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श्रीवर्द्धमानाय नमः।
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जैनहितैषी।
अंक ८।
अगस्त १९१७ ।
विषय सूची।
... १ पुस्तकालय और इतिहास ... ... ... ... ३९५ २ अथूणाका शिलालेख-ले०, बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ३३२ ३ गोम्मटस्वामीकी सम्पत्तिका गिरवी रक्खाजाना ,, ३३७ ४ कुछ इधर उधरकी-ले०, श्रीगड़बड़ानन्दशास्त्री ५ रानीसारन्धा ( गल्प )-ले०, श्रीयुत प्रेमचन्दजी ... १४१ ६ पुस्तक-परिचय ... ... ... ... ... ... ३५३ ७ आदिपुराणका अवलोकन-ले०,श्री.बावू सूरजभानजी वकील ३६२ ८ विविधप्रसङ्ग ... ... ... ... ... ... ... ३६६
सूचना । जैनहितेषाका प्रत्येक लेख पढ़ने और विचार करनेके योग्य होता है । इसमें उन्हीं लेखोंको स्थान मिलता है, जिनमें कोई नूतनता, विशेषता और नया प्रकश होता है। पाठकोंसे प्रार्थना है कि वे इसके प्रत्येक लेखसे लाभ उठायें।
-सम्पादक।
संपादक-नाथूराम प्रेमी।
मुंबई केसप्रेस.
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प्रार्थनायें ।
१. जैनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी
लाभ के लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे विचारों के प्रचार के लिए । अतः इसकी उन्नति में हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए । २. जिन महाशयोंको इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको वे पढ़कर सुना सकेँ अवश्य सुना दिया करें ।
३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करनेके लिए सविनय निवेदन है ।
४. लेख भेजने के लिए सभी सम्प्रदाय के लेखकों को आमंत्रण है। -सम्पादक
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यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घर में उपस्थित होकर एक वैद्य या डाक्टरका काम करता है। इसमें स्वास्थ्यरक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्र के नियम, प्राचीन और अर्वाचीन वैद्यकके सिद्धान्त, भारतीय वनौषधियोंका अन्वेषण, स्त्री और बालकोंके कठिन
रोगोंका इलाज आदि अच्छे २ लेख प्रकाशित होते है । इसकी वार्षिक फीस केवल १) रु० मात्र है । नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये ।
पता - वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर आयुर्वेदोद्धारक - औषधालय, मुरादाबाद ।
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हमारा सुरमा और नमकसुलेमानी अवश्य मँगाइए | बहुत बढिया हैं ।
पता
- पूरणचंद नन्हेंलाल जैन । co जैन ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव, बम्बई ।
Printed by Chintaman Sakharam Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandhirst Road, Girgaon, Bombay. Published by Nathuram Premi, Proprietor, Jain-Granth-Ratnakar Karyalaya, Hirabag, Bombay.
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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
तेरहवाँ भाग।
अंक
जैनहितैषी
श्रावण, २४४३. अगस्त, १९१७.
न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी॥
पुस्तकालय और इतिहास। गत महावीर-जयन्तीके समय इन्दौरके धन
जैनसमाजका ध्यान अब भी पस्तकाल- कुबेर सेठ हुकमचन्दजीने जो व्याख्यान दिया था योंकी ओर नहीं है । जान पडता है, वह इसके उससे मालूम हुआ था कि सेठजी और उनके महत्त्वको ही अभीतक नहीं समझा है। यही प्राताआका सहायतास इन्दारम 'महावार पुस्तकात कारण है, जो न तो धनी लोगोंका धन ही इस लय' नामका एक अच्छा पुस्तकालय खलेगा। ओर लगता है और न विद्वानोंकी विद्याका ही अब
नही नियमादी अवश्य ही इस प्रकारका पुस्तकालय केवल इस ओर आकर्षण होता है । आठ दस वर्ष उक्त सेठोंकी ही नहीं सारे जैनसमाजकी प्रतिष्ठा पहले स्वर्गीय बाबू देवकुमारजीका ध्यान इस और शोभाका निदर्शन होगा; परन्तु देखते हैं ओर गया था और उन्होंने एक बड़ा भारी पस्त- कि अभी तक उसकी कुछ भी चर्चा नहीं है। कालय खोलनेकी इच्छा भी प्रकट की थी। यदि सेठजी चाहें और वे जैनगजटके सम्पादक उनकी इच्छानुसार जब जैनसिद्धान्तभवनकी जैसे धर्मात्माओंके बहकानेमें न आ जावें, तो नीव पड़ी थी, तब आशा हुई थी कि यह जैन- उनके लिए यह बहुत ही मामूली कार्य है । जो धर्मका अध्ययन करनेवालोंके लिए एक अच्छा केवल भगवानकी प्रतिमाओंके बनावाने में ही लाख साधन बन जायगा । शुरू शुरूमें इस आशा- लाख रुपये खर्च कर देते हैं उनके लिए भगवानकी लताके मनोरम फल भी दृष्टिगोचर होने लगे थे; वाणीकी प्रतिष्ठामें लाख पचास हजार रुपया परन्तु आगे यह लता मुरझाने लगी। भविष्यके लगा देना कोई बड़ी बात नहीं है। सेठजीने विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता; पर इस समय प्रायः सभी प्रकारकी समयोपयोगी संस्थायें खोल तो जैनसिद्धान्त भवनकी दशा विशेष आशाजनक रक्खी हैं, एक पुस्तकालयकी ही कमी है, इससे नहीं है। अर्थात् इस समय तक जैनधर्मके अध्य- भी आशा होती है कि वे अपने वचनकी पूर्ति यन और अन्वेषणके लिए कोई भी उल्लेखयोग्य अवश्य करेंगे। संस्था नहीं है।
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जैनहितैषी-
[भाग १३
हम चाहते हैं कि सेठजी इन्दौरमें एक तैयार किये हैं। जैनसमाजमें विद्यालय कई हो विशाल पुस्तकालय अवश्य खोलें। यह बड़े ही चुके हैं, पर पुस्तकालय एक भी नहीं है, अतपुण्यका और जैनधर्मकी प्रभावनाका कार्य है। एव इस महान पुण्यकार्यकी ओर समाजके लक्ष्मीबो धर्मात्मा और पण्डितगण यह नहीं चाहते पुत्रोंका ध्यान शीघ्र ही आकर्षित होना चाहिए। हैं कि वह तीनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंका संयुक्त पुस्तकालय हो, उनसे हमारी सविनय प्रार्थना है जैनधर्मके विद्यार्थी एक अच्छे पुस्तकालयके कि वे केवल दिगम्बरसम्प्रदायके पुस्तकालयके अभावको निरन्तर अनुभव करते हैं। कभी कभी रूपमें ही उसकी स्थापना करावें। उसकी भी उन्हें बड़ा कष्ट होता है। जिस ग्रन्थको वे आज कम अवश्यकता नहीं है; बिलकुल न होनेसे तो चाहते हैं वह शक्तिभर प्रयत्न करने पर भी महीएक ही सम्प्रदायका होना अच्छा है । पर ऐसी नोंतक नहीं मिलता है। कभी कभी तो मिलता कृपा न करें, जिससे पुस्तकालय खुले ही नहीं। ही नहीं। इससे बहुतसे लोग निराश हो जाते हैं और
___अन्य किसी धर्मके विद्यार्थी बन जाते हैं। यह साहित्यकी उन्नतिके लिए, इतिहासकी खोजों- तो हुई समर्थोकी बात; और जो निर्धन हैं, उनकी के लिए और पदार्थका स्वरूप समझनेके लिए ज्ञानपिपासाके शान्त होनेका तो कोई उपाय ही पुस्तकालय कितनी आवश्यक संस्था है इसको नहीं है । जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, माणि साधारण लोग नहीं समझ सकते। जिनकी ज्ञान- कचन्द ग्रन्थमाला आदिके संचालकोंसे पूछिए कि पिपासाकी सीमा नहीं है, जिन्हें विविध ग्रंथका- उन्हें किसी एक ग्रन्थके प्राप्त करनेके लिए कितना रोंके विचारोंको तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययन परिश्रम करना पड़ता है और कितना समय करनेका महत्त्व मालूम है, जो प्रत्येक बातको खोना पड़ता है। ग्रन्योंकी प्राप्तिका साधन न स्पष्ट रूपमें समझना चाहते हैं और जो मतभेदोंके होनेसे कोई कोई ग्रन्थ तो हमें केवल एक ही मूलको खोज निकालना चाहते हैं, वे ही विद्वान् प्रतिके आधारसे प्रकाशित करना पड़ते हैं और पुस्तकालयोंकी महिमाको समझते हैं। अनेक अंशों- इस कारण उनका संशोधन जैसा चाहिए वैसा में यह कहना बहुत ही सत्य है कि जिस देशमें या नहीं होने पाता । जिस स्थानमें पुस्तकालय नहीं है वहाँ विशाल बुद्धिशाली विद्वान उत्पन्न नहीं हो सकते। जिस इस समय यदि कोई चाहे तो बहुत थोड़े समय जैनसमाजमें बड़े बड़े विशाल पुस्तकालय खर्चसे एक बहुत अच्छा पुस्तकालय बन सकता थे और वे सर्व साधारणके उपयोगमें आते थे उस है। कोई प्रयत्न करनेवाला हो तो इस समय समय जैनधर्मके जाननेवाले सैकड़ों प्रतिभाशाली हजारों हस्तलिखित ग्रन्थ इतने सस्ते मूल्यमें विद्वानोंका अस्तित्व था । इस समय पुस्तकाल- संग्रह किये जा सकते हैं, जितनेसे दूने मूल्यमें योंका अभाव है, अतएव अच्छे विद्वानोंका भी भी वे लिखाये नहीं जा सकते । ऐसे कई भण्डार अभाव है। दो चार ग्रन्थोंको पढ़ लेनेसे या मौजूद हैं, जिनके मालिक चुपचाप उन्हें बेच परीक्षायें पास कर लेनेसे कोई विद्वान् नहीं हो देने के लिए तैयार हैं और वे इस समय मिट्टीके सकता। बहुदर्शी विद्वानोंके बनाने के साधन पुस्त- मूल्यमें मिल सकते हैं। जयपुर आदि शहरोंमें कालय ही हैं, विद्यालय नहीं। संसारमें विद्याल- और उनकी देहातोंमें ऐसे अनेक निर्धन लोग हैं, याकी अपेक्षा पुस्तकालयोंने ही अधिक विद्वान् जो अपने घरोंमें निरर्थक पड़े हुए दो दो चार
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अङ्क ८]
पुस्तकालय और इतिहास।
चार संस्कृत प्राकृतके प्राचीन ग्रन्थोंको बहुत थोड़े एक एक प्रति अवश्य रहे । इसी विमागमें दामोंमें, पर चुप चाप, दे सकते हैं। गवर्नमेंटकी इंडियन एण्टिक्वेरी, एपिग्राफिआ इंडिका, लायबेरियोंके लिए इस तरह हजारों ग्रन्थ खरीदे एपीग्राफिआ कर्नाटिका, मुख्य मुख्य ग्यजेजा चुके हैं । कर्नाटक प्रान्तके भी ताड़पत्रों पर टियर, भाण्डारकर, पिटर्सन, आदिकी रिपोर्ट लिखे हुए ग्रन्थ इसी तरीकेसे घूम फिर कर संग्रह आदि भी रहें जिनमें अबतक उपलब्ध हुए किये जा सकते हैं । इसके सिवाय यदि कोई जैनशिलालेखों, दानपत्रों और जैनग्रन्थोंकी अच्छा पुस्तकालय स्थापित होगा और उस पर प्रशस्तियों आदिका समस्त संग्रह हो । गरज सारे समाजका विश्वास जम जायगा, सारे समा- यह कि जैनधर्म और जैन इतिहासके अध्ययन जके उपयोगके लिए उसका संग्रह होगा तो उसे करनेकी समस्त सामग्री इस पुस्तकालयमें प्रस्तुत सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ दानस्वरूप भी मिल रहनी चाहिए। जायेंगे । ऐसे सैकड़ों स्थान हैं, जहाँ दश दश पाँच पाँच संस्कृत प्राकृतके ग्रन्थ मौजूद हैं बहुत ही अच्छा हो, यदि यह संस्था किसी परन्तु उनका कोई पढ़ने-समझनेवाला नहीं है। एक ही धनी धर्मात्माकी ओरसे स्थापित हो और प्रयत्न करनेसे और सर्व साधारणका विश्वास इसके द्वारा किसी पुण्यात्माका नाम सदाके लिए सम्पादन करनेसे वे सब ग्रन्थ मुफ्तमें मिल अजर अमर हो जाय। पर यदि यह संभव न हो, सकते हैं। गरज यह कि इस समय एक विशाल धनियाके भाग्यम यह सयश कमाना न लिखा हो. पुस्तकालय बहुत ही सुगमतासे स्थापित हो तो किसी सभा सुसायटीकी ओरसे ही इसके लिए सकता है।
उद्योग होना चाहिए । बम्बई प्रान्तिक सभाके
कार्यकर्ता यदि चाहें तो उन्हें इस कार्यमें अच्छी इस समयतक जितने ग्रन्थ बन चुके हैं और सफलता प्राप्त हो सकती है । बम्बई स्थान भी इसके उपलब्ध हो सकते हैं उन सबकी कमसे कम लिए बहुत उपयुक्त है। यहाँके तेरहपंथी मंदिर एक एक प्रति इस पुस्तकालयमें अवश्य संग्रह में पहलेहीसे अच्छा ग्रंथसंग्रह है। इसके सिवाय की जानी चाहिए । संस्कृत, प्राकृत, ढूँढारी, स्वर्गीय सेठ माणिकचन्दजीके संग्रहके लगभग बजभाषा, मराठी, गुजराती, कनड़ी आदि कोई २०० ग्रंथ और बीसपंथी मन्दिरके भी कुछ ग्रन्थ भी भाषा और लिपि ऐसी न रहे; जिसके जैन- पुस्तकालयके लिए मिल सकते हैं। इतने ग्रन्थोंसे ग्रन्थ इस भण्डारमें न हों। कुछ समयके बाद पुस्तकालयका प्रारंभ हो सकता है । इसके बाद इस पस्तककालयके विषयमें यह उक्ति चरि- चन्दा किया जाय और नियमित रूपसे ग्रंथ तार्थ हो जानी चाहिए कि यन्नेहास्ति न तत्क्व. एकत्र होते रहें । यदि इस कार्यमें प्रतिवर्ष चार चित्'-जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है। पाँच हजार रुपये ही खर्च किये जायें तो कुछ वर्षों में प्रत्येक ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियोंके संग्रह करनेकी बहुत बड़ा संग्रह हो सकता है । जैन महासभासे ओर अधिक लक्ष्य दिया जाना चाहिए । जो यद्यपि हमें कोई आशा नहीं है क्योंकि इसके प्रति जितनी ही पुरानी होती है वह उतने ही कार्यकर्ता कुछ हैं ही नहीं, और वास्तवमें वे कुछ महत्त्वकी होती है । पुस्तकालयमें एक भाग छपे करना ही नहीं चाहत हैं, परन्तु जब वे ग्रंथोंके हुए ग्रन्थोंका भी होना चाहिए । उसमें छपानेके कट्टर विरोधी हैं और उन्हें ग्रन्थोंके अब तकके छपे हुए तमाम मुद्रित प्रन्योंकी छपानमें भयंकर पाप दिखता है तब उन्हें चाहिए
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जैनहितैषी
[भाग १३
कि वे अपनी मुद्रणविरोधी 'बात' को रखनेके समझमें इन सब संस्थाओंमें एक एक मध्यमलिए हस्तलिखित ग्रंथोंका एक ऐसा पुस्तकालय श्रेणीका पुस्तकालय होना चाहिए, जिसमें कमसे खोल दें और उसके साथ ही ग्रन्थोंके लिखा- कम प्रसिद्ध ग्रन्थोंकी एक एक प्रति अवश्य रहे । ये नेका एक ऐसा कार्यालय खोल दें, जिससे इस संस्थायें जब हजार हजार रुपया मासिक अपने समय जितने छापेके विरोधी हैं और समर्थ निर्वाहके लिए खर्च करती हैं तब पाँचसौ रुपया हैं, कमसे कम वे तो सदा हस्तलिखित ग्रन्थोंके वार्षिक ग्रन्थसंग्रहके लिए भी खर्च कर सकती हैं। उपासक बन रहें। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो उनका विरोध व्यर्थ बकवादके सिवाय और अब हमें अपने प्राचीन पुस्तकालयोंके उद्धा. कुछ नहीं है।
रकी ओर भी लक्ष्य देना चाहिए। इस समय
भी हमारे कई ऐसे पुस्तकालय बचे हुए हैं कि यदि कोई उत्साही और कार्यपटु पुरुष इस यदि हम उनका उद्धार कर दें, उनकी व्यवस्था महान कार्यके लिए अपना जीवन दे दे, एक ठीक कर दें तो बहुत बड़ा काम हो जाय। विशाल पुस्तकालयकी स्थापनाको अपने जीव- नागौर, कारंजा, ईडर, आमेर, कोल्हापुर, आदिके नेका व्रत बना ले और निरन्तर इसके लिए भण्डारोंमें बहुत बड़ा ग्रन्थसमूह सुना जाता है। उद्योग करे, तो उसे अवश्य सफलता होगी और मूडबिद्री, श्रवणबेलगुल, सोनागिर, महुआ, वह अमर हो जायगा । हम देखते हैं कि शिक्षा- सोजित्रा, प्रतापगढ़, लातूर, मलखेड़, दिल्ली, प्रचार आदिके कार्योंमें जब कई सज्जन लगे हुए आदि स्थानोंमें भी छोटे मोटे पुस्तकभण्डार हैं । हैं, तब इस कार्यमें लगनेके लिए यह बात नहीं यदि इन सब स्थानोंके पंच तथा अधिकारी चाहें है कि कोई निकलेगा ही नहीं । बात यह है कि तो अपने भण्डारोंके ग्रथोंकी सूची बनाकर उन्हें अभीतक इसकी आवश्यकताकी ओर लोगोंका हिफाजतसे रख सकते हैं और यदि कहींसे कोई ध्यान ही आकर्षित नहीं किया गया है-इस किसी ग्रन्थको मँगाना चाहे तो उसके लिए उस विषयकी चर्चा ही नहीं है।
ग्रन्थकी नकल कराके भेज सकते हैं। उनमें इस
प्रकारकी चाह उत्पन्न होने लगे, इसके लिए सभा - इस एक ही पुस्तकालयसे हमें सन्तोष न सुसाइटियोंको, उपदेशकोंको और धनियोंको होगा । प्रत्येक बड़े नगरमें और तीर्थक्षेत्रोंमें प्रयत्न करना चाहिए । इस विषयके प्रस्ताव भी पुस्तकालय स्थापित होने चाहिएँ । यह बड़े हमारी सभाओंमें प्रतिवर्ष किये जाने चाहिए। दःखकी बात है कि हमारी शिक्षासंस्थाओंमें बल्कि हमारी किसी प्रधान सभाको इसके लिए -काशी, मोरेना, इन्दौर, मथुरा आदिके विद्या- निरन्तर अमली कार्रवाई करते रहनेके लिए भी लयोंमें एक भी अच्छा पुस्तकालय नहीं है। इनमें कोई व्यवस्था कर देनी चाहिए। इस उद्योगसे शिक्षा प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियोंको और ग्रन्थ तो हमारे कई पुराने पुस्तकालय फिर खड़े हो सकते मिलेंगे ही कहाँसे, जो पाठ्यग्रन्थ हैं, याद छपे हैं और सर्वसाधारणको उनसे बहुत कुछ लाभ हए नहीं हैं तो वे भी उन्हें कठिनाईसे मिलते पहुँच सकता है। हैं। ऐसी दशामें यदि इन विद्यालयोंसे निकले हुए छात्रोंका ज्ञान बहुत ही परिमित और संकु- इतिहासकी ओर भी जैनसमाजका ध्यान बहुचित रहे तो आश्चर्य ही क्या है ? हमारी त ही कम गया है । इस विषयके विद्यार्थियोंका
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अङ्क ८] पुस्तकालय और इतिहास। -
३२९ इमारे यहाँ प्रायः अभाव है। संस्कृतके पण्डित तैयार हुआ और न हमारे शिक्षित ही टससे
और अँगरेजीके ग्रेज्युएट दोनों ही इस विषयमें मस हुए । यह कितने दुःखकी बात है कि निश्चेष्ट हैं । संस्कृत के पण्डित तो इस विषयको हमारे कर्तव्यको दूसरे लोग स्मरण कराते हैं कोई कामकी चीज ही नहीं समझते हैं; बल्कि कोई और फिर भी हम कार्यतत्पर नहीं होते हैं ! कोई तो अपनी बढ़ी हुई मूर्खताका प्रदर्शन कर- इस विषयमें हम धनिकोंको उतना अधिक नेके लिए इतिहासका मखौल उड़ाया करते हैं। दोषी नहीं समझते हैं, जितना कि शिक्षितोंको रहे बाबू लोग, सो जैनसमाजके दुर्भाग्यसे शिक्षा- समझते हैं। क्योंकि सर्वसाधारणके समान धनिक प्रचार, समाजसुधार आदिके कार्यों में भी जब वे भी, इतिहासका वास्तविक महत्त्व क्या है, उसे आगे नहीं बढ़ रहे हैं और खाने पीने चैन अभी तक नहीं समझ सके हैं । दोषी तो वे हैं, उड़ाने' के लिए ही जब उनका जन्म हुआ है तब जो इतिहासकी महिमाको अच्छी तरह जानते इस सिरपच्चीके काममें भला वे क्यों जान लड़ाने हैं और फिर भी इस दिशामें कुछ भी प्रयत्न लगे ? इस समय अकेले दिगम्बर जैनसमाजमें नहीं कर रहे हैं । इस तरह चुप बैठे हैं, मानों ही कई सौ ग्रेज्युएट मौजूद हैं; परन्तु देखते हैं करनेके लिए अब कुछ बाकी ही नहीं है। कि इतिहासके क्षेत्रमें उनमेंसे अब तक एक भी हमें विश्वास है कि ये लोग यदि कुछ हाथ आकर खड़ा नहीं हुआ है। जिस अँगरेजी शिक्षा- पैर हिलायँगे, तो धनिकोंकी ओरसे इस कार्यमें ने इस देशमें इतिहासके ज्ञानका पुनरुद्धार किया आर्थिक सहायता मिलना कुछ कठिन नहीं है। है, उसी शिक्षाको पाकर जैनसमाजके बाबुओंने उन्हें इस विषयका महत्त्व समझाया जायगा, तो इतिहासकी ओर आँख उठाकर देखनेकी भी कसम यह संभव नहीं कि उनकी थैलीके बन्धन दीले" ले रक्खी है । इसे हम अपना दुर्भाग्य न कहें तो न पढ़ें। और क्या कहें ?
जहाँतक हम जानते हैं, जैनसमाजमें अधिक कोई दो ढाई वर्ष पहले सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ नहीं तो २०-२५ नये ग्रेज्युएट प्रतिवर्ष ही होते विन्सेंट स्मिथ साहबने ‘पुरातत्त्वकी खोज होंगे और इनमेंसे पाँच सात युवक अवश्य ऐसे करना जैनोंका कर्तव्य है,' नामका एक लेख होते होंगे जिनकी दूसरी भाषा संस्कृत है । प्रकाशित कराया था और उसमें जैनसमाज- यह क्रम कई वर्षोंसे जारी है। यदि हम आशा के धनिकों और शिक्षितोंका ध्यान इस ओर करें कि इनमेंसे अधिक नहीं, पर दो चार नवयुआकर्षित किया था। इस लेखको जैनहितै- वक ही ऐसे निकल आयेंगे जो अध्यापकी, पीके ग्यारहवें भागके ऐतिहासिक अंमें हमारे वकालत आदि निर्वाहपयोगी कार्य करते हुए पाठक भी पढ़ चुके हैं । लेख बड़ा ही महत्त्वका अबकाशके समय इस विषयकी ओर ध्यान देंगे . था और उसमें जैनोंके कर्तव्यका बड़ी मार्मि- और धीरे धीरे अपने अध्ययन और अन्वेषणकतासे स्मरण कराया गया था। परन्तु हम बलको बढ़ाकर जैनधर्मका उपकार करेंगे तो देखते हैं कि जैनोंकी निश्चेष्टताकी सुदृढ़ दीवा- कुछ अनुचित न होगा। इस समय हमारे कई, ल पर उस लेखके शब्दोंने पानीकी एक छोटीसी छात्राश्रम ( बोर्डिंग ) ऐसे चल रहे हैं, जिनमें बौछारसे आधिक काम नहीं किया । न कोई जैनधर्मकी शिक्षा दी जाती है, और कमसे कम धनिक ही इस काममें धन खर्च करनेके लिए. उनका चित्त जैनधर्मकी ओर तो अवश्य आक
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जैनहितैषी
[ भाग १३ र्षित किया जाता है । इतने वर्षों के प्रयत्नसे कठिन नहीं है। अवश्य ही इस कार्यमें परिश्रम उनमेंसे निकले हुए विद्यार्थियोंमेंसे यदि दो चार बहुत होता है और वह बिना हार्दिकं रुचि और पर भी इतना संस्कार न हुआ कि वे जैनधर्मके सत्यप्रेमके नहीं हो सकता है। और उसके इतिहासके अध्ययनकी ओर प्रवृत्त हों; तो इन बोर्डिंगोंसे और विद्यार्थियोंसे हम सबसे पहले हमें अपना इतिहास तैयार करऔर क्या आशा कर सकते हैं ? . नेके साधन एकत्रित करने चाहिए। साधनोंके
न होनेसे ही इस विषयकी ओर लोगोंकी कम - यदि यह संभव न हो-अपनी हार्दिक रुचिसे
र प्रवृत्ति होती है। इस विषयके सबसे बड़े साधन स्वार्थत्यागपूर्वक कोई इस विषयका अध्ययन
पुस्तकालय हैं, जिनके विषयमें पहले बहुत करनेवाला न निकले, तो समाजको चाहिए कि
कुछ लिखा जा चुका है। दूसरे साधन शिलालेख यह कमसे कम पाँच ग्रेज्युएटों या अंडर
आदिके संग्रह-ग्रन्थ हैं । इनकी बडी भारी आवमेज्युएटोंको-जिनकी संस्कृतमें अच्छी योग्यता
श्यकता है। हमारी समझमें ये संग्रह नीचे लिखे -हो और जिन्होंने कालेजोंमें इतिहासको मख्यतासे अनुसार होने चाहिए। पढ़ा हो, छात्रवृत्तियाँ देवे और उन्हें इस विष- प्राचीनलेखसंग्रह । अबतक जितने जैन यका खास तौरसे अध्ययन करावे; फिर योग्यता शिलालेख, दानपत्र, स्मारक-लेख आदि मिल प्राप्त कर लेने पर मि० विन्सेंट स्मिथकी सम्म- चुके हैं, उन सबका संग्रह इसमें रहना तिके अनुसार उन्हें सरकारी पुरातत्त्वविभागके चाहिए । इंडियन एण्टिक्वेरी, एपीग्राफिआ अधिकारियोंके हाथके नीचे काम करनेके लिए इंडिका, एपीग्राफिआ कर्नाटिका, इन्स्क्रप्शन रख देवे । इस पद्धतिसे कुछ ही वर्षों में जैन एट् श्रवणबेल्गोल, आदि ग्रन्थोंसे यह बहुत इतिहासकी खास तौरसे चर्चा करनेवाले विद्वान् कम परिश्रमसे ही तैयार कराया जा सकता है । तैयार हो जायेंगे और उनके द्वारा जैन- यह कई भागोंमें निकलना चाहिए और यदि धर्मकी प्राचीन कीर्तिकी ऐसी ऐसी बातें प्रकट बन सके तो इसके प्रत्येक लेखके सम्बन्धमें कुछ होंगी जिनकी हमने कभी स्वप्नमें भी कल्पना नोट भी लगाये जाने चाहिए। न की होगी। .
प्रतिमालेखसंग्रह । हमारे मन्दिरों और
सीर्थों में जितनी प्रतिमायें मिलती हैं, प्राय: ऊन संस्कृतके विद्वानोंकी संख्या भी अब हमारे सबकी ही आसनमें कुछ न कुछ लिखा रहता है। यहाँ सन्तोष योग्य होती जाती है। उनमें से भी इतिहासके तैयार करनेमें इस प्रकारके लेख भी पदि दो चार सज्जनोंका ध्यान इस ओर आकर्षित बड़ी सहायता देते हैं। अतएव इन लेखोंका संग्रह हो तो बहुत काम हो सकता है। वे मन्दिरों और भी कई भागों में निकलना चाहिए । यदि हमारे प्रतिमाओंके शिलालेखों, दानपत्रों, पट्टावालियों, पढ़े लिखे भाई अपने अपने ग्रामों और और नगग्रन्थोंकी प्रशस्तियों, ग्रन्थोंके भीतरी वर्णनों और रोंके मन्दिरोंकी प्रतिमाओंके लेख सावधानीके साथ कथाग्रन्थोंके आधारसे जैनधर्मके इतिहासके नकल करके हमारे पास भेज दें, तो एक बहुत बहुत बड़े अभावोंकी पूर्ति कर सकते हैं। यदि बड़ा संग्रह तो सकता है और वह ऐतिहासिक वे करना चाहें तो उनके लिए यह कार्य कोई नोटोंके साथ प्रकाशित किया जा सकता है।
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अङ्क ८]
पुस्तकालय और इतिहास।
ग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह । प्रायः सभी जैन- प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रयत्नसे ऐतिहासिक ग्रन्थोंके अन्तमें ग्रन्थकर्ताका, उसकी गुरुपरम्पराका क्षेत्रमें बड़ा काम होगा।
और ग्रन्थ लिखने-लिखानेवालों आदिका परिचय प्रतिमाओंके लेखोंका संग्रह यदि दिगम्बर दिया हुआ रहता है । ये परिचय भी इतिहासके जैनतीर्थक्षेत्रकमेटीकी ओरसे कराया जाय, तो बहुत बड़े साधन हैं । अतएव इनका संग्रह भी बहुत सुगमतासे हो सकता है । ये लेख उसके कई भागोंमें तैयार कराया जाना चाहिए। काममें भी आ सकते हैं, इस लिए यह उसका डा० भाण्डारकर, पिटर्सन, आदिकी रिपोर्टोसे काम भी है । हमें आशा नहीं है कि उसके इस कार्यमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। मुकद्दमेवाज़ कार्यकर्ता इस अच्छे कार्यको सम्पा
यह बड़ी प्रसन्नताकी बात है कि हमारे दन कराना आवश्यक समझेंगे; परन्तु वे करें या श्वेताम्बरी भाइयोंकी ओरसे इस प्रकारका न करें, हम अपने सूचना करनेरूप कर्तव्यका उद्योग होने लगा है। हमारे पाठकोंके परिचित पालन किये देते हैं। श्रीयुत मुनि जिनविजयजी इस समय ' प्राचीनजैनलेखसंग्रह ' नामक ग्रन्थका सम्पादन कर .
जैन इतिहासके हम दो भाग करते हैं । एक रहे हैं। उसके दो भाग हैं, एक प्राकृतभाग
बाह्य और दूसरा अन्तरंग । पहले भागमें महावीर और दूसरा संस्कृतभाग । पहले प्राकृत भा
। भगवानसे लेकर अबतकका शृंखलाबद्ध इतिहास गके भी दो हिस्से हैं जिनमेंसे एक रहे
रहेगा । जैनधर्मका कब कब किन किन देशोंमें हिस्सा प्रकाशित हो चुका है। इसमें खण्डगिरि प्रचार हुआ, उसम हान
प्रचार हुआ, उसमें हानि और वृद्धि कब कब उदयगिरिके महाराजा खारवेलके लेख और उनः हुई, इसके पालनेवाले कौन कौन राजा हुए, राजाका विस्तृत विवेचन है । दूसरे हिस्सेमें मथुराके आका धम,
- ओंका धर्म यह कब तक रहा और कबसे केवल शिलालेखों तथा प्रतिमालेखोंका संग्रह और विव. प्रजाका धर्म बन गया, किन किन राजाओंने रण रहेगा। यह भाग भी लगभग तैयार हो गया ,
- इसकी उन्नति की और किन किनने इसे हानि है । संस्कृत लेखोंका भाग बहुत बड़ा है और पहुँचाई, इसमें कौन कौन भेद कब कब हुए, वह कई हिस्सोंमें प्रकाशित होगा । गुजराती
- प्रत्येक भेदकी शुरूसे अबतककी गुरुपरम्परा, भाषामें श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधओं बनाये जुदी जुदी भाषाओंमें जैनधर्मके साहित्यकी हुए सैकड़ों ग्रन्थ हैं, जो रासा कहलाते हैं। इन उत्पत्ति वृद्धि और पुष्टि, बिहार-बंगाल-उड़ीसा रोसाओंकी प्रशस्तियोंका एक विशाल संग्रह मवे. आदि प्रान्तॉमसे जैनधर्मके लुप्त हो जानेके बाहरी तांबर जैन कान्फरेंसकी ओरसे प्रकाशित होगा। कारण, आदि सब बातोंका समावेश इस भागमें इसका सम्पादन हेरल्ड-सम्पादक श्रीयुत मोहन- .
' होगा । शिलालेख, दानपत्र, प्रशस्तियाँ, विदेशी लाल दलीचन्दजी देसाई बी. ए., एल एल. बी. प
पर्यटकोंके ग्रन्थ, जैनेतर ग्रन्थोंके उल्लेख आदि कर रहे हैं । कलकत्तेके श्रीयुत बाबू पूर्णचन्द्रजी .
M साधनोंसे यह बाह्य इतिहास तैयार हो जायगा।
दूसरे भागमें जैनधर्मके अन्तरंगका-उसके नाहर एम. ए., एल एल. बी. नामके सज्जन
7 हृदयका--इतिहास रहेगा। इसका तैयार करना श्वेताम्बर प्रतिमाओंके लेखोंका संग्रह कर रहे बहुत बड़े परिश्रमका काम है और यही सबसे हैं। उसके कई छपे हुए फार्म हमने स्वयं देखे अधिक महत्त्वका है । यह सैकड़ों विद्वानोंके हैं। हमारे दिगम्बरी भाइयोंको भी इस दिशामें अनवरत अध्ययन और अध्यवसायसे बन सकेगा।
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१२
. जैनहितैषी
.. [भाग १३
इसके लिए जैनधर्मके समस्त सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका, हैं उनसे अधिक नहीं तो पच्चीस तीस गुने ग्रन्थ उनमें घुसकर-पैठकर अध्ययन करना होगा अवश्य ही श्वेताम्बर सम्प्रदायके छप चुके होंगे।
और सबका तुलनात्मक पद्धतिसे विचार करना हमारे दिगम्बरी भाइयोंको भी अब इस ओर होगा। इससे मालूम होगा कि भगवान महावीरने ध्यान देना चाहिए और संस्कृत प्राकृतके तमाम
और उनके पहले मगवान पार्श्वनाथने जिस उपलब्ध साहित्यको प्रकाशित करानेका यत्न जैनधर्मका प्रतिपादन किया था, वह ज्योंका करना चाहिए। त्यों चला आ रहा है, या उसमें कुछ परिवर्तन भी हुए हैं । देशकालकी परिस्थितियोंका, पडौसी अर्थणाका शिलालेख । धर्मोंका, राज्योंके उत्थान-पतनोंका, धर्मगुरुओं- [ले०-श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर मुख्तार।] या आचार्योके पारस्परिक देषों या हठाग्रहांका डंगरपरके अंतर्गत अर्थणा ( उच्छणक) और उसके अनुयायियोंकी मूर्खताका उस पर कब
' नामका एक स्थान है, जो एक समय विशाल कब, कितना कितना और किन किन रूपोंमें प्रभाव -
। नगर था; और परमारवंशी राजाओंकी राज बड़ा है। इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बरादि भेद धानी रह चुका है । इस समय यह स्थान एक कब कब और किन किन कारणोंसे हुए, गण. छोटेसे गाँवके रूपमें आबाद है और इसके गच्छादि भेदोंके होनेकी आवश्यकता क्यों हुई, पासही सैकड़ों मंदिरों तथा मकानों आदिके भट्टारक कैसे बन गये और दिगम्बर गुरुओंकी खंडहर भग्नावशेषके रूपमें पाये जाते हैं । यहाँसे जगह उनकी पूजा कैसे होने लगी,क्षेत्रपाल आदि एक जैनशिलालेख मिला है जो आजकल 'देवोंकी पूजा क्यों और कब चली, तेरहपंथ अजमेरके म्यूजियममें मौजूद है। यह शिलालेख
और वीसपंथ नामक भेद क्यों हुए, आदि सब वैशाख सुदि ३ विक्रम संवत् ११६६ का लिखा प्रश्नोंका समाधान इतिहासके इसी भागसे होगा। हुआ है और उस वक्त लिखा गया है जब कि इस भागके सबसे बड़े साधन जैनग्रन्थ हैं । परमारवंशी मंडलीक ( मंडनदेव ) नामके राजाका ये जितनी ही सुगमतासे प्राप्त हो सकेंगे, इस पौत्र और चामुंडराजका पुत्र ‘विजयराज' भागकी तैयारी भी उतनीही सुगमतासे होगी। स्थलि देशमें राज्य करता था। उच्छृणक नगरमें,
. उस समय ‘भूषण' नामके एक नागरवंशी जैनने ग्रन्थोंके छपाने के विषयमें हमारा दिगम्बर श्रीवृषभदेवका मनोहर जिनभवन बनवाकर उसमें सम्प्रदाय बहुत ही सुस्त है, जब कि श्वेताम्बर वृषभनाथ भगवानकी प्रतिमाको स्थापित किया सम्प्रदाय इस विषयमें बहुतही आगे बढ़ रहा है। था, उसीके सम्बन्धका यह शिलालेख है। इसमें उसके ग्रन्थमुद्रणकार्यको देखकर आश्चर्य होता भूषणके कुटुम्बका परिचय देनेके सिवाय माथुहै। भारतवर्षका कोई भी धर्म या सम्प्रदाय इस रान्वयी श्रीछत्रसेन नामके एक आचार्यका भी विषयमें उसकी बराबरी नहीं कर सकता। कोई उल्लेख किया है, जो अपने व्याख्यानों द्वारा महीना ऐसा नहीं जाता है, जिसमें दश पाँच समस्त सभाजनोंको संतुष्ट किया करते थे और श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रकाशित न होते हों। बेचे भी भूषणका पिता 'आलोक' जिनका परमभक्त वे बहुत ही सस्ते जाते हैं। सैकड़ों ग्रन्थ तो केवल था। माथुरसंघी इन आचार्यका, अभीतक कोई दान करनेके लिए ही छपाये जाते हैं । दिगम्ब- पता नहीं था । माथुरान्वयसे सम्बंध रखनेवाली रसम्प्रदायके अबतक जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए काष्ठासंघकी उपलब्ध गुर्वावलीमें भी छत्रसेन
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अङ्क ८] अथूणाका शिलालेख।
३३३ गुरुका कोई उल्लेख नहीं है * । इस शिलालेखसे ऐतिह्य ( ऐतिहासिक? ) तत्त्व स्फुरायमान माथुरसंघके एक आचार्यका नया नाम मालूम था । वह संवेगादि गुणोंका धारक, सम्यग्दृष्टि, हुआ है। इस शिलालेखमें भूषणके वंश और दानी, शीलवान, रूपवान्, श्रुतपात्र, लक्ष्मीपात्र कुटुम्बका जो परिचय दिया है उसका संक्षिप्त और स्वकुलसमिति तथा साधुवर्गका आधारसार इस प्रकार है:
भूत था; साथ ही वह आनंदसे रहनेवाले भोगियों 'तलपाटक' नामके पत्तनमें + नागर वंशके और योगियों दोनोंमें ही प्रधान था, और एकचित्त मुख्य रत्न श्रीमान् 'अम्बट' नामके एक प्रधान होकर श्रीछत्रसेन गुरुके चरणकमलकी, जिन्हें वैद्य हुए, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता होनेके सिवाय माथुरान्वयरूपी आकाशका सूर्य बतलाया है, जैनागमकी वासनासे इतने अनवासित थे कि सेवा किया करता था। आलोककी धर्मपत्नीका नाम उनकी रगरगमें ( अस्थि और मज्जामें ) 'हेला' था । उससे तीन पुत्ररत्न उत्पन्न हुए, जैनधर्म समाया हुआ था। वैद्यजी कलियुगके जो सभी विवेकी और नयाच थे। पहले पुत्रका प्रभावसे बहिर्भत, गृहस्थावस्थामें भी इंद्रियोंके नाम ‘पाहुक' दूसरेका ‘भूषण' और तीसरेका प्रसारको रोकनेवाले और देशवतसे अलंकत थे। 'लल्लाक' था । पाहुक निर्मल ज्ञानका धारका, जिस समय आप वनमें जाकर ( सामायि- गुरुजनभक्त और बड़ा ही कुशाग्रबुद्धि था। कादि ) आवश्यककर्ममें लीन होते थे उस समय उसकी इस . कुशाग्रबुद्धिको दिखलाते हुए अच्छे अच्छे श्रेष्ठ मनुष्य आपके सन्मख शि- लिखा है कि जिनप्रवचनके सम्बधमें उसका ष्योंके सदृश हाथ जोडते और प्रातःकाल आपकी ऐसा विशाल प्रश्नजाल होता था जिसमें गणधर उपासना करते थे। आपके असाधारण दर्शन- भी चकरा जायँ दूसरोंकी तो बात ही क्यान गणोंसे चमत्कृत होकर चक्रेश्वरी देवी भी हमेशा वह करणचरणानुयोगरूप अनेक शास्त्रोंमें पुत्रीके समान आपकी सेवा किया करती थी। प्रवीण, विषयोंसे विरक्त, दानतीर्थमें प्रवृत्त, वैद्यजीके 'पापाक' नामका एक पत्र हआ जो शान्तचित्त और निर्मल श्रावकीय व्रतसे यक्त था। निर्मल बद्धिका धारक और शास्त्रोंका पारगामी दूसरे पुत्र भूषणकी प्रशंसामें लिखा है कि वह होनेके सिवाय सम्पर्ण आयर्वेदका ज्ञाता लक्ष्मीका पात्र, कान्तिका कुलगृह, कीर्तिका था। उसने सम्पर्ण दोषोंकी प्रकृतिको अच्छी मंदिर, सरस्वतीका क्रीडापर्वत, निर्मलबुद्धिका तरहस निर्णय कर लिया था और वह उनकी रातवन, क्षमावल्लाका कंद और विस्तृत क्रपाका 'चिकित्सामें प्रवीण था। साथ ही रोगाकान्त सभी निवासस्थान था । साथ ही, वह रूपसे काममनुष्योंके प्रति उसकी दया अतिशय प्रसिद्ध देवके, सुभगतासे गणधरके, संपत्तिसे कुबेरके, थी। पापाकके अनेक शास्त्रों में निपुण १ आलोक बढ़े हुए विवेकसे बृहस्पतिके, महोन्नतिसे मेरुके. २ साहस और ३ लल्लुक नामके तीन पत्र हए। हृदयकी गंभीरतासे समुद्रके और ऊँचे दर्जेकी इनमेंसे पहला आलोक नामका पुत्र स्वभावसे ही चतुराईसे श्रेष्ठ विद्याधरके समान था। उसे जिनेंद्र बड़ा बुद्धिमान था; उसके हृदयदर्पणमें संपूर्ण भगवान के शासनसरोवरका राजहंस, मुनीन्द्रोंके * देखो जैनसिद्धान्तभास्कर,किरण ४, पृ० १०३।
हो चरणकमलका भ्रमर, संपूर्णशास्त्रसमुद्रका मगर, +इससे मालूम होता है कि पहले नागर जातिक स्त्रियोंके नेत्रसमुद्रोंके लिए चंद्रमा और विद्वज्जनोंलोग भी जैनधर्मको पालन करते थे, परतु आज कल का वल्लभ समझना चाहिए। वह ऐसा शृंगार किया उनमें जैनधर्मका अभाव है।
करता था, जो सरस और साररूप हो । उसका
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3
जैनहितषी -
।
चरित उदार तथा मूर्ति, सुभग और सौम्य थी विलासिनी ( वेश्यायें ? ) उसके चरणों में आकर नम्रीभूत हुआ करती थीं । बड़े भाईका स्वर्गवास हो जानेके कारण कुलरथका संपूर्ण भार अकेले इस भूषणके सिर पर पड़ा । भूषणने उसे बड़ी शांति और धैर्य के साथ उठाया । अपनी स्थिरमति और महा दृढता के बलसे उसने अपने कुलरथको गुरुतर विपत्तिके गढ़ेसे निकाला, जिसमें वह उस समय फँसा हुआ था, और उसे विभूतिगिरिके शिखर पर पहुँचाया । भूषण के लक्ष्मी और सीली नामकी दो स्त्रियाँ थीं और वे दोनों ही पतिव्रता तथा चारित्रगुणसे युक्त थीं । सीली नामकी से भूषणके शांति आदि पुत्र उत्पन्न हुए । भूषणका छोटाभाई अर्थात् आलोकका तीसरा पुत्र ' लल्लाक' हमेशा देवपूजा में तत्पर और अपने भाई भूषणकी आज्ञा का पालन करनेमें प्रवृत्त रहता था । • भूषण के बड़े भाई पाहुकके 'सीउका' नामकी खीसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसका नाम
"
३३४
अम्बर था ।
२२ वें में लिखा है कि भूषणने, आयुको तप्त- लोहे पर पड़े हुए छोटेसे जलबिन्दुके समान नश्वर विचारकर, लक्ष्मीकी स्थितिको हाथीके कान समान अति चंचल देखकर और शास्त्रानुसार यश तथा श्रेय (धर्म) को स्थिरतर जानकर पृथ्वीका भूषण यह मनोहर जिनमंदिर बनवाया है। इसी जिनमंदिरसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रकृत शिलालेख है । इस शिलालेख में कुल ३० पद्य हैं, जिनमें से पहला मंगलाचरणका पय और चौथे पयसे प्रारंभ करके १९ वें पद्यतक १६ पद्य अर्थात् कुल १७ पद्य ' कटुक' नाम किसी पंडितके बनाये हुए हैं। शेष पयोंकी रचना ' भादुक' नामके किसी ब्राह्मण द्वारा हुई है जो भाइलका पौत्र और श्रीसावड नामके द्विजका पुत्र था । उत्कीर्ण होनेके लिए
[ भाग १३
इस लेखकी कापी बालभवंशी एक कायस्थने लिखी थी जिसका नाम ' वासव' और जिसके पिताका नाम राजपाल था । वासव उक्त विजयराज नामक राजाका सान्धिविग्रहिक अर्थात फॉरेन सैक्रेटरी था । शिलालेख के अन्तिम पयमें इस कीर्ति ( मंदिर ) के चिर स्थिर रहनेका आशीर्वाद देकर उसके बाद, गद्यमें, ' सूमाक' नामके विज्ञानिक ( शिल्पी ) द्वारा इस शिलालेखके उत्कीर्ण होने का उल्लेख किया है । इसके बाद 'मंगलं महाश्रीः ' लिखकर लेखकी समाप्तिका एक चिह्न बनाया गया है ! और फिर २७ वीं पंक्तिसे प्रारंभ करके ३१ वीं पंक्ति तक आत्मानुशासन ग्रंथ के कुछ पद्य उत्कीर्ण किये गये हैं । इन पद्योंमेंसे 'लक्ष्मीनिवासनिलयं ' इत्यादि चार पद्य आत्मानुशासन के प्रारंभिक पद्य हैं और उनपर नम्बर भी उसी क्रमसे डाले गये हैं । शेष पद्यों पर क्रमशः ६५, ६८, ६९ और ७० नम्बर पड़े हुए हैं । ७१ पयके दो तीन अक्षर कम हैं और शिला टूट गई मालूम होती है । ये पिछले पाँचों पद्य वे हैं जो सनातन जैनग्रंथमालामें छपे हुए आत्मा नुशासनमें क्रमशः नं० ६६,६९,७०,७१, और ७२ पर दर्ज हैं । नहीं मालूम आत्मानुशासन के ये सब पद्य उसी समय उत्कीर्ण हुए हैं या पछेिसे खोदे गये हैं। क्योंकि मूल शिलालेख से इनका कोई सम्बंध नहीं है । शिलालेखको प्रत्यक्ष देखने अथवा उसका फोटू आदि प्राप्त होने पर इस विषयका निर्णय किया जा सकता है । अस्तु । आत्मानुशासन के इन पयोंको छोड़कर शेष पूरा शिलालेख, पाठकों के अवलोकनार्थ, नीचे दिया जाता है। जहाँ तक मुझे मालूम है यह शिलालेख, अभीतक प्रकाशित नहीं हुआ । भारतीय पुरातत्त्वविभाग ( पश्चिमी सर्किल ) के सुपरिटेंडेंट श्रीयुत डी. आर. भांडारकर महोदयने इस शिलालेख को, प्रकाशित करने के
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अङ्क ८ ]
लिए, वे० साधु श्रीयुत मुनि जिनविजयजीको दिया था । और मुनि जिनविजयजी के पाससे मुझे इसकी प्राप्ति हुई है । अत: मैं इस कृपाके लिए उक्त दोनों महानुभावोंका हृदयसे आभार मानता हूँ ।
अथूणाका शिलालेख ।
मूल लेख ।
१-६० ॥ ॐनमो वीतरागाय । स जयतु जिनभानुर्भव्यराजीवराजीजनितवरविकाशो दत्तलोकप्रकाशः । परसमयतमोभिर्न स्थितं यत्पुरस्तात्क्षणमपि चपलासद्वादिखद्यो
तकैश्च ॥ १ ॥ ५ ॥
२ - आसीच्छ्रीपरमार वंशजनितः श्रीमंडलीकाभिधः कन्हस्य ध्वजिनीपतेर्निधनकृच्छ्रणीसिंधराजस्य च । जज्ञे कीर्तिलतालबालक इतश्चामुंडराजो नृपो योऽवंतिप्रभुसाधनानि बहुशो हतिस्म
३-देशे स्थलौ ॥ २ ॥ श्रीविजयराजनामा तस्य सुतो जयति मति (जगति) विततयशाः । सुभगो जितारिवर्गों गुणरत्नपयोनिधिः शूरः ॥ ३ ॥ देशेऽस्य पत्तनवरं तलपाटकाव्यं पण्याङ्गनाजनजिता
४-मरसुंदरीकम् । अस्ति प्रशस्तसुरमं दिर वैजयन्तीविस्ताररुद्ध दिननाथकरप्रचारं ॥ ४ ॥ तस्मिन्नागरवंशशेखर मणिर्निःशेषशास्त्राम्बुधिजैनेन्द्रागमवासनारससुधाविवास्थिमज्जाभवत् ।
५ - श्रीमानंबरसंज्ञकः कलि बहिर्भूतो भिबघा (ग्रा) मणीर्गार्हस्थे ( स्थ्ये ) पि निकुंचिताक्षप्रसरो देशव्रतालंकृतः ॥ ५ ॥ यस्याव [श्य ] क [ क ]म्र्मनिष्ठितमतेः ठा वनांते भवतेवासिवदाहितांजलिपुटा ( 1 )
६- थोसः (षः) कृतोपासनाः । यस्यानन्यसमानदर्शन गुणैरन्तचमत्कारिता शु
३३५
श्रूषां विदधे सुतेव सततं देवी च चक्रेश्वरी. ॥ ६ ॥ पापाकस्तस्य सूनुः समजनि जनितानेक भव्यप्रमोदः प्रादुर्भू
७-तप्रभूतप्रविमलधिषणः पारदृश्वा श्रुतानां [] सर्वायुर्वेदवेदी विदितसकलरुक्कान्तलोकानुकंपो निर्ऋताशेषदोषप्रकतिरपगदस्तत्प्रतीकारसारः ॥ ७ ॥ तस्य पुत्रास्त्रयोऽभूवन्भूरिशा
८स्त्रविशारदाः । आलोकः साहसाख्यञ्चलल्लुकाख्यः परोनुजः ॥ ८ ॥ यस्तत्राद्यः सहजविशदप्रज्ञया भासमानः स्वांतादर्शस्फुरितसकलैतिह्यतत्त्वार्थसारः । संवेगादिस्फुटतरगुणव्य
९-त सम्यक्प्रभावः तैस्तैद्दानप्रभृतिभि: रपि स्वोपयोगी कृतश्रीः ॥ ९ ॥ आधा [ रो ] यः स्वकुलसमितेः साधुवर्गस्य चाभूह शीलं सकलजनताह्लादिरूपं च काये । पात्रीभूतः कृतयतिधृत्तीनां
१० - श्रुतानां श्रियां च सानंदानां धुरमुदवहद्भोगिनां योगिनां च ॥ १० ॥ यो माथुरान्वयनभस्तल तिग्मभानोर्व्याख्यानरंजितसमस्तसभाजनस्य । श्रीच्छत्रसेनसुगुरोश्चरणारविंदसे
११- वापरो भवदनन्यमनाः सदैव ॥ ११ ॥ तस्य प्रशस्तामलशीलवत्यां हेलाभिधायां वर धर्मपत्न्यां । त्रयो बभूवुस्तनया नयाढ्या विवेकवतो भुवि रत्नभूताः ॥ १२ ॥ अभ वदमल-
१२- बोधः पाहुकस्तत्र पूर्वः कृतगुरुजनभक्तिः सत्कुशाग्रीयबुद्धिः । जिनवचसि यदीयप्रश्नजाले विशाले गणभूदपि विमुचेत्कैव वार्ता परस्य ॥ १३ ॥ करणचरणरूपानेक
१३- शास्त्रप्रवीणः परितविषयार्थो दान-तीर्थम[ वृत्तः ] । ग ( श ) मनियमित -
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३३६
जैनहितैषी
[भाग १३
चित्तो जातवैराग्यभावः कलिकलिलवि. २०-संचिंत्यद्विपकर्णचंचलतरां लक्ष्म्यामुक्तोपासकीयप्र(व्र )ताढ्यः ॥ १४ ॥ श्च दृष्ट्वा स्थितिं । ज्ञात्वा शास्त्रसुनिश्चकनिष्ठस्तस्याभूद्धवनविदितो भूषण इति यात् स्थिरतरे नूनं यशः श्रेयसी तेनाकारि श्रियः पात्रं
मनोहरं जिनगृहं भूमेरिदं भूषणम् ॥ २२ ॥ १४-कांतेः कुलगृहममायाश्च वसतिः। भूषणस्य कसरस्वत्याः क्रीडागिरिरमलबुद्धरतिवनं क्ष- २१-निष्ठो यो लल्लाक इति विश्रुतः।देवमावल्याः कंदः प्रविततकृपायाश्च निलयः पूजापरो नित्यं भ्रातुरादेशकृत्सदा ॥ २३ ॥ ॥१५॥ स्मरः (रो) सौ रूपेण प्रबलसु [भ] ज्येष्ठो बाहुकनामा यः सीउकायामजीगत्वेन गणभृत् कुबेरः संप (1) जनत शुभलक्षणसंयुक्तं पुत्रमम्बटसं
१५च्या समधिकविवेकेन धिषणः।महो- ज्ञकम् ॥ १४॥ सत्या मेरुर्जलनिधिरगाधेन मनसा विदग्ध- २२-वर्षसहस्र याते षषष्ठयुत्तरशतेन त्वेनोच्चैर्य इह वरविद्याधर इव ॥ १६ ॥ संयक्त। विक्रमभानोः काले स्थलिविषयजैनेन्द्रशासनसरोवरराजहंसो मौनींद्रपाद- मवति सति विजयराजे ॥२५॥ विक्रम कमलद्वय
संवत् ११६६ वैशाखसुदि ३ सोमे वृषभ१६ चंचरीकः । निःशेषशास्त्रनिवहोदक- नाथस्य प्रतिष्ठा नाथनकः। सीमंतिनीनयनकैरवचारुचंद्रः॥ ॥ १७ ॥ विदग्धजनवल्लभः सरससार
२३-श्रीवृषभनाथधाम्नः प्रतिष्ठितं भूषश्रृंगारवानुदारचरितश्च यः सुभगसौम्य
Sणेन विम्बमिदं । उच्छूणकनगरेस्मिन्निह मूर्तिः सुधीः। प्रसाद
जगतौ वृषभनाथस्य ॥ २६ ॥ युगलं ॥०॥
तुर्यवृत्तात्समारभ्य वृत्तान्येतानि १७-नपरा नमदरविलासिनीकुन्तलव्यपस्तपदपंकजद्वितयरेणुरत्युनतः ॥ १८॥ २४-षोडश । आद्यवृत्तेन युक्तानि कृतप्रथमधवलपाये मेघे गतेपि दिवं पुनः। वान्कदुको बुधः ॥ २७ ॥ भाइल्लोवंशे. कुलरथभरो येनैकेनाप्यसंभ्रममुद्धतः । भूत्तज्जः श्रीसावडो द्विजः । तत्सूनो दुकगुरुतरविप
स्येयं निःशेषाथ परा कृतिः ॥ २५ ॥ वाल
भान्वयकायस्थराजपालस्य । १८-द्र्तग्रावग्रहादुदनादिव (तारि च) स्थिरमतिमहास्थाना नीतो विभूतिगिरेः
___२५-सूनुना । संधिविग्रहसंस्थेन लिखि. शिरः॥१८॥ द्वे भार्ये भूषणस्य स्तः लक्ष्मी ता वासवन व "
ता वासवेन वै ॥ २९ ॥ यावद्रावणरामयोः सालीति विश्रुते । पतिव्रतत्वसंयुक्त चारित्र- सुचरितं भूमौ जनैपर्गीयते [1] यावद्विष्णुपगुणभूषिते ॥ २० ॥ स सी
दीजलं प्रवहति व्योम्न्यस्ति यावच्छगी ।
अर्ह- १९-लिकायामुदपादि पुत्रान्सन्तानयोग्यान गुरुदेवभक्तः । आलोकसाधारण- २६-द्वक्त्रविनिर्गतं श्रवणकैः यावस्तु[च्छू] शांतिमुख्यान्स्वबंधुचित्ताब्जविकाशमानून तं श्रूयते तावत्कातिरियं चिराय जयतात्सं॥ २१ ॥ आयुस्तप्तमहींद्रसारनिहितस्तो- स्तूयमाना जनैः ॥ ३० ॥ उत्कीर्णा विज्ञाकाम्बुवन्नश्वरं
निकसूमाकेन ॥०॥ मंगलं महाश्रीः॥०॥
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अङ्क ८] गोम्मटस्वामीकी संपत्तिका गिरवी रक्खा जाना। गोम्मटस्वामीकी संपत्तिका मंदिरोंकी हालतको देखा जाय तो दांतोतले अंगु
ली दबानी पड़ती है। जगह जगह कूड़ा कर्कटका गिरवी रक्खा जाना। ढेर लगा हुआ है। बहुतसे मंदिरोंके गर्भगृहोंमेंसे [ले०-श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर मुख्तार।]
१ इतनी दुर्गधि आती है कि वहाँ ठहरा नहीं जाता!
'' नगरमें और पर्वतों पर अधिकांश मंदिर ऐसे हैं __ जो लोग भगवानकी पूजा करके आजीविका जिनमें नित्य क्या, माहनों और वर्षों में भी प्रतिमाकरते हैं-पूजनके उपलक्षमें वेतन लेते अथवा ओंका प्रक्षालन नहीं होता।आठ दिन ठहरने पर दक्षिणा, चढ़ावा या उपहार ग्रहण करते हैं- भी, पुजारियोंकी कृपासे, नगरके दो तीन मंदिर उनमें प्रायः धर्मका भाव बहुत ही कम पाया दर्शनोंके लिए खुल नहीं सके। इतने पर भी “पूजन जाता है। यही वजह है कि समय समय पर कब कराओगे, गोम्मटस्वामीका खास पुजारी मैं उनके द्वारा तीर्थादिकों पर अनेक अत्याचार भी हूँ,दान या इनाम मुझे ही देना, हम आपकी आशा हुआ करते हैं । वे लोग जाहिरमें अपने अंगोंको लगाये हुए हैं," इत्यादि दीन वचन पुजारियोंके चटका मटका कर बहुत कुछ भक्तिका भाव मुखसे बराबर सुननेमें आते थे । इससे पढ़ें दिखलाते हैं और यात्रियों पर उस देव तथा तीर्थके पुजारियोंकी धर्मनिष्ठाका बहुत कुछ अनुभव गुणोंका जरूरतसे अधिक बखान भी किया हो सकता है । यह धर्मनिष्ठा आजकलके करते हैं; परन्तु वास्तवमें उनके हृदय देवभाक्ति पंडेपुजारियोंहीकी नहीं बल्कि इससे कई शताब्दियों तथा तीर्थभक्तिके भावसे प्रायः शून्य होते हैं। पहलेके पंडे पुजारियोंकी भी प्रायः ऐसी ही धर्मनिष्ठा उनका असली देव और तीर्थ टका होता है। पाई जाती है, जिसका अनुभव पाठकोंको. वे उसीकी उपासना और उसीकी प्राप्तिके लिए सिर्फ इतने परसे ही हो जायगा कि इन पुजारिसब कुछ करते हैं । यदि उनको अवसर मिले योंके पूर्वजोंने श्रवणबेल्गोलके गोम्मटस्वामीकी तो वे उस देवतीर्थकी सम्पत्तिको भी हड़प सम्पत्तिको एक समय महाजनोंके पास गिरवी जानेमें आनाकानी नहीं करते ! ऐसे लोगोंके अर्थात् रहन (Mortgage) रख दिया था! लगभग हृदयके क्षुद्र भावों और दीनताभरी याचना- तीनसौ वर्ष हुए जब शक संवत् १५५६ आषाढ ओंको देखकर चित्तको बहुत ही दुःख होता है सुदी १३ शनिवारके दिन मै सूरपट्टनाधीश और समाजकी धार्मिक रुचिपर दो आँसू बहाये महाराज चामराज वोडेयर अप्पके सदुद्योगसे ये विना नहीं रहा जाता । यह दशा केवल हिन्दू सब रहन छूटे हैं। श्रवणबेल्गोलमें इस विषयके तीर्थोके पंडे पुजारियोंहीकी नहीं, बल्कि जैनियोंके दो लेख हैं, एक नं० १४० जो ताम्रपत्रोंपर लिखा बहुतसे तीर्थोके पंडे पुजारियोंकी मी प्रायः ऐसी हुआ मठमें मौजूद है और दूसरा नं० ८४ जो ही अवस्था देखनेमें आती है । पिछली श्रवण- एक मंडपमें शिलापर उत्कीर्ण है । वे दोनों लेख बेल्गोलसम्बन्धी मेरी तीन महीनेकी यात्रामें मुझे कनडी भाषामें हैं। पाठकोंके ज्ञानार्थ उनका इस विषयका बहुत कुछ अनुभव प्राप्त हुआ है। भावार्थ * नीचे प्रकाशित किया जाता है:उस समय तारंगा तीर्थका पुजारी अपने फटे पुराने
ट पुरान * यह भावार्थ मिस्टर बी. लेविस राइस साहबके कपड़ोंको दिखलाकर यात्रियोंसे भीख माँगता था! अंगरेजी अनुवाद परसे लिखा गया है। कहीं कहीं श्रवणबेलगोलमें, जिसे जैनबद्री मी कहते हैं, चामराजके विशेषणादि सम्बंध मूलसे भी सहायता ३६ घर पुजारियोंके हैं। परंतु यदि वहाँके ली गई है।
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३३८ जैनहितैषी
[ भाग १३
और उसका जमीन तथा जायदाद पर कुछ श्रीस्वस्ति । शालिवाहन शक १५५६, भाव अधिकार नहीं होगा। संवत्सरमें, आषाढ सुदी १३ को, शनिवारके यदि कोई मनुष्य, इस विज्ञप्तिका उल्लंघन दिन, ब्रह्मयोगमें
करके, रहन रक्खेगा या रहन स्वीकार करेगा, __ श्रीमन्हाराजाधिराज, राजपरमेश्वर, अरिराय- .
