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________________ ३५१ अङ्क ८] - रानी सारन्धा। समस्त सेना गरजती हुई चली आ रही है। जो उनके हाथमें इन्द्रका वज्र बन जाता था, गगनमण्डल इस भयसे काँप रहा था। रानी इस समय जरा भी न झुका । सिरमें चक्कर सारन्धा घोड़े पर सवार, चम्पतरायको लिए, आया, पैर थर्राये, और वे धरतीपर गिर पड़े। पच्छिमकी तरफ चली जाती थी। ओरछा दस भावी अमंगलकी सूचना मिल गई । उस पंखकोस पीछे छूट चुका था, और प्रतिक्षण यह रहित पक्षीके सदृश जो साँपको अपनी तरफ अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम आते देखकर ऊपरको उचकता और फिर गिर भयके क्षेत्रसे बाहर निकल आये। राजा पाल- पड़ता है, राजा चम्पतराय फिर सँभलकर उठे कीमें अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीनमें और फिर गिर पड़े। सारन्धाने उन्हें सँभालकर शराबोर थे। पालकीके पीछे पाँच सवार घोड़ा बैठाया, और रोकर बोलनेकी चेष्टा की । परन्तु बढ़ाये चले आते थे। प्यासके मारे सबका बुरा मुँहसे केवल इतना भिकला-"प्राणनाथ !" हाल था। तालू सूखा जा रहा था । किसी वृक्षकी इसके आगे उसके मुँहसे एक शब्द भी न निकल छाँह और कुएँकी तलाशमें आँखे चारों ओर सका । आनपर मरनेवाली सारन्धा इस समय दौड़ रही थीं। साधारण स्त्रियोंकी भाँति शक्तिहीन हो गई। लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजातिकी - अचानक सारन्धाने पीछेकी तरफ फिर कर शोभा है। देखा तो उसे सवारोंका एक दल आता हुआ दिखाई दिया। उसका माथा ठनका कि अब चम्पतराय बोले-“सारन! देखो हमारा एक कुशल नहीं है । ये लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं। और वीर जमीन पर गिरा । शोक ! जिस आपफिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार त्तिसे यावज्जीवन डरता रहा उसने इस अन्तिम अपने आदमियोंको लिए हमारी सहायताको आ समय आ घेरा । मेरी आँखोंके सामने शत्रु रहे हैं । नैराश्यमें भी आशा साथ नहीं छोड़ती। तुम्हारे कोमल शरीरमें हाथ लगायेंगे, और मैं कर्ड मिनिट तक वह इसी आशा और भयकी जगहसे हिल भी न सकूँगा। हाय ! मृत्यु, तू अवस्थामें रही । यहाँ तक कि वह दल निकट कब आयेगी ! यह कहते कहते उन्हें एक आ गया और सिपाहियोंके वस्त्र साफ नजर विचार आया । तलवारकी तरफ हाथ बढ़ाया, आने लगे । रानीने एक ठण्डी साँस ली, उसका मगर हाथोंमें दम न था ! तब सारन्धासे शरीर तृणवत् काँपने लगा । ये बादशाही बोले-“ प्रिये ! तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है।" सारन्धाने कहारोंसे कहा-डोली रोक लो। इतना सुनते ही सारन्धाके मुरझाये हुए मुख बुंदेला सिपाहियोंने भी तलवार खींच लीं। पर लाली दौड़ गई। आँसू सूख गये । इस आशाराजाकी अवस्था बहुत शोचनीय थी; किन्तु । न्तु ने कि मैं अब भी पतिके कुछ काम आ सकती जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो , जाती है, उसी प्रकार इस संकटका ज्ञान होते , उसक " हूँ, उसके हृदयमें बलका संचार कर दिया । ही उनके जर्जर शरीरमें वीरात्मा चमक उठी। वह राजाकी ओर विश्वासोत्पादकभावसे देखकर वे पालकीका पर्दा उठा कर बाहर निकल आये। बोली-ईश्वरने चाहा तो मरते दमतक धनुषबाण हाथमें ले लिया । किन्तु वह धनुष निबाहूँगी। . सेनाके लोगों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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