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________________ ३६८ जैनहितैषी [भाग १३ इसका सीधा सादा अर्थ यह है-'जो सह- वाड़ ) में श्रीवसन्तकीर्तिस्वामी ( भट्टारक ) ने ऐसा जोत्पन्न रूप अर्थात् दिगम्बररूपको देखकर मत्सर उपदेश दिया कि चर्या आदिके समय ( आहारको भावसे नहीं मानता है-दिगम्बर मुनिकी अवहेलना जाते समय ) मुनिको चटाई, टाट आदिसे शरीर करता है, वह संयमी हो, तो भी मिथ्यादृष्टि है। ढक लेना चाहिए, और फिर चगई आदि छोड़ अब इसकी श्रुतसागरी टीकाको देखिए:-- देना चाहिए । संयमी या मुनियोंका यह अप- "सहजुप्पण्णं रूवं सहजोत्पन्नं स्वभावो- वाद वेष है । इसी प्रकार यदि कोई राजवंशादिमें त्पनं रूपं नग्नं रूपं । दिहं दृष्टा विलोक्य। उत्पन्न हुआ पुरुष बहुत वैराग्यवान् होकर मुनि जो मण्णए ण मच्छरिओ, यः पुमान न होना चाहे, परन्तु वह लिङ्गाशुद्धिरीहत हो; अर्थात् मन्यते, नग्नत्वे अरुचि करोति, नग्नत्वे किं उसके लिङके अग्रभागमें कोई दोष हो, अथवा प्रयोजनं पशवः किं नन्ना न भवन्ति, इति वह लज्जावान् हो, या शीत आदि सहन नहीं कर 'ब्रूते, मत्सरतः परेषां शुभकर्माण द्वेषी। सो सकता हो, और इस कारण चटाई वगैरहसे संयमपडिवण्णो स पुमान संयमप्रतिपन्नः * शरीर ढंक लिया करे, तो उसे अपवादलिङ्गधारी दीक्षां प्राप्तोऽपि मिच्छाइट्टी हवइ एसो, मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः । अपवादवेषं धरनपि ' कहते हैं । उत्सर्गवेष तो नग्न ही है। सामान्योक्ति मिथ्यावृष्टिः ज्ञातव्य इत्यर्थः। कोऽपवादवेषः, विधिको उत्सर्ग और विशेष विधिको अपवाद कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टा उपद्रवं. कहत है । यतीनां कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्त- यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मूल गाथा से इस कीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टी- अर्थका कोई सम्बन्ध नहीं है; यह अभिप्राय बहुत ही सादरादिकेन शरीरमाच्छाध चर्यादिकं बडी धृष्टतासे खींच खाँचकर निकाला गया है । कृत्वा पुनस्तन्मुंचति इत्युपदेशः कृतः संयः उत्सर्ग और अपवादका यह मतलब ही नहीं है। मिनां, इत्यपवादवेषः। तथा नृपादिवर्गो यदि इसीको अपवाद कहने लगें तो फिर भ्रष्टता त्पन्नः परमवैराग्यवान् लिङ्गशद्धिरहितः उत्पन्नमेहनपुटदोषः लज्जावान् वा शीताद्य- कुछ रहेगी ही नहीं। श्रुतसागर महाराजका सबसे सहिष्णुर्वा तथा करोति सोप्यपवादलिडः बड़ा अन्याय तो यह है कि उन्होंने अपने समयके प्रोच्यते । उन्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञा. शिथिलाचारको पोषण करनेके लिए भगवान् कुन्दतव्यं । सामान्योक्तिविधिरुत्सर्गः विशेषो. कुन्दाचार्यके उस ग्रन्थको अपना हथियार बनाया क्ति विधिरपवाद इति परभाषणात् ।" है जो तिलतुष मात्र परिग्रहका भी विरोधी है और . अर्थात् स्वभावोत्पन्न नग्न रूपको देखकर जो जगह जगह शिथिलताका प्रतिवाद करता है । सूत्र पुरुष उसे मत्सरभावसे नहीं मानता है, नग्नपनामें पाहुड़की ये गाथायें देखिए:अरुचि करता है, कहता है-नग्नपनेमें क्या रक्खा णिच्चेल पाणिपत्तं उवइट परमजिणवरिहै, पशु क्या नग्न नहीं रहते. ( इसरोंके शुभकर्मसे दोहि । एक्को वि मोक्खमग्गो सेसाय अम. ग्गया सव्वे ॥ १० ॥ द्वेष करनेको मत्सर कहते हैं । ) वह संयमप्रतिपन्न या दीक्षित होने पर भी मिथ्यादृष्टि है, अर्थात् वह ___ अर्थात् वस्त्ररहितता और पाणिपात्रताका भगवाअपवादवेष धारण करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है। सब अमार्ग हैं। १९ नने उपदेश दिया है । यही एक मोक्षमार्ग है, शेष से अपवाद किसे कहते हैं ? कलिकालमें म्लेच्छ (मुस- बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणो ण होइ हमान ) आदि यतियोंको नग्न देखकर उपद्रव साहणं । भुजेइ पाणिपत्ते दिण्णंण्णं एक्ककरते हैं, इस कारण मण्डपदुर्ग ( माण्डलगढ़-मे- ठाणमि ॥ १७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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