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________________ अङ्क ८] अथूणाका शिलालेख। ३३३ गुरुका कोई उल्लेख नहीं है * । इस शिलालेखसे ऐतिह्य ( ऐतिहासिक? ) तत्त्व स्फुरायमान माथुरसंघके एक आचार्यका नया नाम मालूम था । वह संवेगादि गुणोंका धारक, सम्यग्दृष्टि, हुआ है। इस शिलालेखमें भूषणके वंश और दानी, शीलवान, रूपवान्, श्रुतपात्र, लक्ष्मीपात्र कुटुम्बका जो परिचय दिया है उसका संक्षिप्त और स्वकुलसमिति तथा साधुवर्गका आधारसार इस प्रकार है: भूत था; साथ ही वह आनंदसे रहनेवाले भोगियों 'तलपाटक' नामके पत्तनमें + नागर वंशके और योगियों दोनोंमें ही प्रधान था, और एकचित्त मुख्य रत्न श्रीमान् 'अम्बट' नामके एक प्रधान होकर श्रीछत्रसेन गुरुके चरणकमलकी, जिन्हें वैद्य हुए, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता होनेके सिवाय माथुरान्वयरूपी आकाशका सूर्य बतलाया है, जैनागमकी वासनासे इतने अनवासित थे कि सेवा किया करता था। आलोककी धर्मपत्नीका नाम उनकी रगरगमें ( अस्थि और मज्जामें ) 'हेला' था । उससे तीन पुत्ररत्न उत्पन्न हुए, जैनधर्म समाया हुआ था। वैद्यजी कलियुगके जो सभी विवेकी और नयाच थे। पहले पुत्रका प्रभावसे बहिर्भत, गृहस्थावस्थामें भी इंद्रियोंके नाम ‘पाहुक' दूसरेका ‘भूषण' और तीसरेका प्रसारको रोकनेवाले और देशवतसे अलंकत थे। 'लल्लाक' था । पाहुक निर्मल ज्ञानका धारका, जिस समय आप वनमें जाकर ( सामायि- गुरुजनभक्त और बड़ा ही कुशाग्रबुद्धि था। कादि ) आवश्यककर्ममें लीन होते थे उस समय उसकी इस . कुशाग्रबुद्धिको दिखलाते हुए अच्छे अच्छे श्रेष्ठ मनुष्य आपके सन्मख शि- लिखा है कि जिनप्रवचनके सम्बधमें उसका ष्योंके सदृश हाथ जोडते और प्रातःकाल आपकी ऐसा विशाल प्रश्नजाल होता था जिसमें गणधर उपासना करते थे। आपके असाधारण दर्शन- भी चकरा जायँ दूसरोंकी तो बात ही क्यान गणोंसे चमत्कृत होकर चक्रेश्वरी देवी भी हमेशा वह करणचरणानुयोगरूप अनेक शास्त्रोंमें पुत्रीके समान आपकी सेवा किया करती थी। प्रवीण, विषयोंसे विरक्त, दानतीर्थमें प्रवृत्त, वैद्यजीके 'पापाक' नामका एक पत्र हआ जो शान्तचित्त और निर्मल श्रावकीय व्रतसे यक्त था। निर्मल बद्धिका धारक और शास्त्रोंका पारगामी दूसरे पुत्र भूषणकी प्रशंसामें लिखा है कि वह होनेके सिवाय सम्पर्ण आयर्वेदका ज्ञाता लक्ष्मीका पात्र, कान्तिका कुलगृह, कीर्तिका था। उसने सम्पर्ण दोषोंकी प्रकृतिको अच्छी मंदिर, सरस्वतीका क्रीडापर्वत, निर्मलबुद्धिका तरहस निर्णय कर लिया था और वह उनकी रातवन, क्षमावल्लाका कंद और विस्तृत क्रपाका 'चिकित्सामें प्रवीण था। साथ ही रोगाकान्त सभी निवासस्थान था । साथ ही, वह रूपसे काममनुष्योंके प्रति उसकी दया अतिशय प्रसिद्ध देवके, सुभगतासे गणधरके, संपत्तिसे कुबेरके, थी। पापाकके अनेक शास्त्रों में निपुण १ आलोक बढ़े हुए विवेकसे बृहस्पतिके, महोन्नतिसे मेरुके. २ साहस और ३ लल्लुक नामके तीन पत्र हए। हृदयकी गंभीरतासे समुद्रके और ऊँचे दर्जेकी इनमेंसे पहला आलोक नामका पुत्र स्वभावसे ही चतुराईसे श्रेष्ठ विद्याधरके समान था। उसे जिनेंद्र बड़ा बुद्धिमान था; उसके हृदयदर्पणमें संपूर्ण भगवान के शासनसरोवरका राजहंस, मुनीन्द्रोंके * देखो जैनसिद्धान्तभास्कर,किरण ४, पृ० १०३। हो चरणकमलका भ्रमर, संपूर्णशास्त्रसमुद्रका मगर, +इससे मालूम होता है कि पहले नागर जातिक स्त्रियोंके नेत्रसमुद्रोंके लिए चंद्रमा और विद्वज्जनोंलोग भी जैनधर्मको पालन करते थे, परतु आज कल का वल्लभ समझना चाहिए। वह ऐसा शृंगार किया उनमें जैनधर्मका अभाव है। करता था, जो सरस और साररूप हो । उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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