SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ . जैनहितैषी .. [भाग १३ इसके लिए जैनधर्मके समस्त सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंका, हैं उनसे अधिक नहीं तो पच्चीस तीस गुने ग्रन्थ उनमें घुसकर-पैठकर अध्ययन करना होगा अवश्य ही श्वेताम्बर सम्प्रदायके छप चुके होंगे। और सबका तुलनात्मक पद्धतिसे विचार करना हमारे दिगम्बरी भाइयोंको भी अब इस ओर होगा। इससे मालूम होगा कि भगवान महावीरने ध्यान देना चाहिए और संस्कृत प्राकृतके तमाम और उनके पहले मगवान पार्श्वनाथने जिस उपलब्ध साहित्यको प्रकाशित करानेका यत्न जैनधर्मका प्रतिपादन किया था, वह ज्योंका करना चाहिए। त्यों चला आ रहा है, या उसमें कुछ परिवर्तन भी हुए हैं । देशकालकी परिस्थितियोंका, पडौसी अर्थणाका शिलालेख । धर्मोंका, राज्योंके उत्थान-पतनोंका, धर्मगुरुओं- [ले०-श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर मुख्तार।] या आचार्योके पारस्परिक देषों या हठाग्रहांका डंगरपरके अंतर्गत अर्थणा ( उच्छणक) और उसके अनुयायियोंकी मूर्खताका उस पर कब ' नामका एक स्थान है, जो एक समय विशाल कब, कितना कितना और किन किन रूपोंमें प्रभाव - । नगर था; और परमारवंशी राजाओंकी राज बड़ा है। इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बरादि भेद धानी रह चुका है । इस समय यह स्थान एक कब कब और किन किन कारणोंसे हुए, गण. छोटेसे गाँवके रूपमें आबाद है और इसके गच्छादि भेदोंके होनेकी आवश्यकता क्यों हुई, पासही सैकड़ों मंदिरों तथा मकानों आदिके भट्टारक कैसे बन गये और दिगम्बर गुरुओंकी खंडहर भग्नावशेषके रूपमें पाये जाते हैं । यहाँसे जगह उनकी पूजा कैसे होने लगी,क्षेत्रपाल आदि एक जैनशिलालेख मिला है जो आजकल 'देवोंकी पूजा क्यों और कब चली, तेरहपंथ अजमेरके म्यूजियममें मौजूद है। यह शिलालेख और वीसपंथ नामक भेद क्यों हुए, आदि सब वैशाख सुदि ३ विक्रम संवत् ११६६ का लिखा प्रश्नोंका समाधान इतिहासके इसी भागसे होगा। हुआ है और उस वक्त लिखा गया है जब कि इस भागके सबसे बड़े साधन जैनग्रन्थ हैं । परमारवंशी मंडलीक ( मंडनदेव ) नामके राजाका ये जितनी ही सुगमतासे प्राप्त हो सकेंगे, इस पौत्र और चामुंडराजका पुत्र ‘विजयराज' भागकी तैयारी भी उतनीही सुगमतासे होगी। स्थलि देशमें राज्य करता था। उच्छृणक नगरमें, . उस समय ‘भूषण' नामके एक नागरवंशी जैनने ग्रन्थोंके छपाने के विषयमें हमारा दिगम्बर श्रीवृषभदेवका मनोहर जिनभवन बनवाकर उसमें सम्प्रदाय बहुत ही सुस्त है, जब कि श्वेताम्बर वृषभनाथ भगवानकी प्रतिमाको स्थापित किया सम्प्रदाय इस विषयमें बहुतही आगे बढ़ रहा है। था, उसीके सम्बन्धका यह शिलालेख है। इसमें उसके ग्रन्थमुद्रणकार्यको देखकर आश्चर्य होता भूषणके कुटुम्बका परिचय देनेके सिवाय माथुहै। भारतवर्षका कोई भी धर्म या सम्प्रदाय इस रान्वयी श्रीछत्रसेन नामके एक आचार्यका भी विषयमें उसकी बराबरी नहीं कर सकता। कोई उल्लेख किया है, जो अपने व्याख्यानों द्वारा महीना ऐसा नहीं जाता है, जिसमें दश पाँच समस्त सभाजनोंको संतुष्ट किया करते थे और श्वेताम्बर ग्रन्थ प्रकाशित न होते हों। बेचे भी भूषणका पिता 'आलोक' जिनका परमभक्त वे बहुत ही सस्ते जाते हैं। सैकड़ों ग्रन्थ तो केवल था। माथुरसंघी इन आचार्यका, अभीतक कोई दान करनेके लिए ही छपाये जाते हैं । दिगम्ब- पता नहीं था । माथुरान्वयसे सम्बंध रखनेवाली रसम्प्रदायके अबतक जितने ग्रन्थ प्रकाशित हुए काष्ठासंघकी उपलब्ध गुर्वावलीमें भी छत्रसेन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy