त्वा नराऽमरसुखान्यविखण्डिताक्षः(क्षो), धन्यः स वासमचिराल्लभते शिवेऽपि ॥ ॥इति श्रीउत्तरदिशाश्रितत्रयोदशगिरिस्थितजिनबिम्बपूजा। भक्त्या श्रीजिनचैत्यानां, कुर्वन्तो(न्तः) चन्दनार्चनम्(पूजनार्चने) नन्दीश्वरस्तुति-स्तोत्र-पाठपावितमानसाः॥१॥ भव्या नन्दीश्वर(रं) द्वीप-मेवमाराधयन्ति ये। तेऽर्जयन्त्याऽऽर्जवोपेताः, श्रेयसी शाश्वतीं श्रियम् ॥२॥ [युग्मम्] इत्थं व्यावर्णितरूपं(चोक्तस्वरूपं श्री-), द्वीपं नन्दीश्वराभिधम्। तिष्ठन्त्या(त्या)ऽऽवेष्ट्य परितो, नन्दीश्वरोदवारिधिः ॥३॥ रत्नशेखरसूरिश्च, वदत्येवं जिनाधिपान्। कुर्वन्त्यभ्यर्चनं भव्याव्याः], प्राप्नुवन्ति परं पदम् ॥४॥ ॥इति नन्दीश्वरद्वीपजिनबिम्बपूजा समाप्ता॥ १. अत्र चरणे 'भृत् सुपात्रसंस्थितैर्नरेन्द्रभोगयोग्यकैः' इति पाठः योज्यः। For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दीश्वरद्वीपसंबंधी कृति सूचि "आदिवाक्य भाषा कर्ता वर्ष | छंद | अध्याय अनु. कृति नाम १ नंदीश्वर तप | नंदीश्वर पंचपरमेष्ठि स्तोत्र ३ नंदीश्वर स्तुति Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अज्ञात २ | अज्ञात सं. सं. अज्ञात |४ नंदीश्वरजिन स्तवन मा.गु. For Private and Personal Use Only सजयति सतामीशः शांतिर्यद ज्जिनतामरः नंदीश्वर जिनधामनी शोभा सारी हारे | बिंब रतनमयी वीतरागी सुमेरुशृंगे कृत जैनजन्माभिषेक कृत्या |- ५ नंदीश्वरतीर्थ स्तोत्र ९ अज्ञात | जैनश्रमण अज्ञात जैनश्रमण पुहि.,सं. | अज्ञात | जैनश्रमण मा.गु. | शिवचंद्र www.kobatirth.org |६ नंदीश्वरद्वीप पूजा ७ | नंदीश्वरद्वीप ५२ जिनप्रसाद स्तवन नंदीश्वरद्वीप ५२ जिनालय अष्टाह्रिकामहोच्छव पूजा | नंदीश्वरद्वीप अष्टप्रकारी पूजा यहूकर दीपसु मध्य भाग भुमै सही मानषोत्रगिर बलाकार कंचनमई स्वस्ति श्रीसुखकरण घनविघनहरण वि.१८७७ | - जयकार अश्वसेन ॐ ह्रीं नंदीश्वर वरदिवे वि.१८८२ - द्वापंचासजिनालये नंदीजलं केशवनारिकेतुर्नगाह्वयोनामन | ८ मा.गु. | खिमाविजय - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अज्ञात जैनश्रमण गारिसूनुः Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private and Personal Use Only अनु. १० कृति नाम नंदीश्वरद्वीप कल्प भाषा १४ नंदीश्वरद्वीप तीर्थपूजा १५ नंदीश्वरद्वीप पूजा १६ नंदीश्वरद्वीप पूजा १७ नंदीश्वरद्वीप पूजा नंदीश्वरद्वीप विचार १८ १९ नंदीश्वरद्वीप स्तवन सं. ११ नंदीश्वरद्वीप जिनप्रतिमा स्तुति सं. १२ नंदीश्वरद्वीप जिनप्रतिमा स्तुति १३ नंदीश्वरद्वीप जिनालयपूजा मा.गु. मा.गु. सं.,गु. मा.गु. हिं. पुहि. मा.गु. मा.गु. कर्ता जिनप्रभसूरि अज्ञात जैन श्रमण भैया रूपविजय गुणसागरसूरि धर्मचंद्र वल्लभविजय द्यानतराय अज्ञात जैन श्रमण अज्ञात जैनश्रमण आदिवाक्य आराध्य श्रीजिनाधीशान् सुराधीशार्चितक्रमान् अनाद्यनंताघटितानि केन प्रतिष्ठिता केन च वंदो श्री जिनदेवको अरु वंदो जिनवैन चिदानंद पूरणकला विघनहरण सुखसिंधु वर्ष वि. ९४वी ४८ वि. १८७९ प्रणमं शांति जिणंदने चउद रयणपति वि.१८९६ जेह कंचनवरणें बंदी वीर जिनंदको, आनंद सुगुरु पसाय सरब परब में बड़ अठाई परब है पूर्व दिसइ दिव रमणि अंजनगिरि त्रण चोमासीने संवत्सरी जन्म दिव्या वि. १९६८ छंद ४ १५ वि.१८वी २२ ९ ढा.-८ अध्याय ढा. - १२ ढा. - ११ I 1 श्रुतसागर 43 नवम्बर २०१४ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private and Personal Use Only अनु. २० कृति नंदीश्वरद्वीप स्तवन २१ नंदीश्वरद्वीप स्तवन २२ नंदीश्वरद्वीप स्तवन २३ नंदीश्वरद्वीप स्तुति २४ नंदीश्वरद्वीप स्तुति २५ नंदीश्वरद्वीप स्तुति २६ नंदीश्वरद्वीप स्तुति २७ नंदीश्वरद्वीप स्तुति २८ नंदीश्वरद्वीप स्तुति भाषा मा.गु. मा.गु. सं. सं. सं. मा.गु. सं. मा.गु. प्रा. कर्ता जैनचंद्र हेमहंस गणि शीलशेखर गणि अज्ञात अज्ञात जैन श्रमण जैनचंद्र अज्ञात जैनश्रमण लालविजय अज्ञात जैनश्रमण आदिवाक्य नंदीसर बावन जिनालये शाश्वता चौमुख सोहेरे नंदीसरदीविहि मणहराई सासय जे नंदीसरवरदीवमझारे सासयजिणभवणेसुजुहारे आज चलो सखी वंदण जईयै नंदीसर बावन्न जिनालय शाश्वता नंदीश्वरद्वीप महीपरन्ना लंकारहारा जिनचैत्यवाराः नंदीसर वरद्वीप नीहालुं बावन जिनना चोमुख जुहारु भुवणपयडदीवे तम्मि नंदीसरम्मी दहिमुह रुइया वर्ष छंद १५ ६ t ४ ४ १५ or ४ ४ अध्याय SHRUTSAGAR 44 NOVEMBER-2014 Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा __ वर्ष । छंद | अध्याय | अनु. कृति नाम २९ | नंदीश्वरद्वीप स्तुति आदिवाक्य लसद्विपंचाशदधीश्वरालयैर्विराजिते श्रुतसागर अज्ञात जैनश्रमण सहजविमल जिनवल्लभ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३० नंदीश्वरद्वीप स्तुति ३१ नंदीश्वरद्वीप स्तोत्र प्रा. ३२ नंदीश्वरद्वीप स्तोत्र अप.,मा. | मेरु For Private and Personal Use Only |वर नंदीसरद्वीप सोहामणुं | वंदिय नंदियलोअंजिणविसरं विमलकेवलालोवं सिरि निलय जंबुदीवो य लवणाये धायइसंड कालोयपुक्ख वंदित्वा प्रणम्य किंकर्मतान्नं जिन विसरं जिन समूह ३३ | नंदीश्वरद्वीप स्तोत्र-(सं.)टीका | सं. | साधुसोम 45 www.kobatirth.org ३४ | नंदीश्वरद्वीपजयमाल | ३५ नंदीश्वरद्वीपजिन स्तुति मा.गु. भैया अज्ञात जैनश्रमण नंदिसर वरद्वीप संभारं बावना चोमुख जिनवर निज्जिय दुज्जय पंचबाण अज्ञात ३६ नंदीश्वरद्वीपजिनस्तुति ३७ नंदीश्वरद्वीपपूजा विधि ३८ | नंदीश्वरद्वीपस्तुति अज्ञात अज्ञात दीवम्मि नंदीसरनामगम्मिबावन्नपासाय मनोहरम्मि नंदीश्वरद्वीपे शाश्वता जिनवर चार नवम्बर-२०१४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |३९ नंदीश्वरद्वीपस्तुति | प्रमोदरुचि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | वर्ष | छंद अध्याय अनु. कृति नाम ४० नंदीश्वरपंक्ति विधान | भाषा | कर्ता अज्ञात जैनश्रमण प्रा. | अज्ञात सं. आदिवाक्य जिनान् नत्वा जगन्नाथान् कर्मघ्नान् धर्मनायकान् नंदीसरवरस्स बहमज्झदेसे चउद्दिसिं चत्तारि अंजणगपव्वया Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR ४१ नंदीश्वरविचार अप. सं. ४२ नंदीश्वरस्तवन ४३ | नंदीश्वरस्तुति | ४४ नंदीश्वरस्तोत्र ४५ | नंदीश्वरादिस्तुति प्रा. १० For Private and Personal Use Only अज्ञात अज्ञात मानतुंगसूरि अज्ञात जैनश्रमण अज्ञात जैनश्रमण | कल्लाणयदिणेसु सव्वेसु वि नंदीश्वरद्वीपमितैर्जिनानां प्रासाद सं. | वि.१६वी ८ www.kobatirth.org 46 ४६ शाश्वतजिन नंदीश्वरद्वीप स्तवन मा.गु. नंदीसरवर दीप मझारि सासतां तीरथ जुहारि NOVEMBER-2014 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योगनिष्ठ आचार्यश्री बुद्धिसागरजीकृत 'आत्मदर्शन' अने आत्मतत्त्वदर्शन' - ग्रंथो विशेथोड्रंक क कनुभाई ल.शाह आत्मदर्शन : पृ. ९२ ज्ञान अनंत छे. तेना प्रकार अनंत छे. मानवी पोतानी ढूंकी जिंदगीमां सर्व ज्ञान प्राप्त करी शके नहि. तेथी सर्व ज्ञानना पायारूप अने साररूप तत्त्वज्ञान प्राप्त करवा संबंधी मनुष्ये विचारणा करी लेवी जोईए. चेतन-अचेतननो भेद समजवा माटे तत्त्वज्ञाननो सहारो लेवो जोइए. मनुष्यमा रहेलुं आत्मतत्त्व सर्व तत्त्वोमां महान होइ एमनी जाणकारी मेळववा पुरुषार्थ आदरवो जोईए. प्राचीन काळथी आत्मतत्त्वतुं स्वरूप जाणवा मनुष्यो प्रयत्न करी रह्या छे. केटलाक ते पाम्या छे, केटलाक अधूरा रह्या छे अने केटलाक नथी पण पाम्या. कोइ कोइ दृष्टाओ पोतानु ज्ञान अन्यने माटे मूकता गया छे. श्रीमद् पोते तत्त्वज्ञाननो अनुभव करवा मथ्या. पोताना अनुभवे मेळवेली तत्त्वज्ञाननी अनुभवगम्य छाप पोतानां पुस्तकोमा मूकता गया छे. तत्त्वज्ञान अध्यात्मना ग्रंथोमां तत्त्वनी चर्चा तेओए करी छे. परमात्मा दर्शन तेओए कर्यु छे ते तेमणे तेमना तत्त्वज्ञानना ग्रंथोमां भिन्न-भिन्न शैलीथी समजावटनुं कार्य कर्यु छे. - मुनिराज अध्यात्मज्ञानी आत्मोपयोगी श्री मणिचन्द्रजी महाराजे एकवीश सज्झायोनी रचना करेली तेना पर वि. सं. १९८०ना पेथापुरना चातुर्मास दरमियान विवेचन लखी आ ग्रंथ वि. सं. १९८१मां महूडीथी प्रकाशित थयो छे. श्री मणिचन्द्रजी महाराज श्वेताम्बर तपागच्छीय श्वेत वस्त्रधारी आत्मार्थी आत्मज्ञानी महासंत हता. तेमने रक्तपित्तनो महारोग थयो हतो. तेओ अध्यात्मज्ञानी होई स्वभावे रोगने सही आत्मपयोगे सहज समाधिमां लीन रहेता हता. पू. मणिचंद्रजी महाराज दोढसो वर्ष पूर्वे थई गया. श्रीमदे एमनी एकवीश सज्झायो विवेचन लखीने 'आत्मदर्शन' नामनो ग्रंथ प्रकाशित कर्यो न होत तो पू. मणिचन्द्र महाराज विशे अने एमने लखेली सज्झायो विशे बहु ओछा लोको जाणता होत. पू. मणिचन्द्रजी महाराज एक विरल आत्मार्थी हता. एमणे लखेली सज्झायो तत्त्वज्ञानथी सभर छे. काव्य तत्त्वनी तेमज अध्यात्मनी दृष्टिए एमनी रचनाओ ऊंची कोटिनी छे. पू. मणिचंद्रनी सज्झायोमा वर्णवायेल अध्यात्मिक दृष्टि अने वैराग्यपूर्ण पदोनी भावना झळके छे तेना गूढार्थ अने गंभीरता तेमज ज्ञान वैराग्य रसने सामान्य मानवीने For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A8 SHRUTSAGAR 48 ___NOVEMBER-2014 समजवो मुश्केल पडे छे तेथी कर्तानो आशय संपूर्णपणे स्पष्ट थतो नथी. तेथी आ पदो पर आध्यात्मिक दृष्टिए सरळ अने सुंदर अर्थसभर विशिष्ट शैलीमा विवेचन कर्यु छे. जेथी करीने जिज्ञासुओ तेनो लाभ लई शके. पू. मणिचन्द्रजीनी उत्तम कोटिनी रचनाओ अने तेना पर अर्थ-विवेचन करनार अध्यात्मरसिक कविराज श्रीमद बुद्धिसागरजी म. साहेब होय तो पूछकुंज शु? प्रस्तुत ग्रंथमा प्रथम सज्झायमां भक्ति जे नव प्रकारे थाय छे तेनुं विवेचन गुरूदेवे सरळ भाषामां दरेकने समजाय ते रीते कर्यु छे. (१) श्रवण (२) कीर्तन (३) सेवन (४) वन्दन (५) निन्दा (६) ध्यान (७) लघुता (८) एकता अने (९) समता. श्रवण भक्तिने समजावतां कह्यु छ के आत्माना अनंत गुण पर्यायो- द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावथी गीतार्थ गुरु मुखथी स्वरूप श्रवण करवु ते श्रवण भक्ति छे. कारण के ते आत्मानी श्रवणभक्ति छे. एथी श्रवणक्रिया भक्तिथी अनादिकालथी लागेला कर्मोनो उत्कृष्टभावे एक क्षणमां नाश पामे छे. आवी ज रीते नवे प्रकारनी भक्तिने सदृष्टांत संदररीते समजावे चेतन जब तुं ज्ञान विचारे, तब पुद्गल की सविगति छारे । आपही आपस भावमें आवे, परपरिणति सत्य दुरे गमावे ॥ हे चेतन! ज्यारे तुं आत्मानुं ज्ञान विचारे छे त्यारे पुद्गलनी संगतिनो मोह वारे छे अने तुं पोताना आत्माना स्वभावमां आवे छे तथा राग द्वेषादिकनी परपरिणतिने दूर करी शके छे. आत्मानुं ज्ञान विचारवाथी अने आत्मानुं स्वरूप रमण करवाथी आत्मानी साथे मोहरूप शमतानो संबंध रहेतो नथी. मोरनी पासे सर्प रहेतो नथी. सिंहनी पासे ससलं रहेतुं नथी. प्रकाशनी पासे अंधकार रहे नहि तेम आत्मज्ञाननो विचार करवाथी परपरिणति प्रगटेली होय छे तो ते तुर्त शमी जाय छे. धनरामाने कारणे ध्यातो, आरंभे करी होइ मातो रे। जनम गमाव्यो न जाण्यो जातो, फीरे करमे करी तातोरे ॥ज.९॥ पंच कारण योग्यता पावे, कम्मराशी तुटी जावे रे। मुगतियोग्यता चेतन थावे, भणे भणिचंद गुण गावे रे ॥ज.९॥ हे चेतन! तुं सुखने माटे धन प्राप्ति पाछळ आंधळी दोट मूके छे. ते माटे अहर्निश दुर्ध्यान धरे छे. धन मेळववा माटे अनेक छळकपट करवां पडे छे. तेथी मनुष्य जन्म For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 49 नवम्बर २०१४ एळे जाय छे तेने पण तुं जाणतो नथी. तने वैराग्य दशा केम जागती नथी? हे चेतन ! तुं मोहथी अंध बनीने पोतानुं स्वरूप केम भूले छे? तुं आत्मानी शुद्धतानो पुरूषार्थ कर. काल, स्वभाव, नियति, कर्म अने उद्यम ए पांच कारणोथी कार्यनी सिद्धि थाय छे. दरेक कार्यनी सिद्धिमां आ पांच कारणोनो समूह होय छे. कर्मराशिनो सर्वथा नाश अने आत्मानी मुक्तिमां पांच कारणोनो समवाय होय छे. तेमां उद्यमनी प्रधानताए अन्य कारणोनो समुदाय पण सहचारी छे. कोइ स्थळे कर्म बळी होय छे अने कोई स्थळे उद्यम बळवान होय छे. करोडो रीते अत्यंत उद्यम करतां पण आत्मबळने कर्म हठावे त्यारे समजवुं के उद्यम करतां कर्म बळवान छे. पहेलांथी कर्मनो उदय बळवान छे एम मानी आत्मपुरुषार्थथी भ्रष्ट न थवुं. समये समये दरेक कार्य प्रति पंचकारणनो समवाय होय छे. ज्यां कार्यनी सिद्धि थती नथी त्यां पांच कारणोनो समुदाय मळ्यो नथी एम गणी शकाय. पांच कारणना समुदाय विना एकादि हेतुथी कार्यनी सिद्धि थाय छे, एम मानवुं मिथ्यात्व छे. श्री मणिचंद्रजी आत्माना गुणोनुं गान करीने एनो आनंद माणी रह्या छे. श्रीमद् ‘आत्मदर्शन' ग्रंथनी सज्झायोमां आवता आत्मा-परमात्मा, अंतरात्मा, देह अने मन, चार कषायो, सम्यग्दृष्टि, गुंठाणा, निन्दा, विकथा, आत्मरमणता, क्रोधादि वासनाओ वगेरे अनेक विषयोनी छणावट अध्यात्मिक दृष्टिए करीने सज्झायोमा रहेला विषयोने सरळ रोचक शैलीमां जिज्ञासुओने समजाय ते रीते विवेचन कर्तुं छे. आत्माने केन्द्रमां राखी आत्मामां ज सुख छे, स्वतंत्रता छे अने परमां दुःख, परतंत्रता छे माटे तुं आनंदरस पामवा बाह्य साधनोनो उपयोग करीश नहि. आत्मामां ज स्थिर थई सुख भोगव. आत्मतत्त्व दर्शन - पृ. १०० देव, गुरू अने धर्म ए aण तत्त्वोमां सर्व धर्मनी मान्यताओनो समावेश थाय छे. सर्व धर्मना शास्त्रोमां देवगुरू धर्म संबंधी परस्पर विरूद्ध भिन्न भिन्न मान्यताओ दर्शावेली जोवा मळे छे. विश्वनो मोटो भाग पोतपोतानी मति अनुसार देवगुरू धर्मने माने छे अने भविष्यमां मानशे. जे तत्त्वो अनादिकाळनां छे ते अनंतकाल पर्यंत रहेवानां, बाकीनां तत्त्वो तो नष्ट थया विना रहेशे नहि. दरेक दर्शनमां अमुक तत्त्वोनुं प्रतिपादन करवामां आव्युं होय छे, परंतु ते तत्त्वो पण परस्पर धर्मना तत्त्वज्ञोने विरूद्ध असत्य लागे छे. For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 50 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 केटलाक मनुष्योने प्रकृतिने अनुकूळ धर्म पसंद आवे छे. वेदान्त भागवत धर्ममां प्रकृतिने अनुकूळ धर्मनी मान्यता संबंधी विशेष व्यवस्था देखाय छे, केटलाक मनुष्योने बुद्धिनी प्रधानताए धर्म पसंद आवे छे. बौद्ध वगेरे दर्शनो बुद्धिवादनी अपेक्षाए धर्मने माने छे. केटलाक मनुष्योने इश्वर कर्तृत्ववाळो धर्म पसंद पडे छे, त्यारे केटलाकोने तेनाथी विरूद्ध धर्म पसंद पडे छे, केटलाक मनुष्योने साकार इश्वर मानवो पसंद पडे छे त्यारे केटलाकोने निराकार इश्वर मानवो पसंद पडे छे. दृष्टि सृष्टिवाद, विवर्तवाद, परिणामवाद, स्याद्वाद, एकांतवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, वगेरे सर्व मतो भिन्न भिन्न बुद्धिथी प्रगटेला छे. तेमां जेने जे पसंद पडे छे ते तेने माने छे. __ आ ग्रंथमां जैनेतर वेद वेदान्तादि दर्शनीय शास्त्रोथी आत्माना तत्त्वोनी मान्यता सिद्ध करवामां आवी छे. अने जैन तत्त्वो संबंधी श्री शंकराचार्य वगेरेना विचारोनी समालोचना करवामां आवी छे. समालोचनामां जैनतत्त्वोनी मान्यता योग्य छे एवी दिशा दर्शावी छे. दुनियामां जेटलां दर्शनो थयां तेओनां तत्त्वो वगेरेनी मान्यताओगें परस्पर खंडन-मंडन थया विना रह्यं नथी. जो दरेक धर्मना तत्त्वोने पक्षपात विना शुद्ध बुद्धिथी अने तटस्थताथी तपासीने एमांथी सत्य तत्त्व तारववामां आवे तो एना वडे मनुष्यने लाभ थाय छे. आ ग्रंथमा योगनिष्ठ आचार्यश्री जणावे छे के परमात्मापदनी प्राप्तिमा अनेक अज्ञानना पडदाओ आवे छे, माटे रागद्वेषनो त्याग करीने धर्मशस्त्रोद्वारा धर्म तत्त्वोनो अनुभव करवो जोईए. देश, धर्म, समाज धर्म, नीति, राष्ट्र प्रेम, मोक्ष धर्म वगेरेनुं सम्यग् स्वरूप प्रतिपादन करनारा तीर्थंकर प्रभुओना उपदेशनो अनुभव करवो जोईए. रागद्वेषनो सर्वथा क्षय करीने जेने त्रण गुणनी पेली पार केवलज्ञान पामीने उपदेश आप्यो छे. एवा चोवीसमां तीर्थंकर महावीर प्रभुना सिद्धांतोतुं श्रवण, वाचन अने मनन करीने आत्मादि तत्त्वोनो अनुभव मेळववो जोइए. श्री महावीर प्रभुए केवलज्ञान पामीने सर्व धर्मोमां रहेला सत्योने अपेक्षाए समजाव्यां छे. अने तेथी सर्व धर्मोना सत्योमा जे मतकदाग्रह हतो ते दूर कर्यो छे, तेथी गुरूगम लइ जे कोइ जैनागमोने वांचशे ते आत्मादि तत्त्वोना सत्यने पामशे अने सर्व धर्मोपर थता रागद्वेषने दूर करी समभाव प्राप्त करी परमात्माने प्राप्त करशे एम मने अनुभवे समजाय छे. धर्मादि सर्व बाबतोना अपेक्षावादने समजावी मतकदाग्रह पक्षपात अज्ञानताने दूर करावनार श्री महावीर प्रभुना उपदेशनी जेटली स्तुति करीए तेटली थोडी छे. आ ग्रंथमां पूज्यश्रीए जैनेतर वेदांतादि दर्शनीय शास्त्रोथी आत्माना तत्त्वोनी For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ मान्यता सिद्ध करी छे अने जैन तत्त्वो संबंधी श्री शंकराचार्य वगेरेना विचारोनी समालोचना करीने जैनतत्त्वोनी मान्यतानुं प्रतिपादन कर्यु छे. जैनेतर धर्मशास्त्रोमां प्रतिपादित आत्मा, परमात्मा, कर्म वगेरे तत्त्वोनी चर्चा करीने जैनशास्त्रोमां प्रतिपादित आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, कर्म वगेरे तत्त्वोनो अनेक सापेक्ष दृष्टिथी विचार करवामां आव्यो छे. योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी- गुजराती तेमज संस्कृत भाषा परनुं प्रभुत्व स्पष्ट वर्ताई आवे छे. बुद्धिसागरजीए एक लेखक तरीके जनसमुदायने बोधदायक पुस्तकोनुं बहुमोटुं प्रदान कर्यु छे. आत्मज्ञान अने अध्यात्मज्ञान जेवा गहन विषयने वाचको सहज रीते समजी शके ते रीते भाषानो उपयोग कर्यो छे. एमना १०८ ग्रंथ शिष्यो मोटुं प्रदान तो छे ज. परंतु एमने लखेली रोजनिशी- पण तेमनी कलमनी विशेषतानुं दर्शन करावे छे. श्रीमद् बुद्धिसागरजीए बुद्धिप्रभा मासिक द्वारा पण पोतानी लेखिनी अनेक विषयोमां चलावी छे. आम समग्र रीते जोईए तो बुद्धिसागरसूरीश्वरजी एक महान विचारक, लेखक, रोजनिशीकार अने विशिष्ट मासिकना संपादन तरीके समाजमां प्रसिद्ध थया छे. संदर्भ साहित्य १. पोरवाल, रेणुका जिनेन्द्र, योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज : एक अध्ययन, महेसाणा, श्री सीमन्धरस्वामि जिनमंदिर पेढी अने ओसियाजी तीर्थ, श्री सीमन्धरस्वामि जिनमंदिर कार्यालय इ. स. २००३, पृ. ५६०, किं. रू. ५०. २. जयभिख्खु अने पादराकर, योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी, मुंबई __ श्री अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ, पृ. १७+३६८+१५२, इ.स. १९५० ३. बुद्धिसागरसूरि स्मारक ग्रंथ, मुंबई, अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडळ, ई. स. १९२६, पृ. २२० ४. उदयकीर्तिसागर, आपणा सहुना बुद्धिसागर, विजापुर, श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि जैन समाधि मंदिर, पृ. १३२, इ. स. २००३, किंमत रू. ४०. ५. अकलंकविजयजी म. सा. (संपा.), बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म. सा. नी जीवनझरमर सं. २०४६, पृ. ८० For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हस्तप्रत लेखन परंपरा से सम्बद्ध विद्वान परिचय संजयकुमार झा (गतांक से आगे...) व्याख्याने श्रुत-प्रतिलेखक द्वारा लिखित प्रत पर से साधुभगवन्त द्वारा व्याख्यान दिये गये हों तथा जिस श्रावक, शेठ, संघपति आदि के द्वारा व्याख्यान काल में पाठ सुने गये हों. उस प्रत के प्रतिलेखन पुष्पिका में “व्याख्याने श्रुतम्” के उल्लेखपूर्वक व्याख्याता, श्रोता आदि के नाम दिये होते हैं. उसी शब्द को ग्रहण करते हुए वह नाम संकलन किये हुए मिलते हैं. समर्पित-प्रतिलेखक द्वारा लिखित किसी प्रत को या स्वद्रव्य व्यय करके किसी प्रत को लिखवाकर किसी साधुभगवंत को जब समर्पण किया जाता है, अथवा तो ज्ञानपंचमी, उपधान, पर्युषणादि विशेष अवसर पर ग्रंथ वहोराया जाता है तथा उसका उल्लेख प्रतिलेखन पुष्पिका में जिसके लिये समर्पितम् ऐसा लिखा हो, ऐसे नाम को विद्वान प्रकार 'समर्पित' के रूप में जाना जाता है. उदाहरणार्थ प्रतसंख्या-३५ महानिशीथसूत्र नामक प्रत की पुष्पिका देखी जा सकती है कि श्रावक माणेकलाल चुनीलाल ने वि.सं.१९९६ में प्रतिलेखक कस्तूरचंद व्यास के द्वारा मुंबई में प्रत लिखवाकर पूज्य पंन्यास श्रीप्रीतिविजयजी को समर्पण किया है. चित्कोषे (ज्ञानभंडारे) स्थापित-प्रतिलेखन पुष्पिका में उल्लिखित जिस व्यक्ति द्वारा ज्ञानभंडार में हस्तप्रत स्थापित करायी जाय, उनका नाम यहाँ मिलता है. उदाहरण के लिये प्रतसंख्या-६५४ ठाणांगसूत्र सह वृत्ति की प्रतिलेखन पुष्पिका में यह उल्लेख मिलता है-वि.सं.१७०५ में अंचलगच्छीय आ. कल्याणसागरसूरि के राज्य में धवलकनगर के ग्रंथागार में यह ग्रंथ वाचक विजयशेखर गणि के शिष्य मुनि गणेश ने भव्य जीवो के पठन-पाठन हेतु रखा. गृहीत-यहाँ समर्पित के भाँति इस विद्वान प्रकार को समझ सकते हैं. अन्तर इतना ही है कि समर्पित में मात्र साधुभगवन्त को प्रत समर्पण करते हैं. इस प्रकार के अन्तर्गत सामाजिक व्यवहार में जैसे कोई वस्तु की लेन-देन होती है उसी प्रकार प्रतों का भी आदान-प्रदान होता है. यहाँ ग्रहण करनेवाले व्यक्ति के नाम को संयोजन करने हेतु इस विकल्प का चयन करते हैं. प्रत संख्या १४९ के अंत में वि.