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जैनहितैषी
[भाग १३
कि वे अपनी मुद्रणविरोधी 'बात' को रखनेके समझमें इन सब संस्थाओंमें एक एक मध्यमलिए हस्तलिखित ग्रंथोंका एक ऐसा पुस्तकालय श्रेणीका पुस्तकालय होना चाहिए, जिसमें कमसे खोल दें और उसके साथ ही ग्रन्थोंके लिखा- कम प्रसिद्ध ग्रन्थोंकी एक एक प्रति अवश्य रहे । ये नेका एक ऐसा कार्यालय खोल दें, जिससे इस संस्थायें जब हजार हजार रुपया मासिक अपने समय जितने छापेके विरोधी हैं और समर्थ निर्वाहके लिए खर्च करती हैं तब पाँचसौ रुपया हैं, कमसे कम वे तो सदा हस्तलिखित ग्रन्थोंके वार्षिक ग्रन्थसंग्रहके लिए भी खर्च कर सकती हैं। उपासक बन रहें। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो उनका विरोध व्यर्थ बकवादके सिवाय और अब हमें अपने प्राचीन पुस्तकालयोंके उद्धा. कुछ नहीं है।
रकी ओर भी लक्ष्य देना चाहिए। इस समय
भी हमारे कई ऐसे पुस्तकालय बचे हुए हैं कि यदि कोई उत्साही और कार्यपटु पुरुष इस यदि हम उनका उद्धार कर दें, उनकी व्यवस्था महान कार्यके लिए अपना जीवन दे दे, एक ठीक कर दें तो बहुत बड़ा काम हो जाय। विशाल पुस्तकालयकी स्थापनाको अपने जीव- नागौर, कारंजा, ईडर, आमेर, कोल्हापुर, आदिके नेका व्रत बना ले और निरन्तर इसके लिए भण्डारोंमें बहुत बड़ा ग्रन्थसमूह सुना जाता है। उद्योग करे, तो उसे अवश्य सफलता होगी और मूडबिद्री, श्रवणबेलगुल, सोनागिर, महुआ, वह अमर हो जायगा । हम देखते हैं कि शिक्षा- सोजित्रा, प्रतापगढ़, लातूर, मलखेड़, दिल्ली, प्रचार आदिके कार्योंमें जब कई सज्जन लगे हुए आदि स्थानोंमें भी छोटे मोटे पुस्तकभण्डार हैं । हैं, तब इस कार्यमें लगनेके लिए यह बात नहीं यदि इन सब स्थानोंके पंच तथा अधिकारी चाहें है कि कोई निकलेगा ही नहीं । बात यह है कि तो अपने भण्डारोंके ग्रथोंकी सूची बनाकर उन्हें अभीतक इसकी आवश्यकताकी ओर लोगोंका हिफाजतसे रख सकते हैं और यदि कहींसे कोई ध्यान ही आकर्षित नहीं किया गया है-इस किसी ग्रन्थको मँगाना चाहे तो उसके लिए उस विषयकी चर्चा ही नहीं है।
ग्रन्थकी नकल कराके भेज सकते हैं। उनमें इस
प्रकारकी चाह उत्पन्न होने लगे, इसके लिए सभा - इस एक ही पुस्तकालयसे हमें सन्तोष न सुसाइटियोंको, उपदेशकोंको और धनियोंको होगा । प्रत्येक बड़े नगरमें और तीर्थक्षेत्रोंमें प्रयत्न करना चाहिए । इस विषयके प्रस्ताव भी पुस्तकालय स्थापित होने चाहिएँ । यह बड़े हमारी सभाओंमें प्रतिवर्ष किये जाने चाहिए। दःखकी बात है कि हमारी शिक्षासंस्थाओंमें बल्कि हमारी किसी प्रधान सभाको इसके लिए -काशी, मोरेना, इन्दौर, मथुरा आदिके विद्या- निरन्तर अमली कार्रवाई करते रहनेके लिए भी लयोंमें एक भी अच्छा पुस्तकालय नहीं है। इनमें कोई व्यवस्था कर देनी चाहिए। इस उद्योगसे शिक्षा प्राप्त करनेवाले विद्यार्थियोंको और ग्रन्थ तो हमारे कई पुराने पुस्तकालय फिर खड़े हो सकते मिलेंगे ही कहाँसे, जो पाठ्यग्रन्थ हैं, याद छपे हैं और सर्वसाधारणको उनसे बहुत कुछ लाभ हए नहीं हैं तो वे भी उन्हें कठिनाईसे मिलते पहुँच सकता है। हैं। ऐसी दशामें यदि इन विद्यालयोंसे निकले हुए छात्रोंका ज्ञान बहुत ही परिमित और संकु- इतिहासकी ओर भी जैनसमाजका ध्यान बहुचित रहे तो आश्चर्य ही क्या है ? हमारी त ही कम गया है । इस विषयके विद्यार्थियोंका
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