.तो वे राजा जो इस राष्ट्र पर राज्य करेंगे इस
. देवके स्वत्वोंको पूर्वरीत्यानुसार सुरक्षित रखेंगे। मस्तकशूल, शरणागतवज्रपंजर, परनारीसहोदर,
" जो कोई राजा इस कर्त्तव्यसे अनभिज्ञ रहकर सत्त्यागपराक्रममुद्रामुद्रित, भुवनवल्लभ, सुवर्ण
- उपेक्षा धारण करेगा उसे वारणासीमें एक हजार कलशस्थापनाचार्य, धर्मचक्रेश्वर, मैसूरपट्टनाधी- गौओं और ब्राह्मणोंके वध करनेका पाप लगेगा। श्वर चामराज वोडेयर अप
___ इस प्रकार धर्मशासन लिखा गया और दिया पुजारियोंने, अपनी अनेक आपत्तियोंके गया । मंगलमहाश्री। श्री ॥ श्री॥ कारण, बेल्गुलके गोम्मटनाथ स्वामीकी पूजाके
नं. ८४। लिये दिये हुए उपहारों (दानकी हुई ग्रामादिक श्रीशालिवाहन शक वर्ष १५५६, भाव संवसंपत्ति ) को वणिग्गृहस्थोंके पास रहन (बंधक) स्सरमें, आषाढ सुदी १३ को, शनिवारके दिन कर दिया था,- और रहनदार लोग (बंधक- ब्रह्म योगमें; श्रीमन्महाराजाधिराज, राजपरमेग्राही-Mortgagees ) उन्हें हस्तगत किये हुए श्वर, मैसूरपट्टनाधीश्वर, षट्दर्शनधर्मस्थापनाचार्य, बहुत कालसे उनका उपभोग करते आरहे थे- चामराज बोडेयर अप्प,-बेल्गोलके मंदिरकी
. जमीनें बहुत दिनोंसे रहन थीं, उक्त चामराज चामराज वोडेयर अप्पने, इस बातको मालूम ,
बोडेयर अप्पने होसवोललुकेम्पप्पके पुत्र चन्नण्ण करके, उन वाणग्गृहस्थाका बुलाया जिनक पास बेल्गुलपायि सेट्टिके पुत्रों चिक्कण्ण और जिगरहन थे और जो संपत्तिका उपभोग कर रहे थे पाय सेट्टि नामके रहनदारों तथा दूसरे रहन
और कहा कि- " जो कर्जजात (ऋण )तुमने दारोंको बुलाकर, कहा कि “मैं तुम्हारे रहनका पजारियोंको दिये हैं उन्हें हम दे देवेंगे और रुपया अदा कर दूंगा।" ऋणमुक्तता कर देवेंगे।"
इसपर चन्नण्ण, चिक्कण्ण, जिगपायि-सेट्टि इसपर उन वणिग्गृहस्थोंने ये शब्द कहे- मुद्दण्ण, अज्जण्णन-पदुमप्पनका पुत्र पण्डेण्ण, "हम उन ऋणोंका, जो कि हमने पुजारियोंको पदुमरसप्प दोडण्ण, पंचवाण कविका पुत्र दिये हैं, अपने पिताओं और माताओंके कल्या- बोम्मप्प, बोम्मणकवि, विजयण्ण, गुम्मण्ण, णार्थ, जलधारा डालते हुए दान करेंगे।" चारुकीर्तिनागप्प, बेडदय्य, बोम्मि-सेट्टि, होसह__उन सबके इस प्रकार कह चुकने पर,- ल्लिय रायण्ण, परियण्ण गौड, वैरसेट्टि, बैरण्ण, वणिग्गृहस्थोंके हाथोंसे, गोम्मटनाथ स्वामीके वीरप्प, नामके इन सब वणिकों और क्षेत्रपतियोंसम्मुख, देव और गुरुकी साक्षीपूर्वक, यह. कहते न
ने, अपने पिताओं और माताओंके कल्याणार्थ, हुए कि-"जबतक सूर्य और चंद्रमा स्थित गोम्मट स्वामीकी मौजूदगीमें और अपने गरु हैं तुम देवकी पूजा करो और सुखसे रहो-".
चारुकीर्ति पंडित देवके सन्मुख, जलधारा डालते यह धर्मशासन पुजारियोंको, ऋणमुक्तताके तौर- हुए ब
हुए बंधकग्राहियोंके (?) मंदिरानेरीक्षकोंको पर, दिया गया।
" रहननामे (Motgage bonds) दे दिये और यह बेल्गोलके पुजारियोंमें अगामी जो कोई उप
शिलाशासन रहनोंके छूटनेका लिख दिया ।
(शाप-काशी रामेश्वरमें एक हजार गोओं और हारोंको रहन रक्खेगा, या जो कोई उन पर रहन
ई उन पर रहन ब्राह्मणों के मारनेका पाप)। श्री श्री। करना स्वीकार करेगा, वह धर्मबाह्य किया जायगा
-
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अङ्क ८ ]
कुछ इधर उधरकीं ।
३१९
कई मुकद्दमों में वे श्वेताम्बरोंकी ओरसे अगुआ रह चुके हैं, कहीं इसी लिए तो इनका स्वर्गवास नहीं हुआ है ? जिस समय सेठ परमेष्ठीदासजी और बाबू घन्नूलालजी अटर्नीकी मृत्यु हुई थी, उस समय भी मेरे तार्किक मस्तकमें यही प्रश्न उठा था । इस समय दोनों प्रश्नोंका मिलान हो गया; साथ ही इसीके सम्बन्धकी और भी कई मृत्युओंका स्मरण हो आया। मैं आँखें बन्द करके वि चार करने लगा। थोड़ी ही देर में मैंने एक नई बातका अविष्कार कर डाला । मुझे निश्चय हो गया कि दिगम्बर श्वेताम्ब की लड़ाईसे इन्द्र महाराजका आसन डोल गया है ! भाई-भाईके इस भयंकर द्वेषसे इन्द्रका आसन अभी तक न डोला था यही आश्चर्य की बात थी ! देवराजने पहले सोचा था कि दोनों सम्प्रदायों में शिक्षाका प्रचार हो रहा है इस लिए ये मामले स्वयं ही ठंडे हो जायँगे; परन्तु जब उन्होंने देखा कि 'मरज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दबा की' तब स्वयं बीच में पड़कर निबटेरा कर देनेका निश्चय किया। उनके प्राइवेट सेक्रेटरीने राय दी कि, इस काम में जल्दी करना ठीक नहीं। दोनों सम्प्रदायोंके मुखियों धीरे धीरे सब हाल मालूम कर लो और तब बीचमें पड़कर सन्धि कराने का यत्न करो । पहले दिगम्बर सम्प्रदायके अगुए बुलाये गये । इसके लिए तीर्थक्षेत्र कमेटीके कार्यकर्त्ता खास तौर से पसन्द किये गये; क्यों कि वे ही इन मामलोंके अधिक जानकार थे । अबतक स्वर्गीय सेठ चुन्नीलाल जवेरचन्द, दानवीर सेठ माणिकचंदजी, सेठ परमेष्ठीदासजी और बाबू धन्नूलालजी अटर्नी आदि कई दिगम्बरी अगुओं की मुलाकात देवराज ले चुके हैं। उनके बाद श्वेताम्बरी अगुओंका नम्बर आया है । सबसे पहले शायद बाब बद्रीदासजी ही बुलाये गये हैं । श्वेताम्बर समाज मैं अधिक परिचित नहीं, संभव है उनके यहाँसे और भी दो चार आदमी जा चुके हों ।
कुछ इधर उधरकीं ।
पिछले अंकमें मैंने लिखा था कि गोलमालकारिणी सभाकी दूसरी बैठककी रिपोर्ट शीघ्र ही भेजूँगा; परन्तु कार्यवश दूसरी बैठक अबतक नहीं हुई और इस कारण रिपोर्ट भी तैयार न हो सकी । सोचा था कि चलो छुट्टी हुई, अबकी बार कुछ न लिखना पड़ेगा और ' आराम में खलल , न पड़ेगा; परंतु बीच में ही हितैषी सम्पादकका पत्र आ पहुँचा जिसमें लिखा था कि इस अंक के लिए कुछ न कुछ अवश्य भेजिए । आपके लेखोंको पढ़ने के लिए लोग बहुत ही उत्कण्ठित हो रहे हैं । यदि आपके लेखन आयँगे तो जैनहितैषीकी ग्राहकसंख्या एकदम घट जायगी । मेरे लेखोंकी इतनी कदर ! मैं फूलकर कुप्पा हो गया । साथ ही हितैषीके प्रति करुणाका भी उद्रेक हो आया प्रान्तिक सभाने उसके ग्राहक घटाने की कोशिशकी ही है; यदि मैं भी लेख न भेजूँगा, बेचारा मर जायगा ! यह सोचकर मैंने अपनी सुकोमल कलमको सँभाला । क्या लिखूँ ? हृदयने उत्तर दिया, अरे तुम तो जो भी कुछ लिखोगे, उस पर लोग लट्टू हो जायँगे । तुम्हारी लेखनीसे अमृत और विनोद एक साथ झरते हैं । फिर यह चिन्ता क्यों करते हो ? मैंने कलम चलाना शुरू कर दिया । !
।
तो
१
मैं कल रातको लेटे लेटे 'जैनमित्र' का पाठ कर रहा था । उसमें यह दुःसंवाद पढ़कर किं ' कलकत्तेके जौहरी राय बद्रीदास बहादुर का स्वर्गवास हो गया' मैं चौंक पड़ा । साधारण -लोगों के लिए यह कोई चौंकनेकी बात न थी; परन्तु मैं शास्त्री ठहरा, तर्कशास्त्रका पण्डित ठहरा मेरे मस्तक में इसके साथ ही अनेक बातें एक साथ चक्कर लगा गई ! मैंने प्रश्न किया कि तीर्थक्षेत्रोंके
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३४०
जैनहितैषी
[भाग १३
कितनेही गये हों, पर यह निश्चय है कि देव- अपने जो कुछ कहा वह आपके ही शब्दोंमें इस राज इस झगड़ेकी जाँच कर रहे हैं और प्रकार है:अभी यह जाँच और भी कुछ समयतक जारी “ मेरे विचारोंमें सदा परिवर्तन होता है। रहेगी। आगे और कौन कौन सज्जन कब कब आजसे १० वर्ष पहले मैं कैसा था, इसको सोचबुलाये जावेंगे यह निश्चय नहीं; पर बुलाये कर स्वयं मुझे ही आश्चर्य होता है ।मालूम नहीं अवश्य जावेंगे । यह भी निश्चय है कि अब आगे इन वर्तमानके विचारोंमें भी कितना परिवर्तन देवराज इन भाई-भाईयोंके युद्धको बहुत सम- हो जायगा । जब कभी मैं हिन्दी जैनगजटके वृद्ध यतक न चलने देंगे । यूरोपके महायुद्धको शीघ्र सम्पादककी कूटस्थानित्यतापर विचार करता हूँ समाप्त करनेके लिए जिस तरह इटलीके पोप तब अवाक हो जाता है। वे इस बीसवीं सदीमें प्रयत्न कर रहे हैं, उसी तरह जैनोंके इस भी सोलहवीं सदीके स्वप्न देखा करते हैं और युद्धको मिटानेके लिए साधर्म स्वर्गके चाहते हैं कि मेरे ही समान सारी दुनिया हो इन्द्रदेव यत्न कर रहे हैं । मेरा खयाल जाय । किसीके विचारों में जरासा परिवर्तन है कि पोपका प्रयत्न भले ही निष्फल चला देखा कि चटसे पुराने पत्रोंकी फाइलोमसे कुछ जाय, पर इन्द्रका यत्न सफल हुए बिना न टटोलकर पूर्वापरविरोध सिद्ध कर दिया ! गरज
साव्योंकि यरोपके राष्टोंने धर्मको छोड़ यह कि मैं परिवर्तनशील संसारका परिवर्तनशील. दिया है । पर जैन समाजके मुखियोंमें अभीतक मनष्य है। वर्तमानमें कुछ समयसे मैं इस सिद्धाधर्म बना हुआ है । वे इन्द्रकी बातको कभी न न्तका माननेवाला बन गया हूँ:-- टोलेंगे।
किस किसकी याद कीजिए, __ यदि मेरा यह अनुमान सच हो कि देवराज किस किसको रोइए । मुखियोंको बुला बुलाकर उनसे तीर्थोके झगड़ोंके आराम बड़ी चीज है, . विषयमें पूछ ताछ कर रहे हैं और सच होनेमें मुँह टैंकके सोइए ॥ कमसे कम मुझे तो कोई सन्देह नहीं है, क्यों पहले मैं जैनसमाजके लिए बहुत कुछ रोया कि मेरा कोई अनुमान झूठ नहीं होता, तो फिर गाया हूँ। बीसों लेख लिखे हैं और व्याख्याअब आगे जो लोग जावें उन्हें सब तरह से तैयार नादि दिये हैं; पर अब मुझे अपनी उस मूर्खता होकर जाना चाहिए । अपनी अपनी प्राचीनता पर हँसी आती है और पश्चात्ताप इस बातका सिद्ध करनेके लिए नये पुराने ग्रन्थोंका और होता है कि हाय मैंने आरामसे सोनेका वह पण्डितों तथा वकीलोंको अवश्य ही साथमें लिये अमूल्य समय व्यर्थ क्यों खो दिया ! जैनसमाज जाना चाहिए । क्यों कि न वहाँ मर्त्यलोकके जहन्नममें चला जाय, कल मरता था सो आज ग्रन्थोंका संग्रह है और न यहाँ जैसे पण्डित और मर जाय, मुझे उससे मतलब ? वह हमारी वकील हैं।
क्या चिन्ता करता है जो हम उसकी करें?
उसकी चिन्ता करनेवालोंको उसकी ओरसे जो पिछले सप्ताह मुझे एक पण्डितजीसे मिलनेका कुछ मिलता है, सो किसीसे छुपा नहीं है। सौभाग्य प्राप्त हुआ था । आपसे मिलकर मेरी जहाँ कृतघ्नताकी गिनती पापमें नहीं है, उस तबीयत बहुत प्रसन्न हुई। क्योंकि आपने अपनी समाजमें रहना भी पाप है । मेरा यह ' आराम भीतरी बाहरी सभी बातें जी खोलकर कह दी। बड़ी चीज है ' का सिद्धान्त यह मत
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अङ्क ८]
कुछ इधर उधरकी।
समझिए कि मेरे जैसे दश पाँच आदमियों- हूँ कि मेरा यह सिद्धान्त सर्वमान्य बनता जाता में ही माना जाता है। नहीं, इसका प्रचार है। आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई । मुझे खूब तेजीसे हो रहा है । यह बात दूसरी है कि आशा है कि आप भी कुछ समयमें मेरे साथी जिन परिस्थतियोंके कारण हताश होकर मैं बन जायेंगे और इन लिखने पढ़नेकी झंझटोंसे इसका अनुयायी बना हूँ, और लोग उनके छुट्टी पा जायँगे।" कारण नहीं बने होगे । वे आरामके लिए ही, आरामके भक्त हुए हैं और इस लिए इसके सच्चे
(३) उपासक उन्हींको समझना चाहिए । वाबू लोगों- रुसमें बड़ी भारी अव्यवस्था हो रही है। का सम्प्रदाय इस सिद्धान्तका खास भक्त है। सेनापति, मंत्रि मण्डळ, प्रजावर्ग आदिमें घोर जैनसमाजमें ग्रेज्युएटोंकी संख्या कई सौ है, पर मतभेद हो रहा है। कोई किसीकी नहीं सुनता। देखते हैं कि उनमें प्रतिशत ९९ ' येन केन सब अपने अपने अधिकारोंको बढ़ानेकी फिक्रप्रकारेण । रुपया कमाकर दुनियाके मजे लूटने- में हैं । शत्रुको यह खासा मौका मिल गया है। वाले ही हैं। वे तत्त्वज्ञ हैं, जानते हैं कि इस जड- वह आपनी सारी शक्तिको लगाकर भीतरी समाजके लिए रोना-कलपना किसी प्राचीन पर्वत भागमें घुसता जा रहा है। हिन्दी जैनगजटके या पाषाणसमहके लिए रोना-झींकना है। इसलिए स्टाफमें भी इसी तरहकी अव्यवस्थाके समाचार मजेसे पैर पसार कर सोते हैं । इधर मेरे भाई मिले हैं । सम्पादक और प्रकाशकमें मनमोटाव पण्डित जन भी इसके कम भक्त नहीं है । वे हो गया है । प्रकाशकने अपने शत्रुओंपर ऐसे वार जैनपाठशालाओं और विद्यालयोंमें रहकर ही किये हैं, जिन्हें सम्पादक अपने युद्धशास्त्रके इस तत्त्वसे परिचित हो जाते हैं । वे बाहरसे नियमोंसे विरुद्ध समझते हैं । उधर महासभाके चाहे जितने 'बगुलाभगत ' बनें, पर अन्तरंगमें मंत्री भी उनसे टेढ़ी चाल चल रहे हैं। इससे उनके यही तत्त्व रम रहा है। उनमें शायद तंग आकर पुराने पक्षके वृद्ध सेनापति पं० रघुही दो चार अभागे ऐसे होंगे जो दिनमें कमसे नाथदासजीने अपना इस्तीफा पेश कर दिया है। कम दो घण्टे न सोते हों । विद्यालयोंसे नि- इतनी खैर है कि वे महासभाके अधिवेशन तक कलते ही वे पेन्शनके हकदार हो जाते हैं। अपना काम करते रहेंगे, पर उनकी इच्छाके अपनी अपनी श्रीमतियोंकी सेवा करना और विरुद्ध शत्रुपर जो वार किये जायेंगे, उनके ठीक दो तीन घंटे तर्जन गर्जनके साथ लडकोंको निशाने पर लगने न लगनेके वे जिम्मेवार न कुछ रटा देना, या भोले भक्तोंको शास्त्र सुना होंगे । इस आपसकी फूटसे भय है कि कहीं देना, बस इससे आधिक परिश्रम वे नहीं कर नया दल या शत्रु पक्ष कुछ अधिक लाभ न उठा सकते। यदि कहीं काम आधिक हुआ, तो लेवे । यदि इस समय वह अपनी 'तरो ताजा' चटसे वह जगह छोड़ कर दूसरी कोई पाठशाला ताकतको काममें लायगा, तो आश्चर्य नहीं जो तलाश कर ली । उनका पठन पाठन तो पण्डित वह मैदान मार ले जाय । सावधान ! होने के साथ ही समाप्त हो जाता है। मैं खुश
-श्रीगड़बड़ानन्द शास्त्री।
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जैनहितैषी -
रानी सारन्धा ।
( लेखक - श्रीयुत प्रेमचन्दजी । )
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[ १ ] अधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चटा 'नोंसे टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमर घुमर करती हुई चक्कियाँ नदी के दाहिने तट पर एक टीला है। उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षोंने घेर रक्खा है । टीलेके पूर्व की ओर एक छोटासा गाँव है । यह गढ़ी और गाँव दोनों एक बुंदेला सरदारके कीर्तिचिह्न हैं । शताब्दियाँ व्यतीत हो गई, बुन्देलखण्डमें कितने ही राज्योंका उदय और अस्त हुआ, मुसलमान आये और गये, बुंदेला राजे उठे और गिरे, कोई गाँव, कोई इलाका, ऐसा न था जो इन दुर्व्यवस्थाओंसे पीड़ित न हो, मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय पताका न लहराई, और इस गाँव में किसी विद्रोहका पदार्पण न हुआ । यह उसका सौभाग्य था ।
अनिरुद्ध सिंह वीर राजपूत था । वह जमाना ही ऐसा था जब प्राणीमात्रको अपने बाहुबल और पराक्रमहीका भरोसा था। एक ओर मुसलमान सेनायें पैर जमाये खड़ी रहती थीं, दूसरी ओर बलवान् राजे अपने निर्बल भाइयोंके गले घोटने पर तत्पर रहते थे । अनिरुद्धसिंहके पास सवारों और पियादों का एक छोटासा, मगर सजीव, दल था । इसीसे वह अपने कुलकी और
दाकी रक्षा किया करता था । उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था । तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतलादेवी से हुआ, मगर अनिरुद्ध विहारके दिन और विलासकी रातें पहाड़ोंमें काटता था और शीतला उसके जानकी खैर मनाने में । वह कितनी वार पतिसे अनुरोध कर चुकी थी, कितनी बार उसके पैरों
[ भाग १३
पर गिर कर रोई थी, कि तुम मेरी आँखोंसे दूर न हो, मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ वनवास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता । उसने प्यारसे कहा, जिसे कहा, विनय की, मगर अनिरुद्ध बुंदेला था । शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी । [ २ ]
अँधेरी रात थी । सारी दुनिया सोती थी, मगर तारे आकाश पर जागते थे । शीतला देवी पलङ्ग पर पड़ी करवटें बदल रही थी और उसकी नन्द सारंधा फर्श पर बैठी हुई मधुर स्वरसे गाती थी:
विन रघुवीर कटत नहिं रैन । शीतलाने कहा- जी न जलाओ । क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती ?
सारन्धा -- - तुम्हें लोरी सुना रही हूँ । शीतला — मेरी आँखोंसे तो नींद लोप हो गई । सारन्धा - किसीको ढूँढ़ने गई होगी । इतनेमें द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुषने भीतर प्रवेश किया । यह अनिरुद्ध था । उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार न था । शीतला चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठ गई ।
सारन्धाने पूछा- भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं ?
अनिरुद्ध – नदी पैर कर आया हूँ । सारन्धा - हथियार क्या हुए ? अनिरुद्ध — छिन गये । सारन्धा - और साथके आदमी ? अनिरुद्ध - सबने वीरगति पाई । शीतलाने दबी जबानसे कहा - ' - " ईश्वरने ही कुशल किया- " मगर सारन्धाके तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्वसे सतेज हो गया । बोली - " भैया ! तुमने कुलकी मर्यादा खो दी । ऐसा कभी न हुआ था । "
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अङ्क ८] ... रानी सारन्धा।
३४३ सारन्धा भाई पर जान देती थी। उसके ही उसने मुगल बादशाहोंको कर देना बन्द कर मुंहसे यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और दिया और वह अपने बाहुबलसे राज्यविस्तार खेदसे विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण करने लगा। मुसलमानोंकी सेनायें वार वार उस पर भरके लिये अनुरागने दबा दिया था, फिर ज्वलन्त हमले करती थीं और हार कर लौट जाती थीं। हो गई । वह उल्टे पाँव लौटा और यह कहकर । यही समय था जब अनिरुद्धने सारन्धाका चला गया कि “सारन्धा! तुमने मुझे सदैवके चम्पतरायसे विवाह कर दिया। सारन्धाने मुँहलिए सचेत कर दिया। ये बातें मुझे कभी न माँगी मुराद पाई। उसकी यह अभिलाषा कि भूलेंगी।"
मेरा पति बुंदेला जातिका कुलतिलक हो, पूरी अँधेरी रात थी । आकाशमण्डलमें तारोंका हुई। यद्यपि राजाके रनिवासमें पाँच रानियाँ प्रकाश बहुत धुंधला था। अनिरुद्ध किलेसे बाहर थीं, मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह निकला । पलभरमें नदीके उस पार जा पहुँचा, देवी जो हृदयमें मेरी पूजा करती है सारन्धा है ।
और फिर अन्धकारमें लुप्त हो गया । शीतला परन्तु कुछ ऐसी घटनायें हुई कि चम्पतराउसके पीछे पीछे किलेकी दीवारों तक आई, मगर को
र यको मुगल बादशाहका आश्रित होना पड़ा। . जब अनिरुद्ध छलाँग मारकर बाहर कूद पड़ा तो
" उसने अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंहको सौंपा
र वह विरहिणी एक चटान पर बैठकर रोने लगी। और आप देहलीको चला गया। यह शाहजहाँके इतनेमें सारन्धा भी वहीं आ पहुँची । शीत
शासनकालका अन्तिम भाग था । शाहजादा लाने नागिनकी तरह बल खाकर कहा-मर्यादा
दारा शिकोह राजकीय कार्योको सँभालते थे। इतनी प्यारी है !
युवराजकी आँखोंमें शील थी, और चित्तमें सारन्धा-हाँ।
उदारता । उन्होंने चम्पतरायकी वीरताकी शीतला-अपना पति होता तो हृदयमें छिपा
कथायें सुनी थीं, इसलिए उसका बहुत आदर लेतीं।
सम्मान किया, और कालपीकी बहुमूल्य जागीर सारन्धा-न-छातीमें छुरी चुभा देती।
उसके भेंट की, जिसकी आमदनी नौ लाख थी। शीतलाने ऐंठ कर कहा-डोलीमें छिपाती
यह पहला अवसर था कि चम्पतरायको आये फिरोगी-मेरी बात गिरहमें बाँध लो।
दिनकी लड़ाई झगड़ेसे निवृत्ति हुई और उसके सारन्धा-जिस दिन ऐसा होगा, मैं भी अपना
साथ ही भोगविलासका प्राबल्य हुआ। रात दिन वचन पूरा कर दिखाऊँगी।
आमोदप्रमोदके चर्चे रहने लगे। राजा विलासमें ___ इस घटनाके तीन महीने पीछे अनिरुद्ध मह- .
डूबे, रानियाँ जड़ाऊ गहनों पर रीझीं। मगर रौनाको विजय करके लौटा। साल भर पीछे ,
सारन्धा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित सारन्धाका विवाह ओरछाके राजा चम्पतरायसे .
रहती । वह इन रहस्योंसे दूर दूर रहती, ये हो गया। मगर उस दिनकी बातें दोनों महिला
नृत्य और गानकी सभायें उसे सूनी प्रतीत होतीं। ओंके हृदय-स्थलमें काँटेकी तरह खटकती रहीं। [३]
एक दिन चम्पतरायने सारन्धासे कहाराजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। सारन ! तुम उदास क्यों रहती हो ? मैं तुम्हें कभी सारी बुंदेला जाति उनके नाम पर जान देती थी हँसते नहीं देखता । क्या मुझसे नाराज हो ? और उनके प्रभुत्वको मानती थी । गद्दी पर बैठते सारन्धाकी आँखोंमें जल भर आये । बोली
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जैनहितैषी
[भाग १३
स्वामीजी ! आप क्यों ऐसा विचार करते हैं। कर रोने लगता है, उसी तरह ओरछाकी यादसे जहाँ आप प्रसन्न हैं वहाँ मैं भी खुश हूँ। चम्पतरायकी आँखें सजल हो गई। उन्होंने ___ चम्पतराय-मैं जबसे यहाँ आया हूँ, आदरयुक्त अनुरागसे सारन्धाको हृदयसे लगा मैंने तुम्हारे मुखकमल पर कभी मनोहारिणी लिया। मुसकिराहट नहीं देखी । तुमने कभी अपने आजसे उन्हें फिर उसी उजड़ी वस्तीकी फिक्र हाथोंसे मुझे बीड़ा नहीं खिलाया । कभी मेरी हुई जहाँसे धन और कीर्तिकी अभिलाषायें खींच पाग नहीं सँवारी । कभी मेरे शरीर पर शस्त्र लाई थीं। नहीं सजाये । कहीं प्रेम-लंता मुरझाने तो
[३] नहीं लगी?
माँ अपने खोये हुए बालकको पाकर निहाल सारन्धा-प्राणनाथ ! आप मुझसे ऐसी बात हो जाती है । चम्पतरायके आनेसे बन्देलखण्ड पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है । यथा- निहाल हो गया। ओरछाके भाग जागे। नौबतें
में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। झड़ने लगी, और फिर सारन्धाके जातीय अभिमैं बहुत चाहती हूँ कि खुश रहूँ, मगर एक मानका आभास दिखलाई देने लगा। बोझासा हृदय पर धरा रहता है।
यहाँ रहते कही महीने बीत गये । इसी चम्पतराय स्वयं आनन्दमें मग्न थे। इसलिए बीचमें शाहजहाँ बीमार पड़ा। शाहजादाओंमें सारन्धाको उनके विचारमें असन्तुष्ट रहनेका कोई पहलेसे ईर्षाका अग्नि दहक रही थी। यह खबर उचित कारण नहीं हो सकता था । वे भौंहें सिकौड़ सुनते ही ज्वाला प्रचण्ड हुई । संग्रामकी तैयाकर बोले--मुझे तुम्हारे. उदास रहनेका कोई रियाँ होने लगीं। शाहजादा मुराद और मुहीउद्दीन विशेष कारण नहीं मालूम होता । ओरछामें अपने अपने दल सजा कर दक्खिनसे चले। कौनसा सुख था जो यहाँ नहीं है ? वर्षाके दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे, पर्वत
सारन्धाका चेहरा लाल हो गया । बोली-मैं और वन हरी हरी घाससे लहरा रहे थे । उर्बरा कुछ कहूँ, आप नाराज तो न होंगे! रंगबिरंगके रूप भर कर अपने सौन्दर्यको
चम्पतराय-नहीं । शौकसे कहो। दिखाती थी। सारन्धा-ओरछामें मैं एक राजाकी रानी मुराद और मुहीउद्दीन उमंगोंसे भरे हुए एकदम थी । यहाँ मैं एक जागीरदारकी चेरी हूँ। ओर- बढ़ते चले आते थे। यहाँ तक कि वे धौलपुरके छामें मैं वह थी, जो अवधर्मे कौशल्या थीं। निकट चम्बलके तट पर आ पहुँचे । परंतु यहाँ परंतु यहाँ मैं बादशाहके एक सेवककी स्त्री हूँ। उन्होंने बादशाही सेनाको अपने शुभागमनके जिस बादशाहके सामने आज आप आदरसे निमित्त तैयार पाया। शीश झुकाते हैं वह कल आपके नामसे काँपता शहजादे अब बड़ी चिन्तामें पड़े । सामने था । रानीसे चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे अगम नदी लहरें मार रही थी, लोभसे भी अधिक वशमें नहीं है । आपने यह पद और ये विला- विस्तारवाली । घाट पर लोहेकी दीवार खड़ी थी सकी सामग्रियाँ बड़े महँगे दामों मोल ली हैं। किसी योगीके त्यागके सदृश सुदृढ । विवश
चम्पतरायके नेत्रोंसे एक पर्दासा हट गया ।वे होकर चम्पतरायके पास सँदेसा भेजा कि खुदाके अब तक सारंधाकी आत्मिक उच्चताको न जानते लिए आकर हमारी डूबती हुई नावको पार थे। जैसे बे-माँबापका बालक माँकी चर्चा सुन- लगाइए ।
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अङ्क ८]
रानी सारन्धा।
३४५
राजाने भवनमें जाकर सारन्धासे पूछा- बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरत ही नदीमें इसका क्या उत्तर दूं?