सं.१५८० में श्रावक वच्छ शाह द्वारा प्रदत्त प्रत श्रावक नरसिंघ शाह द्वारा ग्रहण किये जाने का उल्लेख मिलता है. जिसे विद्वान प्रकार 'गृहीत' के रूप में दर्शाया गया है. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 53 नवम्बर २०१४ दत्त - जिस व्यक्ति के द्वारा हस्तप्रत प्रदान की गयी हो उस व्यक्ति को 'दत्त' प्रकार का विकल्प चुनकर देनेवाले का नाम उसके साथ लिंक करते हैं. किसी ने मात्र पढने के लिये भी किसी को प्रत दी हो तो स्पष्ट रूप से प्रत के अंत में लिखा मिलता है कि- 'आ प्रत वांचवा सारु आपी छे, कोइए दावो करशो नहीं. इस प्रकार के व्यवहार का यदि संकलन किया जाय तो कृति के विषयवस्तु के बाद में लिखित प्रतिलेखक तथा हस्तप्रत के मालिक आदि के संबंध में एक सुंदर परंपरागत व्यवहार का दर्शन हो पायेगा. प्रत संख्या १४९ के अंत में वि.सं. १५८० में श्रावक वच्छ शाह के द्वारा श्रावक नरसिंघ शाह को दिये जाने के कारण श्रावक वच्छ शाह को विद्वान प्रकार 'दत्त' के रूप में बताया गया है. क्रीत - व्यावहारिक लेन-देन के अंतर्गत ही हस्तप्रत के महत्त्व के अनुसार विक्रेता के द्वारा तय की गयी धनराशि को क्रेता जब खरीद लेता है तो उसके लिये क्रीत विद्वान प्रकार का चयन करते हैं. व्यावहारिक लेन-देन, खरीद-बिक्री जैसी बाते मूल प्रतिलेखक द्वारा लिखित नहीं होती अपितु परवर्ती काल में जिस व्यक्ति द्वारा क्रयविक्रय होता है, वह लिखता है अथवा किसी से लिखवाता है. अनुमानतः यह भी कहा सकता है कि बाद में कोई इस प्रत दावा नहीं करें कि यह प्रत मेरी है. इस प्रकार के भावयुक्त पुष्पिकाओं में उल्लेख मिलते रहते हैं. उदाहरण के लिये प्रत संख्या२१३९८ उपदेशमाला नामक प्रत के अंत में “उपदेशमाला की पोथी मूलचंदनै दीनी २/ एलचपुरमै सं.१८९४ मिती आसोज सुदी५ गुवचंद दीनी । कोइ दावो करणपावै नहीं” का उल्लेख मिलता है. विक्रीत-क्रीत की भाँति विक्रीत भी समझने योग्य है. एक ही पुष्पिका में प्रायः दोनों उल्लेख मिलते हैं, कारण कि क्रीत व विक्रीत का परस्पर संबंध होता ही है. एक के बिना दूसरे का होना संभव नहीं है. अमुक व्यक्ति के पास से मैंने यह हस्तप्रत इतने रूपये / आने/पैसे आदि में खरीदी. यहाँ दोनों व्यक्ति की क्रियाएँ अलग-अलग होने से तथा बेचने संबंधी विक्रीत नाम का प्रकार दर्शाने के लिये भेद रखा गया है. प्रतिलिपिकृत-वस्तुतः परंपरा से लिखी गयी प्रत एक दूसरे की प्रतिलिपि ही होती है किन्तु किसी लहिये ने निखालसपूर्वक याथातथ्य को स्वीकारा है तो हमें भी परिचय उसी प्रकार से देना उचित है. अतः लिपिकार व प्रतिलिपिकार ये दो अलग-अलग प्रतिलेखक प्रकार हुए. प्रास्ताविक वक्तव्य में यह कहा जा चुका है कि प्रतिलेखक बड़े ही सरल स्वभाव के होते हैं. मूल कृतिगत विषयवस्तु को यथावत् लिखने के बाद प्रतिलेखन पुष्पिका में जो भी वास्तविकता होती है उसे साफ-साफ उल्लेख कर देते हैं. उदाहरण के लिये प्रत संख्या - २२७६ ढुंढकमत चर्चा नामक प्रत For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 54 SHRUTSAGAR ___NOVEMBER-2014 आत्मारामजी के शिष्य शांतिविजयजी के द्वारा लिखित है, इसी प्रति पर से अमरदत्त ब्राह्मण मेदपाटी ने प्रतिलिपि की है. हस्तप्रतों में प्राप्त उदाहरणों से इसे अग्रलिखित रूप से बताया जा रहा है मूल प्रतिलेखक व प्रतिलिपिकार की प्रतिलेखन पुष्पिकाओं का स्पष्ट उल्लेखप्रतिलिपिकार के द्वारा लिखित प्रतें जो स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं, उसमें जिस प्रतिलेखक के प्रत पर से प्रतिलिपि की जाती है, प्रतिलिपिकार उस प्रतिलेखक की सम्पूर्ण प्रतिलेखन पुष्पिका पहले लिखता है, इसके बाद वह अपनी प्रतिलेखन पुष्पिका का उल्लेख करता है, उसमें कहीं-कहीं 'प्रतिलिपिकृतम्' ऐसा लिखा हुआ देखने को मिलता है. अन्यस्रोत से प्राप्त प्रत की प्रतिलिपि करने का उल्लेख-प्रतिलेखक के पास अपेक्षित अनुपलब्ध प्रत होने से जिस किसी स्रोत से वह प्रत प्राप्त करके उसकी नकल करता है, तो अपनी प्रतिलेखन पुष्पिका का स्पष्ट उल्लेख करता है कि अमुक संवत्, मास, पक्ष, तिथि, वार को अमुक व्यक्ति से प्रत प्रतिलिपि करने हेतु लिया तथा इतने दिनों में लिखकर वापस किया. प्रतिलिपिकृत भ्रामक प्रतिलेखन पुष्पिका-किसी-किसी प्रत में तो किसी पुरानी प्रत पर से प्रतिलेखक प्रतिलिपि करता है तथा उस प्रत में जो उपलब्ध प्रतिलेखन पुष्पिका होती है उसे तद्वत् लिख देता है, किन्तु अपने बारे में प्रतिलेखन पुष्पिका कुछ भी नहीं लिखता है. ऐसी अवस्था में भ्रम होता है कि प्रत में जो उल्लिखित प्रतिलेखन संवत् है, क्या वह सही है? प्रतिलेखन संवत् व लिखावट दोनों एक दूसरे सम्बन्धित विषय है. प्रतिलेखन संवत् न होने पर भी प्रत की लिखावट व मरोड़ से अनुमानित वर्ष का आकलन करते हैं.उल्लिखित वर्ष व लिखावट में सामान्य अन्तर को समझा जा सकता है, किन्तु ज्यादा अन्तर हो तो भ्रम का कारण बनता है. जैसे कि वि.सं.१६वीं की प्रत पर से कोई वि.सं.१८वीं में नकल करता है, उसमें पूर्वप्रतिलेखक का उल्लेख करता है किन्तु अपने बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं करता, ऐसे में प्रत की लिखावट के आधार से यह माना जाता है कि यह प्रत वि.सं.१६वीं में लिखी गयी प्रत की प्रतिलिपि है. इस स्थिति में निश्चित वर्ष मिलते हुए भी अनुमानित वर्ष का आकलन करके संतोष करना पड़ता है. अन्य-किसी व्यक्ति का नाम तो प्रतिलेखन पुष्पिका में है परन्तु लहिया उपरोक्त प्रकारों में से किसी का उल्लेख नहीं करता है, उसे “अन्य" नाम का विद्वान प्रकार कहा जाता है. ऐसे भी विद्वान हैं, जिन्होंने परवर्ती काल में मात्र अपना हस्ताक्षर कर For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 55 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ दिया है, थोड़ा कुछ लिखकर यूं ही नाम लिख दिया है, ऐसे विद्वानों को मात्र उनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण के तौर पर अपनी सूची में रखने हेतु संग्रह करते हैं. मूल प्रतिलेखक से इनका किसी प्रकार का संबंध नहीं होता है. कालान्तर में कभी-कभी मूल लेखन के काफी बाद में पेंसिल से लिखा हुआ प्रत के स्वामित्व भाव को दर्शाने हेतु नाम लिखा मिलता है. प्रत संख्या-५१२७२ स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन नामक प्रत रूपकुंवरी श्राविका के अध्ययन के लिये लिखी गयी है. अतः इस प्रत की प्रतिलेखन पष्पिका में रूपकुंवरी को साध्वी लब्धिलक्ष्मी की 'निसालणी' बताया गया है, परन्तु साध्वी लब्धिलक्ष्मी हेतु उपर्युक्त विद्वान प्रकारों में से कोई प्रकार न होने पर इन्हें विद्वान प्रकार अन्य के द्वारा सूचि में संकलन किया गया है. फिर से एक बार बताना चाहते हैं कि प्रतों में रचना के अतिरिक्त उपलब्ध तत्कालीन व परवर्ती समय में चाहे जितने भी लोगों के नाम मिलते हों, उसे संगणकीय सूचना संग्रहण पद्धति के अन्तर्गत अचूक समावेश किया जाता है. ऐसे जिन लोगों के नाम मिलते हैं, उन्हें विद्वान की संज्ञा द्वारा ही पहचानते हैं. इससे हमें पुरातन लेखन कार्य का पारंपरिक व्यवहार ज्ञात होता है. विद्वानों की सूची तैयार होती है. कभी-कभी कोई ऐतिहासिक कड़ी भी मिल जाती है. इस प्रकार विद्वानों की सूचनाओं का संग्रह करने पर ज्ञानमंदिर की सूचना समृद्धि में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सतत अभिवृद्धि होती रहती है. व्यवसायिक रूप से लिखनेवालों में मुख्यतया ब्राह्मण, बारोट, संन्यासी, यति आदि समाज के लोग मिलते हैं. परंपरागत लिखने की पेशा के कारण अपने नाम के बाद लहिया ऐसा उल्लेख भी प्रतों में मिलता है. ज्ञानमंदिर के इस ज्ञानयज्ञ में चल रहे विविध कार्यों में एक महत्वपूर्ण कार्य हस्तप्रत सूचीकरण के अन्तर्गत हस्तप्रत से सम्बद्ध नयी-नयी जानकारियों व कार्यगत अनुभवों को एक नये विषय के माध्यम से वाचकों के सम्मुख प्रस्तुत करने की शृंखला अगले अंकों में भी इसी तरह जारी रहेगी. ध्यातव्य-शक्यतम प्रयासों के द्वारा संबंधित उदाहरणों को बताया गया है. जो यूं ही स्पष्ट है उसका उदाहरण नहीं दिया गया है. उदाहरण के अन्तर्गत उल्लिखित प्रतसंख्या भी आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के हस्तप्रत भंडार की है. वाचकों को हस्तप्रत वाचन/अध्ययन रसप्रद लगे तथा हस्तप्रत संपादन-संशोधन की दिशा में जागृति लाने हेतु साथ ही हस्तप्रतों के प्रति अभिरुचि बढे, एतदर्थ स्वानुभव से मौलिक लेख के द्वारा संदेश देने का एक प्रयासमात्र है. वाचक इससे किञ्चित् भी लाभान्वित होते हैं तो लिखना सार्थक समझा जायेगा. For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समराईच्च कहा परिचय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पं. श्री धुरंधरविजयजी चौदसो चुंमालीस ग्रन्थना कर्ता श्री हरिभद्रसूरिजी म. नी कलमथी लखायेली 'श्रीसमरादित्यकथा' कथा ग्रन्थोमां अपूर्व अने अजोड स्थान धरावे छे. श्री हरिभद्रसूरिजी म. जेटलुं संस्कृत भाषा उपर प्रभुत्व धरावता हता तेटलुं ज के तेथी पण विशेष प्रभुत्व प्राकृत भाषा उपर धरावता हता. तेओश्रीने आगम अने न्याय (दार्शनिक) विषयोनुं अगाध ज्ञान हतुं ए तेमना ते ग्रन्थ जोतां स्पष्ट जणाय छे. पण साहित्यना विषयमां तेमनो अगाध तलस्पर्शी प्रवेश हतो तेनुं भान तो 'समराईच्च कहा' करावे छे. 'अनेकांतजयपताका' जेवा कर्कश तर्कग्रन्थ गुंथनारा आवुं प्रसन्न अने रसमय सर्जन करी शके छे ए ख्याल समराईच्च कहा जातां आवे छे. आ कथानी उत्पत्तिनो सामान्य इतिहास एवो छे के पू. आ. श्री हरिभद्रसूरिजी म. ना बे भाणेजो हंस अने परमहंस नामना हता, तेओने दीक्षा आप्या बाद बौद्ध दर्शननां रहस्यभूत तत्त्वो जाणवा माटे बौद्धो पासे मोकल्या. वखत जतां वात खुल्ली पी गई के आ बन्ने जण आपणां रहस्यो जाणवा माटे आव्या छे. बन्ने जणा त्यांथी नासी छूट्या, बौद्धो पाछळ पड्या. छेवटे बन्नेनुं अकाळे अवसान थयुं. आ हकीकत आचार्यश्रीना जाणवामां आवतां तेमने पारावार क्रोध व्यापी गयो ने बधा बौद्धोने एक साथै कडाईमा कडकडता तेलमां तळी नाखवानो संकल्प कर्यो. आ संकल्पनी आचार्य श्रीना गुरुजीने जाण थतां तेमणे समरादित्य चरित्रना विपाकने समजावती केटलीक गाथाओ लखी मोकली. ते विचारतां आचार्यश्रीनो क्रोध शमी गयो. पोताना संकल्प माटे तेओ श्री पश्चात्ताप करवा लाग्या अने तेना प्रायश्चित्त तरीके १४४४ ग्रन्थनी रचना करवानो दृढ संकल्प कर्यो. पोताना आत्मघातक विचारोने शमन करनारी आ कथा तेओ श्रीना जीवननी एक मुख्य घटना बनी गई अने साहित्य सृष्टिमां शिरोमणि भावने धारण करती आ कथासृष्टिमां प्रगट थई. शिष्योनो विरह थयो ते प्रसंगने अनुलक्षी ग्रन्थने अंते 'विरह' एवं पद प्रायः त्यार पछी रचायेला तेओ श्रीना ग्रन्थमां मळे छे. आ 'समराईच्च कहा'ने अंते पण ए पद आ प्रमाणे छे. जं विरइऊण पुण्णं, महाणुभावचरियं मए पत्तं । तेण इहं भवविरहो, होउ सया भवियलोयस्स ॥ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 57 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ आ कथा लगभग दसहजार श्लोक प्रमाण छेः संक्षेपमा कथा वस्तु आप्रमाणे छे. प्रारंभमां मंगलादि करीने कथाना प्रकरोनुं सुन्दर स्वरूप वर्णव्यु छे. सुन्दर पीठिका रचीने कथानो अवतार कर्यो छे. पीठिकाळो :- आ कथानी बीजभूत त्रण गाथाओ के जे प्राचीन छे. ते आपी छे ते नीचे प्रमाणे छे. गुणसेण-अग्गसम्मा१, सीहाऽऽणन्दायर तह पियाउत्ता। सिहि-जालिणि३ माइ-सुया, धण धणसिरितिमोय४ पइ-भज्जा। जय-विजया५ य सहोयर, धरणो लच्छीय६ तह पईमज्जा। सेण-विसेणा७ पित्तिय-उत्ता जम्मम्मि सत्तमए॥ गुणचंद-वाणमंतर८, समराइच्च९ गिरिसेणपाणो उ। एक्कस्स तओ मोक्खो, बीयस्स अणन्तसंसारो॥ आ नव भवनु विस्तारथी वर्णन करीने कथा नव विभागमां वहेंचायेली छे. एक एक विभागमां एक भवनुं वर्णन आवे छे. प्रथमभव:. गुणसेन राजपुल छे अने अग्निशर्मा पुरोहितपुत्र छे. शरीरे अने स्वभावे विचित्र पुरोहितपुत्र सर्व- उपहासपात्र छे. संसारथी कंटाळीने ते तापस बने छे ने राजपुत राजा थाय छे. भव्य तपस्वी तापसना आश्रममा एकदा राजा जई चडे छे अने सर्वनो परिचय मेळवतां अग्निशानो पण परिचय मेळवे छे. महिनाने पारणे महिनाना उपवासनु तप तपता अग्निशर्माने जोई राजानुं हृदय भक्तिथी आर्द्र बने छे ने तेमां पण एक जग्याएथीज मळे तेज वापरवं. न मळे ने फेरो खाली जाय तो आगळ महिनाना उपवास चालु करवा. आ सांभळी राजा खूब ज चकित थाय छे. पोताने पारणानो लाभ आपवा आग्रहभरी विज्ञप्ति करीने राजा पोताने आवासे आवे छे. पारणे अग्निशर्मा राजाने त्यां जाय छे, दिवसोथी झंखतो राजा ते ज दिवसे अवर्णनीय माथानी वेदनाथी पीडाय छे, सर्व परिवार राजानी परिचर्यामां पड्यो छे. अग्निशर्मा थोडो समय रोकाईने चाल्यो जाय छे. स्वस्थ थया पछी राजा तपास करे छे ने खूब ज खिन्न थाय छे. आश्रमे जईने मनावे छे, ने आवतुं पारणु पोताने त्यां थाय एवं नक्की करीने आवे छे. बीजा पारणाने ज दिवसे राजाने त्यां राणीने पुत्रजन्म थाय छे ने ते व्यवसायमां पडेलो बधो परिवार आवेला अग्निशर्मानी संभाळ लेतो नथी. पारणानो For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 58 SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 दिवस चाल्यो गयो, तपस्वी आवीने पाछा फर्यानी राजाने जाण थतां तेना पश्चात्तापनो पार रहेतो नथी. फरीथी आश्रमे जाय छे. पारावार प्रयत्ने अग्निशर्माने मनावीने त्रीजी वखतनुं पारणुं पोताने त्यां करवानुं नक्की करीने आवे छे. भवितव्यताने बळे लीजी वखत पारणाने ज दिवसे क्षण क्षणनी काळजी राखवा छतां राजाना नगर उपर शत्रु चडी आवे छे तेनी सामे युद्ध करवा राजाने जवु पडे छे. आव्या एवा तपसी पाछा फरे छे. अहीं बाजी बगडे छे. वेरनु बीज अग्निशर्माना आत्मामां ववाय छे. पोताना भूतकाळने याद करतो अग्निशर्मा राजा प्रत्ये खूबज क्रोधे भराय छे ने भवोभव हुं आ वेरनो बदलो लउं एवा संकल्पपूर्वक यावज्जीव आहारनो त्याग करे छे. राजा अने तापस वर्ग एमने खूब ज समजावे छे पण हवे कांई वळतुं नथी. राजा प्रशम भाव धारण करीने आत्माने वाळे छे. पोताना वर्तन माटे तेने घणुज लागी आवे छे. आ प्रथम भवथी ज बन्ने मार्गो जुदा पडी जाय छे. एक प्रशम भावमां आगळ वधे छे ने अन्य विषम भावमा प्रगति साधतो जाय छे. आ विभागमां श्रीविजयसेन आचार्य महाराज, कथानक सुन्दर वैराग्यजनक आवे छे. आश्रमो केवा होय, तापसो केवा होय तेनुं हृदयंगम वर्णन पण विशिष्ट रीते अहीं आप्यु छे. सम्यक्त्वथी आरंभीने श्रावकधर्म साधुधर्म यावत् क्षपकश्रेणिथी मांडीने केवळज्ञान प्राप्ति सुधी- यथाक्रम वर्णन गुरुमहाराजना उपदेशमां छे. भाषाप्रवाह एकसरखो आकर्षक छे. आगळ आगळ वांचवानुं मन थयाज करे. छेवटे गुणसेने भावेली भावना घणी ज असरकारक छे. आराधना माटे उपयोगी छे. ए रीते प्रथम भव पूर्ण थाय छे. बीजो भव: दरेक भवनी शरूआतमां पूर्वभवनुं अनुसंधान अने जे भवनुं वर्णन करवानुं छे तेनो नामनिर्देश करती एक गाथा छे. आ बीजा भवनी शरूआतमां ते गाथा आ प्रमाणे गुणसेण-अग्गिसम्मा, जे भणियमिहासि तं गयमियाणिं । सीहा-णन्दा य तहा, जं भणियं तं निशामेह ॥ जयपुर नगरमां पुरुषदत्त राजाने त्यां श्रीकांतानी कुक्षीए गुणसेननो जीव जन्मे छे ने सिंहना स्वप्न अनुसार तेनुं नाम सिंहकुमार राखवामा आवे छे. राजकुमारने योग्य विशिष्ट सर्व कलाकलाप शीखीने तैयार थाय छे. यौवन वयमां आव्या पछी एक दिवस उद्यानमा जाय छे. त्यां पोताना मामा लक्ष्मीकान्तनी पुत्री कुसुमावली क्रीडा करवा For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 59 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ आवी छे. अरस-परसना दर्शनथी बन्नेना हृदयमां गाढ आकर्षण जन्मे छे, ने छेवटे बन्नेना विवाह थाय छे. ___ उचित समये राजा पुरुषदत्त सिंहकुमारने राज्य सोंपी प्रव्रज्या ग्रहण करे छे. नीतिपूर्वक राज्यनु पालन करतां राजा सिंहने त्यांज कुसुमावलीनी कुक्षीए अग्निशर्मानो जीव अवतरे छे. राणीने अनेक दुष्ट दोहद थाय छे. छेवटे राजाना आंतरडां खावानी ईच्छा थाय छे. राणी आवी अनिष्ट इच्छाओ घणी दबावे छे पण दाबी शकाती नथी. गर्भपात करवा विचार करे छे छतां ते पण बनी शकतुं नथी. सुगुण राजा तेनी ते ते इच्छाओ पूरे छे. बाळकनो जन्म थया पछी पण दासी द्वारा तेने क्यांय रखडतो मूकी देवानी व्यवस्था राणी करे छे पण राजाने तेनी खबर पडे छे ने कुमारने बचावी ले छे. दूध पाईने झेरी सापने उछेरे तेम राजा पुत्रने उछेरे छे ने तेनुं आनंद एवं नाम पाडे छे. कुमार वयमां आवे छे. पोतानी दुष्टता अनेक प्रकारे बतावे छे. छेवटे राजाने केदमां पूरे छे ने वखत जतां तलवारथी हणे छे. शुभ ध्याने मरीने सिंह पांचमा देवलोकमां उत्पन्न थाय छे ने आनंद पहेली नरके जाय छे. आ विभागमां मेहना अंकुर प्रेमीओनां हृदयमा उत्तरोत्तर कया क्रमे विकास पामे छे. तेनुं अने विवाहविधिनु विशिष्ट वर्णन सुन्दर रीते बताव्यु छे. धर्मघोषसूरिमहाराजनुं कथानक रोचक ने भवनिर्वेद उत्पन्न करे छे. मधुबिन्दु- दृष्टान्त पण हृदयने हचमचावे एवी रीते आ विभागमा रजू थयु छे. मोटा मोटा समासो अने प्रसंगे प्रसंगे ढूंका ढूंका वाक्यखंडो नदीमां वहेता शांत गंभीर जलप्रवाहनी जेम वहे छे. ने वाचक ते प्रवाहमां तणातो जाय छे तेनी ईच्छा एवी होय के हवे आमाथी छूटो थाउं पण तेम ते करी शकतो नथी. प्रवाहमां ने प्रवाहमां तेने खेंचावूज पडे छे एज आ कथानी खूबी छे. त्रीजो भव: वक्खायं जं भणिय, सीहाणंदा य तह पियापुत्ता। सिहि-जालिणिमाइसुआ, एत्तो एअं पवक्खामि॥ ए प्रथमर्नु अनुसंधान करनारी गाथा छे. त्रीजा भवमां समरादित्यनो आत्मा शिखिकुमार अने अग्निशर्मानो जीव जालिनी तरीके जन्मे छे. कौशांबीनगरीमां ईन्दुशर्मा ब्राह्मणने त्यां शुभंकरानी कुक्षीए जालिनीनो जन्म थयो छे ने उचितवये बुद्धिसागर नामना मंत्रीना पुत्र ब्रह्मदत्त साथे तेने परणावी छे. देवलोकथी च्यवीने ते जालिनीनी कुक्षीए गुणसेननो जीव अवतरे छे. पुण्यात्माना प्रभावे माताने सुन्दर स्वप्न आवे छे पण तेनुं ते बहुमान करी शकती नथी, वारंवार गर्भनाशनी इच्छा कर्या करे छे. For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 गर्भप्रभावे सुन्दर दोहद जागे छे, ब्रह्मदत्त ते पूरे छे. ब्रह्मदत्तने स्त्रीनी भावनानी खबर पडे छे एटले ते पूरेपूरी सावचेती पूर्वक बाळकने बचावी ले छे. जन्म पछी बीजे स्थळे उछेरे छे ने तेनुं शिखी' नाम राखे छे. वखत जतां जालिनीने खबर पडे छे ने शिखीने पण बधी वातनी जाण थाय छे. जालिनीनी ईच्छा तो तेने जीवतो जवा देवानी नथी छतां तत्काल तो तेने दूर करवाना सर्व प्रयत्नो करे छे. शिखिकुमारने घणु दुःख थाय छे. ते नगर बहार जाय छे ने विजयसिंह नामे आचार्य महाराजना समागममां आवे छे संयम लेवा तत्पर थाय छे ने सुन्दर रीते संयम स्वीकारे छे. संयम मार्गमां घणा ज आगळ वधे छे. जालिनी सतत तेनुं खराब करवाना विचारो सेव्या करे छे. एकदा मुनिने पोताने त्यां पधारवानो संदेश कहेवडावे छे. शिखिमुनि केटलाएक मुनिओ साथे कौशांबी पधारे छे. माताने धर्मोपदेश आपे छे. मायाविनी माता विश्वास पमाडवानी खातर अनेक व्रत-नियमो ले छे पुत्रने पोताने त्यां भोजन करवा आग्रह करे छे पण मुनिधर्मनी विरुद्ध होवाथी शिखिमुनि ना पाडे छे. एकदा पर्वने पारणे प्रातःकालमांज ऊठीने कंसार अने विषमिश्रित मोदक लईने उद्यानमांजाय छे अने त्यां वपराववानो हठाग्रह छे. मातृमेहथी विवश बनीने अकल्प्य जाणता छतां वहोरे छे ने शिखिमुनि ब्रह्मदेवलोकमां देव थाय छे. आत्मचिंतवना करतां करतां काळधर्म पामीने शिखिमुनि ब्रह्मदेवलोकमां देव थाय छे ने जालिनीनो जीव दुर्ध्याने मरीने बीजी नारकीमां नारकपणे उपजे छे. ए रीते तीजो भव पूर्ण थाय ____ अन्तरकथा तरीके आवती विजयसिंह आचार्यनी कथा केवा केवा अनर्थो करावे छे अनेक अनेक भवो सुधी तेथी आत्माने केटलुं सहन करवू पडे छे तेनो सुन्दर चितार खडो करे छे. प्रसंगोपात आचार्यश्रीए आ कथामां करेलुं नास्तिकवादनुं निरसन पण सचोट अने मननीय छे. दानादि चार धर्मोनुं वर्णन पण विशद छे. तेमां पण दानना प्रकारो अने तेनी सफलता विस्तारपूर्वक आ कथामां छे. जेम महाश्रीमंतनो परिवार दरेक प्रसंगे जुदा जुदा मनोहर अलंकारोथी विभूषित थईने जनसमाजना नयन मनने आकर्षतो होय छे ते ज प्रमाणे अहीं पण जुदा जुदा प्रसंगे नवीन रीते घडायेला विविध अलंकारो चित्तने अपूर्व रीते खेंची ले छे. For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर चोथो भव: www.kobatirth.org 61 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम्बर २०१४ सिहि-जालिणिमाइसुया, जं भणियमिहासि तं गयमियाणिं । वोच्छामि समासेणं, धण-धणसिरिमोय पड़भज्जा ॥ गाथाथी अनुसन्धान करीने आ चोथा भवमां धन अने धनश्रीनुं चरित्र वर्णव्यं छे. सुशर्मनगरमां सुन्धवा नामे राजा छे, ने वैश्रमण नामे एक महाश्रीमंत सार्थवाह छे. तेने श्रीदेवी नामे धर्मपत्नी छे. धनदेव यक्षनी पूजा करीने संतान याचे छे. ने शिखिनो आत्मा ब्रह्मदेवलोकथी च्यवीने ते श्रीदेवींनी कुक्षीए अवतरे छे. जन्म थाय छे ने पुत्रनुं नाम ‘धन' एवं राखवामां आवे छे. ए ज नगरमां पूर्णभद्र शेठने त्यां गोमतीनी कुक्षीए जालिनीनो जीव स्त्रीपणे जन्मे छे ने तेनुं नाम धनश्री राखवामां आवे छे. कर्मयोगे धन अने धनश्रीना विवाह थाय छे. अग्निशर्मा-तापसना भवमां एक संगमक नामनो तापस हतो, ते पण परिभ्रमण करतो अहीं नंदक नामे दास थयो छे, ते धनने घरे नोकरी करे छे. तेनो परिचय धनश्रीने खूब रुचे छे ने छेवटे तेनी साथे ते वधु पडता संबंधमां मुकाय छे. एक दिवस कोई एक श्रेष्ठीने खूब दान देता जोईने धनना हृदयमां परदेश जईने खूब कमाईने आवुं दान देवुं-एवी भावना जागृत थाय छे. मातापितानी अनुमति मेळवी कमाववा माटे नकळे छे. नन्दक अने धनश्री पण साथे जाय छे. तेनो नाश करवा माटे धनश्री घणा उपायो रचे छे. कामण करीने पेटनो विचित्र व्याधि करे छे. प्रसंगे समुद्रमां नाखी दे छे ने सर्वस्व लईने चाल्या जाय छे. भाग्ययोगे धन बची जाय छे. कर्मयोगे अनेक सुखदुःखनो अनुभव करतो छेवटे धन सार्थवाह खूब धन कमाईने पोताना नगरमां पाछो फरे छे. मातापिता बधी वात पूछे छे. धनश्रीनी हकीकत पूछे छे पण ते कांई कहेतो नथी. छेवटे जाणे छे त्यारे बधाने ते स्त्री उपर धिक्कार उपजे छे. धन नगर बहार जाय छे. त्यां यशोधर आचार्यनी समागम थाय छे. तेमनु चरित्र सांभळीने भवनिर्वेद जागे छे, मातपिताने समजावीने ओने साथै लईने संयम ले छे. For Private and Personal Use Only श्रुतज्ञाननो सुन्दर अभ्यास करी संयमस्थिर बनी एकला विहारनी प्रतिमा धारण करीने विहार करे छे विहार करतां कोशांबी नगरीए जाय छे. नन्दन अने धनश्री पण तेज कौशांबी नगरीमा रहे छे. धनमुनि तेने त्यां वहोरवा जाय छे स्त्री तेने ओळखे छे ने मारी नाखवानो विचार करती ते क्यां छे तेनी तपास करवा दासीने मोकले छे. राते त्यां जईने मुनिनी आसपास लाकडा खडकीने सळगावी मूके छे शुभध्याने काळ करीने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org SHRUTSAGAR 62 NOVEMBER-2014 मुनि शक्रदेवलोकमां उत्पन्न थाय छे. पाछळथी धनश्री पकडाय छे ने नन्दक नासी छूटे छे. बधी वात फूटे छे, स्त्रीने अवध्य जाणीने हांकी काढे छे. जतां जतां सर्पदंश थाय छेने मरीने वालुकाप्रभा नारकीमां जाय छे. पांचमो भव: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ विभागमां प्रासंगिक एक पुरोहितना पूर्वभवोनुं वर्णन अने यशोधर आचार्यनुं चरित्र घणुं ज रोचक अने वैराग्यरसथी भरपूर छे. यशोधरचरित्र तो जुदुं स्वतंत्र पण प्रसिद्ध छे. कथावस्तु अने वर्णन शैली एवो तादात्म्यभाव जन्मावे छे के तेना संस्कारो आत्मामां चिरकाल सुधी स्थिर रहे. आ भव वांचवानी शरूआत न करी होय त्यां सुधी ठीक पण शरू कर्या पछी तेनी पकड एवी मजबूत बने छे के ते पूर्ण थाय त्यारे ज तेमांथी मुक्त थवाय छे. नीचेनी गाथाथी पूर्वनुं अनुसंधान करीने कथा आगळ वधे छे. वक्खायं जं भणियं धणधणसिरिमो य एत्थ पड़भज्जा । जयविजयाय सहोयर, एत्तो एयं पवक्खामि ॥१॥ कंदी नामे नगरी छे. सूरतेज नामे राजा राज्य करे छे. लीलावती पट्टराणी छे. धननो आत्मा ते राजाने त्यां जन्मे ले छे. जयकुमार एवं नाम स्थापन करवामां आवे छे. अनेक कळाओ शीखे छे तेमां धर्मकळा तो तेने स्वाभाविक वरी छे. धनश्रीनो जीव परिभ्रमण करतां कर्मसंयोगे जयकुमारना भाई तरीके जन्म ले छे ने तेनुं नाम विजयकुमार राखवामां आवे छे. राजाना मरण पाम्या बाद राजा तरीके जयकुमारनो अभिषेक करवामां आवे छे. आ प्रसंग विजयकुमारना स्वाभाविक द्वेषमां अभिवृद्धि करे छे. अने ते राज्यना प्रतिपक्षी माणसो साथेनो समागम कर्या करे छे. महाराणी लीलावती जयकुमारने कहे छे के विजयकुमारने संतोष थाय एवं कांइक करो, एटले राजा जयकुमार आत्मकल्याणमां प्रबल अंतरायभूत राज्य छे एम जे स्वभावथी ज माने छे तेने प्रसंग मळे छे एटले स्वयं पोते ज विजयकुमारने बोलावीने तेनो राज्याभिषेक करे छे, माता अने प्रधान पुरुष सहित जयकुमार सनत्कुमार आचार्य महाराज पासे संयम स्वीकारे छे. जेने सतत मारी नाखवानी इच्छा राखतो हतो ते आम सुंदर रीते दीक्षा लईने लोकचाहना साथे जीवतो चाल्यो जाय छे ए वात विजयकुमारने रुचती नथी पण For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 63 नवम्बर २०१४ हवे शुं थाय? छतां ज्यारे त्यांथी मुनिओए विहार कर्यो त्यारे जयकुमारने मारवा माटे माराओ मोकल्या पण विना कारण आवुं पापाचरण करवुं ए सर्वथा अकरणीय छे एम समजीने मार्या वगर ज माराओए राजाने मारी नाव्यानुं कहीने संतोष पमाड्यो. वर्षो गयां ने एकदा जयकुमार मुनि काकंदी पधार्या. लोको खुश थया ने विजयकुमार फरी बळवा लाग्यो. तेणे माराओने बोलाव्या ने पूछ्यु के तमे तो तेने मारी नाख्यो हतो ने आ जीवतो क्यांथी आव्यो? तेओए खोटे खोटं कह्युं के अमने कांई खबर न पडी के कोण जयकुमार छे? अमे तो गमे ते साधुने जयकुमार मानीने हण्यो हतो. साधु तो बधा सरखा लागता हता. पछी विजयकुमार जयकुमार मुनि पासे जईने वांदी धर्मश्रवण करीने तेओ क्यां रहे छे ईत्यादि सर्व ध्यानमा राखीने आवे छे. रात्रिए एकलो जईने जयकुमार मुनिने तलवारथी हणे छे. बीजा मुनिओ तेने ओळखी जाय छे ने सकारे विहार करी जाय छे. काळधर्म पामीने जयकुमार आनत देवलोके १८ सागरोपमना आयुष्यवाळा देव थाय छे. दुष्ट परिणामे मरीने विजयकुमार पंकप्रभा नारकीमां दस सागरोपमनी स्थितिवाळो घोर नारक थाय छे. आ पांचमां भवमां जय-विजयनी कथा तो आम तद्दन नानी छे पण सनत्कुमार आचार्यश्रीनुं आत्मवृत्त विस्तारथी छे. साहित्यशास्त्रना अनेक प्रकारो समजावतुं अने कथानो रस जमावतुं ए वृत्त अनेक रसमां तरबोळ करे छे. कामनी परवशता, युवतिवर्णन सात्त्विक आत्माओनी सात्त्विकता, कर्मजनित सुखद अने दुःखद प्रसंगोनी परंपरा, शृंगार, अद्भुत, वीर, करुण रसो अंगांगीभाव धारण करता करता छेवटे शांत रसमां एवी सुन्दर रीते पर्यवसान पाम्या छे के जेनुं चित्रण चित्त फलक उपर चिरस्थायी बनी जाय छे. - स्वल्प पण दुष्कृत केवा कटुक विपाकने आपे छे ए वात आ वृत्त जाण्या पछी दृढ थई जाय छे. आ विभागमां जाणे सनत्कुमाराचार्य - नायक रूपे आवी गया होय एम क्षणभर लाग्या करे छे. छठ्ठो भव: जयविजया स सहोयर, जं भणियं तं गयमियाणिं । वोच्छामि पुव्वविहियं, घरणो लच्छी य पड़भज्जा ॥ १ ॥ गाथाथी पूर्वानुसंधान करीने कथा आगळ वधे छे. For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 माकंदी नामे नगरी छे. कालमेघ राजा राज्य करे छे. त्यां बंधदत्त शेठ अने शेठनां धर्मपत्नी हारप्रभा वसे छे. जयनो आत्मा हारप्रभानी कुक्षिए जन्म ले छे ने तेनु नाम 'धरण' राखवामां आवे छे. विजयनो जीव परिभ्रमण करतां करतां कालक्रमे ते ज नगरीमा कार्तिक शेठने त्यां जयानी कुक्षिए जन्म ले छे ने पुत्री रूपे उत्पन्न थाय छे. तेनुं लक्ष्मी एवं नाम राखवामां आवे छे. भवितव्यता योगे धरण अने लक्ष्मीना विवाह थाय छे. एक प्रसंगविशेषने लईने धरणने चानक चडे छे. ने ते सार्थ लईने परदेश कमावा माटे जाय छे. अटवीमांथी पसार थतां एक विद्याधरने तेनी आकाशगामिनी विद्यानुं पद संभारी आपवाने कारणे मैत्री थाय छे, विद्याधर धरणने सरोहिणी वनस्पति आपे छे. आगळ वधता एक पल्लिपतिने आ वनस्पतिना प्रभावे जीवितदान आपे छे. त्यांथी आगळ एक नगरना पादरमा मौर्य नामना चंडाळने बचावे छे. . आम अनेक उपर उपकार करवा; ए ए व्यसन बनी जाय छे. व्यापारमा सारं धन उपार्जन करीने पोताना नगर तरफ पाछो फरे छे. जे अटवीमांथी प्रथम पसार थयो हतो ते ज कादंबरी अटवीमांथी फरी पसार थतां भिल्लो तेना सार्थने लूटे छे. अने सर्व छिन्न-भिन्न थई जाय छे. धरण अने लक्ष्मी सार्थथी छूटा पडी जईने क्यांना क्यांय नासी जाय छे. अटवीमां लक्ष्मीने तृषा अने क्षुधा लागे छे. धरण वनस्पतिना प्रभावे पोतार्नु रुधिर अने मांस तेने आपे छे. आवो तो एक पाक्षिक स्नेह छे. जेवो धरणमां नेह छे, तेवो ज सामे द्वेष छे, प्रतिक्षण धरणना दुःखे लक्ष्मी राजी थाय छे. नासता भागता ते बन्ने एक नगरे पहोंचे छे. त्यां नगर बहार एक देवकुलिकामां रात रह्या छे. त्यां एक चोर आवी चडे छे. तेनी साथे लक्ष्मी जाय छे ने धरणने माथे चोरी- आळ चडे छे. तेमांथी मौर्य तेने बचाको छे ने फरी पाछी लक्ष्मी तेने मळे छे. त्यांथी अनेक दुःखो सहन करतां फरी कादंबरी अटवीमा आवी चडे छे. भिल्लपतिनो समागम थाय छे. ते ओळखे छे ने पोताना अकृत्यनो खूब पश्चात्ताप करतो ते धरणने सर्वस्व समीने विदाय आपे छे. धरण पोताने नगर आवे छे. केटलाक समय बाद फरीथी धरण परदेश कमावा नीकळे छे. लक्ष्मी पण साथे ज छे. धनना अधिक लाभ माटे समुद्रयाला करे छे. वहाण भांगे छे, हाथमां पाटियु आवे छे ने धरण तरतो तरतो सुवर्णद्वीप पहोंचे छे. चीन तरफथी आवतो एक सुवदन श्रेष्ठीपुत्र त्यां आवे छे. तेनी साथे धरण जाय छे पण सुवर्णद्वीपनी देवी कोपे छे ने धरण For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ तेनो भोग बने छे. लक्ष्मी सुवदन साथे भळी गई छे, ते राजी थाय छे. त्यांथी धरणने पूर्व परिचित विद्याधर छोडावे छे. सारसंपत्ति आपीने ईच्छित स्थळे पहोंचाडे छे. सुवदन अने लक्ष्मी त्यां आवे छे अने तेओ त्यां धरणने जुए छे. ते बन्नेना पेटमां कळकळ्तुं तेल रेडाय छे छतां ते पापीओ पाप छोडता नथी. राजदरबारे वात पहोंचे छे. छेवटे बधु खुल्लु पडे छे. धरण बन्नेने जीवता जवा दे छे. ___ अहीं धरण उपर टोप्य शेठ सारी सज्जनता दाखवे छे. छेवटे धरण पोताने गाम आवे छे. संसारनी अनेक विचित्रताओ जोईने तेनुं मन स्वाभाविक रीते संवेग तरफ वळे छे. तेमां अर्हद्दत्त आचार्यश्रीनो संयोग सांपडे छे. तेमनी वात सांभळीने तो तेना संवेगनी भूमिका नवपल्लवित बने छ ने तेमनी पासे अनेक मित्रो साथे संयम ले छे. पछी विहार करता करता धरण मुनि ताम्रलिप्ती नगरीए जाय छे. त्यां सुवदन अने लक्ष्मी रह्यां छे. लक्ष्मी धरण मुनिने जुए छे ने तेनो विद्वेष प्रज्वली ऊठे छे, ते मुनि उपर चोरीनु आळ चडावे छे. नगररक्षको मुनिने पकडे छे, मुनि मौन रहे छे, मुनिने शूळीए चडावे छे. शूळी तूटी पडे छे, राजा वगेरे त्यां आवे छे, लक्ष्मी नासी छूटे छे सुवदन बधी वात करे छे. पापनो क्षय अने धर्मनो जय थाय छे. सुवदन दीक्षा ले छे. संयमनु यथाविधि परिपालन करता धरण मुनि काळधर्म पामीने आरण देवलोके एकवीस सागरोपम स्थितिवाळा देव थाय छे. बूरे हाले मरीने लक्ष्मी धूमप्रभा नारकीमा १७ सागरोपमना लांबा आयुष्यवाळा नारक तरीके उपजे छे. ___ आ प्रसंग जरा विस्तारथी जणाव्यो छे पण आ कथा आ विभागमा एटली खीली छे के विस्तार पण घणो ढूंको होय एम लागे छे. आचार्य अर्हददत्तनुं चरित्र तो घणुं ज रम्य अने भवनिर्वेदनी भारोभार महत्ता समजावतुं रसमय बन्यु छे. तेमां आवतां रूपको तो वांच्या पछी मनमां रमी रहे छे. संसार- खेंचाण केटलुं छे तेमांथी छुटवू केटलुं मुश्केल छे तेनो चितार आ चरित्र करावे छे. सज्जनोनी सज्जनता अने दुर्जनोनी दुर्जनता केवी होय छे ते आ विभागमां जणावी छे. आपत्तिमां आवेलो सज्जन अधिक सुजनता दाखवे छे. अग्निमां पडेल कालागुरु धूप अपूर्व सुगन्ध प्रसरावे छे. तेनो साक्षात्कार धरण करावे छे: आपद्गतः खलु महाशयचक्रवर्ती, विस्तारयत्यकृतपूर्वमुदारभावम्। For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 66 कालागरुर्दहनमध्यगतः समन्ताः ल्लोकोत्तरं परिमलं प्रकटीकरोति ॥ १ ॥ सातमो भव: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NOVEMBER-2014 पूर्वानुसंधान गाथा आ प्रमाणे छेः वक्खायं जं भणियं, धरणो लच्छी य तह य पइमज्जा । एत्तो सेणविसेणा, पित्तियपुत्त त्ति वोच्छामि ॥१॥ चंपा नामे नगरी छे. अमरसेन राजा छे. जयसुन्दरी महाराणी छे. जयसुन्दरीनी कुक्षिए धरण जन्मे छे, ने तेनुं नाम 'सेन' राखवामां आवे छे. वखत जतां लक्ष्मीनो जीव महाराजाना नाना भाई युवराज हरिषेणने त्यां तारप्रभानी कुक्षिए पुत्र पणे जन्म ले छे तेनुं नाम 'विषेण' राखवामां आवे छे. एक केवली साध्वीजीनी आत्मकथा सांभळीने घणाए पौरजन सहित राजा अमरसेन पुरुषचंद्रगणी पासे दीक्षा ले छे ने हरिषेण राजा थाय छे. परम सज्जन स्वभावे अने प्रकृष्ट पुण्योदयने लईने सेनकुमार राजा प्रजा अने सकल परिवारने पूर्ण प्रीतिपात्र छे. फक्त विषेणने छोडी दईने जेम जेम सेन तरफनुं आकर्षण सर्वनुं वधतुं जाय छे. तेम तेम विषेणनो विपरीत भाव पण वधतो जाय छे. विषेण सेनने मारी नाखवा मारा मोकले छे पण तेओ पकडाई जाय छे ने बाजी ऊंधी वळे छे. राजा हरिषेणने पोताना ज पुत्र पर घणो क्रोध आवे छे पण सेनकुमार पोताना अपूर्व सौजन्यथी ए सर्वनुं सान्त्वन करे छे. केटलाएक काळ पछी जाते ज विषेणकुमार सेनकुमारने मारवा उद्यत थाय छे पण ते फावी शकतो नथी. स्वच्छ हृदयना सेनकुमारने विषेण शा कारणे आम करतो हशे ते समजातुं नथी. ते पोतानी प्रिया साथै राज्य छोडी चाली नीकळे छे. प्रवासना अनेक कष्टोने अनुभवता तेओ आगळ वधे छे. प्रियतमानो वियोग थाय छे ने छेवटे प्रियमेलकतीर्थ तेमनो समागम करावे छे ने पर राज्यमां पण परम आह्लाद अनुभवे छे. पोताना राज्यनी स्थिति विषेणना हाथे विषम बनी छे. ते सुधारवा प्रयत्न करे छे छतां प्रयत्नो कारगत निवडता नथी. For Private and Personal Use Only हरिषेण आचार्य के जेओ संसार पक्षे पोताना काका थाय छे. तेओने मुखे कर्म अने संसारनी विचित्रताओ सांभळीने सेनकुमार, शान्तिमति प्रिया अने मंत्री आदि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 67 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ परिवार सहित प्रव्रज्या स्वीकारे छे. विहार करता कोल्लाक गामे राते प्रतिमा ध्याने सेनमुनि रह्या छे त्यां राज्यभ्रष्ट विषेणकुमार पोताना केटलाएक दुष्ट मित्रो सहित आवे छे, ने सेनमुनिने मारवा उद्यत थाय छे पण क्षेत्रदेवता तेने वारे छे ने छेवटे त्यांथी दूर अवग्रह बहार मूकी आवे छे. भिल्लोने हाथे भयंकर अटवीमां भुडे हाल मरीने विषेण बावीस सागरना आयुवाळो तमप्रभा नारकीमां नारक थाय छे, ने सेनमुनि अनशन करी नवमे अवयके लीस सागरना आयुष्यवाळा देव थाय छे. आ विभागमां एक साध्वीजीनुं तथा हरिषेण आचार्यश्रीनुं कथानक ढूंकमां छतां सचोट छे. कोईना पर आळ चडाववानां परिणाम केवां सहन करवां पडे छे ते अने नाना अपराधनो दंड केवो विचित्र मळे छे तेनो चितार ए कथानको करावे छे. आ विभागमां नैमित्तिकना ज्ञान- सामर्थ्य, वृक्षो अने तीर्थोना प्रभावो, मणिर्नु माहात्म्य, योगीओना आश्रमो वगेरे वर्णन आकर्षक छे. नैसर्गिक अने प्रासंगिक वर्णनोना मिश्रणथी आ विभागनी कथा जाणे कुदरतने चितरती न होय एवो भाव जगवती आगळ ने आगळ लई जाय छे. आठमो भव: वक्खायं जं भणियं, सेण-विसेणा उपित्तियसुयत्ति। गुणचंद-वाणमंतर, एत्तो एवं पवक्खामि ॥१॥ आ पूर्वानुसंधान करती आ गाथा छे. अयोध्या नगरीमा मैत्रीबल राजाने घेर पद्मावती महाराणीनी कुक्षिए सेननो आत्मा अवतरे छे, अने तेनुं गुणचंद्र एवं नाम राखवामां आवे छे. सकल कलाकलापनो अभ्यास करवा छतां कुमार गुणचंद्रनुं चित्त स्वभावतः विषयविमुख रहे छे. सतत धर्मपोषक वृत्ति-प्रवृत्ति ने वात ए आचरे छे. विषेणनो जीव विद्याधरोनी श्रेणिमां जन्म ले छे, ते वानमंतर नामे प्रसिद्ध थाय छे. कुमारने उपद्रव आपवा वाणमंतर विद्याधर घणा प्रयत्नो करे छे पण कुमारना पुण्य पासे तेनु कांई चालतुं नथी. कुमार गुणचंद्रना विवाह रत्नवती साथे थाय छे पछी पण प्रसंगे प्रसंगे विद्याधर वानमंतर कुमारनुं बूरं करवाना सतत प्रयत्नो कर्या करे छे. सतत वधता पुण्योदयने भोगवतो कुमार राजा थाय छे ने पृथ्वीनु न्यायपुरस्सर परिपालन करीने संयम स्वीकारे छे. For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 68 NOVEMBER-2014 छेवटे पण वानमंतर उपसर्ग करे छे ने नरकायु बांधीने अति रौद्रध्याने मरीने महातमा नामे सातमी नारकीमां ३३ सागरना आयुष्यवाळो नारक थाय छे. शुभध्यान करी आयुष्य समाप्त करीने मुनि गुणचंद्र सार्थसिद्ध विमानमा ३३ सागरोपम आयुः वाळा देव थाय छे. आ विभागमां प्रहेलिका आदि कूटकाव्यनी रचना रसमय अने आकर्षक छे. वचमां थोडो समय शृंगाररसे जाणे पोतानुं साम्राज्य जमाव्यं होय एम लागे छे. आचार्य विजयधर्मनुं कथानक गाथाबद्ध प्रवाहमां गुंथायुं छे. साध्वीजीनी कथा पण भाववाही छे. ते ते कथाओनी खूबी एवी छे के ज्यारे तेनुं वाचन चालतुं हो त्यारे वाचक तन्मय बनीने रसास्वाद माणतो होय एवो अनुभव थाय छे. तेने वाचक भिन्न छे एवी वृत्तिनुं विस्मरण थई जाय छे. काव्यनी खरी खूबी पण मां ज छे. नवमो भव: गुणचंद-वाणमंतर, जं भणियमिहासि तं गयमियाणिं । वोच्छामि जमिह सेसं, गुरूवएसाणुसारेणं ॥१॥ उज्जयिनी नगरी छे. पुरुषसिंह राजा छे. सुन्दरी महाराणी छे. गुणचंद्रनो आत्मा महाराणीनी कुक्षिए जन्म ले छे. आ जन्म लेवानुं ते आत्माने छेल्लुं छे. राजपुलना जन्मोचित सर्व कार्यो उत्तम प्रकारे करे छे ने पुत्रनुं नाम 'समरादित्य' राखवामां आवे छे. वानमंतरनो जीव नरकमांथी नीकळी परिभ्रमण करतो ग्रन्थिकने त्यां यक्षदेवानी कुक्षिए पुत्रपणे जन्मे छे ने 'गिरिषेण' एवं तेनुं नाम पाडवामां आवे छे. अनेक भवोथी आत्माने संस्कारित करता समरादित्यना आत्मानुं वलण आ भवमां सतत धर्म तरफ ज रहे छे. संसारनी के रंगरागनी वृत्ति के वात तेने जरी पण रुचती नथी. राजा वगेरे मोहवश ईच्छे छे के कुमार भोगविलासमां रक्तने सक्त बने तो सारं. ते माटे अशोक वगेरे एवा मित्रोने पण कही राखे छे के तमे कुमारनी चित्तवृत्तिने मोहित करो, परंतु ते मित्रो पण कुमारना परिचयथी ने प्रभावथी ऊलटा तेना मतमां मळी जाय छे. राजा प्रसंगे प्रसंगे घणी घणी मोहक साधनसामग्री कुमार माटे योजे छे पण तेमां तेनुं मन ललचातुं नथी ते तो वैराग्य तरफ वधु ने वधु खेंचातो जाय छे. अहीं कुमारना वर्तनमांखरेखर देखाई आवे छे के For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 5 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ विकार हेतौ सति विक्रयन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः । -विकारना कारणो छतां जेओनां मन विकारने पामतां नथी तेओ ज खरेखर धीर छे. व्याधि, वृद्धावस्था अने मृत्यु ए लण केवां अप्रतिकार्य छे तेनुं चित्रण एटलुं सुन्दर छे के चित्तफलक पर ए चित्रण चड्या पछी नथी तो झांखु पडतुं के नथी तो दूर खसतुं. पिताना आग्रहथी कुमार विलासवती अने कामलता नामे बे राजकुमारीओ साथे विवाह करे छे. ___ कुमारने आकर्षवाने बदले बन्ने कुमारीओ कुमारना विचारमा रंगाई जाय छे. विषयाधीन आत्माना विरूप विपाकनुं जे वर्णन कुमारे ते बन्नेने का तेनी ऊंडी असर तेना उपर पडी अने यावज्जीव ब्रह्मचर्यव्रतनुं परिपालन करवानो सर्वेए दृढ निश्चय कर्यो. देवोए पण तेओना ते निर्णयने अनुमोद्यो. राजा-राणी पण छेवटे हर्षित थया. तेओ पण कुमार पासे गयां ने कुमारनी वात सांभळीने संवेग तरफ आकर्षाया. संसारनी विचित्रताओनी परंपरा ज्यारे कुमार जणावे छे त्यारे भलभलाने एम थई जाय छे के आ संसार खरेखर, असार ने दुःखनो भंडार छे. परिणामे कुमार, माता-पिता, स्त्रीओ, मित्रादि सर्व स्वजन-संबंधीओ साथे प्रभास नामना आचार्य महाराज पासे महामहोत्सव पूर्वक संयम स्वीकारे छे. राजा पोताना भाणेजने राज्य सोंपे छे. पुरजन मात्र आनंदित थाय छे. फक्त एक गिरिषेणना हृदयमां अकारण द्वेष जागे छे ने ते कुमारने मारवानी विचारणा कर्या करे छे. वखत जतां अनेक शिष्य परिवार समेत समरादित्य मुनि अयोध्या नगरीए पधारे छे. राजा अने नगरजनो दर्शन वंदन माटे आवे छे ने देशनामां एटला तात्त्विक भावो समजावे छे के जे अनेक तत्त्वग्रन्थो जेवा छे. काळचक्रनुं स्वरूप, कर्मनी परिस्थिति, कर्मबंधना हेतुओ, मुनिधर्मनी महत्ता इत्यादि अनेक विषयो आवे छे. ए प्रमाणे अनेक आत्माने प्रतिबोध करता समरादित्य मुनि गामानुगाम विहार करतां अवंती पधारे छे. त्यां एकदा एकांतमा प्रतिमा ध्याने रह्या छे. मुनिनी पाछळ पडेलो गिरिषेण पण ठीक अवसर मळ्यो एम विचारी ध्याने रहेला मुनिना शरीर उपर आजुबाजुथी चीथरां वीणी लावीने वीटे छे. ते उपर अळसीनुं तेल छांटे छे ने पछी अग्नि चांपे छे. ध्याननी धाराए चडेला मुनिने शरीरनी परवा नथी. तेओ तो क्षपकश्रेणि उपर आरूढ थाय छे ने घातिकर्मनो क्षय करी केवळज्ञान पामे छे. For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR __70 NOVEMBER-2014 वेलन्धर देव सपरिवार त्यां आवे छे ने अग्नि होलवी नांखीने मुनिना शरीर उपरनां चीथरां दूर करे छे. राजा वगेरे त्यां आवी चडे छे. वातनी जाण थाय छे. गिरिषेण पण हृदयमां शरमाय छे. पोताना अपकृत्य माटे, मुनिनी महानुभावता तेना हृदय उपर असर करी जाय छे ने ते चाल्यो जाय छे. समरादित्य केवली धर्मदेशना आपे छे. नरक-गतिनां दुःखो अने देवलोकनां सुखो केवांछे ते समजावे छे ने पछी मोक्षनां सुखो केवां अनुपमेय छे तेनु वर्णन भिल्ल अने नगर सुखना उपनयवाळा दृष्टांतथी वर्णवे छे. छेवटे वेलन्धर देव आ उपसर्गर्नु कारण पूछे छे. त्यारे केवली भगवंत सर्व संबंध कहे छे. गिरिषेणनो आत्मा असंख्याता पुद्गल परावर्तो पछी सम्यक्त्व पामशे एम जणावे छे. अत्यारे तो तेणे गुण पक्षपात बीज प्राप्त कर्यु छे ते बीजक तेनी सम्यक्त्व प्राप्तिमां परंपराए कारणभूत बनशे. समरादित्य केवली भगवंत त्यांथी विहार करी जाय छे. गिरिषेण भूडे हाले मरीने सातमी नरके उत्कृष्ट आयुष्यवाळा नारक तरीके उपजे छे ने शैलेशीकरण करी बाकीनां चार अघाती कर्मनो अंत करीने समरादित्य केवली भगवंत सिद्धिगतिना शाश्वत सुखना भोगी बने छे. कर्मना सकंजामांसपडायेलो एक आत्मा अनंतकाळ संसारमा भमे छे अने कर्मनी सामे झझूमतो अन्य आत्मा उत्तरोत्तर प्रशमभावमा आगळ वधतो अनंत संसारनो अंत साधी सिद्धि मेळवे छे ते आ चरित्रमा स्पष्ट छे. चरित्रकार पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज पण ग्रन्थ समाप्ति करता आशीर्वाद आपे छे के जं विरइऊण पुण्णं, महाणुभावचरियं मए पत्त। तेण इहं भवविरहो, होउ सया भवियलोयस्स॥ महानुभाव (समरादित्य) नुं आ चरित्र रचीने में जे पुण्य प्राप्त कर्यु होय तेथी भव्य लोकोने सदा भवनो विरह थाओ. आम उपसंहारमा विरह पद के जे आ सर्व रचनामां बीजभूत बन्यु छे ते पण सुन्दर रीते योज्यु छे. आपणे पण आवां चरिलो द्वारा भवविरहने इच्छीए. कथामांथी केटलीक समजाती वातो : आ समराईच्चकहा ए एक काव्य ग्रन्थ होवा छतां तेमाथी प्रासंगिक अनेक विषयो जाणवा मळे छे. जैन दर्शननुं तत्त्वज्ञान स्थळे स्थळे मुनिवरोनी देशनामा For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 71 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ घणु ज आवे छे. व्यवहारना अने मुनि जीवनना आचारो अने प्रक्रिया पण आ कथा व्यवस्थित समजावे छे. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन मुनिओमां धर्मलाभ ए प्रमाणे आशीर्वचन बोलवानो वर्तमानमां पण व्यवस्थित चालु व्यवहार छे. आ कथामां सेंकडो वखत मुनिओए ए आशीर्वचन उच्चार्याना उल्लेखो छे एटले वर्तमानमा प्रचलित आशीर्वचन श्री हरिभद्रसूरिजी म. ना समयमां पण प्रचलित हतुं ए निर्विवाद छे अने तेओश्रीना उल्लेख प्रमाणे तो आशीर्वचन ज सनातन रूढ छे, अने एम ज होवु जोईए एम बुद्धिने पण समजाय छे. आ आशीर्वचन सिवाय मुनिना मुखे शोभे एवं निर्दोष आशीर्वचन अन्य कल्पी शकातुं नथी. कथाना अनुयायी अने प्रशस्ति आ कथाने अनुसारे छूटक छूटक घणु लखायुं छे. श्रीप्रद्युम्नसूरिजी महाराजे 'समरादित्यसंक्षेप' श्लोकबद्ध संस्कृत भाषामां लखेल छे. ए ग्रन्थ पण संस्कृत काव्य ग्रन्थोमा प्रधान स्थाने मूकी शकाय एटलुं सामर्थ्य धरावे छे. पं. पद्मविजयजी महाराजे 'श्रीसमरादित्यरास गुजरातीमां पद्यबंध लखीने प्राकृत-संस्कृतना अणजाण आत्माओ उपर अनुपम उपकार कर्यो छे. रासनी रचना पण पूर्ण सामर्थ्यवाळी छे. प्रशमरस नितरती आ,कथा ज एवी छे के जे एम ने एम असर करे तो पछी समर्थ व्यक्तिओने हाथे लखायेल केम न करे? ए सिवाय गुजराती भाषामां गद्यरूपे पण आ कथानुं पुस्तक प्रकट थयेल छे. वेरनो विपाक नामे ट्रंकमां पण आ चरित्र गुजरातीमां प्रसिद्ध थयेल छे. ढूंका रासरूपे पण रचना थई छे. आ कथानी प्रशस्ति गातां कविवर्य धनपाले 'तिलकमंजरी' मां ए रम्य सूक्त मूक्युं छे, ते आ प्रमाणे छेः निरोर्बु पार्यते केन, समरादित्यजन्मनः । प्रशमस्य वशीभूतं, समरादित्यजन्मनः ।। समरादित्यथी उत्पन्न थयेल प्रशमने अधीन थयेलु ने युद्ध वगेरेने त्यजतुं मन कोना वडे रोकी शकाय? अर्थात न ज रोकी शकाय. कवि धनपालनु उपरोक्त कवन मननपूर्वक आ कथा वांच्या पछी सर्वथा सत्य छे एम सहृदयने लाग्या वगर रहेतुं नथी. सूर्य-चन्द्रना प्रकाश सुधी आ कथा अंतरने अजवाळती रहे एज अभिलाषा. (जैन सत्यप्रकाश, वर्ष-१८ मांथी साभार.) For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private and Personal Use Only भव ४ ५ ६ ७ ८ ९ नाम गुणसेन- अग्निशर्मा सिंहराजा आनंदकुमार शिखिकुमार - जालिनी धन- धनश्री जय-विजय धरण- लक्ष्मी सेन - विषेण गुणचंद्र व्यंतर समरादित्य - गिरिसेन 'समरादित्य' के नौ भवों का आकलन संबंध राजा व पुरोहित पुल पिता-पुत्र पुल-माता पति-पत्नी भाई-भाई पति - पत्नी चचेरे भाई मनुष्य देव राजा-चांडाल क्षेत्र महाविदेह महाविदेह महाविदेह कोशाम्बी सुशर्मनगर काकंदी माकंदी चंपा भरत भरत भरत भरत भरत भरत नगर क्षितिप्रतिष्ठितं जयपुर अयोध्या उज्जयिनी अवांतर कथाएँ वैराग्य उद्बोधक विजयसेन आचार्य का दृष्टांत. भवनिर्वेद प्रबोधक धर्मघोषसूरिजी का दृष्टांत, मधुबिन्दु का भावपूर्ण परिचय. संसारोद्वेग जनक विजयसिंह आचार्य का दृष्टांत, नास्तिक मत का खंडनात्मक विवरण. परिव्राजक मत का खंडनात्मक विवरण, यशोधर मुनि का कथानक. सनत्कुमार आचार्य का कथानक. अर्हद्दत्त आचार्य का कथानक. गुणश्री साध्वी का कथानक, हरिषेण आचार्य का कथानक. विजयधर्म आचार्य का कथानक, सुसंगता साध्वी का कथानक. Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्राट् संप्रति संग्रहालयना प्रतिमा लेखो आजे आपणी पासे परंपरा अने श्रमण संस्कृतिनो क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नथी, इतिहासना अप्रकाशित केटलाय तत्त्वो ग्रंथ भंडारो, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखोमां धरबायेला छे. प्रतिलेखन पुष्पिकाओ, ताम्रपत्रो, शिलालेखो, अने प्रतिमालेखो आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओथी ऐतिहासिक तत्त्व- अनुसंधान करी शकाय छे. आवी ऐतिहासिक साधन साम्रगीओमा प्रतिमालेखो अग्रता क्रमे छे, प्रतिमा लेखोमां सामान्यथी बे प्रकार मळे छे. १ पाषाण प्रतिमा लेखो २ धातु प्रतिमा लेखो, धातु प्रतिमानी अपेक्षाए पाषाण प्रतिमामा लेखो बहु ओछा प्राप्त थाय छे. प्रतिमा लेखोमां श्रमण परंपरा अने तत्कालीन श्राद्ध परंपरा अखंड रूपे प्राप्त थाय छे. श्रमण परंपराना ईतिहासमां खूटती कडीओनुं अनुसंधान करवामां प्रतिमा लेखो बहु महत्त्वनो भाग भजवे छे. पूज्यपाद् गुरुदेव श्रीमद् आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज प्रभु शासनना आवा ऐतिहासिक मूल्योनी काळजी अने जतन माटे सतत उद्यमशील अने कांईक करी छूटवानी भावना धरावी, प्रभु शासननी शान अने गरिमाने हृष्ट पुष्ट करता रहे छे. पूज्य गुरुमहाराजना अथाग प्रयत्नथी निर्मित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर अने सम्राट् संप्रति संग्रहालयमा आवी केटलीय ऐतिहासिक सामग्रीओ संकलित, संग्रहीत अने सुरक्षित छे. ___संग्रहालयमा रहेला धातु अने पाषाण प्रतिमाना लेखो अहीं प्रस्तुत छे. आ लेखोने उतारी आपवानुं पुण्यकार्य परम पूज्य शासनसम्राट्श्री नेमिसूरिश्वरजी म.सा. ना समुदायना प. पू. आचार्यदेव श्रीसोमचंद्रसूरीश्वरजी महाराज साहेब अने एमना शिष्य परिवारे करी आप्यु छे. संग्रहालयमा जे क्रमांके धातु-प्रतिमाओ नोंधायेल छे. ते क्रमानुसार ज प्रतिमाना लेखो प्रकाशित करीए छीए. - १. विभागीय नं. २५०', नमिनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५७६ वर्षे माघ वदि ५बुधे श्रीश्रीमालज्ञातीय श्रे. महिराज भार्या हांसी सु. कडूआ भा. लखमादे बाई हांसीकेन स्वआत्मश्रेयोर्थं श्रीनमिनाथबिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्रीसूरिभिः वीसलनगरवास्त० १. विभागीय नं. १७१थी २४९मां नोंधायेल वस्तुओमां लेख विगेरे न होवाथी त्यारबादना लेखो अत्रे प्रकाशित कर्या छे. For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 74 सं.... SHRUTSAGAR NOVEMBER-2014 २. विभागीय नं. २५२, पार्श्वनाथ भगवान, चतुर्विंशतिका सं. १६९३ चैत्राष्टम्यां श्रीमूलसंघे कुंदकुंदान्वये पंदेल (?) ३. विभागीय नं. २५४, जिनप्रतिमा, त्रितीर्थी संवत् १२९९ साघ पदम भ (?) ४. विभागीय नं. २५९, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी of संवत१२२५ ज्येष्ठ सुदि ८ श्रे. पिठा पन्या रूपिणिकया लखमण पाल्हण देल्हण सलोतया पार्श्वबिंबें परमाणंद....कारितं श्री ५. विभागीय नं. २६१, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी .............. प्रतिष्ठिता श्रीचंद्रसूरिभिः ६.विभागीय नं. २६२, पार्श्वनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १३८२ वर्षे आषाढ वदि ९ नीसा वंशे सा. काला भार्या वींझू पुत्र खीदाकेन पिता-माताश्रियोर्थं श्रीपार्श्वनाथ श्रीवीरप्रभसूरिणामुपदेशेन प्रतिष्ठितं सूरिभिः ७. विभागीय नं. २६३, महावीरस्वामी भगवान, पंचतीर्थी सं. १४३२ वर्षे फागुण सुदि २ शुक्रे श्रीभावडारगच्छे श्रीश्रीमालज्ञा. ठा. पातल भ्रातृ कोठार भ्रा. क्षतेलमेरा(?) पितृव्यश्रेयसे श्रीमहावीरपंचतीर्थीः का. प्र. श्रीभावदेवसूरिभिः ॥छ॥ ८. विभागीय नं. २६७, श्रेयांसनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १४७८ वर्षे फागुण वदि ८ रवौ ऊ० ज्ञा. श्रेष्ठि वीरड स.सा. गोपाल भा. सुहडा पु. नोडा भा. नायकदे सहितेन पित्रोः श्रे. श्रीश्रेयांसः का. प्र. श्राधः श्रीदेवचार्यसि० श्रीदेवचंद्रसूरिपदे भ० श्रीपूनचंद्रसूरिभिः ९. विभागीय नं. २६८, अजितनाथ भगवान, एकलतीर्थी सं. १४४६ वैशाख वदि ३ सोमे प्राग्वाट ज्ञाती............श्रे. भावठ भार्या पाल्हा श्रेयोर्थं सुतजगडेन श्रीअजितनाथबिंब कारितं प्र. श्री उढवगच्छे श्रीकमलचंद्रसूरिभिः १०. विभागीय नं. २६९, सुविधिनाथ भगवान, एकलतीर्थी सं. १६६० वर्षे श्रीसुविधिनाथबिः का. सा. मनजी । For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 श्रुतसागर नवम्बर-२०१४ ११. विभागीय नं. २७३, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी सं. १.....७ प्र. वैशाख सुदि ४ भ. जगतकीर्ति ग. सी. संत (?) १२. विभागीय नं. २७५, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी संवत् १५११ वर्षे मा. सुदि ५ श्रीमूलसंघे भ. श्रीसकलकीर्ति तत्शिष्य ब्र. जिणदास उपदेसात् वछरवाल वीस० ज्ञाते सा. साढा भा. नाउ सुत सिवदे। १३. विभागीय नं. २७६, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी १५३४ फा. शु. श्रीमूलसंघे श्रीभुवनकीर्ति हुंबडवंशे श्रे. खेता भा. नांकु पुत्र साकु तत्पुत्र सा. ........ प्रणमति. १४. विभागीय नं. २७८, जिनप्रतिमा, एकलतीर्थी सं. १८२५ व. व. सु. कुं. पं. श्रीमतू तं मिदं पूजनार्थं कृतं १५. विभागीय नं. २८१, पार्श्वनाथ भगवान, एकलतीर्थी सं. १६४० व. माघ. व. २ श्री.. श्रीभुवनकीर्तिगुरुणामुपदेशत् सा.. १६. विभागीय नं. ३२३, सुमतिनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १५५३ वर्षे माघ सुदि ६ सोमे ओसवाल ज्ञा. सा. लापा भा. लालादे पु. सा. मेघा सा. धना-गणपतिभ्यां स्वभ्रातृनरपालश्रेयसे श्रीसुमतिनाथबिंब कारितं श्रीबिवंदणीकगच्छे सिद्धाचार्यसंताने प्र. श्रीकक्कसूरिभिः ॥ थल ग्रामे १७. विभागीय नं. ३२४, शांतिनाथ भगवान, पंचतीर्थी सं. १५१८ वर्षे ज्येष्ट मासे श्रीश्रीमाली श्रे. चांपा भा. चांपलदे पु. लाडण..... रूपिणि पु. महिपतिमुख्यसहितेन श्रीअंचलगच्छेश श्रीजयकेसरिसूरि उपदेशतः स्वश्रेयसे श्रीशांतिनाथबिंब कारि. श्रीसंघ० प्रति. श्रीः श्रीः ॥ १८. विभागीय नं. ३२५, धर्मनाथ भगवान, पंचतीर्थी संवत् १५३४ वर्षे पोस व. ६ रवौ प्रागवाटज्ञा. सा. चांपलदे पु. महिराज-धना भा. डाहीका पु. आंबा श्रे. श्रीधर्मनाथबिं. का. प्र. लघुतपापक्षे श्रीलक्ष्मीसागर....... अरेल? For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR 76 १९. विभागीय नं. ३२७, सुविधिनाथ भगवान,' पंचतीर्थी सं. १४७८ वर्षे वै. शु. ६ दिने प्राग्वाटज्ञातीय ब्ध० अता सु. श्रे. मांडण भार्या माणिकदे-महगलदे सु. डूंगर - भाखर- धर्मसी - खीमसी - पांचा- धना-तत्र व्य. डूंगरेण पितृश्रेयोर्थं श्रीसुविधिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठितं तपागच्छे श्रीदेवसुंदरसूरिभिः ॥ २०. विभागीय नं. ३२८, आदिश्वर भगवान, चतुर्विंशतिका संवत् १५०७ वर्षे वैसाख सुदि ११..... दिने श्रीमूलसंघे भट्टारक श्रीजिनचंद्रदेव ...... सजैसिंघ भार्या........ तत्पुत्र रू.. ...... भार्या मनसिरि तत्पुत्र छाजु भार्या कुहरसिरि वास्त. = वास्तव्य सं. = संवत का. = = कारितं प्र. = प्रतिष्ठितं ज्ञा. = ज्ञातीय = भार्या भा. = पु. = पुत्र प्रति. = प्रतिष्टित www.kobatirth.org ::: संकेतसूचि + + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only NOVEMBER-2014 श्रे. = श्रेष्ठी सा. = साह, शाह ब्रह्मचारी ऊपकेश ब्र. = ऊ. = ठा. = ठक्कर, ठाकुर भ्रा. = भ्राता भ. = भट्टारक व्य. = व्यवहारी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |पंचाचार्यपदप्रदानाष्टकम्॥ संजयकुमार झा श्रीमते योगनिष्ठाय, आत्मसाधनकारिणे। सपादशच्छास्त्रकर्ने, बुद्ध्यब्धिसूरये नमः॥१॥ गच्छाचार्यो प्रशान्तमूर्तिः, सूरिः श्रीकैलाससागरः। तच्छिष्यो सूरि कल्याणः, विनेयः पद्मसागरः॥२॥ राष्ट्रसंतं सुधी/रं, तीर्थरक्षणकारकम्। श्रुतसंरक्षकं वंदे, सूरि श्रीपद्मसागरम् ॥३॥ राजस्थाने शुभे प्रान्ते, नाकोड़ातीर्थपावने। सूरिपदप्रदानस्तु, वर्षावासे सुनिश्चितम्।।४॥ संघस्तुतिं परिभाव्य, दृष्ट्वा शिशुगुणगौरवान्। जिनशासनसमुन्नत्यै, कृतोऽयं हि सुनिर्णयम्॥५॥ देवेन्द्रवन्दित देवेन्द्रं, आचार्यगुणधारकम्। सूरिपदसमारूढं, भूयात् कल्याणकारकम्।।६।। ज्ञानार्णवसमुद्भूतं, ज्ञानवैभवसंयुतम्। पद्यानंदकरं शान्तं, सूरिं हेमेन्दुसागरम्॥७॥ मग्नस्तु गुरुसेवायां, लग्नस्तु धर्मचिंतने। श्रीसंघचिन्तको वंदे, सूरि विवेकसागरम्॥८॥ श्रुतनिष्ठः श्रुतभक्तः, श्रुतसेवापरायणः। श्रुतसंरक्षकं वन्दे, सूरिं अजयसागरम्।।९॥ विमलबुद्धिसम्पन्नं, विमलकार्यकारिणम्। सूरिपदसमारूढं, वंदे विमलसागरम्॥१०॥ जयन्तु सूरयः सर्वे, संघकल्याणकारकाः। आत्मोत्थानपराः सन्तु, मोक्षमार्गानुगामिनः ।। For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 78 NOVEMBER-2014 SHRUTSAGAR नयनाम्बराश्वभू(२०७१)वर्षे, मार्गोज्ज्वलदशमी विधौ। प्रसङ्गो पूर्ण सञ्जातः, पार्श्व-पद्मप्रसादतः ॥११॥ मल्लिमहिसमुद्भूतः, झोपाख्यो द्विजनन्दनः । सञ्जयेन कृतं भव्यं, सूरिपद शुभाष्टकम् ॥१२॥ ॥ इति पञ्चाचार्यपदप्रदानाष्टकं सम्पूर्णम् ॥ सूरिपद महात्म्य तित्थयरसमो सूरि, सम्मं जो जिणमयं पयासेई। आणाइ अइक्कतो, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो॥१३॥ जे सम्यग् रीते जिन मतने प्रकाशे छे ए आचार्य तीर्थंकर समान छे. आज्ञानो अतिक्रम करनारने कुत्सित पुरुष जाणवो, पण सत्पुरुष न जाणवो. (संबोध सित्तरी) पवयणरयणनिहाणा, सूरिणो जत्थ नायगा भणिया। संपइ सव्वं धम्म, तयहिट्ठाणं जओ भणियं ॥४८॥ जे धर्ममां जिनोक्त शास्त्ररूप रत्नोना निधान एवा आचार्यने नायक कह्या छे ते सघळोय धर्म आचार्यना आधारवाळो छे. कइयावि जिणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं । आयरिएहिं पवयणं, धारिज्जइ संपयं सयलं ।।८९॥ कोई काळे जिनेश्वरो मोक्षमार्ग भव्य जीवोने आपीने मोक्षने पाम्या छे वर्तमानकाळमां सकल प्रवचन आचार्योथी धारण कराय (संबोध प्रकरण) For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पुस्तक नाम लेखक संपादन अनुवाद प्रकाशक प्रकाशन वर्ष मूल्य भाषा : : : : : :: : www.kobatirth.org पुस्तक समीक्षा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉ. हेमन्त कुमार चिकागो प्रश्नोत्तर (गुजराती अनुवाद) श्री विजयानंदसूरि प्रसिद्ध नाम- श्री आत्मारामजी श्री विजय पुण्यपालसूरि श्री संयमकीर्तिविजयजी पार्श्वाभ्युदय प्रकाशन, अहमदाबाद विक्रम संवत् २०७० १००/ हिन्दी व गुजराती तपागच्छगगन के देदीप्यमान नक्षत्र आचार्य श्री विजयानन्दसूरिजी जिनका प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी महाराज है, ने चिकागो (शिकागो), अमेरिका में ईस्वी सन् १८९३ में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन जैनधर्म से संबंधित विषयों के प्रतिपादन हेतु एक ग्रंथ की रचना की जिसका नाम चिकागो प्रश्नोत्तर रखा. यह ग्रंथ चिकागो में आयोजित सर्वधर्म सभा में प्रस्तुति के निमित्त और इस ग्रंथ में वहाँ के प्रश्नों के ही उत्तर होने से इसका यह नाम सर्वथा सार्थक एवं उचित है. जब सर्वधर्म सम्मेलन में उपस्थित होने हेतु पूज्य आत्मारामजी महाराज को निमंत्रण मिला तो उन्होंने पत्र लिखकर आयोजकों को बताया कि वृद्धावस्था के कारण, शास्त्रीय कारण और कितने लौकिक कारणों से वहाँ उपस्थित नहीं होने की सूचना दी. For Private and Personal Use Only आयोजकों के विशेष निवेदन पर उन्होंने वहाँ प्रस्तुति हेतु एक लेख लिखा जो प्रस्तुत ग्रंथ के रूप में जसवंतराय जैनी, लाहौर की ओर से विक्रम संवत् १९६२ में प्रकाशित होकर समाज के समक्ष प्रस्तुत हुआ. पूज्य आत्मारामजी के प्रतिनिधि के रूप में मुंबई के समाज ने श्री वीरचंदजी Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 80 NOVEMBER-2014 गाँधी को चिकागो भेजने का निर्णय लिया और श्री गाँधी ने पूज्यश्री के ग्रंथ के आधार पर वहाँ सर्वधर्म सभा को संबोधित किया तथा लोगों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का समुचित उत्तर देकर जैनधर्म की विशिष्टता एवं महत्ता स्थापित की. ___आज जैन एवं जैनेतर समाज में बहुत कम लोग ही जानते हैं कि उस सर्वधर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म के सदस्य के रूप में स्वामी विवेकानन्द के साथ जैन धर्म के सदस्य के रूप में श्री वीरचंदजी गाँधी ने भाग लिया था. ___श्री वीरचंदजी गाँधी वहाँ किसके प्रतिनिधि के रूप में गये थे और किस प्रकार उन्होंने जैन धर्म की विशेषताओं को प्रस्तुत किया था यह सब भी जैनेतर की तो बात ही नहीं जैन समाज के भी बहुत कम लोग ही जानते हैं. प्रस्तुत ग्रंथ के अध्ययन से पाठकों को यह अच्छी तरह से ज्ञात होगा कि उस समय किस प्रकार जैन धर्म का प्रचार-प्रसार भारत के बाहर किया गया. इस ग्रंथ में जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रतिपादन बहुत ही सुन्दर ढंग से विस्तार पूर्वक किया गया है. ईश्वर, ईश्वरकर्तृत्व, कर्मसिद्धांत आदि का विशिष्ट विवेचन किया गया है. आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने के लिये देव, गुरु और धर्म का आराधन एवं अवलम्बन आवश्यक होता है. । प्रस्तुत ग्रंथ का अध्ययन इनके वास्तविक स्वरूप को समझने में सहयोगी सिद्ध होगा. साथ ही वाचकों को यह विदित होगा कि शिकागो सम्मेलन में जैन धर्म के प्रतिनिधि ने भी उपस्थित होकर किस प्रकार धर्म को प्रतिष्ठित किया. पूज्य आचार्य श्री पुण्यपालसूरिजी ने इस ग्रंथ का संपादन व पुनःप्रकाशन करवा कर जैन समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है तो साथ ही पूज्य मुनि श्री संयमकीर्तिविजयजी ने गुजराती भाषा में अनुवाद कर गुजराती भाषा-भाषी वाचकों के लिए इस ग्रंथ सरल एवं सुबोध बनाने का जो अनुग्रह किया है वह सराहनीय एवं स्तुत्य कार्य है. भविष्य में भी जिनशासन की उन्नति एवं श्रुतसेवा में समाज को इन महात्माओं का अनुपम योगदान प्राप्त होता रहेगा, ऐसी शुभेक्षा सहित, कोटिशः वन्दन. For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org श्री नाकोडा तीर्थे सूरि सिंहासनारोहण महोत्सव प्रसंगे प्रकाशित थार आगामी प्रकाशनो Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शोध प्रतिशोध समरादित्य महाकथा संबंध संघर्ष समरादित्य महाकथा द्वेष अद्वष समरादित्य महाकचा विश्वासघात समरादित्य महाकथा 2 स्नेह संदेह समरादित्य महाकथा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैर विकार समरादित्य • महाका Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TITLE CODE : GUJ MUL 00578. SHRUTSAGAR (MONTHLY). POSTAL AT. GANDHINAGAR. ON 15TH OF EVERY MONTH. PRICE : RS. 15/- DATE OF PUBLICATION November 2014 श्री नाकोडा तीर्थे सूरि सिंहासनारोहण महोत्सव प्रसंगे प्रकाशित थनार आगामी प्रकाशनो प्रद्वेष प्रशम चल अचल भआलाका समरादित्य समरादित्य समरादित्य महाकथा महाकथा रास पद्माकर-3 है मत प्राध भारतीयामा YOURSound सास विशs afte, MRI ARAN प.y. awardla alag g arghwang n. A. आचार्य श्री कैलारसागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205.252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org BOOK-POST / PRINTED MATTER PRINTED, PUBLISHED AND OWNED BY : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA. PRINTED AT : NAVPRABHAT PRINTING PRESS. 9-PUNAJI INDUSTRIAL ESTATE, DHOBHIGHAT, DUDHESHWAR, AHMEDABAD-380004 PUBLISHED FROM : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, NEW KOBA, TA. & DIST. GANDHINAGAR, PIN : 382007, GUJARAT. EDITOR : Hiren Kishorbhai Doshi For Private and Personal Use Only