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जैनहितैषी
[भाग १३
स्वामीजी ! आप क्यों ऐसा विचार करते हैं। कर रोने लगता है, उसी तरह ओरछाकी यादसे जहाँ आप प्रसन्न हैं वहाँ मैं भी खुश हूँ। चम्पतरायकी आँखें सजल हो गई। उन्होंने ___ चम्पतराय-मैं जबसे यहाँ आया हूँ, आदरयुक्त अनुरागसे सारन्धाको हृदयसे लगा मैंने तुम्हारे मुखकमल पर कभी मनोहारिणी लिया। मुसकिराहट नहीं देखी । तुमने कभी अपने आजसे उन्हें फिर उसी उजड़ी वस्तीकी फिक्र हाथोंसे मुझे बीड़ा नहीं खिलाया । कभी मेरी हुई जहाँसे धन और कीर्तिकी अभिलाषायें खींच पाग नहीं सँवारी । कभी मेरे शरीर पर शस्त्र लाई थीं। नहीं सजाये । कहीं प्रेम-लंता मुरझाने तो
[३] नहीं लगी?
माँ अपने खोये हुए बालकको पाकर निहाल सारन्धा-प्राणनाथ ! आप मुझसे ऐसी बात हो जाती है । चम्पतरायके आनेसे बन्देलखण्ड पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है । यथा- निहाल हो गया। ओरछाके भाग जागे। नौबतें
में इन दिनों मेरा चित्त कुछ उदास रहता है। झड़ने लगी, और फिर सारन्धाके जातीय अभिमैं बहुत चाहती हूँ कि खुश रहूँ, मगर एक मानका आभास दिखलाई देने लगा। बोझासा हृदय पर धरा रहता है।
यहाँ रहते कही महीने बीत गये । इसी चम्पतराय स्वयं आनन्दमें मग्न थे। इसलिए बीचमें शाहजहाँ बीमार पड़ा। शाहजादाओंमें सारन्धाको उनके विचारमें असन्तुष्ट रहनेका कोई पहलेसे ईर्षाका अग्नि दहक रही थी। यह खबर उचित कारण नहीं हो सकता था । वे भौंहें सिकौड़ सुनते ही ज्वाला प्रचण्ड हुई । संग्रामकी तैयाकर बोले--मुझे तुम्हारे. उदास रहनेका कोई रियाँ होने लगीं। शाहजादा मुराद और मुहीउद्दीन विशेष कारण नहीं मालूम होता । ओरछामें अपने अपने दल सजा कर दक्खिनसे चले। कौनसा सुख था जो यहाँ नहीं है ? वर्षाके दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे, पर्वत
सारन्धाका चेहरा लाल हो गया । बोली-मैं और वन हरी हरी घाससे लहरा रहे थे । उर्बरा कुछ कहूँ, आप नाराज तो न होंगे! रंगबिरंगके रूप भर कर अपने सौन्दर्यको
चम्पतराय-नहीं । शौकसे कहो। दिखाती थी। सारन्धा-ओरछामें मैं एक राजाकी रानी मुराद और मुहीउद्दीन उमंगोंसे भरे हुए एकदम थी । यहाँ मैं एक जागीरदारकी चेरी हूँ। ओर- बढ़ते चले आते थे। यहाँ तक कि वे धौलपुरके छामें मैं वह थी, जो अवधर्मे कौशल्या थीं। निकट चम्बलके तट पर आ पहुँचे । परंतु यहाँ परंतु यहाँ मैं बादशाहके एक सेवककी स्त्री हूँ। उन्होंने बादशाही सेनाको अपने शुभागमनके जिस बादशाहके सामने आज आप आदरसे निमित्त तैयार पाया। शीश झुकाते हैं वह कल आपके नामसे काँपता शहजादे अब बड़ी चिन्तामें पड़े । सामने था । रानीसे चेरी होकर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे अगम नदी लहरें मार रही थी, लोभसे भी अधिक वशमें नहीं है । आपने यह पद और ये विला- विस्तारवाली । घाट पर लोहेकी दीवार खड़ी थी सकी सामग्रियाँ बड़े महँगे दामों मोल ली हैं। किसी योगीके त्यागके सदृश सुदृढ । विवश
चम्पतरायके नेत्रोंसे एक पर्दासा हट गया ।वे होकर चम्पतरायके पास सँदेसा भेजा कि खुदाके अब तक सारंधाकी आत्मिक उच्चताको न जानते लिए आकर हमारी डूबती हुई नावको पार थे। जैसे बे-माँबापका बालक माँकी चर्चा सुन- लगाइए ।
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