घोड़े डाल दिये । चम्पतरायने शाहज़ादा दारा सारन्धा-आपको मदद करनी होगी। शिकोहको मुलावा देकर अपनी फौज घुमा दी
चम्पतराय-उनकी मदद करना दारा शिको- और वह बुन्देलोंके पीछे चलता हुआ उसे पार इसे वैर लेना है।
उतार लाया । इस कठिन चालमें सात घण्टोंका सारन्धा-यह सत्य है परन्तु हाथ फैलानेकी विलम्ब हुआ, परन्तु जाकर देखा तो सात सौ मर्यादा भी तो निभानी चाहिए।
बुन्देला योद्धाओंकी लाशें फड़क रही थीं। चम्पतराय-प्रिये! तुमने सोचकर जवाब राजाको देखते ही बुन्देलोंको हिम्मत बँध नहीं दिया।
गई । शाहजादोंकी सेनाने भी 'अल्लाहो अकबर' सारन्धा-प्राणनाथ, मैं अच्छी तरह जानती की ध्वनिके साथ धावा किया। बादशाही सेनामें हूँ कि यह मार्ग कठिन है और हमें अपने योद्धा- हलचल पड़ गई । उनकी पंक्तियाँ छिन्न भिन्न ओंका रक्त पानीके समान बहाना पड़ेगा । परन्तु हो गई । हाथोंहाथ लड़ाई होने लगी, यहाँ तक । हम अपना रक्त बहायेंगे, और चम्बलकी लहरों- कि शाम हो गई । रणभूमि रुधिरसे लाल हो । को लाल कर देंगे। विश्वास रखिए कि जब तक गई और आकाश अँधेरा हो गया। घमसानकी । नदीकी धारा बहती रहेगी, वह हमारे वीरोंकी मार हो रही थी । बादशाही सेना शाहज़ादोंको. कीर्ति गान करती रहेगी। जबतक बुन्देलोंका दबाये आती थी। अकस्मात् पच्छिमसे फिर । एक भी नाम-लेवा रहेगा, यह रक्तबिन्दु उसके बुंदेलोंकी एक लहर उठी और इस वेगसे बादमाथे पर केशरका तिलक बनकर चमकेगा। शाही सेनाकी पुश्त पर टकराई कि उसके कदम __ वायुमण्डलमें मेघराजकी सेनायें उमड़ रही उखड़ गये। जीता हुआ मैदान हाथसे निकल थीं। ओरछेके किलेसे बुन्देलोंकी एक काली घटा गया। लोगोंको कौतूहल था कि यह दैवी सहाउठी और वेगके साथ चम्बलकी तरफ चली। यता कहाँसे आई । सरल स्वभावके लोगोंकी . . प्रत्येक सिपाही वीररससे झूम रहा था। सारन्धाने धारणा थी कि यह फतहके फिरिश्ते हैं । परन्तु दोनों राजकुमारोंको गलेसे लगा लिया और जब राजा चम्पतराय निकट गये तो सारन्धाने राजाको पानका बीड़ा देकर कहा-बुन्देलोंकी घोड़ेसे उतर कर उनके पद पर शीश झुका लाज अब तुम्हारे हाथ है।
दिया । राजाको असीम आनन्द हुआ। यह - आज उसका एक एक अंग मुसकिरा रहा है सारन्धा थी।
और हृदय हुलसित है। बुन्देलोंकी यह सेना समरभूमिका दृश्य इस समय अत्यन्त दुःखदेखकर शाहज़ादे फूले न समाये । राजा वहाँकी मय था। थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए बीरोंके अगुल अंगुल भूमिसे परिचित थे। उन्होंने बुन्दे- दल थे वहाँ अब बेजान लाशें फड़क रही थीं। लोंको तो एक आडमें छिपा दिया और वे शाह- मनुष्यने अपने स्वार्थ के लिए आदिसे ही भाईजादोंकी फौजको सजा कर नदीके किनारे योंकी हत्या की है। किनारे पच्छिमकी ओर चले । दारा शिकोहको अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द अम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाटसे नदी मर्दोसे लड़ते थे, अब वे मुर्दोसे लड़ रहे थे। उतरना चाहता है। उन्होंने घाटपरसे मोर्चे हटा वह वीरता और पराक्रमका चित्र था, यह नीचता लिये । घाटमें बैठे हुए बुन्देले इसी ताकमें थे। और दुर्बलताकी ग्लानिप्रद तसबीर थी। उस
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। ३४६
जैनहितैषी
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[भाग १३
समय मनुष्य पशु बना हुआ था, अब वह पशुसे
[५] भी बढ़ गया था।
___ संसार एक रणक्षेत्र है। इस मैदानमें उसी ___ इस नोच खसोटमें लोगोंको बादशाही सेनाके सेनापतिको विजयलाभ होता है जो अवसरको सेनापति वलीबहादुर खाँकी लाश दिखाई दी। पहचानता है । वह अवसर देखकर जितने उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी उत्साहसे आगे बढ़ता है, उतने ही उत्साहसे दुमसे मक्खियाँ उड़ा रहा था। राजाको घोड़ोंका आपत्ति के समय पर पीछे हट जाता है। वह शौक था। देखते ही वह उस पर मोहित हो वीर पुरुष राष्ट्रका निर्माता होता है, और इतिगया। यह एराकी जातिका अति सुन्दर घोड़ा हास उसके नाम पर यशके फूलोंकी वर्षा था । एक एक अंग साँचमें ढला हुआ, सिंहकी करता है। सी छाती, चीतेकी सी कमर, उसका यह प्रेम पर इस मैदानमें कभी कभी ऐसे सिपाही भी
और स्वामिभक्ति देखकर लोगोंको बड़ा कौतूहल आ जाते हैं जो अवसर पर कदम बढ़ाना हुआ । राजाने हुक्म दिया-“खबरदार ! इस जानते हैं, लेकिन संकटमें पीछे हटना नहीं प्रेमी पर कोई हथियार न चलाये, इसे जीता जानते। यह रणधीर पुरुष विजयको नातक पकड़ ले, यह मेरे अस्तबलकी शोभाको बढ़ा- भेंट कर देता है । वह अपनी सेनाका नाम मिटा वेगा । जो इसे मेरे पास लावेगा-उसे धनसे देगा, किन्तु जहाँ एक बार पहुँच गया है, निहाल कर दूंगा।"
वहाँसे कदम पीछे न हटायेगा । उनमें कोई योद्धागण चारों ओरसे लपके, परन्तु किसीको विरला ही संसारक्षेत्रमें विजय प्राप्त करता है, साहस न होता था कि उसके निकट जा सके। किन्तु प्रायः उसकी हार विजयसे भी गौरवात्मक कोई चम्कारता था, कोई फन्देसे फँसानेकी होती है । अगर वह अनुभवशील सेनापति फिक्रमें था। पर कोई उपाय सफल न होता राष्ट्रोंकी नीव डालता है, तो यह आन पर जान था। वहाँ सिपाहियोंका एक मेला सा लगा देनेवाला, यह मुँह न मोड़नेवाला सिपाही, हुआ था।
राष्ट्रके भावोंको उच्च करता है, और उसके हृदय तब सारन्धा अपने खेमेंसे निकली और निर्भय पर नैतिक गौरवको अंकित कर देता है। उसे होकर घोड़ेके पास चली गई। उसकी आँखोंमें इस कार्यक्षेत्रमें चाहे सफलता न हो, किन्तु जब प्रेमका प्रकाश था, छलका नहीं । घोड़ेने सिर किसी वाक्य या सभामें उसका नाम जबान झुका दिया । रानीने उसकी गर्दन पर हाथ पर आ जाता है, तो श्रोतागण एक स्वरसे उसके रक्खा, और वह उसकी पीठ मुहलाने लगी । कीर्तिगौरवको प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारन्धा घोड़ेने उसके अञ्चलमें मुँह छिपा लिया । रानी इन्हीं ' आन पर जान देनेवालों ' में थी। उसकी रास पकड़ कर खेमेकी ओर चली । शहजादा मुहीउद्दीन चम्बलके किनारेसे आगघोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला, मानों रेकी ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर सदैवसे उसका सेवक है।
मोर्छल हिलाता था । जब वह आगरे पहुँचा तो ___ पर बहुत अच्छा होता कि घोड़ेने सारन्धासे विजयदेवीने उसके लिए सिंहासन सजा दिया। मी निष्ठुरता की होती । यह सुन्दर घोड़ा आगे औरंगजेब गुणज्ञ था । उसने बादशाही सरचलकर इस राजपरिवारके निमित्त रत्नजटित दारोंके अपराध क्षमा कर दिये, उनके राज्यपद मृग प्रतीत हुआ ।
लौटा दिये और राजा चम्पतरायको उसके बहु.
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अङ्क ८ ]
मूल्य कृत्योंके उपलक्ष में बारह हजारी मन्सब प्रदान किया । ओरछासे बनारस और बनारस से यमुना तक उसकी जागीर नियत की गई । बुंदेला "राजा फिर राज्यसेवक बना, वह फिर सुखविलासमें डूबा, और रानी सारन्धा फिर पराधी ताके शोकसे घुलने लगी ।
रानी सारन्धा ।
वली बहादुरखाँ बड़ा वाक्यचतुर मनुष्य था । उसकी मृदुलताने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीरका विश्वासपात्र बना दिया । उस पर राजा -सभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी । खाँ साहब के मनमें अपने घोड़े के हाथसे निकल जानेका बड़ा शोक था । एक दिन कुँवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैरको गया था । वह खाँ साहब के महलकी तरफ जा निकला । वली बहादुर ऐसे ही अवसरकी ताकमें था । उसने तुरत अपने सेवकोंको इशारा किया), राज-कुमार अकेला क्या करता ! _पाँव पाँव घर आया, और उसने सारन्धासे सब समाचार बयान किया । रानीका चेहरा तमतमा गया । बोली- मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा गया, शोक इसका है कि त उसे खोकर जीता क्यों लौटा। क्या तेरे शरीरमें बुंदेलोंका रक्त नहीं है ? घोड़ा न मिलता न सही, किन्तु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुंदेला बालकसे उसका घोड़ा छीन लेना हँसी नहीं है ।
यह कहकर उसने अपने पच्चीस योद्धाओंको तैयार होने की आज्ञा दी, स्वयं अस्त्र धारण किये और वह योद्धाओंके साथ वली बहादुरखाँके निवासस्थान पर जा पहुँची । खाँसाहब उसी घोड़े पर सवार होकर दरबार चले गये थे । सारन्धा दरबारकी तरफ चली, और एक क्षणमें किसी वेगवती नदीके सदृश बादशाही दरबारके सामने जा पहुँची । यह कैफियत देखते ही दरबारमें हलचल मच गई । अधिकारीवर्ग इधर उधर से आकर जमा हो गये । आलमगीर भी
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सहन में निकल आये । लोग अपनी अपनी तलवारें सँभालने लगे और चारों तरफ शोर मच गया । कितने ही नेत्रोंने इसी दरबारमें अमरसिंहकी तलवारकी चमक देखी थी । उन्हें वही घटना फिर याद आ गई ।
सारन्धाने उच्च स्वरसे कहा — खाँसाहब ! बड़ी लज्जाकी बात है कि आपने वह वीरता जो चम्बलके तट पर दिखानी चाहिए थी, आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है । क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते ?
वली बहादुरखाँकी आँखोंसे अग्निज्वाला निकल रही थी । वे कड़ी आवाजसे बोले-किसी गैरको क्या मजाज है कि मेरी चीज अपने काममें लाये ?
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रानी - वह आपकी चीज नहीं, मेरी है । मैंने उसे रणभूमिमें पाया है और उस पर मेरा अधिकार है। क्या रणनीतिकी इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते ?
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खाँसाहब - वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता, उसके बदले में सारा अस्तबल आपको नजर है ।. रानी--मैं अपना घोड़ा लूँगी ।
खाँसाहब--मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूँ, परन्तु घोड़ा नहीं दे सकता ।
रानी - तो फिर इसका निश्चय तलवारोंसे होगा । बुंदेला योद्धाओं ने तलवारें सौंत लीं और करीब था कि दरबारकी भूमि रक्तसे प्लावित हो जाय कि बादशाह आलमगीरने बीचमें आकर कहा - रानी साहबा ! आप सिपाहियों को रोकें । घोड़ा आपको मिल जायगा । परन्तु उसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा ।
रानी -- मैं उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागने पर तैयार हूँ । -
बादशाह - जागीर और मन्सब भी ? रानी - जागीर और मनसब कोई चीज नहीं । बादशाह - अपना राज्य भी ?
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जैनहितैषी -
[ भाग १३
'रानी - हाँ राज्य भी । बादशाह - एक घोड़े के लिए ?
बल थे, बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे । साथिकुछ तो काम आये, कुछ दगा कर गये । रानी - नहीं - उस पदार्थके लिए जो संसार में यहाँ तक कि निज सम्बन्धियोंने भी आँखें चुरा
योंमें
सबसे अधिक मूल्यवान् है ।
बादशाह -- वह क्या है ? रानी- अपनी आन ।
इस भाँति रानीने एक घोड़ेके लिए अपनी विस्तृत जागीर, उच्च राज्यपद और राजसम्मान सब हाथसे खोया और केवल इतना ही नहीं, भविष्य के लिए काँटे बोये । इस घड़ीसे अन्त दशा तक चम्पतरायको शान्ति न मिली । [ ६ ]
लीं । परन्तु इन कठिनाइयोंमें भी चम्पतरायने हिम्मत नहीं हारी । धीरजको न छोड़ा। उसने ओरछा छोड़ दिया, और वह तीन वर्ष तक बुंदेलखण्ड के सघन पर्वतों पर छिपा फिरता रहा । बादशाही सेनायें शिकारी जानवरोंकी भाँति सारे देशमें मँडरा रही थीं । आये दिन राजाका किसी न किसीसे सामना हो जाता था । सारन्धा सदैव उसके साथ रहती, और उसका साहस बढ़ाया करती । बड़ी बड़ी आपत्तियों में भी जब कि धैर्य्य लुप्त हो जाता-और आशा साथ छोड़ देती, आत्मरक्षाका धर्म्म उसे सम्हाले रहता था तीन सालके बाद अन्तमें बादशाह के सूबेदा रोंने आलमगीरको सूचना दी कि इस शेरका शिकार आपके सिवाय और किसीसे न होगा । उत्तर आया कि सेनाको हटा संकट से लो, और घेरा उठा लो । राजाने समझा, निवृत्ति हुई, पर यह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई ।
1
राजा चम्पतरायने फिर ओरछेके किलेमें पदार्पण किया । उन्हें मन्सब और जागीरके ` हाथसे निकल जानेका अत्यन्त शोक हुआ, किन्तु उन्होंने अपने मुँहसे शिकायतका एक शब्द भी नहीं निकाला । वे सारन्धाके स्वभा वको भली भाँति जानते थे । शिकायत इस समय पर कुठारका काम करती । कुछ दिन यहाँ शान्तिपूर्वक व्यतीत हुए । लेकिन बादशाह सारन्धाकी कठोर बातें भूला न था । वह क्षमा करना जानता ही न था । ज्यों ही भाइयोंकी ओरसे निश्चिन्त हुआ, उसने एक बड़ी सेना चम्पत का गर्व चूर्ण करनेके निमित्त भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किये । शुभकरण बुंदेला बादशाहका सूबेदार था । वह चम्पतरायका बचपनका मित्र और सहपाठी था । उसने चम्पतरायको परास्त करने का बीड़ा उठाया । और भी कितने ही बुंदेला सरदार राजासे विमुख होकर बादशाही सूबेदारसे आ मिले । एक घोर संग्राम हुआ । भाइयोंकी तलवारें भाइयोंहीके रक्त से लाल हुईं । यद्यपि इस समर में राजाको विजय प्राप्त हुआ, लेकिन उनकी शक्ति सदाके लिए क्षीण हो गई। निकटवर्ती बुंदेला राजे जो चम्पतरायके बाहु
[ ७ ] तीन सप्ताह से बादशाही सेनाने ओरछा को घेर रक्खा है । जिस तरह कठोर वचन हृदयको छेद डालते हैं, उसी तरह तोपके गोलोंने दीवा - रोंको छेद डाला है । किलेमें २० हजार आदमी घिरे हुए हैं, लेकिन उनमें आधेसे अधिक स्त्रियाँ और उनसे कुछ ही कम बालक हैं । मर्दोंकी संख्या दिनों दिन न्यून होती जाती है। आनेजानेके मार्ग चारों तरफसे बन्द हैं | हवाका भी गुज़र नहीं । रसदका सामान बहुत कम रह गया है । स्त्रियाँ पुरुषों और बालकोंको जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं। लोग बहुत हताश हो रहे हैं । औरतें सूर्य्यनारायणकी ओर हाथ उठा उठा कर शत्रुको कोसती हैं ।
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अङ्क ८ ]
बालकवृन्द मारे क्रोधके दीवारोंकी आड़से उन पर पत्थर फेंकते हैं, जो मुश्किल से दीवारके उस पार जाते हैं । राजा चम्पतराय स्वयम् ज्वरसे पीड़ित हैं । उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी । उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढारस होता था, लेकिन उनकी बीमारी से सारे किलेमें नैराश्य छाया हुआ है 1
राजाने सारन्धासे कहा - आज शत्रु जरूर दिलायेगा ? किलेमें घुस आयेंगे ।
सारन्धा - ईश्वर न करे कि इन आँखोंसे वह दिन देखना पड़े ।
रानी सारन्धा ।
राजा - मुझे बड़ी चिन्ता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है। गेहूँ के साथ यह घुन मी पिस जायँगे ।
5 सारन्धा - बादशाह के सेनापतिका प्रतिज्ञापत्र। - राजा - हाँ तब मैं सानन्द चलूँगा ।
सारन्धा विचारसागरमें डूबी । बादशाह के सेनापतिसे क्यों कर वह प्रतिज्ञा कराऊँ ? कौन यह प्रस्ताव लेकर जायगा ? और वे निर्दयी सारन्धा - हम लोग यहाँसे निकल जायँ ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे ? उन्हें तो अपने तो कैसा ? विजयकी पूरी आशा है । मेरे यहाँ ऐसा नीतिकुशल, वाक्पटु, चतुर कौन है, जो इस दुस्तर छत्रसाल का सिद्ध करे । - चाहे तो कर सकता है । उसमें ये सब गुण मौजूद हैं +
1
राजा - इन अनाथोंको छोड़ कर ? सारन्धा—इस समय इन्हें छोड़ देनेहीमें कुशल है । हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया अवश्य ही करेंगे ।
।
राजा - - नहीं, ये लोग मुझसे न छोड़े जायँगे जिन मर्दोंने अपनी जान सेवामें अर्पण कर दी है, उनकी स्त्रियों और बच्चोंको मैं यों कदापि नहीं छोड़ सकता !
-
सारन्धा — लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते ।
राजा उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं । मैं उनकी रक्षामें अपनी जान लड़ा दूँगा । उनके लिए बादशाही सेनाकी खुशामद करूँगा । का रावासकी कठिनाइयाँ सहूँगा, किन्तु इस संकटमें उन्हें छोड़ नहीं सकता ।
सारन्धाने लज्जित होकर सिर झुका लिया और वह सोचने लगी, निस्संदेह अपने प्रिय साथियोंको आगकी आँचमें छाड़ेकर अपनी
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जान बचाना घोर नीचता है। मैं ऐसी स्वार्थांध क्यों हो गई हूँ ? लेकिन फिर एकाएक विचार उत्पन्न हुआ । बोली- यदि आपको विश्वास हो जाय कि इन आदमियोंके साथ कोई अन्याय न किया जायगा तब तो आपको चलने में कोई वाधा न होगी ?
राजा - ( सोचकर ) कौन विश्वास
इस तरह मनमें निश्चय करके रानीने छत्रसालको बुलाया । यह उसके चारों पुत्रोंमें सबसे बुद्धिमान और साहसी था । रानी उसे सबसे अधिक प्यार करती थी । जब छत्रसाल रानीको प्रणाम किया तो उसके कमलनेत्र सजल हो गये और हृदयसे दीर्घ निश्वास निकल आया ।
छत्रसाल - माता मेरे लिए क्या आज्ञा है । रानी—आज लड़ाईंका क्या है क्या ढंग है ? छत्रसाल - हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं।
रानी -- बुंदेलोंकी लाज़ अब ईश्वर के हाथ है। छत्रसाल — हम आज रातको छापा मारेंगे। रानीने संक्षेपसे अपना प्रस्ताव छत्रसालके सामने उपस्थित किया और कहा- यह काम किसको सौंपा जाय ?
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जैनहितैषी
[भाग १३
छत्रसाल-मुझको।
फिर शत्रुओंकी खबर लूंगा। लोकिन सारन ! सच " तुम इसे पूरा कर दिखओगे ?" बताओ इस पत्रके लिए क्या देना पड़ा ?" " हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।"
रानीने कुण्ठित स्वरसे कहा-बहुत कुछ ।
राजा-सुनूं ? " अच्छा जाओ, परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करे।"
रानी-एक जवान पुत्र ।
राजाको बाण सा लगा। पूछा-कौन ? छत्रसाल जब चला तो रानीने उसे हृदयसे ।
| अंगदराय ? लगा लिया और तब आकाशकी ओर दोनों
रानी-नहीं। हाथ उठाकर कहा-दयानिधि, मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुंदेलोंकी आनके भेट कर
राजा-रतनसाह ? दिया। अब इस आनको निभाना तुम्हारा काम
रानी-नहीं। है । मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है। इसे राजा-छत्रसाल ? स्वीकार करो।
रानी-हाँ। [८]
जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परोंको फड़फदूसरे दिन प्रातःकाल सारन्धा स्नान करके डाता है और तब बेदम होकर गिर पड़ता है. थालमें पूजाकी सामग्री लिये मन्दिरको चली। उसी भाँति चम्पतराय पलँगसे उछले और फिर उसका चेहरा पीला पड़ गया था, और आँखों अचेत होकर गिर पड़े। छत्रसाल उनका परम तले अँधेरा छाया जाता था। वह मन्दिरके द्वार प्रिय पुत्र था। उनके भविष्यकी सारी कामनायें पर पहुंची थी, कि उसके थालमें बाहरसे आकर उसी पर अवलम्बित थीं। जब चेत हुआ तो एक तीर गिरा। तीरकी नोक पर एक कागजका बोले-“सारन, तुमने बुरा किया। अगर छत्रसाल पुर्जा लिपटा हुआ था। सारन्धाने थाल मन्दिरके मारा गया तो बुंदेला वंशका नाश हो जायगा।" चबूतरे पर रख दिया, और पुर्जेको खोलकर देखा अँधेरी रात थी। रानी सारन्धा घोड़े पर सवार तो आनन्दसे चेहरा खिल गया । लेकिन यह चम्पतरायको पालकीमें बैठाये किलेके गुप्त मार्गसे आनन्द क्षणभरका मेहमान था । हाय ! इस निकली जाती थी। आजसे बहुत काल पहले पुजेंके लिए मैने अपना प्रिय पुत्र हाथसे खो दिया एक दिन ऐसी ही अँधेरी, दुःखमय रात्रि थी। है । कागजके टुकड़ेको इतने महँगे दामों किसने तब सारन्धाने शीतलादेवीको कुछ कठोर वचन लिया होगा?
कहे थे । शीतलादेवीने उस समय जो भविष्यवाणी मंदिरसे लौटकर सारन्धा राजा चम्पतरायके की थी वह आज पूरी हुई । क्या सारन्धाने उसका पास गई और बोली-“प्राणनाथ! आपने जो जो उत्तर दिया था वह भी पूरा होकर रहेगा ? वचन दिया था, उसे पूरा कीजिए ।” राजाने
[८] चौंक कर पूछा-" तुमने अपना बादा पूरा कर मध्याह्नकाल था। सूर्यनारायण सिर पर आकर लिया ?" रानीने वह प्रतिज्ञापत्र राजाको दे अग्निकी वर्षा कर रहे थे। शरीरको झुलसानेवाली दिया । चम्पतरायने उसे गौरसे देखा फिर बोले- प्रचण्ड प्रखर वायु वन और पर्वतोंमे आग लगाती "अब मैं चलूंगा और ईश्वरने चाहा तो एक बेर फिरती थी। ऐसा विदित होता था मानों अग्निदेवकी
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अङ्क ८]
- रानी सारन्धा। समस्त सेना गरजती हुई चली आ रही है। जो उनके हाथमें इन्द्रका वज्र बन जाता था, गगनमण्डल इस भयसे काँप रहा था। रानी इस समय जरा भी न झुका । सिरमें चक्कर सारन्धा घोड़े पर सवार, चम्पतरायको लिए, आया, पैर थर्राये, और वे धरतीपर गिर पड़े। पच्छिमकी तरफ चली जाती थी। ओरछा दस भावी अमंगलकी सूचना मिल गई । उस पंखकोस पीछे छूट चुका था, और प्रतिक्षण यह रहित पक्षीके सदृश जो साँपको अपनी तरफ अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम आते देखकर ऊपरको उचकता और फिर गिर भयके क्षेत्रसे बाहर निकल आये। राजा पाल- पड़ता है, राजा चम्पतराय फिर सँभलकर उठे कीमें अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीनमें और फिर गिर पड़े। सारन्धाने उन्हें सँभालकर शराबोर थे। पालकीके पीछे पाँच सवार घोड़ा बैठाया, और रोकर बोलनेकी चेष्टा की । परन्तु बढ़ाये चले आते थे। प्यासके मारे सबका बुरा मुँहसे केवल इतना भिकला-"प्राणनाथ !" हाल था। तालू सूखा जा रहा था । किसी वृक्षकी इसके आगे उसके मुँहसे एक शब्द भी न निकल छाँह और कुएँकी तलाशमें आँखे चारों ओर सका । आनपर मरनेवाली सारन्धा इस समय दौड़ रही थीं।
साधारण स्त्रियोंकी भाँति शक्तिहीन हो गई।
लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजातिकी - अचानक सारन्धाने पीछेकी तरफ फिर कर
शोभा है। देखा तो उसे सवारोंका एक दल आता हुआ दिखाई दिया। उसका माथा ठनका कि अब चम्पतराय बोले-“सारन! देखो हमारा एक कुशल नहीं है । ये लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। और वीर जमीन पर गिरा । शोक ! जिस आपफिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार त्तिसे यावज्जीवन डरता रहा उसने इस अन्तिम अपने आदमियोंको लिए हमारी सहायताको आ समय आ घेरा । मेरी आँखोंके सामने शत्रु रहे हैं । नैराश्यमें भी आशा साथ नहीं छोड़ती। तुम्हारे कोमल शरीरमें हाथ लगायेंगे, और मैं कर्ड मिनिट तक वह इसी आशा और भयकी जगहसे हिल भी न सकूँगा। हाय ! मृत्यु, तू अवस्थामें रही । यहाँ तक कि वह दल निकट कब आयेगी ! यह कहते कहते उन्हें एक आ गया और सिपाहियोंके वस्त्र साफ नजर विचार आया । तलवारकी तरफ हाथ बढ़ाया, आने लगे । रानीने एक ठण्डी साँस ली, उसका मगर हाथोंमें दम न था ! तब सारन्धासे शरीर तृणवत् काँपने लगा । ये बादशाही बोले-“ प्रिये ! तुमने कितने ही अवसरों पर
मेरी आन निभाई है।" सारन्धाने कहारोंसे कहा-डोली रोक लो। इतना सुनते ही सारन्धाके मुरझाये हुए मुख बुंदेला सिपाहियोंने भी तलवार खींच लीं। पर लाली दौड़ गई। आँसू सूख गये । इस आशाराजाकी अवस्था बहुत शोचनीय थी; किन्तु ।
न्तु ने कि मैं अब भी पतिके कुछ काम आ सकती जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो , जाती है, उसी प्रकार इस संकटका ज्ञान होते , उसक
" हूँ, उसके हृदयमें बलका संचार कर दिया । ही उनके जर्जर शरीरमें वीरात्मा चमक उठी। वह राजाकी ओर विश्वासोत्पादकभावसे देखकर वे पालकीका पर्दा उठा कर बाहर निकल आये। बोली-ईश्वरने चाहा तो मरते दमतक धनुषबाण हाथमें ले लिया । किन्तु वह धनुष निबाहूँगी। .
सेनाके लोगों
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३५२ - जैनहितैषी
[भाग १३ रानीने समझा राजा मुझे प्राण दे देनेका बादशाहके सिपाही राजाकी तरफ लपके । संकेत कर रहे हैं।
राजाने नैराश्यपूर्णभावसे रानीकी ओर देखा । चप्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली। रानी क्षणभर अनिश्चित रूपसे खड़ी रही। लेकिन सारन्धा-मरते दमतक न टालँगी। संकटमें हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान् हो
राजा-यह मेरी अन्तिम याचना है। इसे जाती है । निकट था कि सिपाही लोग राजाको अस्वीकार न करना।
पकड़ लें कि सारन्धाने दामिनीकी भाँति लपक सारन्धाने तलवारको निकालकर अपने वक्ष- कर अपनी तलवार राजाके हृदयमें चुभा दी। स्थल पर रख लिया और कहा-यह आपकी प्रेमकी नाव प्रेम सागरमें डूब गई। राजाके आज्ञा नहीं है मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि हृदयसे रुधिरकी धारा निकल रही थी, पर चेहरे मरूँ तो यह मस्तक आपके पदकमलों पर हो। पर शांति छाई हुई थी। चम्पतराय--तुमने मेरा मतलब नहीं समझा।
कैसा करुण दृश्य है ! वह स्त्री जो अपने क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओंके हाथमें छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्लीकी गलि
. पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघायोंमें निन्दाका पात्र बनूं ?
तिका है। जिस हृदयसे आलिङ्गित होकर उसने - रानीने जिज्ञासादृष्टिसे राजाको देखा । वह
यौवन सुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषा
ओंका केन्द्र था, जो हृदय उसके अभिमानका उनका मतलब न समझी।
पोषक था, उसी हृदयको आज सारन्धाकी तल१. राजा-मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ।
वार छेद रही है । किस स्त्रीकी तलवारसे ऐसा रानी-सहर्ष माँगिए।
काम हुआ है ! राजा-यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा, करोगी?
___ आह ! आत्माभिमानका कैसा विशादमय अन्त
है। उदयपुर और मारवाड़के इतिहासमें भी रानी-सिरके बल करूँगी।
आत्मगौरवकी ऐसी घटनायें नहीं मिलतीं । राजा-देखो-तुमने वचन दिया है । इन- बादशाही सिपाही सारन्धाका यह साहस कार न करना।
और धैर्य देखकर दंग रह गये । सरदारने आगे रानी-(कॉपकर ) आपके कहनेकी देर है। बटकर कहा-रानी साहबा ! खुदा गवाह है; राजा-अपनी तलवार मेरी छातीमें चुभा दो। हम सब आपके गुलाम हैं । आपका जो हुक्म
रानीके हृदय पर वज्रपात सा हो गया । हो उसे ब सरो चश्म बजा लायेंगे । बोली-जीवननाथ !-। इसके आगे वह और
सारन्धाने कहा-अगर हमारे पुत्रों से कोई कुछ न बोल सकी-आँखोंमें नैराश्य छा गया।
जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना । राजा-मैं बेड़ियाँ पहननेके लिए जीवित रहना नहीं चाहता।
यह कह कर उसने वही तलवार अपने रानी-हाय मुझसे यह कैसे होगा!
