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________________ अङ्क ८ ] कुछ इधर उधरकीं । ३१९ कई मुकद्दमों में वे श्वेताम्बरोंकी ओरसे अगुआ रह चुके हैं, कहीं इसी लिए तो इनका स्वर्गवास नहीं हुआ है ? जिस समय सेठ परमेष्ठीदासजी और बाबू घन्नूलालजी अटर्नीकी मृत्यु हुई थी, उस समय भी मेरे तार्किक मस्तकमें यही प्रश्न उठा था । इस समय दोनों प्रश्नोंका मिलान हो गया; साथ ही इसीके सम्बन्धकी और भी कई मृत्युओंका स्मरण हो आया। मैं आँखें बन्द करके वि चार करने लगा। थोड़ी ही देर में मैंने एक नई बातका अविष्कार कर डाला । मुझे निश्चय हो गया कि दिगम्बर श्वेताम्ब की लड़ाईसे इन्द्र महाराजका आसन डोल गया है ! भाई-भाईके इस भयंकर द्वेषसे इन्द्रका आसन अभी तक न डोला था यही आश्चर्य की बात थी ! देवराजने पहले सोचा था कि दोनों सम्प्रदायों में शिक्षाका प्रचार हो रहा है इस लिए ये मामले स्वयं ही ठंडे हो जायँगे; परन्तु जब उन्होंने देखा कि 'मरज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दबा की' तब स्वयं बीच में पड़कर निबटेरा कर देनेका निश्चय किया। उनके प्राइवेट सेक्रेटरीने राय दी कि, इस काम में जल्दी करना ठीक नहीं। दोनों सम्प्रदायोंके मुखियों धीरे धीरे सब हाल मालूम कर लो और तब बीचमें पड़कर सन्धि कराने का यत्न करो । पहले दिगम्बर सम्प्रदायके अगुए बुलाये गये । इसके लिए तीर्थक्षेत्र कमेटीके कार्यकर्त्ता खास तौर से पसन्द किये गये; क्यों कि वे ही इन मामलोंके अधिक जानकार थे । अबतक स्वर्गीय सेठ चुन्नीलाल जवेरचन्द, दानवीर सेठ माणिकचंदजी, सेठ परमेष्ठीदासजी और बाबू धन्नूलालजी अटर्नी आदि कई दिगम्बरी अगुओं की मुलाकात देवराज ले चुके हैं। उनके बाद श्वेताम्बरी अगुओंका नम्बर आया है । सबसे पहले शायद बाब बद्रीदासजी ही बुलाये गये हैं । श्वेताम्बर समाज मैं अधिक परिचित नहीं, संभव है उनके यहाँसे और भी दो चार आदमी जा चुके हों । कुछ इधर उधरकीं । पिछले अंकमें मैंने लिखा था कि गोलमालकारिणी सभाकी दूसरी बैठककी रिपोर्ट शीघ्र ही भेजूँगा; परन्तु कार्यवश दूसरी बैठक अबतक नहीं हुई और इस कारण रिपोर्ट भी तैयार न हो सकी । सोचा था कि चलो छुट्टी हुई, अबकी बार कुछ न लिखना पड़ेगा और ' आराम में खलल , न पड़ेगा; परंतु बीच में ही हितैषी सम्पादकका पत्र आ पहुँचा जिसमें लिखा था कि इस अंक के लिए कुछ न कुछ अवश्य भेजिए । आपके लेखोंको पढ़ने के लिए लोग बहुत ही उत्कण्ठित हो रहे हैं । यदि आपके लेखन आयँगे तो जैनहितैषीकी ग्राहकसंख्या एकदम घट जायगी । मेरे लेखोंकी इतनी कदर ! मैं फूलकर कुप्पा हो गया । साथ ही हितैषीके प्रति करुणाका भी उद्रेक हो आया प्रान्तिक सभाने उसके ग्राहक घटाने की कोशिशकी ही है; यदि मैं भी लेख न भेजूँगा, बेचारा मर जायगा ! यह सोचकर मैंने अपनी सुकोमल कलमको सँभाला । क्या लिखूँ ? हृदयने उत्तर दिया, अरे तुम तो जो भी कुछ लिखोगे, उस पर लोग लट्टू हो जायँगे । तुम्हारी लेखनीसे अमृत और विनोद एक साथ झरते हैं । फिर यह चिन्ता क्यों करते हो ? मैंने कलम चलाना शुरू कर दिया । ! । तो १ मैं कल रातको लेटे लेटे 'जैनमित्र' का पाठ कर रहा था । उसमें यह दुःसंवाद पढ़कर किं ' कलकत्तेके जौहरी राय बद्रीदास बहादुर का स्वर्गवास हो गया' मैं चौंक पड़ा । साधारण -लोगों के लिए यह कोई चौंकनेकी बात न थी; परन्तु मैं शास्त्री ठहरा, तर्कशास्त्रका पण्डित ठहरा मेरे मस्तक में इसके साथ ही अनेक बातें एक साथ चक्कर लगा गई ! मैंने प्रश्न किया कि तीर्थक्षेत्रोंके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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