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________________ अङ्क ८] पुस्तकालय और इतिहास। - ३२९ इमारे यहाँ प्रायः अभाव है। संस्कृतके पण्डित तैयार हुआ और न हमारे शिक्षित ही टससे और अँगरेजीके ग्रेज्युएट दोनों ही इस विषयमें मस हुए । यह कितने दुःखकी बात है कि निश्चेष्ट हैं । संस्कृत के पण्डित तो इस विषयको हमारे कर्तव्यको दूसरे लोग स्मरण कराते हैं कोई कामकी चीज ही नहीं समझते हैं; बल्कि कोई और फिर भी हम कार्यतत्पर नहीं होते हैं ! कोई तो अपनी बढ़ी हुई मूर्खताका प्रदर्शन कर- इस विषयमें हम धनिकोंको उतना अधिक नेके लिए इतिहासका मखौल उड़ाया करते हैं। दोषी नहीं समझते हैं, जितना कि शिक्षितोंको रहे बाबू लोग, सो जैनसमाजके दुर्भाग्यसे शिक्षा- समझते हैं। क्योंकि सर्वसाधारणके समान धनिक प्रचार, समाजसुधार आदिके कार्यों में भी जब वे भी, इतिहासका वास्तविक महत्त्व क्या है, उसे आगे नहीं बढ़ रहे हैं और खाने पीने चैन अभी तक नहीं समझ सके हैं । दोषी तो वे हैं, उड़ाने' के लिए ही जब उनका जन्म हुआ है तब जो इतिहासकी महिमाको अच्छी तरह जानते इस सिरपच्चीके काममें भला वे क्यों जान लड़ाने हैं और फिर भी इस दिशामें कुछ भी प्रयत्न लगे ? इस समय अकेले दिगम्बर जैनसमाजमें नहीं कर रहे हैं । इस तरह चुप बैठे हैं, मानों ही कई सौ ग्रेज्युएट मौजूद हैं; परन्तु देखते हैं करनेके लिए अब कुछ बाकी ही नहीं है। कि इतिहासके क्षेत्रमें उनमेंसे अब तक एक भी हमें विश्वास है कि ये लोग यदि कुछ हाथ आकर खड़ा नहीं हुआ है। जिस अँगरेजी शिक्षा- पैर हिलायँगे, तो धनिकोंकी ओरसे इस कार्यमें ने इस देशमें इतिहासके ज्ञानका पुनरुद्धार किया आर्थिक सहायता मिलना कुछ कठिन नहीं है। है, उसी शिक्षाको पाकर जैनसमाजके बाबुओंने उन्हें इस विषयका महत्त्व समझाया जायगा, तो इतिहासकी ओर आँख उठाकर देखनेकी भी कसम यह संभव नहीं कि उनकी थैलीके बन्धन दीले" ले रक्खी है । इसे हम अपना दुर्भाग्य न कहें तो न पढ़ें। और क्या कहें ? जहाँतक हम जानते हैं, जैनसमाजमें अधिक कोई दो ढाई वर्ष पहले सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ नहीं तो २०-२५ नये ग्रेज्युएट प्रतिवर्ष ही होते विन्सेंट स्मिथ साहबने ‘पुरातत्त्वकी खोज होंगे और इनमेंसे पाँच सात युवक अवश्य ऐसे करना जैनोंका कर्तव्य है,' नामका एक लेख होते होंगे जिनकी दूसरी भाषा संस्कृत है । प्रकाशित कराया था और उसमें जैनसमाज- यह क्रम कई वर्षोंसे जारी है। यदि हम आशा के धनिकों और शिक्षितोंका ध्यान इस ओर करें कि इनमेंसे अधिक नहीं, पर दो चार नवयुआकर्षित किया था। इस लेखको जैनहितै- वक ही ऐसे निकल आयेंगे जो अध्यापकी, पीके ग्यारहवें भागके ऐतिहासिक अंमें हमारे वकालत आदि निर्वाहपयोगी कार्य करते हुए पाठक भी पढ़ चुके हैं । लेख बड़ा ही महत्त्वका अबकाशके समय इस विषयकी ओर ध्यान देंगे . था और उसमें जैनोंके कर्तव्यका बड़ी मार्मि- और धीरे धीरे अपने अध्ययन और अन्वेषणकतासे स्मरण कराया गया था। परन्तु हम बलको बढ़ाकर जैनधर्मका उपकार करेंगे तो देखते हैं कि जैनोंकी निश्चेष्टताकी सुदृढ़ दीवा- कुछ अनुचित न होगा। इस समय हमारे कई, ल पर उस लेखके शब्दोंने पानीकी एक छोटीसी छात्राश्रम ( बोर्डिंग ) ऐसे चल रहे हैं, जिनमें बौछारसे आधिक काम नहीं किया । न कोई जैनधर्मकी शिक्षा दी जाती है, और कमसे कम धनिक ही इस काममें धन खर्च करनेके लिए. उनका चित्त जैनधर्मकी ओर तो अवश्य आक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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