हृदयमें चुभा ली । जब वह अचेत होकर पाँचवाँ और अन्तिम सिपाही धरती पर
. धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चन्पतगिरा । राजाने झुंझलाकर कहा--इसी जीवट "
: रायकी छाती पर था। पर आन निभानेका गर्व था ?
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अङ्क ८] पुस्तक परिचय।
३५३ पुस्तक-परिचय । गुरुके शिष्य गुरुभाई होकर ) धर्मसे एवं कर्मसे
पतित बतलाता है, तो दूसरा उसे भ्रष्टाचारी बतजैनसमाज । मासिक पत्र । आकार डबल- लाता है ।...गुरु शिष्यके लिए वकीलकी राय काउन सोलह पेजी । पृष्ठ ४८ । वार्षिक मूल्य एक लेने अदालतका आश्रय देखता है । कितने शर्मकी रुपया। सम्पादक और प्रकाशक श्रीयुत बाबूटेकच- बात है !” इस अवस्थाको सुधारनेका निर्भयन्दजी संघी बी. ए., कालबादेवी, बम्बई। अप्रैलसे ताके साथ आन्दोलन होना चाहिए । सामाजिक इस मासिकपत्रका निकलना शुरू हुआ है । चार कुरीतियों पर कुछ गहराईके साथ चर्चा होनी अंक निकल चुके हैं । शेताम्बर समाजमें गुजराती चाहिए । अब यह सब जानने लगे हैं कि वृद्धभाषाके कोई एक दर्जन पत्र निकलते हैं, परन्तु विवाह, कन्याविक्रय आदि बुरे हैं, उनकी बुराइ- : गत वर्षतक हिन्दीका एक भी पत्र नहीं था। हर्षका योंको बतलानेके लिए अब कलम घिसनेकी आव-. विषय है कि इस ओर कुछ हिन्दीप्रेमियोंका ध्यान श्यकता नहीं है; पर वे दूर नहीं हो रहे हैं, इसकी'. आकर्षित हुआ है और अभी अभी कई हिन्दी पत्र कारणभूत जो दूसरी परिस्थितियाँ हैं, उन पर विचार निकलने लगे हैं । जैनसमाज उन सबमें अच्छा है। होना चाहिए। जान पड़ता है, आगे इसकी अवस्था और भी सुधर २ मुनि । यह भी हिन्दीका एक मासिक पत्र जायगी और यह स्थायीरूपसे चलेगा । अब तक हे। बोदबड़ (खानदेश ) के महावीर मुनिमण्डइसे लगभग आठ सौ रुपयों की सहायता मिल चुकी लकी ओरसे यह डिमाई अठपेजीके ३२ पृष्ठोंमें है । हमारे सामने मई , जून और जुलाईके अंक निकलता है । वार्षिक मूल्य दो रुपया है । श्रावहैं । इनमें कई लेख पढ़ने योग्य हैं । सम्पादक णसे इसका दूसरा वर्ष प्रारंभ हुआ है । पहले महाशय कट्टर श्वेताम्बर नहीं हैं । उनके हृदयमें वर्षमें इसके सम्पादक श्रीयुत ब. विश्वंभरदासजी दिगम्बरोंके लिए भी स्थान है, अतएव इस पत्र- गार्गीय थे, और इस वर्ष मुरारके बाबू · श्यामसे हमारे दिगम्बरभाई भी लाभ उठा सकते हैं। लालजी गुप्त हैं । पत्र स्थानकवासी सम्प्रदायको श्वेताम्बर सम्प्रदायमें साधुओंका प्रभाव सीमासे है और इसके पूर्व तथा वर्तमान सम्पादक दिगम्बर अधिक है । उनकी संख्या भी अधिक है और सम्प्रदायके हैं। 'मुनि ' नामसे यह आशा की श्रावकोंमें धार्मिक ज्ञानका प्रायः अभाव है । इस जाती थी कि इसमें मुनियों या साधुओंके सम्बन्धमें कारण साधुओंकी नादिरशाही खूब ही चलती है। कुछ चर्चा रहा करेगी; परन्तु देखते हैं कि इसके । उनके विरुद्ध आवाज उठानेवाला कोई नहीं। सारे ही पष्ठ अन्यान्य पत्रोंके समान सामाजिक हमें आशा है कि समाजके सम्पादकका ध्यान इस उन्नति आदिके सम्बन्धमें ही भरे रहते हैं । मालूम ओर जायगा । उसके पिछले अंकके एक लेखमें साधु- नहीं, इसके प्रकाशकोंने इस नामकी सार्थकता ओंकी दुर्दशा पर कुछ पंक्तियाँ लिखी भी गई हैं। किस तरह करनी सोची है । इसके विविध विषयस" साधुओंकी दशा वर्तमान कालमें इतनी गर्हणीय म्बन्धी लेख साधारणतः अच्छे रहते हैं। उनमें हो रही है कि उनमें पिछले आचार्योंके नियमोंका कोई साम्प्रदायिकता भी नहीं रहती है । दिगम्बरी लेश भी नजर नहीं आता ।......एक पदस्थ और दूसरे भाई भी इससे लाभ उठा सकते हैं। दूसरके शिष्यके लिए अपने शिष्योंको दूर करता सम्पादक महाशय सूचित करते हैं कि दशलक्षण' है और शिष्य अपने गुरु पर नोटिस प्रकट करता पर्वमें. मुनिका एक विशेष अंक निकलेगा, । है!....एक धर्माचार्य दूसरे धर्माचार्यको (एक ही जिसमें अनेक चित्र और पुष्कल लेख रहेंगे। जो
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जैनहितैषी -
३५४
ग्राहक नहीं हैं उन्हें यह अंक ॥ = ) में मिलेगा । स्थानकवासी सम्प्रदाय में तो दशलक्षणपर्व माना नहीं जाता, फिर मुनिका खास अंक इस पर्व के उपलक्ष्य में क्यों निकलता है ?
हुआ
अब
कच्छी जैन मित्र । सम्पादक, दामजी त्रिकमजी सायला और प्रकाशक, जेठाभाई देवजी नागड़ा, काथाबाजार मांडवी, बम्बई । गुजराती भाषाका मासिक पत्र है । जूनसे निकलना शुरू है । चार अंक निकल चुके हैं । जैनहितैषी के आकारके लगभग ३६ पृष्ठों पर निकलता है । बड़ी जसे निकला है । प्रत्येक अंकमें दश दश बारह बारह चित्र रहते हैं । कवरपेज पर एक सुन्दर स्त्रीका चित्र है । यह इस लिए कि मनोमोहिनियोंके चित्रके बिना लोग पत्रों पर नहीं रीझते ! लेखकोंको रिझानेका भी प्रयत्न गया है । जिस लेखकका लेख रहता है, उस लेखके प्रारंभ में एक चित्र भी रहता है । यहाँ तक कि कई साधु महाशयोंने भी अपने लेखों में अपने चित्रोंका प्रकाशित कराना उचित समझा है । हम देखते हैं कि श्वेताम्बर साधुओं में चित्र प्रकाशित करानेका रोग बेतरह बढ़ रहा है । इन दिनों श्वेताम्बर सम्प्रदायकी ऐसी बहुत थोड़ी पुस्तकें छपती हैं; यहाँतक कि दश बीस पनेके ट्रेक्ट भी - जिनमें कोई मुनि महाशय विराजमान न हैं। । पत्रका मूल्य तीन रुपया है, जो इस समयकी महँगी एक तरहसे कम ही है । बम्बई में कच्छनिवासी जैनोंकी संख्या बहुत है और उनमें धनिक व्यापारी भी बहुत हैं । यह पत्र उन्हींकी सहायतासे निकला है । लेख साधारणतयां अच्छे रहते हैं; यद्यपि उनमें जैनदृष्टिकी कमी रहती है । कई लेख और कई चित्र पठनीय और दर्शनीय निकले हैं । हम इस पत्र की हृदयसे उन्नति चाहते हैं ।
३ शारदा | सम्पादक और प्रकाशक, पं० चंद्रशेखर शर्मा, दारागंज प्रयाग । यह संस्कृत भाषाकी मासिकपत्रिका है । सरस्वती के आकार में ४०
किया उसका
[ भाग १३
पृष्ठों पर निकलती है । इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपया है । इसके सम्पादक महाशय संस्कृत के सुलेखक और बहुत विद्वान हैं । संस्कृत के नामी नामी पण्डितोंके लेख इसमें रहते हैं 1 चैत्र १९७४ की प्रथम संख्या हमारे सामने है । इसमें सम्पादकीय टिप्पणियाँ, मीमांसादर्शन, मन, हरि और हरमें अभेद, आल्हा, पद्मावतीपरिणय चम्पू, पालिभाषाके जातकों का अनुवाद, आयुर्वेदका महत्त्व, आदि अनेक विषयोंके लेख हैं । साहित्यप्रचारशीर्षक टिप्पणी में सम्पादकने पाली और प्राकृत
भाषा के बौद्ध जैनग्रन्थोंको भारतीय साहित्यमें स्थान देनेके लिए और उनका अध्ययन करनेके लिए अपने पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है । उसका सारांश यह है- " धर्मभेदसे साहित्यका भेद करना ठीक नहीं । जब इस समय शेक्सपियर और मिल्टन आदि ईसाई कवियोंके ग्रन्थ सब लोग पढ़ते हैं, तब बौद्ध जैन साहित्यने क्या अपराध किया है ? पूर्वसमय में धर्मग्रन्थोंका अध्ययन ही प्रचुर ज्ञानका कारण माना जाता था; पर अब वह बात नहीं है । व्यावहारिक विषय भी इस समय अध्ययनकोटिमें प्रविष्ट हो गये हैं । धार्मिक ग्रन्थोंके अध्ययनसे लौकिक फल नहीं मिलता है । इस कारण लोग उन्हें नहीं पढ़ना चाहते । जो धार्मिक हैं और धर्मलब्ध धनसे जिनका निर्वाह होता है वे भी अपने लड़कोंको व्यवहारज्ञानकी वृद्धिके लिए अँगरेजी स्कूलों में भेजते हैं और धार्मिक ग्रन्थ नहीं पढ़ाते; व्यावहारिक ज्ञानकी स्वयं निन्दा करते हुए भी बच्चों को उस ओर उत्साहित करते हैं । ऐसी दशा में बौद्ध जैनसाहित्यका अध्ययन और प्रचार हानिकारक नहीं माना जा सकता । बौद्ध-जैन - साहित्य में धर्मभेद भले ही हो, पर हृदयभेद नहीं है । भारतीय हृदयसे बौद्ध जैनसाहित्य भी लिखे गये हैं । उनमें भी भारतीय भाव ही मिलते हैं, अतएव भारतवासियोंको इन दोनों साहित्योंका प्रचार करना चाहिए । ....... धर्मशास्त्र और ज्योतिः - शास्त्रमें विरोध नहीं
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अङ्क ८] पुस्तक परिचय।
३५५. है, क्योंकि धर्मशास्त्रमें जो विषय कहा गया है वह संग्रहणीय है । पत्रका वार्षिक मूल्य तीन रुपया है। ज्योतिःशास्त्रमें नहीं है और जो ज्योतिःशास्त्रमें है इस अंकका मूल्य लिखा नहीं । बह धर्मशास्त्रमें नहीं, तब दोनोंमें क्यों विरोध हो ! ५जैननित्यपाठसंग्रह । कलकत्तेकी जैनमित्र यही बात बौद्ध जैन साहित्यके विषयों की समझनी मंडलीने इस पाठसंग्रहको छपाया है। इसमें सब मिलाचाहिए । हमारे ऋषियोंने अन्य विषयोंका वर्णन कर ३५ पाठ हैं। भक्तामर और तत्त्वार्थ सूत्र ये दो किया है और बौद्ध जैनोंने अन्यका । जिस तरह कोई पाठ संस्कृतके हैं, शेष सब भाषाके । बम्बईमें जो धर्मशास्त्र पढ़ता है, कोई ज्योतिःशास्त्र पढ़ता है, भाषा नित्यपाठसंग्रह छपा था, उससे इसमें कई पाठ पर ये एक दूसरे पर कटाक्ष नहीं करते । इसी प्रकार ज्यादा हैं। पाण्डे हीरानन्दकृत एकीभाव और किसीका अनुराग आर्ष साहित्यमें है, किसीका पं० शान्तिदासकृत विषापहार, ये दो पाठ ऐसे हैं बौद्धमें और किसीका जैनमें । इस विषयमें लोग जो अभीतक कहीं भी प्रकाशित नहीं हुए थे। स्वतंत्र हैं।” शारदामें जैनसाहित्यसम्बन्धी भी छपाई अच्छी और कागज बढ़िया है, तिसपर भी कई लेख निकल गये हैं । जैनसाहित्यसम्बन्धी डबल क्राउन सोलह पेजी साइजके १९२ पृष्ठकी लेखोंको प्रकाशित करनेके लिए वे उत्सुक भी रहते पुस्तकका मूल्य बारह आने कम है । पुढेवाली हैं। क्या हम अपने समाजके संस्कृतज्ञ पण्डितोंसे पुस्तकका मूल्य चौदह आने है । मित्रमण्डलीका आशा करें कि वे शारदाको मँगाकर पढ़ा करें और ठिकाना 'नं. ९ विश्वकोश लेन, बाग बाजार' है। उसके द्वारा समय समय पर जैनसाहित्यका सन्देशा ६-शत्रंजय तीर्थोद्धारप्रबन्ध । सम्पादक, जैनेतर विद्वानों तक पहुँचाया करें । हमारी समझमें मुनि जिनविजयजी । प्रकाशक, जैन आत्मानन्दशास्त्रार्थोंकी अपेक्षा इस मार्गसे जैनधर्मकी अधिक सभा, भावनगर । डिमाई अठपेजी आकारके ११२ प्रभावना होगी। शारदाका प्रचार हम हृदयसे पृष्ठ । कपड़ेकी जिल्द, मूल्य दश आने । श्वेताम्बर चाहते हैं।
सम्प्रदायमें शत्रुजय तीर्थका बड़ा माहात्म्य है । इस * मल्लारि-मार्तड-विजयका नागपंचमी- तीर्थके अनेक पुरुषोंने अनेक बार उद्धार किये का अंक । इन्दौर दरबारकी ओरसे यह साप्ताहिक हैं और उनका वर्णन श्वेताम्बर ग्रन्थों में मिलता पत्र हिन्दी और मराठी में प्रकाशित हुआ करता है। है । सबसे अन्तिम सातवाँ उद्धार विक्रम संवत् इसके मराठी विभागके सम्पादक श्रीयुत वी. सी. सर्वटे १५५७ को कर्मासाह नामके श्रावकने कराया बी. ए. एल एल. बी. और हिन्दी विभागके श्रीयुत था । यह धर्मात्मा श्रावक चित्तौड़का रहनेवाला मुखसम्पत्तिराय भण्डारी (जैन) हैं । इन्दौरमें नाग- था और ओसवालज्ञातीय था । कपड़ेका बहुत बड़ा पंचमीका त्योहार बड़े ठाटवाटसे मनाया जाता है। व्यापारी और धनी था। इसने शत्रुजयके मुख्य यह अंक. भी उसीके उपलक्ष्यमें निकला है । इसमें मंदिरका उद्धार कराके मुसलमानों द्वारा खण्डित ‘मराठीके १७ और हिन्दीके ९ लेख हैं और यह विशे- हुई सारी प्रतिमाओंके स्थानमें नवीन प्रतिमायें षता है कि उन सबके लेखक इन्दौरके ही निवासी हैं। बनवाकर स्थापित करवाई और बड़ी धूमधामके मराठीके लेखोंमें संस्कृत भाषाका अभ्यास, सुखदुः- साथ तीर्थप्रतिष्ठा कराई । इस कार्यमें उसने अखमीमांसा आदि लेख महत्त्वके हैं और हिन्दीमें गणित धन खर्च किया । यह यतिष्ठा विद्यामण्डन सवाजसेवा, मद्यपान, आदि । प्रायः सभी लेख उच्चा- नामक आचार्यके द्वारा हुई । इन्हीं विद्यामण्डनके श्रेणीके हैं । साधारण लोगोंके उपयोगमें आ सकने- शिष्य विवेकधीर गणि नामके विद्वानने 'शत्रुजयवाले लेखोंका इसमें एक तरहसे अभाव है। अंक तीर्थोद्धारप्रबन्ध । नामका संस्कृत ग्रन्थ लिखा
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जैनहितैषी -
[ भाग १३
इससे भी कई सौ वर्ष पहलेसे श्वेताम्बर साधुओंके लिए जायज हो गया था और शायद उन्हीं की देखादेखी हमारे यहाँके भट्टारक भी जो अपनेको मुनि कहते हैं - प्रतिष्ठायें कराने लगे थे । पर हमारी समझमें यह कार्य दोनों ही सम्प्रदायके महाव्रती साधुओंके लिए निषिद्ध होगा । साधुओं में मंत्रा - दिकी आराधना करना और ज्योतिःशास्त्रसे फलित निकालना आदि कार्य भी प्रचलित थे । जिस समय यह उद्धार हुआ उस अनेक गच्छोंके आचार्य इकट्ठे हुए थे और उन सबने मिलकर एक प्रतिज्ञालेख लिखा था कि " शत्रुंजयके ऊपरका मूल गढ़, और आदिनाथका मुख्य मंदिर समस्त जैनोंके लिए है और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनोंके लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार नहीं
समय
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किया गया है। प्रारंभके ३८ पृष्ठों में उपोद्घात है, जमा सकता । इत्यादि । जिसमें शत्रुंजयतीर्थका परिचय, उसकी वर्तमान अवस्था, उसका महत्त्व, आज तक उसके जितने उद्धार हुए हैं उन सबका संक्षिप्त इतिहास और - ग्रन्थकर्त्ता आदिके विषय में अनेक ज्ञातव्य बातें लिखी हैं । इसके बाद लगभग ३० पृष्ठोंमें मूल ग्रन्थका संक्षिप्त सार लिख दिया है जिससे केवल हिन्दी जाननेवाले पाठक भी मूल ग्रन्थका मर्म समझ सकते हैं । परिशिष्टमें मुख्य मन्दिरकी प्रशस्ति, और दो प्रतिमाओंके नीचेके लेख दे दिये हैं । इस तरह यह ग्रन्थ सुचारुरूपसे सम्पादित किया गया है । इस ग्रन्थके पढ़नेसे कई ऐसी बातें मालूम होती हैं जो जैनधर्मकी समय समयकी अवस्थाका अध्ययन करनेवालोंके लिए उपयोगी होंगी। उस समय जैनसाधुओंके आचरणमें इतनी शिथिलता आगई थी कि वे शिल्पशास्त्रियोंका तथा मन्दिरोंके बनवाने आदिका काम भी करते थे और इसमें जो 'आरंभजनित' दोष लगते हैं उनकी ओरसे लापरवा होगये थे। जान पड़ता है प्रतिष्ठा आदि कराना तो
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है । जिस दिन प्रतिष्ठा हुई है, उसके ठीक दूसरे दिन यह प्रबन्ध बनकर समाप्त हुआ है । लेखक इस उत्सवमें केवल मौजूद ही नहीं थे बल्कि उन्होंने इस उद्धारकार्यमें शिल्पशास्त्रीय (इंजीनियर ) का काम भी किया था । वे शिल्पशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, इस कारण उन्हीं की देखरेखमें कारीगरों का काम होता था । प्रबन्धर्मे सब मिलाकर २६२ पद्य हैं। रचना सुन्दर है और इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वकी है । इसमें - कर्मासाहके उद्धारका विस्तृत विवरण दिया है और उस समयके गुजरात तथा मेवाड़के राजाओंके और दिल्ली तथा गुजरातके बादशाहोंके नाम और उनकी वंशावलियाँ भी दी हैं । यद्यपि वे निश्चित इतिहास - के अनुसार सर्वथा शुद्ध नहीं हैं; परन्तु फिर भी कामकी हैं । यह मूल प्रबन्धं केवल ३२ पृष्ठोंमें गया है । शेष भाग सम्पादक महाशयका - लिखा हुआ है और उसके लिखनेमें खूब परिश्रम
इस लेख पर बहुत से आचार्योंकी सही है । इससे मालूम होता है कि उस समय से पहले जुदा जुदा गच्छके श्वेताम्बर साधुओंमें तीर्थके स्वामित्वके सम्बन्धमें झगड़े होते होंगे और आजकलके श्रावकोंके समान वे महाव्रती होकर भी आपसमें द्वेषभाव रखते होंगे । श्रावकों के विषयमें इतना ही मालूम होता है कि उनके धर्मज्ञानकी सीमा गुरुकी भक्ति करना या उसकी आज्ञा पालन करना, इससे आगे न थी । गुरुओं की प्रेरणा से वे मन्दिरादि बनवाने और संघ निकालनेमें लाखों करोड़ों रुपया खर्च कर देते थे । ये सब ऐसी बातें हैं, जिनपर विचार करने की आवश्यकता है । श्रीमान् मुनि जिनविजयजी ऐसे ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थ प्रकाशित करके जैनसाहित्यका बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं । ग्रन्थका मूल्य लागत से कम ही होगा, अधिक नहीं ।
७- शत्रुंजयतीर्थरास । आनन्दकाव्यमहोदधिका चौथा मौक्तिक | जैनग्रन्थोंको छपाछपाकर मिट्टीके मोल बेचनेवाले बम्बईके ' सेठ देवचन्द
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अङ्क ८
पुस्तक-परिचय।..
लालचन्द पुस्तकोद्धार फण्ड ' की ओरसे यह ग्रन्थ रसूरि इसके बाद ही किसी समय हुए होंगे, यह प्रकाशित हुआ है । क्राउन सोलह पेजी साइजके सुनिश्चित है। उन्हें वि० सं० ४७७ में प्रथम ७५१ पृष्ठके इस कपड़ेकी पक्की जिल्दवाले शिलादित्यके समयमें सिद्ध करनेके लिए भूमिकाके ग्रन्थका मूल्य केवल बारह आने है । इतने सस्ते लेखक महाशयको बड़ी बड़ी उलझनोंमें पड़ना पड़ा दामोंमें शायद ही कोई संस्था पुस्तकपचार करती है और उनसे सुलझनेके लिए अनेक ओंधी-सीधी होगी । इसके लिए संस्थाके संचालकोंको जितना सच-झूठ बातें लिखनी पड़ी हैं । धनेश्वर सूरिने धन्यवाद दिया जाय उतना थोड़ा है । विक्रम संवत् शिलादित्यको प्रतिबोधित करके जैन बनाया और १७५५ में जिनहर्षगणि नामके एक श्वेताम्बरसाधुने बौद्धोंको हराकर उन्हें सौराष्ट्र देशसे निकाल दिया; इस रासकी रचना की है । ग्रन्थकी भाषा गुजराती लेखक इस बातको भी सच मानते हैं और चन्द्रहै। इसका सम्पादन 'शास्त्रविशारद जैनाचार्य प्रभसूरिकृत प्रभावकचरितमें लिखा है कि मल्लवादि योगनिष्ठ श्रीबुद्धिसागरसूरि' ने किया है । आपने नामके आचार्यने शिलादित्यकी सभामें बौद्धोंको पुस्तकके प्रारंभमें कोई ६४ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना हराया और उसे जैन बनाया, सो इसमें भी कोई लिखी है । सूरि महाशयकी पदवियोंने हमें प्रस्ता. सन्देह नहीं करते ! जान पड़ता है, मल्लवादिकी नाको पढ़नेके लिए विवश किया; परन्तु पढ़कर कथाको ही किसीने धनेश्वर सूरिका माहात्भ्य बढ़ाहमें निराश होना पड़ा । हम उसमें कोई बात ऐसी नेके लिए उनके साथ जोड़ दिया है । धनेश्वर न पा सके जिसमें उनकी सदसद्विवेचनाशक्तिका सूरिका शत्रुजयमाहात्म्य बड़ा ही विचित्र है। या सत्यान्वेषणशीलताका परिचय मिलता । ग्रन्थ- इसको पढ़ते समय ऐसा नहीं मालूम होता कि कर्ताकी प्रत्येक बातको आपने निर्धान्त समझा है; हम कोई जैनग्रन्थ पढ़ रहे हैं । यह ब्राह्मणोंक इतना ही नहीं बल्कि उसकी भ्रान्तिको सत्य सिद्ध बद्री, केदार, प्रभास आदि तीर्थोंके माहात्म्यका : करनेका प्रयत्न किया है । यह गुजराती रासा धने- बिलकुल अनुकरण मालूम होता है। शत्रुजयकी श्वरसुरिके संस्कृत 'शत्रंजयमाहात्म्य' नामक खूब अनाप-शनाप महिमा गाई गई है। कुछ विशाल संस्कृत ग्रन्थका प्रायः अनुवाद है । इसमें श्लोक देखिए:
और मूल ग्रन्थमें शत्रुजयकी अमर्यादित प्रशंसा की नास्त्यतः परमं तीर्थ सुरराज जगत्रये । है और उसके माहात्म्यको बढ़ानेके लिए बहुतसी यस्यैकवेलं नाम्नापि श्रुतेनाहः क्षयो भवेत् ॥ ५६ झूठी सच्ची कथायें भी गढ़ डाली हैं; परन्तु सम्पा
कथं भ्रमास मूढात्मन् धर्मो धर्म इति स्मरन् ।। दक महाशयकी दृष्टिमें वे सोलह आने सच्ची ऊंची
एकं शत्रुजयं शैलमेकवेलं निरीक्षय ॥६१ हैं। धमेश्वरसूरिके विषयमें कहा गया है कि उन्होंने
बाल्येऽपि.यौवने वाथै तिर्यक्जातो च यत्कृतम् ।
तत्पापं विलय याति सिद्धाद्रेः स्पर्शनादपि ॥ ८१ विक्रम संवत् ४७७ में वल्लभीपुरके राजा शिलादि
तावद्वर्जन्ति हत्यादिपातकानीह सर्वतः । त्यकी प्रार्थनासे यह ग्रन्थ बनाया था; परन्तु यह यावत्शजयेत्याख्या श्रूयते न गुरोर्मुखात् ॥ ९४ . निरी गप्प है। मूल शत्रुजय महात्म्यमें कुमारपाल,
न मेतव्यं न भेतव्यं पातकेभ्यः प्रमादिभिः ।। बाहडमंत्री, वस्तुपालमंत्री और समराशाहके उद्धारों श्रूयतामेकवेलं श्रीसिद्धक्षेत्रगिरेः कथा ॥ ९५ तकका वर्णन किया है । इनमेंसे सबसे पिछले सम- एकैकस्मिन् पदे दत्ते पुण्डरीकगिरि प्रति। राशाहका किया हुआ उद्धार विविधतीर्थकल्प आदि भवकोटिकृतेभ्योऽपि पातकेभ्यः स मुच्यते ॥ ७८
अनेक ग्रन्थोंके कथनानुसार वि० सं० १३७१ में अर्थात् शत्रुजयके समान श्रेष्ठ तीर्थ तीनों ' हुआ है, अत एव शत्रुजयमाहात्म्यके कर्ता धनेश्व- जगतमें कोई नहीं है जिसके एक बार नाम सुनने
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जैनहितैषी
[ भाग १३ मात्रसे पापोंका क्षय हो जाता है । अरे मूर्यो, अर्थात् हजारों लाखों विशुद्ध श्रावकोंके भोजन धर्मधर्मका स्मरण करके क्यों भटक रहे हो ? शत्रु- करानेसे जो पुण्य होता है, उससे आधिक एक जय तीर्थके केवल एक बार दर्शन कर डालो, मुनिको दान देनेसे होता है । चाहे जैसा मुनि बस । बचपन, जवानी, बुढ़ापा और पशुपर्यायमें हो, यदि वह मुनिका वेष धारण कर रहा है, तो किये हुए पाप इस तीर्थके स्पर्शमात्रसे नष्ट हो ज्ञानी श्रावकोंको चाहिए कि उसकी भगवान् जाते हैं । हत्यादि पाप तभी तक छोड़े जाते हैं, गौतम गणधरके समान आराधना करें । यति जैसा जब तक गुरुके मुँहसे 'शत्रुजय' इतना शब्द तैसा भी हो; परन्तु यदि वह अपने वेषमें वर्तमान नहीं सुन पाया है। अरे प्रमादियो, पापोंसे मत है अर्थात् उसने साधुओंके कपड़े पहन रक्खे हैं डरो, मत डरो, केवल एक बार शत्रुजयकी कथा तो वह सम्यक्त्वसहित पुरुषों के द्वारा राजा श्रेणिसुन लो । शत्रुजयकी यात्राके लिए एक एक पैर कके समान सर्वदा पूज्य है ! गुरुकी आराधनासे बढ़ानेसे करोड़ों भवोंके पापोंसे प्राणी मुक्त होता स्वर्ग मिलता है और विराधनासे नरक; इस तरह चला जाता है!
ये दो गति गुरुओंसे प्राप्त होती हैं। इनमेंसे ___ एक जगह लिखा है कि "चार हत्याके करनेवाले इच्छानुसार किसी एकको गृहण कर लो। बुद्धिमान परस्त्रीगामी और अपनी बहिनके साथ व्यभिचार
वार पाठकोंको यह समझनेमें विलम्ब न होगा कि गुरु
र करनेवाले चन्द्रशेखर राजाका भी इस तीर्थसे
ऑकी यह महिमा बतलानेमें ग्रन्थकारका क्या उद्धार हुआ है !”
अभिप्राय है। - पाठक देखें कि इस प्रकारकी महिमा जैन- 3 धर्मकी कर्मफिलासफीसे कितना सम्बन्ध रखती है। इस ग्रन्थकी कथाओंके तथा भविष्य प्राणियों
और यह भी सोचें कि इस तरहके उपदेश लोगोंके आदिके सम्बन्धमें भी बहुत सी बातें लिखी जा हृदयमें पापोंकी ग्लानि कितनी कम कर देंगे। सकती है; परन्तु इस छोटीसी आलोचनामें उनके जब शत्रंजयके नाम मात्रसे बड़े बड़े पाप कट लिए स्थान नहीं है । श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान् जाते हैं, तब फिर पापोंसे डरनेकी आवश्यकता
. सज्जनोंसे हमारी पार्थना है कि वे अपने यहाँके ही क्या है ?
