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________________ ३५२ - जैनहितैषी [भाग १३ रानीने समझा राजा मुझे प्राण दे देनेका बादशाहके सिपाही राजाकी तरफ लपके । संकेत कर रहे हैं। राजाने नैराश्यपूर्णभावसे रानीकी ओर देखा । चप्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली। रानी क्षणभर अनिश्चित रूपसे खड़ी रही। लेकिन सारन्धा-मरते दमतक न टालँगी। संकटमें हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान् हो राजा-यह मेरी अन्तिम याचना है। इसे जाती है । निकट था कि सिपाही लोग राजाको अस्वीकार न करना। पकड़ लें कि सारन्धाने दामिनीकी भाँति लपक सारन्धाने तलवारको निकालकर अपने वक्ष- कर अपनी तलवार राजाके हृदयमें चुभा दी। स्थल पर रख लिया और कहा-यह आपकी प्रेमकी नाव प्रेम सागरमें डूब गई। राजाके आज्ञा नहीं है मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि हृदयसे रुधिरकी धारा निकल रही थी, पर चेहरे मरूँ तो यह मस्तक आपके पदकमलों पर हो। पर शांति छाई हुई थी। चम्पतराय--तुमने मेरा मतलब नहीं समझा। कैसा करुण दृश्य है ! वह स्त्री जो अपने क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओंके हाथमें छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्लीकी गलि . पति पर प्राण देती थी, आज उसकी प्राणघायोंमें निन्दाका पात्र बनूं ? तिका है। जिस हृदयसे आलिङ्गित होकर उसने - रानीने जिज्ञासादृष्टिसे राजाको देखा । वह यौवन सुख लूटा, जो हृदय उसकी अभिलाषा ओंका केन्द्र था, जो हृदय उसके अभिमानका उनका मतलब न समझी। पोषक था, उसी हृदयको आज सारन्धाकी तल१. राजा-मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ। वार छेद रही है । किस स्त्रीकी तलवारसे ऐसा रानी-सहर्ष माँगिए। काम हुआ है ! राजा-यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है। जो कुछ कहूँगा, करोगी? ___ आह ! आत्माभिमानका कैसा विशादमय अन्त है। उदयपुर और मारवाड़के इतिहासमें भी रानी-सिरके बल करूँगी। आत्मगौरवकी ऐसी घटनायें नहीं मिलतीं । राजा-देखो-तुमने वचन दिया है । इन- बादशाही सिपाही सारन्धाका यह साहस कार न करना। और धैर्य देखकर दंग रह गये । सरदारने आगे रानी-(कॉपकर ) आपके कहनेकी देर है। बटकर कहा-रानी साहबा ! खुदा गवाह है; राजा-अपनी तलवार मेरी छातीमें चुभा दो। हम सब आपके गुलाम हैं । आपका जो हुक्म रानीके हृदय पर वज्रपात सा हो गया । हो उसे ब सरो चश्म बजा लायेंगे । बोली-जीवननाथ !-। इसके आगे वह और सारन्धाने कहा-अगर हमारे पुत्रों से कोई कुछ न बोल सकी-आँखोंमें नैराश्य छा गया। जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना । राजा-मैं बेड़ियाँ पहननेके लिए जीवित रहना नहीं चाहता। यह कह कर उसने वही तलवार अपने रानी-हाय मुझसे यह कैसे होगा! हृदयमें चुभा ली । जब वह अचेत होकर पाँचवाँ और अन्तिम सिपाही धरती पर . धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चन्पतगिरा । राजाने झुंझलाकर कहा--इसी जीवट " : रायकी छाती पर था। पर आन निभानेका गर्व था ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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