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जैनहितषी -
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चरित उदार तथा मूर्ति, सुभग और सौम्य थी विलासिनी ( वेश्यायें ? ) उसके चरणों में आकर नम्रीभूत हुआ करती थीं । बड़े भाईका स्वर्गवास हो जानेके कारण कुलरथका संपूर्ण भार अकेले इस भूषणके सिर पर पड़ा । भूषणने उसे बड़ी शांति और धैर्य के साथ उठाया । अपनी स्थिरमति और महा दृढता के बलसे उसने अपने कुलरथको गुरुतर विपत्तिके गढ़ेसे निकाला, जिसमें वह उस समय फँसा हुआ था, और उसे विभूतिगिरिके शिखर पर पहुँचाया । भूषण के लक्ष्मी और सीली नामकी दो स्त्रियाँ थीं और वे दोनों ही पतिव्रता तथा चारित्रगुणसे युक्त थीं । सीली नामकी से भूषणके शांति आदि पुत्र उत्पन्न हुए । भूषणका छोटाभाई अर्थात् आलोकका तीसरा पुत्र ' लल्लाक' हमेशा देवपूजा में तत्पर और अपने भाई भूषणकी आज्ञा का पालन करनेमें प्रवृत्त रहता था । • भूषण के बड़े भाई पाहुकके 'सीउका' नामकी खीसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जिसका नाम
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अम्बर था ।
२२ वें में लिखा है कि भूषणने, आयुको तप्त- लोहे पर पड़े हुए छोटेसे जलबिन्दुके समान नश्वर विचारकर, लक्ष्मीकी स्थितिको हाथीके कान समान अति चंचल देखकर और शास्त्रानुसार यश तथा श्रेय (धर्म) को स्थिरतर जानकर पृथ्वीका भूषण यह मनोहर जिनमंदिर बनवाया है। इसी जिनमंदिरसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रकृत शिलालेख है । इस शिलालेख में कुल ३० पद्य हैं, जिनमें से पहला मंगलाचरणका पय और चौथे पयसे प्रारंभ करके १९ वें पद्यतक १६ पद्य अर्थात् कुल १७ पद्य ' कटुक' नाम किसी पंडितके बनाये हुए हैं। शेष पयोंकी रचना ' भादुक' नामके किसी ब्राह्मण द्वारा हुई है जो भाइलका पौत्र और श्रीसावड नामके द्विजका पुत्र था । उत्कीर्ण होनेके लिए
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[ भाग १३
इस लेखकी कापी बालभवंशी एक कायस्थने लिखी थी जिसका नाम ' वासव' और जिसके पिताका नाम राजपाल था । वासव उक्त विजयराज नामक राजाका सान्धिविग्रहिक अर्थात फॉरेन सैक्रेटरी था । शिलालेख के अन्तिम पयमें इस कीर्ति ( मंदिर ) के चिर स्थिर रहनेका आशीर्वाद देकर उसके बाद, गद्यमें, ' सूमाक' नामके विज्ञानिक ( शिल्पी ) द्वारा इस शिलालेखके उत्कीर्ण होने का उल्लेख किया है । इसके बाद 'मंगलं महाश्रीः ' लिखकर लेखकी समाप्तिका एक चिह्न बनाया गया है ! और फिर २७ वीं पंक्तिसे प्रारंभ करके ३१ वीं पंक्ति तक आत्मानुशासन ग्रंथ के कुछ पद्य उत्कीर्ण किये गये हैं । इन पद्योंमेंसे 'लक्ष्मीनिवासनिलयं ' इत्यादि चार पद्य आत्मानुशासन के प्रारंभिक पद्य हैं और उनपर नम्बर भी उसी क्रमसे डाले गये हैं । शेष पद्यों पर क्रमशः ६५, ६८, ६९ और ७० नम्बर पड़े हुए हैं । ७१ पयके दो तीन अक्षर कम हैं और शिला टूट गई मालूम होती है । ये पिछले पाँचों पद्य वे हैं जो सनातन जैनग्रंथमालामें छपे हुए आत्मा नुशासनमें क्रमशः नं० ६६,६९,७०,७१, और ७२ पर दर्ज हैं । नहीं मालूम आत्मानुशासन के ये सब पद्य उसी समय उत्कीर्ण हुए हैं या पछेिसे खोदे गये हैं। क्योंकि मूल शिलालेख से इनका कोई सम्बंध नहीं है । शिलालेखको प्रत्यक्ष देखने अथवा उसका फोटू आदि प्राप्त होने पर इस विषयका निर्णय किया जा सकता है । अस्तु । आत्मानुशासन के इन पयोंको छोड़कर शेष पूरा शिलालेख, पाठकों के अवलोकनार्थ, नीचे दिया जाता है। जहाँ तक मुझे मालूम है यह शिलालेख, अभीतक प्रकाशित नहीं हुआ । भारतीय पुरातत्त्वविभाग ( पश्चिमी सर्किल ) के सुपरिटेंडेंट श्रीयुत डी. आर. भांडारकर महोदयने इस शिलालेख को, प्रकाशित करने के
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