इस प्रकारके साहित्यकी परीक्षा करें और समयके नीचेके श्लोकोंमें शिथिलाचारी गुरुओंकी प्रजा- अनुकूल अब लोगोंमें वचनप्रधानताकी जगह का उपदेश दिया है, जिससे साफ मालूम होता है परीक्षा प्रधानताके भावोंका प्रचार करें। इस प्रकारके कि ग्रन्थकर्ता महाराज पाँचवीं सदीके नहीं किन्तु साहित्यके जैनधर्मने मूल सिद्धान्तोंको ढंक चौदहवीं शताब्दिके लगभगके कोई जती हैं, जो रक्खा है ! अपनी और अपने भाइयोंकी-गुणहीन शिथिला- ८तीस चौवीसी पूजा । सम्पादक, पं० मुनाचारी होने पर भी पूजा करानेके लिए व्याकुल थे। लालजी काव्यतीर्थ और प्र०, बाबू दुलीचन्द जैन,
सहस्रलक्षसंख्यातैर्विशुद्धः श्रावकैरिह । जिनवाणप्रिचारक कार्यालय, ६२।२-१ वीडनयद्भोजितैर्भवेत्पुण्यं मुनिदानात् ततोऽधिकम् ॥
स्ट्रीट कलकत्ता । पृष्ठसंख्या ३७२। मूल्य २१) रु० यादृशस्तादृशो वापि लिङ्गी लिनेन भूषितः। श्रीगोतम इवाराध्यो बुधैर्बोधसमन्वितः॥
काशीनिवासी बाबू वृन्दावनजीके नामसे जैनसमाज वर्तमानोऽपि वेषेण यादृशस्तादृशोऽपि सन् ।
सुपरिचित है । आपका वर्तमान चौवीसी पाठ प्रकायतिः सम्यक्त्वकलितैः पूज्यः श्रेणिकवत् सदा ॥ शित हो चुका है। अब यह तीस चौवीसी पाठ गुरोराधानात्स्वर्गो नरकच विराधनात् । । प्रकाशित हुआ है। इसमें भूत-भविष्यत्-वर्तमानकालद्वे गती गुरुतो लभ्ये गृहीतैकां निजच्छया ॥ सम्बन्धी भरत ऐरावत विदेह आदिके ७२० तीर्थ
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अङ्क ८ ]
करोंकी पूजायें हैं । इसके एक पद्यसे मालूम होता है कि यह संस्कृतके किसी पूजापाठके आधारसे बनाया गया है । यों तो वृन्दावनजीकी कविता अच्छी समझी जाती है, पर वे अपनी कवितामें शब्दों को खूब ही तोड़ते-मरोड़ते थे। इस पाठमें हम देखते "हैं कि उक्त दोष और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा हुआ है । यह प्रतिकविजीकी खुदकी लिखी हुई प्रतिपरसे शुद्ध की गई है। फिर भी थोड़ी बहुत अशु द्धियाँ रह गई हैं । एक कमी यह भी रह गई है कि इसमें जो कमलबद्ध, धनुर्बद्ध आदि चित्र - काव्य थे, उनके चित्र नहीं बनवाये गये ।
पुस्तक- परिचय |
९ हरिवंशपुराण | लेखक, जीवराज गोतमचन्द दोसी । प्र०, नाथारंगजी जैनोन्नति फण्ड, शोलापुर । डिमाई अठपेजीके ४५० पृष्ठ | मूल्य २ ) । पुनाट संघीय श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण के आधारसे यह ग्रन्थ मराठी भाषामें लिखा गया है । इसमें मूलका आलंकारिक वर्णन छोड़कर केवल कथाभाग लिया गया है ।
बहुत से लोग इस प्रकृतिके होते हैं कि वे आलंकारिक और शृंगारपूर्ण वर्णन से शीघ्र ही ऊब जाते हैं और इस समय में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है । उनके लिए बृहद्ग्रन्थोंके इस प्रकार के संक्षिप्त या संशोधित संस्करणोंकी आवश्यकता है । केवल इतिहासकी और तथ्य संग्रहकी रुचि रखनेवालों. के लिए भी ऐसे संस्करण बहुत उपयोगी होते हैं । अवश्य ही इनका सम्पादन बहुत सावधानी से होना चाहिए । मूलकी कोई महत्त्वकी बात छोड़ी नहीं जानी चाहिए और मूलके भावोंका कोई परिवर्तन भी न किया जाना चाहिए । इस संस्करणको अच्छी तरह पढ़ सकने का हमें अवकाश नहीं मिल सका, तो भी हम लेखक महाशय से परिचित हैं, उनके • प्रयत्न प्रमादोंकी बहुत कम संभावना है । इसमें यदुवंशकी उत्पत्तिका वर्णन हमने पढ़ा तो मालूम हुआ कि यदुराज के शूर और सुवीर नामके दो पुत्र थे । शूरके अन्धकवृष्टि आदि दश पुत्र हुए
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३५९
और सुवीरके भोजकवृष्टि आदि अनेक पुत्र हुए । अन्धकवृष्टिके पुत्र समुद्रविजय, वसुदेव आदि हुए और भोजकवृष्टिके उग्रसेन, महासेन आदि हुए । आगे उग्रसेनकी कन्या राजीमती के साथ समुद्रविजयके पुत्र नेमिनाथ भगवानका विवाह होना निश्चित हुआ । अर्थात् शूर और सुवीर इन दोनों सगे भाइयोंके पौत्रों के पुत्र और कन्या उस समयकी नीतिके अनुसार परस्पर विवाहसम्बन्ध में बद्ध हो सकते थे ! इस तरहका सम्बन्ध होना उस समय जायज था । मामाकी लड़कीके साथ सम्बन्ध होने के तो हरिवंशपुराण में कई उदाहरण हैं । ये ऐसी बातें हैं जिनपर विचार होनेकी आवश्यकता है । अब पुराणग्रंथोंको केवल पुण्यलाभ की दृष्टि से ही नहीं पढ़ना चाहिए | उनमें से कुछ तथ्यों का आविष्कार भी करना चाहिए । जो लोग इन विवाहादिसंबंधी रूढ़ि - योंको धर्मके स्थायी सिद्धान्त मानते हैं, और आठ आठ सोलह सोलह गोत्रोंको टालकर ब्याह करने में ही परमधर्म मानते हैं, वे इन पुराणपुरुषों के दृष्टान्तों पर एक दृष्टि डालने की कृपा करें । ग्रन्थका मूल्यव है । मराठी जाननेवालों को अवश्य मँगाना चाहिए ।
कम
१० महाराणा राजसिंह । ले०, पं० रामप्रसाद मिश्र और प्रकाशक, नाट्यग्रन्थप्रसारक मण्डल, ए. बी. रोड कानपुर । मूल्य दश आने । इसकी भूमिका में लिखा है कि ' इस ग्रन्थका कथासूत्र नितान्त ऐतिहासिक आधार पर है;" परन्तु जान पड़ता है लेखक महाशय उपन्यासों को भी 'नितान्त इतिहास ' समझते हैं । यही कारण है जो स्वर्गीय बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्यायके उपन्यासके आधार पर लिखे हुए इस नाटकको भी वे नितान्त ऐतिहासिक मानते हैं । बंकिम बाबूके ' राजसिंह ' में यद्यपि इतिहास है; परन्तु वह नितान्त इतिहास नहीं है । उसमें अनेक पात्र और अधिकांश घटनायें बिलकुल कल्पित हैं और वे उपन्यासको मनोरम तथा सुन्दर बनाने के लिए लिखी गई हैं । लेखक महाशय ने यह भी
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जैनहितैषी
[ भाग १३
लिखनेकी कृपा नहीं की कि इस नाटकका अवतरित हुए । गर्भावस्थामें माताको कष्ट न होनेके मूल आधार बंकिम बाबूका राजसिंह है । लिए भगवानने जो विचारादि किये थे और तदनुनाटकके लगभग ५० पृष्ठ हमने पढ़े। उत्तेजना रूप क्रियायें की थीं, उनका भी इसमें उल्लेख नहीं
और अन्ध अभिमान बढ़ानेवाले भावोंके सिवाय है। लेखकने इस बातको भी स्पष्ट शब्दोंमें नाटकमें और कोई विशेषता नहीं । स्वाभाविकताका स्वीकार किया है कि ' भगवानके पास चीरमात्र अभाव है । मनोगत भावोंके चित्रण करनेमें भी वस्त्र न था । यह दूसरी बात है कि वे लोगोंको कवि नितान्त असमर्थ है। युवती चश्चलकुमारी ऐसे मालूम होते थे कि वस्त्र पहने हुए हैं। इन वृद्ध राजसिंहके चित्रको देखकर उन पर मुग्ध हो सब बातोंसे मालूम होता है कि लेखक स्वाधीनजाती है और थोड़े ही समयमें वह विरहिणियोंके चेता हैं । पुस्तकका आधेसे अधिक भाग बारह समान 'सर्द आहे' खींचने लगती है, यह बात व्रतोंके, भावनाओंके तथा दूसरे धार्मिक सिद्धान्तोंके किसी रंगमंच पर तो नहीं, रासधारियोंके तमाशोंमें वर्णनमें घिरा हुआ है, जो स्वाध्यायप्रेमियों के अवश्य अच्छी मालूम हो सकती है । मुसलमानोंके कामका है, और इसका कारण यह है कि प्रति नाटककारके हृदयमें जरा भी सहानुभूति नहीं चरित्र ऐतिहासिक नहीं किन्तु धार्मिक दृष्टि से लिखा है और इस कारण वह किसी भी मुसलमान पात्रको गया है और अभीतक लिखे गये हिन्दी महावीरचरिअच्छे रूपमें खड़ा नहीं कर सका है।
त्रोंसे बहुत कुछ अच्छा है । जैनोंके तीनों सम्पदा११ श्रीवर्धमानचरित्र । लेखक, जैन मुनि पं. यके लोग इससे लाभ उठा सकते हैं । इसमें ज्ञानचन्द्रजी और प्रकाशक मेहरचन्द लक्ष्मणदास सम्प्रदायभेदकी बातें बहुत ही कम हैं । भूमिसंस्कृत पुस्तकालय,लाहौराआकार क्राउन सोलहपेजी, कासे मालूम हुआ कि लेखक इसको अपूर्ण पृष्ठ संख्या १३६ । कपड़ेकी जिल्द । मूल्य बारह छोडकर ही स्वर्गवास कर गये और इसका शेष भाग आने । चरित्र हिन्दीमें लिखा गया है और निर्णय. उनके गुरु उपाध्याय आत्मारामजीने पूर्ण किया। सागर प्रेसमें सुन्दरताके साथ छपा है । लेखक स्थानकवासी सम्प्रदायके साधु हैं, अतएव उनका १२प्राचीन कीति वा सप्ताश्चये। ले. ५० इसे श्वेताम्बर सूत्रोंके अनुसार लिखना स्वाभाविक शिवनारायण द्विवेदी और प्र०, हरिदास एण्ड है; परन्तु फिर भी इसमें ऐसी बातें नहीं लिखी कम्पनी, कलकत्ता । पृष्ठसंख्या ८० । मूल्य आठ गई हैं जो दूसरे सम्प्रदायके लोगोंको खटकनेवाली आने । इसमें मिसरके पिरामिड, बाबिलनका उद्यान, हैं। लिखते समय उन्होंने संभवता असंभवताका अलम्पसका जुपिटर, डायनाका मन्दिर, मासोलियभी ख्याल रक्खा है। श्वेताम्बरसूत्रोंके अनुसार मकी समाधि, सिकन्दरियाका दीपस्तम्भ, और रोडस महावीर भगवान पहले एक ब्राह्मणीके गर्भ में आये दीपकी अपोलोकी मूर्ति, पृथ्वी के इन सात प्रधान थे और फिर वहांसे एक देवके द्वारा स्थानान्तरित आश्चर्योका और चीनका शीशमहल, चीनकी बडी होकर महाराणी त्रिशलाके गर्भमें पहुँचाये गये थे। दीवार, आगरेका ताजमहल और टेम्स नदीकी गर्भापहरणकी यह बात श्वेताम्बर-स्थानकवासी सुरंग इन चार उपाश्चर्योंका सचित्र वर्णन है। सम्प्रदायोंमें बहुत ही प्रसिद्ध है; परन्तु इस चरि- पृथ्वी में कैसी कैसी विलक्षण चीजें हैं, यह जान. त्रमें इसे असंभव समझकर छोड़ दिया गया है। नेकी इच्छा रखनेवालोंको यह पुस्तक अवश्य पढ़ना यही लिखा गया है कि भगवान् त्रिशलाके गर्भ में चाहिए । वर्णन साधारण है। उसमें कहीं कहीं लेखक आये और ९ मास ७ दिनरात व्यतीत होने पर महाशयने जो अपनी सम्मतियाँ शामिल की हैं उनमें
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अङ्क ८]
पुस्तक-परिचय।
न गंभीरता है और न कोई विशेषत्व । भूमिकाके मराठी पुस्तकका अनुवाद है। इसमें विदेशोंके ऐसे एक पैरेमें आप कुछ कह रहे हैं और दूसरेमें कुछ। २०-२५ स्त्री पुरुषोंका संक्षिप्त परिचय दिया पुस्तकमें यह लिखना आपने आवश्यक न समझा कि गया है, जिन्होंने अपनी जन्मभूमिकी रक्षाके लिए ये विवरण कौनसी पुस्तकके आधारसे लिखे गये हैं। अपने सर्वस्वका अर्पण कर दिया था। ऐसी पुस्त
१३-१४ हिन्दी साहित्य प्रचारक ग्रन्थ. कोका घर घर प्रचार होना चाहिए। मूल्य मालाकी पुस्तकें । नरसिंहपुर (सी. पी.) के चार आने । श्रीयुत सेठ नाथूरामजी रेजाने उक्त नामकी १७सर्वियाका इतिहास । लेखक, झालराग्रन्थमालाके निकालनेका प्रयत्न किया है। मालाके पाटननरेश राजराना श्रीमान् भवानीसिंहजी बहादुर। पहले दो पुष्प हमें समालोचनार्थ प्राप्त हुए हैं। पहला है, प्र०, राजपूताना हिन्दीसाहित्य सभा, झालरापाटन । गुरु शिष्यसंवाद । इसमें स्वामी विवेकानन्द और पृष्ठसंख्या ८० । मूल्य पाँच आने । हमारे पाठक उनके कुछ शिष्योंका वार्तालाप है। पृष्ठ संख्या जानते हैं कि गतवर्ष जैनहितेच्छुके सम्पादक श्रीयुत ५४ । मूल्य चार आने । दसरा पुष्प है आर्थिक वाडीलालजी, सेठ विनोदीरामजी बालचन्दजी और सफलता। यह अंगरेजीकी 'फाय नानशियल सक- रायबहादुर सेठ कश्तूरचन्दजी आदिने हिन्दीके सेस । नामक पुस्तकके गुजराती अनुवादके आधा. ग्रन्थोंको सुलभ मूल्यमें प्रकाशित करनेके लिए लगरसे लिखी गई है । पृष्ठसंख्या ९: । मूल्य छह भग १० हजार रुपयेका चन्दा करके यह सभा आने । दोनों पुस्तकोंके अनुवाद कर्ता श्रीयुत स्थापित की थी। यह पुस्तक उसीकी ओरसे प्रकाशिवसहाय चतुर्वेदी हैं । दोनों पुस्तकोंकी छपाई शित हुई है । सभाके लिए यह बड़े गौरक्की बात उत्तम है । कागज भी अच्छा लगा है। है कि उसे 'एक नरेशकी लिखी हुई सुन्दर पुस्त
___कको प्रकाशित करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। १५-१६हिन्दी-गौरव ग्रन्थमालाकी पुस्त कें। हम अपने मित्र पं० उदयलालजी काशलीवालकी
पुस्तक छोटी है, पर सर्वियाका स्थूल इतिहास जानइस ग्रन्थमालाका परिचय अपने पाठकोंको पहले
नेके लिए बहुत अच्छी है । युद्धकी हालतपर विचार दे चुके हैं । इसके पाँचवें और छठे पुष्प हाल ही
करनेके लिए सर्वियाकी भीतरी बातोंको समझनेमें प्रकाशित हुए हैं । पाँचवेंका नाम विवेकानन्द व
- इससे बहुत सहायता मिलेगी। नाटक है।यह मराठीके प्रसिद्ध लेखक ए. बी. कोल्ह- १८ लोकमान्य तिलकके स्वराज्य पर१२ टकरके ग्रन्थका अनुवाद है । अमेरिकामें जाकर व्याख्यान और जमानतका मुकदमा । प्रका• हिन्दूधर्मका शंखनाद करनेवाले स्वामी विवेकान- शक, गंगाधर हरि खानवलकर, ग्रन्थप्रकाशक समिति न्दको मुख्य पात्र मानकर इस नाटकका कथानक बनारस । पृष्ठसंख्या २५० । मूल्य एक रुपया । तैयार किया गया है । कल्पना सुन्दर है । हास्य- विषय नामहीसे स्पष्ट है । देशभक्त तिलक महाशयके विनोद और मनोरंजनकी इसमें यथेष्ट सामग्री है। विचार प्रत्येक भारतवासीको पढ़ने चाहिए और लेखक हास्यरसके सिद्धहस्त लेखक जान पड़ते हैं ।
स्वराज्यके स्वरूपको समझ लेना चाहिए । पुस्तक यह नाटक मराठी रंगमंचपर खेला जा चुका है। पृष्ठसंख्या १५२ और ५ चित्र । मूल्य एक
अच्छे समयमें प्रकाशित की गई है। रूपमा । छठे पुष्पका नाम है, स्वदेशाभिमान। यह नीचे लिखी पुस्तकें धन्यवादपूर्वक स्वीकार की । एक छोटी सी पुस्तक है, पर बड़ी अच्छी है । एक जाती हैं:
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जैनहितैषी
[भाग १३
. १ जैनगजल गुलचमन बहार प्र०, भैरूलाल आदिपराणका अवलोकन ।
नौ रतनलाल बोहरा, लाखन कोटड़ी अजमेर । ___ २ पाँचवीं रिपोर्ट, पद्मावती परिषत् । प्र०, पं० (लेखक-श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील।) वंशीधरजी शास्त्री, शोलापुर ।
___पाठकोंको भगवज्जिनसेन और गुणभद्राचार्यकृत ३ साचा सुखनो उपाय ।ले., ब्रह्मचारी शीतल- आदिपुराणका अधिक परिचय देनेकी आवश्यकता प्रसादजी और प्र०, जैनविजयप्रेस, सूरत। नहीं । यह बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है और जैनधर्मके
४ सुमतिकुमतिमोहअन्धकार नाटक । १०, पुराणग्रन्थोंमें यही सबसे अधिक महत्त्वकी दृष्टि से बाबू फूलचन्द जैन, शिकोहाबाद, मैनपुरी। देखा जाता है । यह ' महापुराण ' नामक ग्रन्धका
५ बारहमासा तथा स्तवनसंग्रह । प्र०, आत्मा- पूर्वभाग है । इसके ४२ पर्व जिनसेन स्वामीके और नन्द जैनसभा, अम्बाला शहर ।
शेष पाँच पर्व गुणभद्र स्वामीके बनाये हुए हैं। ६. जैन इतिहास अंक २। प्र०, आत्मानन्द उपलब्ध पुराणग्रन्थों में पद्मपुराण और हरिवंशपुराण : ट्रेक्ट सुसाइटी, अम्बाला शहर।
ये दो ही पुराण ऐसे हैं, जो इससे पहलेके बने हुए ___श्राविकाधर्मदर्पण, ८ जैनशिक्षण पाठमाला, हैं; परन्तु केवल आदिनाथ भगवान्के चरित्रको ९ जम्बूगुणरत्नमाला । प्र०, कुँवर मोतीलाल रांका, विस्तारसे बतलानेवाला तो यही सबसे पहला पुराण जैनपुस्तकप्रचारक कार्यालय, व्यावर ( अजमेर )। है। सुप्रसिद्ध मंत्री और सेनापति चामुण्डरायका
१० सदाचाररक्षा, प्रथमभाग । ले०, सेठ बनाया हुआ ‘विषष्ठिलक्षणमहापुराण ' नामका जवाहरलालजी जैनी। प्र०, आत्मानन्द जैनपुस्तक एक कनड़ी भाषाका ग्रन्थ है। उसमें चौबीसों तीर्थप्रकाशक मण्डल, नौधरा, देहली।
करोंके चरित्र लिखे गये हैं । उसके पारंभमें लिखा ११ वेदमीमांसा । ले,पं० पुत्तूलाल जैन। प्र०, है कि “इस पुराणको पहले कूचि भट्टारक, फिर जैनमित्रकार्यालय, सूरत।
नन्दि मुनीश्वर, फिर कविपरमेश्वर और तत्पश्चात .१२ मिथ्यातमोध्वंसार्क । जैनमित्रमंडली देह- जिनसेन-गुणभद्रस्वामी, इस प्रकार परम्परासे कहते लीका ट्रेक्ट नं० १। प्र०, लालाश्यामलालजी आये हैं और उन्हींके अनुसार मैं भी कहता हूँ।" कागजी, चावडी बाजार, देहली।
इससे मालूम होता है कि आदिपुराणसे पहले कूचि, १३ वाषिर्क विवरण, जैनशिक्षाप्रचारक सोसा- नन्दि और कविपरमेश्वरके बनाये हुए इसी विषइटी, पहाड़ी धीरज, देहली। प्रकाशक, मंत्री, यके ग्रन्थ थे। कवि परमेश्वर या कवि परमेष्ठीका बनारसीदासजी जैन ।
उल्लेख तो स्वयं जिनसेन स्वामीने भी किया है । गुणभद्रस्वामीने भी उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वीकार किया है कि कविपरमेश्वरकी बनाई हुई 'गद्यकथा' इस आदिपुराणकी माता है-' कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् ।' अर्थात् इस आदिपुराणके पहले कविपरमेश्वरका बनाया हुआ कोई ग्रन्थ था, जिसके आधारसे यह पल्लवित करके बनाया गया है; परन्तु अब उक्त ग्रन्थों में से कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, इसलिए यह निश्चय नहीं हो सकता है कि आदिपुराणमें उनकी अपेक्ष
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अङ्क ८ ]
क्या विशेषता है - इसमें परम्परासे चला आया हुआ अंश तो कितना है और कवियोंके द्वारा पल्लवित - परिवर्धित किया हुआ अंश कितना है ।
आदिपुराणका अवलोकन |
गुणभद्रस्वामीने उत्तरपुराणकी समाप्ति शक संवत् ८२० ( विक्रम संवत् ९५५ ) में की है । अतएव आदिपुराण इसके कुछ पहले बन चुका था ।
इन दिनों में इसी प्रसिद्ध ग्रंथका स्वाध्याय कर रहा हूँ । यह स्वाध्याय बहुत बारीकीसे गहरी दृष्टि डालकर, किया जा रहा है । स्वाध्याय करते समय जो जो बातें मुझे सोचने-विचारनेकी, चर्चा करने की मालूम होती हैं उनका नोट भी मैं करता जाता हूँ । इन नोटों का मेरे पास एक अच्छा संग्रह हो गया है अब मैं चाहता हूँ कि इस संग्रह में से कुछ महत्त्वके नोटोंको समाजके विद्वानों के समक्ष उपस्थित करूँ, जिससे उन पर अनेक दृष्टियों से विचार होवे, और जनताकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषणकी ओर अधिकाधिक बढ़े ।
/
१
सर्वसाधारणका यह विश्वास है कि पुराणादि कथाग्रंथोंमें जो कुछ लिखा गया है, उसका अक्षर अक्षर केवलीकथित है। ये सबके सब ग्रंथ भगवान्की दिव्यध्वनिके द्वारा ही प्रकट हुए हैं । परन्तु इस पुराणका स्वाध्याय करनेसे यह बात ठीक नहीं मालूम होती, किन्तु यह प्रकट होता है कि ग्रन्थरचना में ग्रन्थकर्ताओं को बहुत कुछ स्वाधीनता रहती है । वे गुरुपरम्परासे या शास्त्रपरम्परासे चले आये हुए कथासूत्रोंसे केवल नीवका काम लेते हैं, शेष सारी इमारतकी रचना करनेमें वे स्वतंत्र रहते हैं । इस इमारत के स्रष्टा स्वयं वे ही होते हैं । उसको सुन्दर, सरस, प्रभावोत्पादक बनाना यह उनकी प्रतिभाका काम है । जिसकी प्रतिभा जितनी अधिक उज्ज्वल होती है, वह अपनी इमारत को उतनी ही सुन्दर बनाकर दिखला सकता है। यही कारण है जो एक ही कथाको मूलभूत मानकर बनाये हुए दो कवियोंके ग्रन्थों में आकाश-पातालका अन्तर हुआ करता है ।
३६३
afa या ग्रन्थकर्ताको इतनी भी स्वाधीनता न हो, तो उसका कवित्व या ग्रन्थकर्तृत्व ही क्या रहे? फिर तो उसमें और एक फोनोग्राफमें कोई फर्क ही नहीं समझना चाहिए, जैसा सुना वैसा ही कह दिया । कवि अपनी इस स्वाधीनता के कारण ही कवि कहलाता है | इस स्वाधीनताका उपयोग करके वह अपने कथापात्रोंके मुँहसे वेही बातें कहलाता है, जिनका कहलाना उसे अभीष्ट मालूम होता हैजिससे वह अपने ग्रन्थरचना के उद्देशकी सिद्धि समझता है और जो उसके देशकाल के अनुकूल होती हैं | नगर, पर्वत, नदी, स्त्री, पुरुष, बालक, साधु आदिके उन्हीं स्वरूपको वह चित्रित करता है जिनका उसके कल्पनाजगतमें संग्रह रहता है, और जिस रूपमें वे उसके नेत्रोंके सामने आया करते हैं । यही कारण है जो दाक्षिणात्यकवियोंके द्वारा बनाये हुए काव्यों में हम जिस पौराणिक स्त्रीके सुन्दर केशपाशोंको पुष्पोंसे सजा हुआ पाते हैं उसीको उत्तर प्रान्त कवियोंके काव्यों में उत्तरीय वस्त्रके भीतर छिपा हुआ देखते हैं । दक्षिणका कवि अपनी नायिकाको साड़ी पहनाता है और उत्तरका घाँघरा ।
आदिपुराण के कर्ता जिनसेनस्वामीका ही बनाया हुआ पाश्वभ्युदय नामका एक प्रसिद्ध काव्य है । उसको देखनेसे तो यह मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताको मूल कथामें भी परिवर्तन करनेका अधिकार रहता है । इस काव्य में कमठके जीव शम्बरको जो कि ज्योतिष्क देव हुआ था— यक्ष, ज्योतिर्भवनको अलकापुरी और यक्षकी वर्षशापको शम्बरकी वर्ष - शाप मान लिया है । इसके सिवाय शम्बर के पूर्व और वर्तमानके अनेक भावोंको वर्तमानभवके ही रूप में चित्रित कर दिया है । गरज यह कि कवियों और ग्रन्थकारों को जो रचनास्वातंत्र्य मि है, उससे वे मूल कथामात्रकी रक्षा करके अपनी ओरसे बहुत कुछ लिख सकते हैं । हम अपनी इस बातको पुष्ट करनेके लिए आदिपुराणमेंसे कुछ उदाहरण देंगे।
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जैनहितैषी
३६४
[ भाग १३ ' चौथे कालके प्रारंभमें, जब भगवान आदिनाथको अग्निको शान्त करनेके लिए पुराना घी ढूँढ़ना केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था तब, समवसरणसभामें चाहिए। परन्तु दूसरे ग्रन्थोंसे यह सिद्ध है कि उपस्थित होकर सौधर्मस्वर्गके इन्द्रने भगवानकी श्वेताम्बरसम्प्रदायकी उत्पत्ति महावीर भगवानके स्तुति करते हुए कहा था:-
... निर्वाणके ६-७ सौ वर्ष बाद हुई है । और यह न भुक्तिः क्षीणमोहस्य तवात्यन्तसुखोदयात् । चौथे कालकी आदिनाथ भगवानके समयकी बात क्षुक्लेशबाधितो जन्तुः कवलाहारभुग्भवेत् ॥ ३९ है जिसको बीते जैनग्रन्थोंके अनुसार आज असद्वद्योदयाद्भुक्तिं त्वयि यो योजयेदधीः। करोंड़ों वर्ष हो चुके हैं । तब उस समय श्वेताम्वर मोहानिलप्रतीकारे तस्यान्वेष्यं जरद्धृतम् ॥ ४०॥ सम्प्रदाय कहाँसे आया ? असद्वेद्यविषं घाति विध्वंसध्वस्तशक्तिकम् ।
_ यदि यह कहा जाय कि इन्द्रने अपनी स्तुतिमें त्वयकिंचित्करं मंत्रशक्त्येवापबल विषम् ॥४१॥
" जिन पर आक्षेप किया है वे श्वेताम्बर नहीं थे, तो असद्वद्योदयो घातिसहकारिव्यपायतः ।
इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि वे केवली भगवात्वम्यकिंचित्करो नाथ सामय्या हि फलोदयः॥४२ -आदिपुराणपर्व, २५ ।
नको तो मानते थे; परन्तु उन्हें भोजन करनेवाला
समझते थे । अर्थात् वे अन्यमती नहीं, किन्तु एक भावार्थ-हे भगवन, मोहनीय कर्मके नष्ट हो
। प्रकारके जैन ही थे और जैनधर्मके सिद्धान्तोंको, जानेसे आपके अनन्त सुखका उदय हो गया है, केवली भगवानके घातिया कर्मोंके नाश हो जानेको, इस कारण आप भोजन नहीं करते हैं । जो जीव
नाव असाता वेदनीयके उदयको और मोहनीयके नष्ट भूखके दुःखसे दुखी हैं, वे ही कवलाहार या हो जानेसे अनन्त सुखकी प्राप्तिको मानते थे । इन "भोजन किया करते हैं । जो मूर्ख यह कहते हैं लोगोंने अवश्य ही श्रीतीर्थंकर भगवानके उपदेशसे कि आपके असातावेदनीयका उदय है, इस कारण ही उक्त कर्मसिद्धान्तों पर विश्वास किया होगा; आप भोजन भी करते हैं, उन्हें अपनी मिथ्यात्व- क्योंकि उस समय चतुर्थ कालकी आदिमें इन बातोंका रूपी अग्मिको शान्त करनेके लिए पुराना घी ढूँढना जाननेवाला और कोई नहीं था। तब यह कैसे चाहिए । घातिया कोंके नष्ट हो जानेसे जिसकी
सम्भव हो सकता है कि भगवानके उपस्थित होते शक्ति नष्ट हो गई है, ऐसा असातावदनीरूप विष
हुए भी उन्हींके अनुयायियों से कुछ ऐसे हों तो आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । जिस तरह यह कहें कि भगवान् भोजन करते हैं और कुछ ऐसे मंत्रकी शक्तिसे जिसका बल नष्ट हो गया है, ऐसा हो
हा गया ह, एसा हो जो यह कहें कि नहीं, वे कदापि भोजन नहीं विष किसीको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। करते हैं और अपने इस विवादको निबटानेके घातिया कर्मोकी सहायता नहीं रहनेसे हे नाथ, वास्ते भगवानसे पूछे ही नहीं कि आप भोजन करते हैं असातावेदनीका उदय भी आपके लिए आकंचि
या नहीं । विना पूछे भी तो वे यह जान सकते थे कर है-कुछ प्रभाव डालनेवाला नहीं है । क्योंकि
। क्या कि ये कभी भोजन करते हैं या नहीं । इस बातका सब सामग्रियोंके एकत्र होनेसे ही फलका उदय निर्णय हेतवादसे करनेकी तो उस समय जरूरत ही होता है।
नहीं थी। गरज यह कि भगवानके समक्षमें देवये श्लोक स्पष्टतासे बतला रहे हैं कि इनमें जो राजने इस प्रकारकी स्तुति की हो जिसमें कि इस आक्षेप किया गया है वह श्वेताम्बर सम्प्रदायको प्रकारका कवलाहारसम्बन्धी विवाद हो, यह संभव लक्ष्य करके किया गया है और उन्हींको नहीं। यह सब ग्रन्थकर्ताकी रचना है। उस समय इसमें मूर्ख बतलाकर कहा है कि उन्हें मिथ्यात्वकी दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंके बीचमें जो विषाद चल
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अङ्क ८ ]
रहा था, उसीको ग्रन्थकर्ताने इन्द्रके मुँहसे व्यक्त कराया है और जान पड़ता है कि इस प्रकारका अधिकार ग्रन्थकर्ताओंको बहुत समय से प्राप्त है ।
आदिपुराणका अवलोकन |
"
प्रथमानुयोग विषै जे मूलकथा
जैसा का
पण्डितवर टोडरमल्लजीने अपने मोक्षमार्ग - प्रका. शक ग्रन्थमें प्रथममानुयोगके स्वरूपका विचार करते हुए हमारे इन्हीं भावको इस प्रकार प्रकट किया है:हैं, ते तो जैसी हैं तैसी ही निरूपित हैं । अर तिन विषै प्रसंग पाय व्याख्यान हो है सो कोई तौ तैसा हो है, कोई ग्रन्थकर्ताका विचार अनुसार होय, परन्तु प्रयोजन अन्यथा न हो है । ताका उदाहरण - जैसे तीर्थंकर देवनिके कल्याणनि विषै इन्द्र आया, यह कथा तो सत्य है । बहुरि इन्द्र स्तुति करीताका व्याख्यान किया, सो इन्द्र तौ और ही प्रकार स्तुति लिखी थी, और यहाँ ग्रन्थकर्त्ता और ही प्रकार स्तुति कीनी लिखी । परन्तु स्तुतिरूप प्रयोजन अन्यथा न भया । -पृष्ठ ३८३ ।
"
" इसी तरहका एक दूसरा प्रसंग आदिपुराणके १८ वें पर्वमें भी है । आदिनाथ भगवानके दीक्षा ले लेने पर उनके साथी चार हजार राजाओंने भी दीक्षा ले ली। परन्तु वे लोग दीक्षाके अभिप्रायको कुछ नहीं समझे थे, इस लिए भगवान् तो ६ मही"नेका उपवास धारण करके ध्यानस्थ हो गये,
भूखके मारे दोही तीन महीने में व्याकुल हो गये । जब भूख प्यास नहीं सही गई, तब कन्द-मूल-फल अदि खाने के लिए वनमें जाने
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लगे और प्यास बुझानेके लिए तालाबोंकी ओर दौड़ने लगे; परन्तु वनदेवताने उन्हें रोका और कहा कि तुमको इस दिगम्बररूपमें ऐसा करना उचित नहीं है । यह सुनकर वे डर गये और उन लोगों ने तरह तरह के वेष धारण कर लिये । किसीने पेड़ोंकी छालें पहन लीं, किसीने लँगोटी लगा ली, किसी भस्म रमा ली, कोई जटाधारी, दंडी ड बन गये । भरतमहाराजके डरके मारे वे अपने अपने घरों को भी नहीं जा सके और वहीं झोपड़ी बनाकर रहने लगे। ये ही आगे पाखंडियोंके मुखिया बन गये । भगवान्का पोता मरीचि भी इनमें था । उसने अनेक अपसिद्धान्तोंका उपदेश देकर मिथ्यात्वकी - वृद्धि की । योगशास्त्र ( पतञ्जलिका दर्शन ) और मोहित होकर संसार सम्यग्ज्ञानसे पराङ्मुख हुआ । कापिल तंत्र ( सांख्यशास्त्र ) को उसीने रचा, जिनसे
।
यथाः
उसका
इससे अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि इन्द्रके द्वारा भगवानकी जो स्तुति कराई गई है, इसमें सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र के कर्ताको सारा व्याख्यान ग्रन्थकर्ताकी निजकी चीज है । भगवान् ऋषभदेव के समय में बतलाना, जान पड़ता आदिनाथ भगवानके समवसरणमें उसने ये ही शब्द है, ग्रंथकर्ताकी निजकी कल्पना है। क्योंकि इन नहीं कहे थे। उस समय श्वेताम्बर धर्म के अस्तित्व दोनोंके कर्ता अधिक से अधिक २२००-२३०० Satara निर्मूल है । वर्ष पहले हो सकते हैं, परन्तु जैनग्रन्थोंके अनुसार अबसे अर्को खर्बो वर्ष पहले हुए हैं। मूल कथा इतनी है कि, भगवान ऋषभदेव के समय में बहुतसे राजा भ्रष्ट हो गये थे और उन्होंने तरह तरहके मिथ्यात्व फैला दिये थे । इसीको कवियोंने अपनी अपनी कल्पना के अनुसार पल्लवित किया है और मतोंके नाम अपनी तरफ से मिला दिये हैं ।
सबसे पहले ' पउमचरिय' नामक प्राकृत ग्रन्थमें हमने इस कथा को देखा । यह ग्रन्थ वीर
मरीचिश्च गुरोर्नप्ता परिव्राड्भूयमास्थितः । मिथ्यात्ववृद्धिमकरोदपसिद्धान्तभाषितैः ॥ ६१ ॥ तदुपज्ञमभूद्योगशास्त्रं तंत्रं च कापिलम् । येनायं मोहितो लोकः सम्यग्ज्ञानपराङ्मुखः ॥ ६२॥ -पर्व १८ |
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जैनहितैषी -
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८
मि० संवत् ५३० का बना हुआ है। उसमें सिर्फ इतना लिखा है कि ' वे पेड़ों की छाल, लँगोटी, आदि पहनवाले, फलाहारी, स्वच्छन्दमतविकल्पी, अनेक तरहके तापसी हो गये । ' उसके बादका ग्रन्थ पद्मपुराण है। उसमें आदिपुराणकी ही कथाको कुछ संक्षेपमें लिखा है और अन्तमें कहा है कि इन सबमें महामानी मरीचि ( भगवान् का पोता ) था । उसने भगवें वस्त्र पहरकर परिव्राजकका मत प्रकट किया । ' इसके बाद पुन्नाटसंघीय जिनसे - नका हरिवंशपुराण बना है । उन्होंने इस कथा के मतसम्बन्धी अंशको सबसे अधिक पल्लवित किया • है और ( कलकत्ते में प्रकाशित हुए हिन्दी अनुवा दके अनुसार ) नैयायिक, वैशेषिक, शब्दाद्वैतवादी, चार्वाक, सांख्य और बौद्धधर्म तकको भी उन भ्रष्ट हुए राजाओं के द्वारा चला हुआ बतलाया है । इनमें कमसे कम बौद्धधर्मको हमारे सभी पाठक जानते हैं कि, वह महावीर भगवान् के ही समय में स्थापित हुआ है और इससे पहले उसका अस्तित्व नहीं था । यह सर्वसम्मत बात हैं।
1
ऐसा मालूम होता है कि मूल बात केवल यह थी कि उस समय उन लोगोंने तरह तरहके तपस्वियों के वेष धारण कर लिये । इसी बातको जुदा जुदा ग्रन्थकारेंनेि पल्लवित करके, इतिहास के सामञ्जस्यका ख्याल न रखकर, जुदा जुदा रूपमें वर्णन कर दिया है। मूल बात सबमें एक ढंगसे कही गई है, पर बढाई हुई बातों में भिन्नता आ गई है । आशा है कि पाठकगण उक्त कथनसे हमारे आशयको अच्छी तरह समझ गये होंगे ।
/
भी
आगामी अंकमें हम इसी विषय में और कुछ लिखने का प्रयत्न करेंगे । यदि कोई सज्जन इसके प्रतिवाद में कुछ लिखना चाहें तो सप्रमाण और संयत भाषा में लिखनेकी कृपा करें ।
[ भाग १३
विविध प्रसङ्ग ।
१ क्या श्वेताम्बर सांशयिक हैं ? पिछले अंक में दर्शनसारविवेचना में हमने लिखा था कि दर्शनसारके कत्तीने और गोम्मटसारके टीकाकारोंने श्वेताम्बर सम्प्रदायको सांशयिक कैसे माना है सो समझमें नहीं आता । क्योंकि विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानको संशय कहते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदायका इस प्रकारका कोई सिद्धान्त नहीं है । वे यह नहीं मानते हैं कि न मालूम स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त करती हैं या नहीं, केवली कवलाहार करते हैं या नहीं । ये बातें उनके यहाँ निश्चयरूपसे मानी हुई हैं । वे दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिसे विपरीतमति हो सकते हैं; न कि सांशयिक । उक्त विवेचना के छप जाने पर हमने भट्टाकलङ्कदेवकृत राजवार्तिकको देखा तो मालूम हुआ कि हमारी शंका यथार्थ थी । उसमें वेताम्बर सम्प्रदायको ' विपरीत ' ही माना है, सांशयिक नहीं । आठवें अध्यायके पहले सूत्र के व्याख्यानमें देखिए, इस प्रकार लिखा है:
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अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनमवगन्तव्यं - एकान्तमिथ्यादर्शनं, विपरीतमिथ्यादर्शनं, संशयमिथ्यादर्शनं, वैनयिकमिथ्यादर्शनं, आज्ञानिक मिथ्यादर्शनं चेति । तत्रेदमेवेत्थमेवेति धर्मिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः । पुरुष एवेदं सर्वं इति वा, नित्य एव वा अनित्य एवेति । सग्रन्थो निर्मन्थः केवली कवलाहारी स्त्री सिद्धयतीत्येवमादिर्विपर्ययः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि संशयः । सर्वदेवतानां सर्वसमयानां । च मोक्षमार्गः किं स्याद्वा नवेति मतिद्वैतं समदर्शनं वैनयिकत्वं । हिताहितपरीक्षावि रह आज्ञानिकत्वम् । ”
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अर्थात् एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और आज्ञानिक ये पांच मिथ्यादर्शन हैं । यही है, ऐसा ही है, इस प्रकार धर्मी और धर्ममें आग्रहबुद्धि- रख
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अङ्क ८]
विविध प्रसङ्ग । ना 'एकान्त' है । जैसे सृष्टिकी ये सब वस्तुयें पुरु- दायके परम्परागत प्रचलित भावोंमें उससे अधिक षहीके रूप हैं, ये सब नित्य ही हैं अथवा अनि- शिथिलताका प्रवेश हो नहीं सकता था-वहाँ इससे त्य ही हैं । वस्त्रधारी साधु निग्रन्थ हैं, केवली कवला- अधिक गुंजाइश नहीं थी। हार करते हैं, स्त्रीको मोक्ष होता है, इत्यादि बातें भद्रबाहुसंहिताकी परीक्षाके तीसरे लेख मानना — विपरीत ' है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र ( अंक १, पृष्ठ ६९-७० ) में पाठक पढ़ चुके मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार दिकोटिगत बुद्धि हैं कि संहिताके कर्ताने पंचम कालमें दिगम्बर मुनिरखना ' संशय ' है । सारे देवों और सारे धर्मोको योंका निषेध किया है । लिखा है-" इस . समान देखना 'वैनायक ' है। हित और अहितकी पंचम कालमें जो कोई मुनि दिगम्बर हुआ भ्रमण परीक्षाका अभाव ' आज्ञानिक ' है । पूज्यपाद करता है, वह मूढ है और उसे संघसे बाहर समझना स्वामीने सर्वार्थसिद्धिटीकामें भी बिलकुल यहीके चाहिए । वह यति भी अवन्दनीय है जो पांच यही वाक्य दिये हैं। इससे सिद्ध है कि, दिगम्बर- प्रकारके वस्त्रोंसे रहित है, अर्थात् वह दिगम्बर मुनि दृष्टि से श्वेतांबर सांशयिक नहीं, किन्तु विपरीत मिथ्या- भी अपूज्य है जो कपास, ऊन, रेशम आदिके वस्त्र दृष्टि हैं । विद्वानोंको इस विषयमें अपने विचार नहीं पहनता है।" यह कहनकी आवश्यकता नहीं प्रकट करना चाहिए।
कि इस संहिताके लेखक एक वस्त्रधारी भट्टारक थे, - २ भट्टारकोंके साहित्यमें और वे अपने वस्त्रयुक्त मार्गको श्रेष्ठ सिद्ध करना
शिथिलाचार। । चाहते थे। आज हम अपने पाठकोंको एक और पण्डितोंके मुँहसे अकसर यह बात सुनी जाती भट्टारक महाराजके वाक्य सुनाते हैं, जिनमें इस है कि भट्टारक स्वयं भले ही शिथिल हो गये हों: शिथिलाचारका खुले शब्दोंमें प्रतिपादन किया परन्तु उन्होंने जितने ग्रन्थ आदि बनाये हैं, उनमें गया है। कोई बात ऐसी नहीं लिखी है, जो मूल दिगम्बर संप्र- तत्वार्थसूत्रळ श्रुतसागरी टीका, यशस्तिलक दायसे विरुद्ध हो-उन्होंने कोई उत्सूत्र कथन नहीं चम्पूटीका, सहस्रनामटीका, आदि अनेक ग्रंथोंके किया। पहले हमारा भी यही खयाल था, परन्तु कर्ता श्रुतसागरसूरि विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिमें अब भट्टारकोंके साहित्यका अधिकाधिक परिचय होनेसे हुए हैं । आप विद्यानन्द भट्टारकके शिष्य थे। यह निश्चय होता जाता है कि इस बातमें कोई तथ्य आपने अपने नामके साथ उभयभाषाकविचक, नहीं है । भट्टारकोंने अवश्य ही गोलमाल किया है वर्ती, कलिकालसर्वज्ञ जैसे बड़े बड़े पद लगा रक्वे
और अपने चरित्रको किसी न किसी प्रकारसे अच्छा हैं, जिससे मालूम होता है कि आप एक प्रसिद्ध बतलानेका प्रयत्न किया है। और यदि उन्होंने ऐसा
र विद्वान् थे । भगवत्कुंदकुन्दाचार्यके षट्पाहुड़ किया है, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।
ग्रंथ पर भी आपने एक संस्कृत टीका लिखी है ।
- इस टीकाके विषयमें हम एक स्वतंत्र लेख लिखना आश्चर्य तो तब होता, जब वे अपने शिथिल चरित्र
चाहते हैं, जिससे पाठकोंको मालूम होगा कि यह को शिथिल ही बतलाते जाते । हाँ, यह अवश्य है कैसी टीका हे । यहाँ हम उसमें से केवल दर्शनकि उन्होंने जो शिथिलाचारका पोषण किया है, पाहडकी २४ वीं गाथाकी टीकाको उद्धृत करते वह उतना ही किया है, जितना कि किसी तरह खींच हैं। मूल गाथा यह है:खाँचकर सिद्ध किया जा सके । पर जितने अंशोंमें सहजप्पण्णं रूवं दिलु जो मण्णए ण नहीं किया है, सो इस लिए नहीं कि वह उन्हें मच्छरिओ । सो संजमपडिवण्णो मि. पसन्द नहीं था; किन्तु इस लिए कि दिगम्बरसम्प- च्छाइही हवइ एसो॥२४
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जैनहितैषी
[भाग १३
इसका सीधा सादा अर्थ यह है-'जो सह- वाड़ ) में श्रीवसन्तकीर्तिस्वामी ( भट्टारक ) ने ऐसा जोत्पन्न रूप अर्थात् दिगम्बररूपको देखकर मत्सर उपदेश दिया कि चर्या आदिके समय ( आहारको भावसे नहीं मानता है-दिगम्बर मुनिकी अवहेलना जाते समय ) मुनिको चटाई, टाट आदिसे शरीर करता है, वह संयमी हो, तो भी मिथ्यादृष्टि है। ढक लेना चाहिए, और फिर चगई आदि छोड़ अब इसकी श्रुतसागरी टीकाको देखिए:-- देना चाहिए । संयमी या मुनियोंका यह अप- "सहजुप्पण्णं रूवं सहजोत्पन्नं स्वभावो- वाद वेष है । इसी प्रकार यदि कोई राजवंशादिमें त्पनं रूपं नग्नं रूपं । दिहं दृष्टा विलोक्य। उत्पन्न हुआ पुरुष बहुत वैराग्यवान् होकर मुनि जो मण्णए ण मच्छरिओ, यः पुमान न होना चाहे, परन्तु वह लिङ्गाशुद्धिरीहत हो; अर्थात् मन्यते, नग्नत्वे अरुचि करोति, नग्नत्वे किं उसके लिङके अग्रभागमें कोई दोष हो, अथवा प्रयोजनं पशवः किं नन्ना न भवन्ति, इति वह लज्जावान् हो, या शीत आदि सहन नहीं कर 'ब्रूते, मत्सरतः परेषां शुभकर्माण द्वेषी। सो सकता हो, और इस कारण चटाई वगैरहसे संयमपडिवण्णो स पुमान संयमप्रतिपन्नः
* शरीर ढंक लिया करे, तो उसे अपवादलिङ्गधारी दीक्षां प्राप्तोऽपि मिच्छाइट्टी हवइ एसो, मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः । अपवादवेषं धरनपि
' कहते हैं । उत्सर्गवेष तो नग्न ही है। सामान्योक्ति मिथ्यावृष्टिः ज्ञातव्य इत्यर्थः। कोऽपवादवेषः, विधिको उत्सर्ग और विशेष विधिको अपवाद कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टा उपद्रवं. कहत है । यतीनां कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्त- यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मूल गाथा से इस कीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टी- अर्थका कोई सम्बन्ध नहीं है; यह अभिप्राय बहुत ही सादरादिकेन शरीरमाच्छाध चर्यादिकं बडी धृष्टतासे खींच खाँचकर निकाला गया है । कृत्वा पुनस्तन्मुंचति इत्युपदेशः कृतः संयः उत्सर्ग और अपवादका यह मतलब ही नहीं है। मिनां, इत्यपवादवेषः। तथा नृपादिवर्गो
यदि इसीको अपवाद कहने लगें तो फिर भ्रष्टता त्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुटदोषः लज्जावान् वा शीताद्य- कुछ रहेगी ही नहीं। श्रुतसागर महाराजका सबसे सहिष्णुर्वा तथा करोति सोप्यपवादलिडः बड़ा अन्याय तो यह है कि उन्होंने अपने समयके प्रोच्यते । उन्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञा. शिथिलाचारको पोषण करनेके लिए भगवान् कुन्दतव्यं । सामान्योक्तिविधिरुत्सर्गः विशेषो. कुन्दाचार्यके उस ग्रन्थको अपना हथियार बनाया क्ति विधिरपवाद इति परभाषणात् ।" है जो तिलतुष मात्र परिग्रहका भी विरोधी है और . अर्थात् स्वभावोत्पन्न नग्न रूपको देखकर जो जगह जगह शिथिलताका प्रतिवाद करता है । सूत्र पुरुष उसे मत्सरभावसे नहीं मानता है, नग्नपनामें पाहुड़की ये गाथायें देखिए:अरुचि करता है, कहता है-नग्नपनेमें क्या रक्खा णिच्चेल पाणिपत्तं उवइट परमजिणवरिहै, पशु क्या नग्न नहीं रहते. ( इसरोंके शुभकर्मसे दोहि । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसाय अम.
ग्गया सव्वे ॥ १० ॥ द्वेष करनेको मत्सर कहते हैं । ) वह संयमप्रतिपन्न या दीक्षित होने पर भी मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् वह
___ अर्थात् वस्त्ररहितता और पाणिपात्रताका भगवाअपवादवेष धारण करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है। सब अमार्ग हैं।
१९ नने उपदेश दिया है । यही एक मोक्षमार्ग है, शेष
से अपवाद किसे कहते हैं ? कलिकालमें म्लेच्छ (मुस- बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणो ण होइ हमान ) आदि यतियोंको नग्न देखकर उपद्रव साहणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णंण्णं एक्ककरते हैं, इस कारण मण्डपदुर्ग ( माण्डलगढ़-मे- ठाणमि ॥ १७ ॥
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अङ्क ८]
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विविध प्रसङ्ग।
अर्थात् बालके आगेकी नोकके भी बराबर परि- जल्दी और बड़े बड़े ग्रन्थोंके छपानेका प्रबन्ध नहीं ग्रह साधु ग्रहण नहीं करता । वह अपने हाथरूपी किया जा सकता है। संस्कृत ग्रन्थोंकी खप भी पात्रमें अन्यका दिया हुआ भोजन एक स्थानमें खड़े बहुत थोड़ी होती है । जबतक धनियों और होकर करता है । अब मिलान कीजिए कि, कहाँ धर्मात्माओंका इसे सहारा न हो, तबतक इस कार्यमें तो यह कठिन आशा और कहाँ वह शिथिलता उन्नति नहीं हो सकती । इस समय प्रत्येक ग्रन्थकी कि यदि शीत आदि सहन नहीं किया जाय, लज्जा केवल ५०० प्रतियाँ छपाई जाती हैं । यदि प्रत्येक नहीं जीती जा सके तो कपड़े पहनकर अपवाद- ग्रन्थकी दशदश प्रतियाँ खरीदनेवाले २० और लिङ्गधारण कर लो । मूल ग्रंथकर्ता जिसे अमार्ग पाँच पाँच प्रतियाँ खरीदनेवाले ४० स्थायी ग्राहक या धर्मसे बाहर बतलाते हैं उसे आप अपवाद लिङ्ग ही हमें मिल जायँ, जो यह कार्य बड़ी अच्छी तरह कहनेकी धृष्टता कर रहे हैं । अपनी कायरता और चलता रहे-और इसके द्वारा सैकड़ों ग्रन्थोंका , कमजोरीको मुनियोंकी सिंहवृत्तिकी चादरके नीचे उद्धार हो जाय । इसके लिए हमने कई बार प्रार्थछुपाना चाहते हैं।
नायें की; परन्तु अभी तक बहुत ही थोड़े सज्जनोंने __इस टीकासे एक बात यह भी मालूम हुई कि, इस ओर ध्यान दिया है । आशा है कि दशलक्षण कोई वसन्तकीर्ति स्वामीने इस मार्गको चलाया था। पर्वके दिनोंमें हमारे पाठक इस विषयमें अवश्य ही चित्तौरकी गद्दीके भट्टारकोंकी नामावलीमें वसन्त- कुछ न कुछ प्रयत्न करेंगे । यह करनेकी तो आवकीर्तिका नाम आता है, और उनका समय १२६४ श्यकता ही नहीं है कि इस मालाके तमाम ग्रंथ बतलाया जाता है । मालूम नहीं, यह समय कहाँ केवल लागतके मूल्य पर बेचे जाते हैं। तक ठीक है और ये श्रुतसागर सूरिके उल्लेख किये लघीयस्त्रयादिसंग्रह, सागरधर्मामृत सटीक, विक्रान्त हुए ही वसन्तकीति हैं या और कोई । यदि ये ही कौरवनाटक, पार्श्वनाथचरितकाव्य, मैथिलीकल्याण हों, तो इस मार्गका पता १३ वीं शताब्दितक नाटक, आराधनासार सटीक और जिनदत्तचरित्र तो लगता है, यद्यपि हमारा विश्वास है कि यह ये सात ग्रन्थ तो पहले छप चुके थे । नीचे लिखे . शिथिलाचार और भी कई शताब्दियोंसे चला आ चार ग्रंथ अभी हाल ही छपकर तैयार हुए हैं। रहा था।
८प्रद्युम्नचरित । यह बिलकुल अप्रसिद्ध । __आशा है, इससे हमारे पाठक समझ जावेंगे कि ग्रन्थ है। सुप्रसिद्ध राजा भोजके पिता सिन्धुराजके भट्टारकोंने अपनी रचनाओंमें अपनी शिथिलताका दरबारके सभ्य और महामहत्तम 'पप्पट ' नामके, भी पोषण किया है और खूब किया है। अवका- कोई धनिक थे। उनके गुरु श्रीमहासेन नामक कवि शके अनुसार हम इस प्रकारके और भी प्रमाण उप- इसके रचयिता हैं । उपलब्ध प्रद्युम्नचरितों से यह स्थित करेंगे।
सबसे प्रौढ और सुन्दर है । यह केवल चरित ही ३ माणिकचन्द ग्रन्थमाला। नहीं उच्चश्रेणीका एक काव्य है। इसमें चौदहसर्ग स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचन्दजीकी इस याद. है । २३० पृष्ठोंमें यह समाप्त हुआ है। मूल्य गारीका काम धीरे धीरे पर सुव्यवस्थित रूपसे चल इसका केवल आठ आने है। रहा है । धीरे धीरे चलनेका कारण यह है कि अभी ९ चारित्रसार । गंगवंशीय राजा राचमल्लके तक इसकी ओर समाजका चित्त जितना आकर्षित सुप्रसिद्ध मंत्री और सेनापति चामुण्डरायने इस होना चाहिए, उतना नहीं हुआ है और ग्रन्थमालाके ग्रन्थकी रचना की है। ये वही चामुण्डराय हैं फण्डमें इतनी थोड़ी रकम है कि उसके भरोसे जल्दी जिन्होंने बाहुबलि स्वामीकी सुप्रसिद्ध मूर्तिकी प्रतिष्ठा
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जैनहितैषी
[ भाग १३
कराई थी और गोम्मटसारके कर्ताने जिनकी जगह १ तत्वानुशासन-आचार्य नागसेनकृत । बहुत जगह प्रशंसा की है । इस ग्रन्थमें श्रावकोंके और ही महत्त्वका ग्रन्थ है। मुनियोंके दोनोंके आचारका वर्णन है । ग्रन्थ गद्यमें २ इष्टोपदेश-आचार्य पूज्यपादस्वामीकृत । है । पृष्ठसंख्या १०० । मूल्य छह आने। मूल और पण्डितप्रवर आशाधरकृत संस्कृत टीका।
१० प्रमाणनिर्णय । एकीभावस्तोत्रके कर्ता ३ पात्रकेसरीस्तोत्र--आचार्य विद्यानन्दिकृत । प्रसिद्ध नैयायिक वादिराजसूरि इस ग्रन्थके कर्ता ४ नीतिसार ( समयभूषण )-आचार्य इन्द्रनहैं । यह ग्रन्थ अभीतक दुर्लभ और अप्रसिद्ध था। न्दिकृत । न्यायशास्त्रका प्रारंभक ग्रन्थ है । पाठ्यग्रन्थ होनेके ५ योगसार-योगचन्द्राचार्यकृत । योग्य है। पृष्ठ संख्या ७० । मूल्य पाँच आने। ६ तत्त्वसार-आचार्य देवसेनकृत ।
११ त्रैलोक्यसार सटीक । आचार्य ७ ज्ञानसार- , ,, नोमचन्द सिद्धान्तचक्रवर्तीका यह ग्रन्थ मूल, ८ नवति प्रायश्चित्त-अज्ञातनामाकृत । संस्कृतछाया और आचार्य माधवचन्द्रकी संस्कृत- ९ मोक्षपश्चाशिका- , ,, टीकासहित छप रहा है । इस ग्रन्थका अधिक जो ग्रन्थ छप रहे हैं, उनमें सहायताकी आवपरिचय देना व्यर्थ है । करणानुयोगका यह श्यकता है ।जो महाशय सहायता देंगे उनका नाम बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है । पृष्ठसंख्या लगभग ४०० ग्रन्थोंके ऊपर छपाया जायगा। प्रत्येक ग्रन्थकी होगी और मूल्य लगभग सवा रुपया। कमसे कम १२५ प्रति धर्मार्थ दान करनेके लिए
नीचे लिखे ग्रन्थोंके छपानेका प्रबन्ध हो जो महाशय लेंगे उनका चित्र पुस्तकके साथमें रहा है:
__ लगवा दिया जायगा। पर्वके दिनोंमें पुस्तकदान कर१२ आचारसार । यह यत्याचारका ग्रन्थ नेके समान कोई दान नहीं है। है । इसके कर्ता वीरनन्दि नामके आचार्य हैं, ४ महात्मा गाँधीकी पोशाक । जो १२वीं शताब्दिके लगभग हुए हैं। चन्द्र- इस समय देशभक्त महात्मा मोहनदास करमचन्द प्रभचरित, कर्तासे ये पृथक् हैं । यह ग्रन्थ गाँधीका नाम देशव्यापी हो रहा है, अतएव हमारे अतिशय दुर्लभ और अप्रसिद्ध है। चरित्रसारके ही पाठक भी उन्हें अवश्य जानते होंगे। जबसे चम्पाबराबर होगा।
रनकी प्रजाके कष्टोंको-जो उसे वहाँके नीलव्यव.... १३ नयचक्र । यह देवसेन नामक आचार्य- सायी गोरोंके द्वारा सहने पड़ते हैं-दूर करनेके का बनीया हुआ प्राकृत ग्रन्थ है, संस्कृत छाया लिए वे कार्यक्षेत्रमें उपस्थित हुए हैं तबसे गोरोंकी और उत्थानिकाके सहित छपेगा । यह बहुत ओरसे उनपर तरह तरहके आक्षेप किये जा रहे हैं। प्राचीन ग्रन्थ है । विद्यानन्दिस्वामीने अपने श्लोक- अभी थोडे दिन पहले मि० अरविनने पायनियरमें वार्तिकालंकारमें इसकी गाथायें उद्धृत की हैं और एक लेख प्रकाशित कराया था और उसमें गाँधीइनका उल्लेख किया है । नयोंका स्वरूप समझनेके जीकी बहुतही सादी,कम कीमती, और उनके प्रान्तकी लिए यह बहुत ही महत्त्वकी चीज है। परंपरागत पोशाककी-जिसे देखकर कोई यह अनुमान
१४ तत्त्वानुशासनादिसंग्रह । इसमें नीचे नहीं कर सकता कि वे देशके एक बड़े भारी नेता हैंलिखे कई छोटे छोटे ग्रन्थोंका संग्रह रहेगा । प्रायः दिलगी उड़ाई थी। महात्मा गाँधीने उक्त लेखका जो सभी ग्रन्थ अपूर्व और दुर्लभ रहेंगे। पहले ४ ग्रन्थ उत्तर दिया है, उसके कुछ अंशोंको हम यहाँ इस संस्कृत और शेष सब प्राकृत हैं।
लिए उद्धृत करते हैं कि उनसे हमारे समाजके विदेशी
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अङ्क ८]
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विविध प्रसङ्ग।
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वेषभूषाभक्त भाई कुछ शिक्षा ग्रहण करेंगे । “पश्चि- स्वास्थ्यप्रद है।" जिस समय सारा देश विलायती मीय सभ्यताके सब प्रकारके सौन्दर्य पर अच्छी तरह चालढाल, वेश-भूषाके आदिकी प्रबल बहियामें विचार करनेके बाद मैं अपने जातीय लिबासका और बहा जा रहा है, उस समय क्या महात्मा गाँधीके पोशाकका पक्षपाती बना हूँ। मैं इस समय चप्पारनमें उक्त विचार कुछ प्रभाव डालनेमें समर्थ होंगे ? जिस पोशाकको पहन रहा हूँ, भारतमें रहते समय मैं पालो मटिर उतारना सदा यही पोशाक पहनता रहा हूं । काठियावाड़के । बाहरकी अदालतोंमें, तथा अन्यत्र जानेके समय
और श्वेताम्बरोंके मन्दिर में अवश्य ही मैंने दो चार बार ( सो भी बहुत समय
दिगम्बर प्रतिमायें। पहले ) मैंने सर्वसाधारणकी भाँति अधसाहवी पोशाक गवालियर राज्यके शिवपुरकलाँ नामक स्थानसे पहनी थी। आजसे २१ वर्ष पहले ठीक इसी हमारे पास श्रीयुत गंभीरमलजी अजमेराने एक पत्र पोशाकमें मैं काठियावाडकी अदालतोंमें हाजिर होता भेजा है जिसका सारांश यह है--" यहाँ दिगम्वर था। अब तक मैंने केवल एक परिवर्तन किया है। सम्पदायके दो मन्दिर है-एक तेरापंथी और दूसरा वह यह कि अब मैं स्वयं कपड़े बुनता और खेती वीसपंथी । श्वतांबर सम्प्रदायके भी दो मन्दिर हैं करता हूँ। मैंने स्वदेशीका व्रत ग्रहण किया है। जिनमेंसे एक किलेमें है । इस किलेके श्वेताम्बरी अपने कपड़ोंको मैं स्वयं सीं लेता हूँ या मेरे साथी मन्दिरमें दिगम्बरियोंकी भी ७-८ प्रतिमायें है सी देते हैं। मि० अरविन कहते हैं कि मैं केवल एक जिनके पूजन पक्षाल आदिका प्रबन्ध श्वेताम्बरोंके विलक्षणता दिखलानेके लिए चम्पारन प्रजाके सामने अधिकारमें है । दिगम्बरी भाई वहाँ दर्शन पूजन समयोपयोगी सादी पोशाकमें निकलता हूँ परन्तु यह आदिके लिए नहीं जाते । इसी प्रकार दिगठीक नहीं है। असल बात यह है कि मैं भारतवासि- म्बरी बीसपंथी मन्दिरमें श्वेताम्बरोंकी भी ७-८ योंकी प्रकृतिके अनुसार जातीय पोशाक पहनता प्रतिमायें है और उनके पूजन प्रक्षालको श्वताम्बरीहूँ। मेरी रायमें विलायती पोशाककी नकल भी नहीं आते । हाँ, श्वेताम्बरी भाई भादों सदी करना हमारी अवनतिका, हीनताका और १० को तेरापंथी और बीसपंथी दोनों मंदिरोंमें दुर्बलताका परिचायक है। हमारे समान सीधी धूप खेने के लिए आया करते हैं । ये प्रतिमायें सादी, कौशलसम्पन्न और सस्ती पोशाक पथिवीकी दोनोंके मंदिरों में कोई सौ डेड़ सौ वर्षसे इसी तरह
और किसी भी जातिकी नहीं । इससे स्वास्थ्य- चली आई हैं । इन प्रतिमाओं को बदल लेनेके विषविज्ञानका उद्देश्य सिद्ध होता है । अँगरेज लोग यदि यमें एकबार भट्टारकजी और जतीजीके बीचमें व्यर्थके अहंकार और अमूलक प्रेष्टिज' की माया चर्चा हुई थी। उस समय यह तय हुआ था कि परित्याग कर सकते, तो उन्होंने बहुत दिन पहले ही तुम्हारी तुम ले लो और हमारी हमको दे दो। परन्तु भारतीय पहनाव ओढावका व्यवहार करना शुरू एक पक्ष कहने लगा कि पहले तुम हमारी प्रतिमा कर दिया होता । इस विषयमें मैं इतना और कहना हमारे मन्दिरमें रख जाओ और फिर अपनी ले चाहता हूँ कि मैं चम्पारनमें सब जगह नंगे पैर जाओ । दूसरा पक्ष भी इसीका अनुवाद करने लगा। नहीं घूमता । मैने पवित्रताके खयालसे जूता पह- इस तरह मैं पहले और मैं पहलेमें ही यह बात नना छोड़ दिया है तथा उससे अनुभव किया है रह गई । इसके बाद यह तय हुआ कि तुम यहाँसे कि यदि हो सके तो जूता न पहनना ही उचित उठाओ और हम वहाँसे उठावे; परन्तु फिर भी इसी है । क्योंकि यही मनुष्यप्रकृति के लिए सहज और बात पर झगड़ा हुआ कि पहले तुम रख जाओ
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जैनहितैषी
[भाग १३
पीछे हम रक्खेंगे। इस पिछली बातको हुए भी ६ भट्टारकोंकी लीला। १५-२० वर्ष हो गये। अभी तक प्रतिमायें जहाँकी
तेरहपन्थके साहित्यने भट्टारकोंके शासनकी जतहाँ हैं । पहले दिगम्बरी प्रतिवर्ष कुंआरके महीनेमें गाजेबाजेके साथ सरे बाजार होते हुए किलेके मन्दि- .
डको हिला दिया है । पढ़े लिखे लोगोंमें और जैन
धर्मका थोडासा भी स्वरूप समझनेवालोंमें अब उनरंमें पूजन करनेको जाते थे; परन्तु अब दो वर्षसे उनका यह पूजनको जाना बन्द हो गया है । क्यों
र की कोई ‘पूछ' नहीं है। फिर भी जिन प्रान्तोंमें कि श्वेताम्बरी भाईयोंने कहा कि जिस तरह तुम
' धार्मिक ज्ञानकी कमी है और भाषाकी भिन्नताके हमारे यहाँके मन्दिरमें प्रति वर्ष पूजन करने आते।
कारण तेरहपंथी भाषासहित्यका प्रचार नहीं हुआ हो उसी तरह हमको भी एक दिन आने दिया है, ये लोग खूब पुजते हैं और लोगोंके भोलेपनका करो। यदि हमको न आने दोगे तो हम भी न लाभ उठाकर मनमाना अत्याचार करते हैं । गुजमन्दिरकी चावी देंगे ओर न पूजन करने देंगे। रात, बरार, महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रान्त इनके यह बात दिगम्बरियोंको पसन्द नहीं आई । अब वे अड्डे हैं । इन लोगोंके पास लाखों रुपयोंकी सम्पत्ति न पूजन करने जाते हैं और न उन्हें आने देते हैं। है, घोड़ा-गाड़ी, रथ-पालकी, नौकर चाकर, हमारी समझमें दोनों तरफवालोंको मिलकर यह चोपदार छड़ीदार, आदि सारे सजधजके सामान हैं। झगडा तय कर डालना चाहिए और अपनी अपनी रेशम और / जरीके वस्त्र, सोने चाँदीके पात्र, इत्र, प्रतिमायें अपने अपने मन्दिरोंमें रख लेना चाहिए। फुलेल, आदि सभी भोगोपभोगके पदार्थ इनके अदि ऐसा न किया जायगा तो आगे मन्दिरोंकी सामने उपस्थित रहते हैं । दश पन्द्रह रुपया रोजसे आमदनी और सम्पत्ति आदिके सम्बन्धमें झगड़ा हो कमका खर्च शायद ही किसी भट्टारकका होगा। सकता है। " उक्त भाई साहब एक बातकी ओर ये एक तरहके राजा हैं । अपनी रियासतके प्रत्येक
और भी ध्यान दिलाते हैं । शिवपुरसे १४ मीलपर श्रावकसे ये वार्षिक कर लेते हैं और भोजनके समय दातारंदा नामका गाँव है । वहाँ एक मन्दिर है गहरी ' दक्षिणा लेते हैं। जो नहीं देता है उसके जिसकी देखरेख करनेवाला या पूजन प्रक्षाल करन- सिर हो जाते हैं, भोजन नहीं करते हैं, और वाला कोई नहीं है । वहाँके जमींदार कहते हैं कि इस मन्दिरकी प्रतिमायें सरकारमें सूचना करके ले
स्थामादिकी अनुकूलता हुई तो उससे डंडे मारकर जाओ। परन्तु यहाँके (शिवपुरके ) भाई इस बात
भी बसूल कर लेते हैं ! इनके नौकर चाकर और पर ध्यान नहीं देते।"
छड़ीदार पुलिसके सिपाहियोंसे किसी बातमें कम
नहीं । इनके कर भी कई तरहके हैं । दक्षिणके - - शिवपुरके समान और भी कई स्थानोंमें यह कई भट्टारक श्रावकोंको विधवाओंके साथ ब्याह बात देखी गई है कि दिगम्बरी मन्दिरों में श्वेताम्बरी करनेकी और विकाहसम्बन्ध रद करनेकी ( तलाक प्रतिमायें और श्वेताम्बरी मन्दिरोंमें दिगम्बरी प्रति. ,
' की ) आज्ञा दिया करते हैं और इस कार्यके लिए मायें रहती थीं। कई स्थानोंमें तो अब भी हैं।
. जो टैक्स मुकर्रर है उससे हजारों रुपयोंकी प्राप्ति इससे यह अनुमान होता है कि दिगम्बरी और श्वेताम्बरी भाइयों में इस समय-इस शिक्षा और करते हैं । पंचायती कामकाजोंमें भी इनका दखल सभ्यताके दिनोंमें-जितना वैर विरोध बढ गया है. रहता है। उनके बड़े बड़े फरमान निकला करते उतना सौ डेड सौ वर्ष पहले नहीं था। उस समय है और उनके मारे श्रावकगण थर थर काँपते हैं। दोनों हिल मिलकर रहते थे और धार्मिक बातोंमें ये प्रतिवर्ष किसी चुने हुए स्थानमें चातुर्मास किया भी एक दुसरेके बाधक नहीं होते थे।
करते हैं और इस समय इनके खूब गहरे हो जाते हैं।
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अङ्क ८]
विविध प्रसङ्ग ।
३७३
ये अपनेको परम निर्ग्रन्थगुरुओंके उत्तराधिकारी बनाना लाभकारी है । ये बेचारे नाम मात्रके समझते हैं और अपनी पूजा राजाओं और ऋषि- ‘जैन ' हैं; ये नहीं जानते कि जैनधर्ममें देव योंके तुल्य कराते हैं। जब ये भोजन करनेके और गुरुका स्वरूप कैसा माना है। इसी कारण लिए पूरे साज-सरंजामके साथ श्रावकके घर ये भट्टारकोंकी शिकार बन रहे हैं । भट्टारकोंकी जाते हैं तब आगे आगे बारोठ दुहाई देता चलता वर्तमान अवस्था भी दिगम्बर जैनधर्म के लिए बड़े है-'दिल्ली-गादी, जैनके राजा श्री १००८ भट्टारक भारी कलंककी बात है। परन्तु जब तक श्रावविजयकीर्तिजी महाराज ' आदि । भोजनशा.
की बात मान । भोजनमा कांकी अवस्था नहीं सुधरी है. तब तक इनके लाके द्वारपर पहुँचकर दूध, दही, इत्रमिश्रित जल सुधरनेकी आशा करना व्यर्थ है। 'आदिसे ये अपने चरण धुलवाते हैं, और फिर ७ जैन भ्रातृसमाज। . भीतर जाकर कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं।
इटावेके बाबू चन्द्रसेनजी वैद्य और उनके कुछ
हर इसी समय इनके शिष्यों से कोई पण्डित-'ओह्रीं
मित्रोंने 'जैनभ्रातृसमाज' नामकी एक एक नूतन श्रीभट्टारक विजयकीर्तिदेवाय जलं निर्विपामीति
संस्था स्थापित की है। जैनधर्मको पालनेवाली तमाम स्वाहा ? आदि पाठ बोलकर श्राविकाओंसे अष्ट द्रव्योंद्वारा पूजा करवाता है।
जातियोंमें परस्पर रोटी-बेटीव्यवहार होना उचित
है, इस विषयका आन्दोलन करनेके लिए उक्त ___ भट्टारकोंकी ये और इस तरहकी और भी
संस्थाने जन्म लिया है । जहाँ तक हम जानते हैं, अगणित लीलायें हैं, जिन्हें सुनकर और देखकर
इस विषयमें जैनसमाजके प्रायः सभी विद्वान्-पुराने बड़ा ही दुःख होता है। जिस सम्प्रदायमें तिलतुष मात्र परिग्रह रखनेको भी अक्षम्य अपराध
और नये दोनों दलके-सहमत हैं। आदिपुराण आदि
पुराण-ग्रंथोंका मत भी-जो इस विषयके प्रधान बतलाया था, उसीके गुरु आज इस अवस्थाको पहुँच गये हैं और फिर भी पूजे जाते हैं, जैन
प्रतिपादक हैं-इसके प्रतिकूल नहीं हैं । इस समय धर्मकी इससे आधिक दुर्दशा और क्या हो सकती जनाकी जितनी जातियाँ है, वे सब प्रायः वैश्यवर्णकी है ? हम देखते हैं कि जैनसमाजके विद्वानोंका,
हैं । एक दो जातियाँ ऐसी हैं जिनके विषयमें अनुधनियोंका और धर्म धर्मकी पुकार मचानेवालोंका
मान होता है कि वे जैनधर्म धारण करनेके पहले इस ओर जरा भी ध्यान नहीं है । उन्हें अपने इन शुद्र रही होंगी, परन्तु इस समय उनके आचरण और गुजरात, बिहार आदि प्रान्तोंके भोले भाइयोंकी व्यापार आदि वैश्योंके ही समान हैं, अतएव उन्हें अन्धश्रद्धा और मूर्खता पर जरा भी तरस नहीं वैश्य ही गिनना चाहिए । ऐसी दशामें आदिपुराण आता है। उन्होंने तेरहपन्थके उस 'मिशन' के. इन सबके पारस्परिक विवाहादि-व्यवहारका कभी कार्यको स्थगित कर दिया है जिसने सारे हिन्दी- विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि वह तो आज्ञा भाषाभाषी प्रान्तोंको भट्टारकोंकी चुंगलमेंसे सदाके देता है कि ब्राह्मण चारों वर्णकी कन्याओंके साथ, लिए मुक्त कर दिया है । उस 'मिशन 'को अब क्षत्रिय क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र कन्याओं के साथ, और फिरसे सचेत करना चाहिए और इन प्रान्तोंमें वैश्य वैश्य-शूद्रकन्याओंके साथ विवाह कर सकता शिक्षाप्रचारके द्वारा, उपदेशोंके द्वारा, धर्मके सच्चे है। कमसे कम इस बातका विरोधी तो कोई भी स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थोंके द्वारा, तथा पुराना नया जैन शास्त्र नहीं है कि खण्डेलवाल
और भी जो जो उपाय योग्य हों उनके द्वारा अग्रवालके साथ या परवार पद्मावती पुरवारके लोगोंकी अन्धश्रद्धाको दूर करना चाहिए। हमारी साथ विवाहसम्बन्ध न करे। गरज यह कि हमारी समझमें दूसरे धर्मवालोंको शास्त्रार्थ आदिके द्वारा धार्मिक आज्ञायें तो इस प्रथाके अनुकूल हैं: यदि जैन बनानेका यत्न करना उतना लाभकारी नहीं कोई प्रतिकूलता है तो गतानुगतिकताकी है। जितना अपने इन भाइयोंको सच्चे देवगुरुका श्रद्धानी संस्थाको इसीके ऊपर विजय प्राप्त करनी होगी
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जैनहितैषी
[भाग १३
काम करनेका उत्साह लार्ड मांटेगू भारतमें.
और इसका सबसे अच्छा उपाय आन्दोलन है। अन्याय है कि एक व्यक्तिकी स्वाधीनता हरण कर इस विषयके लेख लिखवाना, उन्हें समाचारपत्रोंमें ली जाती है, वह वर्षोंतक जेलमें सडाया जाता है, प्रकाशित कराना, छोटे छोटे ट्रेक्टोंके रूपमें बहुलताके परन्तु उसे यह नहीं बतलाया जाता कि उसका साथ बॉटना, जगह जगह सभा सुसाइटिया में व्याख्या- अपराध क्या है । यदि सेठीजी दोषी हैं. न दिलवाना, पंचायतियोंको और उनके मुखियोंको उन्होंने कोई अपराध किया है, तो क्यों समझाकर अपनी ओर करना, सम्मतियोंका संग्रह नहीं उन पर मुकद्दमा चलाया जाता और क्यों वे करना, और कमसे कम पाँच हजार सम्मतियोंके एक- दोषी सिद्ध नहीं किये जाते । क्या इन तीन वर्षाम वित हो जाने पर इस तरहके दश बीस विवाहोंको भी सरकार उनके विरुद्ध प्रमाणोंको संग्रह न कर उदाहरणके लिए करा देना, यही अथवा इसीस सकी ? हमारा विश्वास है कि सेठीजी निर्दोष मिलती जलती पद्धति आन्दोलनकी होनी चाहिए। हैं, उन्होंने कोई अपराध नहीं किया. वे राजकर्मबाबु चन्दसेनजी बड़े उद्योगी और परिश्रमी पुरुष चारियों के किसी बहुत बड़े भ्रमके कारण ही संकट हैं। हमें आशा है कि वे अपनी इस नूतन संस्थाको भोग रहे हैं। एक काम करनेवाली संस्थाके रूपमें चलावेगे, नाम जैनसमाजको चाहिए कि वह अपने इस निः करनेवाली अन्यसंस्थाओंके रूपमें नहीं। जैनसमाजके
स्वार्थ सेवकको भूल न जाय । भारतमंत्री नवयवकोंको-जिनके रक्त में काम करनेका उत्साह
आ रहे हैं । श्रीमती है--पस कार्यमें योग देना चाहिए और इसके उद्देश्यों
३६२चा- एनी बीसेण्ट, उनके साथी और मि० शौकत का घर घर प्रचार घरना चाहिए ।
अली आदि राजनीतिक नजरबन्द लोग छोड़े जा ८ पं० अर्जुमलालजी सेठीका कष्ट । रहे हैं, और भी बहुतसे राजनीतिक कैदी छोड़े जा
अपना सर्वस्व लगाकर जैनसमाजकी सेवा करने- यँगे, ऐसी खबरें सुन पड़ रही हैं। ऐसे समयमें वाले पं० अर्जुनलालजी सेठी बी. ए. के दुःखोंका जैनसमाजको सेठीजीके विषयमें फिर आन्दोलन अन्त अब तक नहीं आया। तीन वर्ष होनेको आये करना चाहिए और एक डेप्यूटेशन लेकर लार्ड वे अभीतक बिना किसी अपराधके जयपुरकी जेलमें मांटेगूसे मिलना चाहिए । वे उदार राजनीतिज्ञ सुने पडे हुए अपने बहुमूल्य जीवनको व्यर्थ व्यतीत जाते हैं। कोई कारण नहीं कि वे हमारी उचित कर रहे हैं। सुना है, कुछ समयसे उनके कष्ट और प्रार्थना पर ध्यान न दें, और सेठीजीको इस अभी अधिक बढ़ गये हैं । राजकर्मचारियोंकी वक्र- न्यायसे मुक्त करनेके लिए भारत सरकारसे सिफा. दृष्टिके कारण उन्हें जो थोड़े बहुत सुभीते मिले थे, रिश न करें। वे भी अब नहीं रहे हैं। उनका स्वाथ्य बिगड़ हम अपने समस्त देशभक्त नेताओंका ध्यान गया है और यदि वे शीघ्र न छोडे जायेंगे तो डर ।
भी इस ओर आकर्षित करते हैं । उन्हें श्रीमती है कि उनका मस्तक भी न बिगड़ जाय ! उनकी मानसिक अवस्था पहले की अपेक्षा बहुत ही खराब
बीसेण्ट और उनके साथियोंको ही बन्धमुक्त कराके है। मालूम नहीं सरकारको हन बातोंकी कुछ निश्चिन्त न हो जाना चाहिए। क्या सेठीजी और खबर है या नहीं।
उन्होंके समान और भी जो सैकड़ों देशसेवक विना - हमें यह कहनेमें कुछ भी संकोच नहीं है कि किसी अपराधके कैद हैं उनकी स्वाधीनताका कुछ श्रीयुत सेठीजीके मामलेका उत्तरदायित्व यद्यपि मूल्य ही नहीं है ? क्या हमारे आन्दोलनोंमें भी गोरे जयपुर राज्यपर है, परन्तु यह कह देनेसे भारत रंगको ही अधिक प्रतिष्ठा दी जायगी ? देशके प्रत्येक गवर्नमेंट निर्दोष नहीं ठहर सकती । यद्यपि इसमें व्यक्तिकी--छोटे बड़ेकी स्वाधीनताकी रक्षा करना उसका कोई प्रत्यक्ष हाथ नहीं है; परन्तु वास्तवमें हमारा धर्म होना चाहिए । परोक्ष रूपसे वही इसकी विधाता है । यह कितना बड़ा ..
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pantasaitanistandardNasonsistarsesedenatanderwasitarasnotercitrusterstocdrashesitashastries ३ सर्वार्थसिद्धि अर्थात् तत्वार्थसूत्रकी आचार्य पूज्यपाद कृत संस्कृत टीका बहुत
दिनोंसे मिलती नहीं थी । अब यह फिरसे छपाई गई है। अबकी बार कपड़ेकी जिल्द इ बधाई गई है । मूल्य दो रुपया । आत्मप्रबोध-श्रीकुमारनामक कविका बनाया हुआ एक है 1 अप्रसिद्ध ग्रन्थ भाषाटीका सहित छपाया गया है । आध्यात्मिक ग्रन्थ है । मूल्य बारह आने।
मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, बम्बई।
นางละเวงนี้เปนงในดินสินสินสินในดินเสียงปิด
sustastastrotestandidatestastendinadiraimastatusfrJMARATRAM
साहित्य पत्रिका
प्रतिभा। ( संपादक, श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा) प्रतिभाका छटा अङ्क शीघ्र प्रकाशित होनेवाला है । यह प्रति अँगरेजी मासके पहले सप्ताहमें प्रकाशित होती है। यदि आप साहित्यसंबन्धी लेख है ई पढ़ना चाहते हैं, तो प्रतिभाके ग्राहक बनिये । प्रतिभा रसमयी कवितायें। है और शिक्षाप्रद पर चुभती हुई गल्पें भी प्रकाशित होती हैं । वार्षिक मूल्य २)। है है । हम इसके विषयमें अधिक न कहकर हिन्दीकी सर्वश्रेष्ठ पत्रिका सरस्वतीकी सम्मति नीचे उद्धृत किये देते हैं:
“प्रतिभा-यह एक नई मासिक पत्रिका है । मुरादाबादके लक्ष्मीई नारायण प्रेससे निकली है । हिन्दीके प्रसिद्ध लेखक पं० ज्वालादत्तजी शर्मा। । इसके संपादक हैं । सरस्वतीके पाठक आपसे खूब परिचित हैं । वे जानते र होंगे कि शर्माजी सरस, बामुहाविरा और साथ ही प्रौढ भाषा लिखने में कितने ई पटु हैं। ऐसे सुयोग्य संपादकके तत्वावधानमें आशा है प्रतिभाका जरदोत्तर। विकास होगा।
इसका पहला अङ्क अप्रैल १९१० में प्रकाशित हुआ है । उसमें छोटे । बड़े १० लेख और ६ कवितायें हैं । साहित्य, शिक्षा, उद्योग धन्धा, विज्ञान, है जीवनचरित और आख्यायिका इतने विषयों पर इसमें लेख प्रकाशित हुए हैं। लेखोंके संवन्धमें सामयिकता और रोचकताका बहुत ध्यान रक्खा गया है।"
पत्रव्यवहार करनेका पतामैनेजर 'प्रतिभा ' लक्ष्मीनारायण प्रेस,
. मुरादाबाद। rarwarerarmaerarmeremermaneangrerarminorrearrararamanenrngongress
Kasuttastavitautastestostouttastastavitadiastawstartkarse
Ponscenamanennsonanmaninonenesmeworman
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(२)
देशी, पवित्र, स्वादिष्ट, पाचक दवाइयोंका अपूर्व संग्रह
दिलबहार चूरन (खाना शीघ्र हजम करने व भूख बढ़ाने वाला)
किसी भी उत्तम चूर्णमें तीन गुण होना आवश्यक है ( १ ) स्वादिष्ट यानी जायकेदार (२) पाचन करनेवाला और ( ३) भूख बढ़ानेवाला । हर्ष है कि इस चूर्णमें ये तीनों गुण भरपूर हैं । बहुतसे लोगोंको रोज़ चूरन खानेकी आदत होती है उनके लिये भी यह बड़े कामकी चीज है । इसकी खुराक १॥ माशेकी है, परन्तु जायकेदार होनेसे अगर थोड़ा ज्यादा भी खा लिया जावे तो गर्मी वगैरह कोई हानि नहीं करता है । क्योंकि चूर्ण होनेपर भी हमने इसमें किसी तीक्ष्ण चीजका प्रयोग नहीं किया है। सब दवाइयां मादिल गुणवाली हैं, इसलिये बीमार आदमी भी खुशीसे खा सकते हैं । पवित्र औषधियोंके सम्मेलन के कारण सभी सम्प्रदायवाले बेखटके खा सकते हैं । हम बहुत बढ़कर बात नहीं कहना चाहते हैं । इसमें स्वादिष्ट, खाना जल्द हजम करना, भूख बढाना तीन विशेष गुण हैं, उनके लिये हम दावेके साथ कहते हैं कि इन बातोमें आपको कभी धोखा नहीं होगा तिसपर भी
आपके विश्वासके लियेहमने इसके एक २ तोलेके नमूनेके पैकेट बनाकर रखे हैं। यदि आप इस चूर्णकी परीक्षा करना और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो एक कार्ड भेजकर बिना डांक खर्चके एक पैकेट मंगाकर परीक्षा कर लीजिये, फिर आपका मन भरे तो पूरी शीशी मंगाकर लाभ उठाइये । बस इस से अधिक हम और कुछ भी नहीं कह सकते हैं । फी शीशी चार औंस ( करीव आध पाव ) वाली की कीमत १) डांक खर्च ।), तीन शीशी २॥ डाक खर्च ।) आना।
मिलने का पता:चन्द्रसेन जैन वैद्य,
चन्द्राश्रम, इटावह यू. पी.। {इस अङ्कके रवाना होनेकी तारीख-२८-९-१७ ई०]
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हमारे छपाये हुए नये ग्रन्थ ।
वृन्दावन कृत चौवीसी पाठ । यह ग्रन्थ बम्बईके सुन्दर टाइपमें अच्छे कागजों पर फिरसे छपाया गया है। छपा भी शुद्धतापूर्वक है । जिन्हें और कहींकी छपाई पसन्द नहीं उन्हें अब इस बम्बईके छपे हुए विधानको या पूजा पाठको अवश्य मँगा लेना चाहिए। मूल्य १०)
जैनपदसंग्रह। कविवर दौलतराम कृत पहला भाग और भागचन्दजी कृत दूसरा भाग पदसंग्रह फिरसे छपाये गये हैं । वहत दिनोंसे ये मिलते नहीं थे । मूल्य पहले भागका ।) दूसरेका ।)।
बुधजन सतसई । अर्थात् बुधजनजीके उपदेश, नीति, सुभाषित आदि सम्बन्धी ७०० दोहे है। यह पुस्तक दुवारा छपाई गई है । मूल्य छह आने ।
जैनवालबोधकके दोनों भाग । श्रीयुत पं० पन्नालालजीके ये दोनों भाग जैनपाठशालाओंमें बहुत ही प्रचलित रहे हैं । बहुत दिनोंमे समाप्त हो गये थे, अब फिरसे छपाये गये हैं। पहले भागसे असंयुक्त और संयुक्त अक्षरोंके शब्दोंका शुद्ध शुद्ध लिखना पढ़ना अच्छी तरह आ जाता है । दूसरे भागमें धामिक कथाआके और धर्मतत्त्वोंके अच्छे अच्छे पाठ हैं । मूल्य पहले भागका ।) और दूसरे भागका ।।।
दर्शनमार। . आचार्य देवसेनमूरिका यह ऐतिहासिक ग्रन्थ मूल, संस्कृतच्छाया, हिन्दी अर्थ और विस्तृत विवेचन सहित हाल ही छपकर हुआ तैयार है । इसका सम्पादन जैनहितैपीके सम्पादकने किया है । इसमें बौद्ध, आजीवक, श्वेताम्बर, काष्ठासंघ, द्राविडसंघ, यापनीयसंघ, माथुरसंघ आदि अनेक धर्मसम्प्रदायोंका इतिहास और उनकी मानतायें बतलाई हैं । विवेचन बहुत ही परिश्रमसे लिखा गया है। प्रत्येक इतिहासप्रेमीको यह पुस्तक मँगाकर पढ़ना चाहिए । मूल्य ।)
रत्नकरण्डश्रावकाचार पद्यानुवाद।। पं० गिरिधर शर्माकृत । खड़ी बोलीके सुन्दर पद्योंमें रत्नकरण्डका सुन्दर सरल अनुवाद । जैनपाठशालाओंमें पढ़ाये जाने योग्य । मूल्य 2)..
माणिकचन्द ग्रन्थमालाके ग्रन्थ । सब ग्रन्थ ठीक लागनके मूल्य पर बेचे जाते हैं । सबसे सस्ते हैं । प्रत्येक मंदिरमें इनकी एक एक प्रति अवश्य रखना चाहिए और संस्कृतके पण्डितोंको वितरण करना चाहिए:
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________________ (2) 1 सागारधर्मामृत सटीक आशाधर कृत / ) 6 प्रद्युम्नचरित महासेनाचार्यकृत // ) 2 लघीयस्त्रयादिसंग्रह अकलंभट्टकृत / ) 7 आराधनासार सटीक देवसेनाचार्य कृत / ) / / 3 पाश्वनाथचरित वादिराजसूरि कृत // ) 8 जिनदत्तचरित्र, गुणभद्र कृत 4 विक्रान्त कौरवीय नाटक हस्तिमल्ल कृत।) 5 चारित्रसार चामुण्डराय कृत 5 मैथिल परिणय नाटक , / ) 10 प्रमाणनिर्णय वादिराजसूरि कृत बच्चोंके सुधारनेके उपाय / इसमें बच्चोंकी आदते सुधारने, उन्हें सदाचारी और विनयशील बनाने, बुरेसे बुरे स्वभावके लड़कोंको अच्छे बनाने, उपद्रवियों और चिड़चिड़ोंको शान्त शिष्ट बनानेके अमोघ उपाय बतलाये गये हैं / प्रत्येक माता पिताको इसे पढ़ डालना चाहिए / इसके अनुसार चलनेसे उनका घर स्वर्ग बन जायगा / मू० // ) कोलम्बस / - अमेरिका खण्डका पता लगानेवाले असम साहसी कर्मवीर कोलम्बसका आश्रर्यजनक और शिक्षाप्रद जीवनचरित / अभी हाल ही छपकर तैयार हुआ है / नवयुवाओंको अवश्य पढ़ना चाहिए / मूल्य / / / ) मानवजीवन / * सदाचार और चरित्रसम्बन्धी अनेक अँगरेजी, मराठी, गुजराती, बंगला पुस्तकोंके आधारसे यह ग्रन्ध रचा गया है। सदाचारकी शिक्षा देनेके लिए और सच्चे मनुष्योंकी सृष्टि करनेके लिए यह ग्रन्थ बहुत अच्छा है / इस ग्रन्थक विना कोई घर, कोई पुस्तकालय, और कोई मन्दिर न रहना चाहिए / भाषा बहुत ही सरल और स्पष्ट है / मूल्य 1-) कपड़ेकी जिल्दका 1 / / उस पार / प्रसिद्ध नाटककार द्विजेन्द्रलालरायके एक सामाजिक नाटकका अनुवाद / स्टेज पर खेलनेल!यक अपूर्व नाटक है / हिन्दी में इसकी जाड़का एक भी नाटक नहीं है / प्रारंभमें एक विस्तृत भूमिकाके द्वारा इस नाटकके प्रत्येक पात्रके चरित्रकी खूबियां दिखलाई गई है / मूल्य सवा रुपया / / __ ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग और द्वितीय भाग / लेखक, श्रीयुत बाबू जुगल किशोरजी मुख्तार / पहले भागमें जिनसमात्रिवर्णाचार, उमास्वामीश्रावकाचार और कुन्दकुन्दश्रावकाचार इन तीन ग्रन्थोंकी और दूसरे भागमें भद्रबाहुसंहिताकी समालोचना प्रकाशित की गई है / ये सब लेख जनहितेषीमें निकल चुके हैं / इनका खूब प्रचार होना चाहिए / मूल्य लागत मात्र रक्खा गया है / पहले भागका / और दूसरे भागका / ) __ मोक्षमार्गकी कहानियां / रत्नकरण्डश्रावकाचारमें जिन जिन स्त्री पुरुषों के 'दाह' आय हैं, उन सबकी 23 कथाओंका संग्रह / यह हाल ही छपी है / मूल्प सात आने / __ जैननित्यपाठसंग्रह / इसमें नित्यके उपयोगमें होनेवाले 33 भाषाके पाठोंका और तत्त्वार्थ तथा भक्ता. मर, इन दो कृत पाठोंका संग्रह है। कागज अच्छा, छपाई अच्छी / पहले जो संग्रह बम्बई में छपा था, उससे इसमें कई पाठ अधिक है / मूल्य बारह आने / मैनेजर, जैनग्रन्थरत्सुकर कीयालयागिरगांव-बम्बई. For Personal & Private Use Only