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________________ जैनहितैषी - [ भाग १३ इससे भी कई सौ वर्ष पहलेसे श्वेताम्बर साधुओंके लिए जायज हो गया था और शायद उन्हीं की देखादेखी हमारे यहाँके भट्टारक भी जो अपनेको मुनि कहते हैं - प्रतिष्ठायें कराने लगे थे । पर हमारी समझमें यह कार्य दोनों ही सम्प्रदायके महाव्रती साधुओंके लिए निषिद्ध होगा । साधुओं में मंत्रा - दिकी आराधना करना और ज्योतिःशास्त्रसे फलित निकालना आदि कार्य भी प्रचलित थे । जिस समय यह उद्धार हुआ उस अनेक गच्छोंके आचार्य इकट्ठे हुए थे और उन सबने मिलकर एक प्रतिज्ञालेख लिखा था कि " शत्रुंजयके ऊपरका मूल गढ़, और आदिनाथका मुख्य मंदिर समस्त जैनोंके लिए है और बाकी सब देवकुलिकायें भिन्न भिन्न गच्छवालों की समझनी चाहिए । यह तीर्थ सब जैनोंके लिए एक समान है । एक व्यक्ति इस पर अपना अधिकार नहीं समय "" किया गया है। प्रारंभके ३८ पृष्ठों में उपोद्घात है, जमा सकता । इत्यादि । जिसमें शत्रुंजयतीर्थका परिचय, उसकी वर्तमान अवस्था, उसका महत्त्व, आज तक उसके जितने उद्धार हुए हैं उन सबका संक्षिप्त इतिहास और - ग्रन्थकर्त्ता आदिके विषय में अनेक ज्ञातव्य बातें लिखी हैं । इसके बाद लगभग ३० पृष्ठोंमें मूल ग्रन्थका संक्षिप्त सार लिख दिया है जिससे केवल हिन्दी जाननेवाले पाठक भी मूल ग्रन्थका मर्म समझ सकते हैं । परिशिष्टमें मुख्य मन्दिरकी प्रशस्ति, और दो प्रतिमाओंके नीचेके लेख दे दिये हैं । इस तरह यह ग्रन्थ सुचारुरूपसे सम्पादित किया गया है । इस ग्रन्थके पढ़नेसे कई ऐसी बातें मालूम होती हैं जो जैनधर्मकी समय समयकी अवस्थाका अध्ययन करनेवालोंके लिए उपयोगी होंगी। उस समय जैनसाधुओंके आचरणमें इतनी शिथिलता आगई थी कि वे शिल्पशास्त्रियोंका तथा मन्दिरोंके बनवाने आदिका काम भी करते थे और इसमें जो 'आरंभजनित' दोष लगते हैं उनकी ओरसे लापरवा होगये थे। जान पड़ता है प्रतिष्ठा आदि कराना तो ३५६ है । जिस दिन प्रतिष्ठा हुई है, उसके ठीक दूसरे दिन यह प्रबन्ध बनकर समाप्त हुआ है । लेखक इस उत्सवमें केवल मौजूद ही नहीं थे बल्कि उन्होंने इस उद्धारकार्यमें शिल्पशास्त्रीय (इंजीनियर ) का काम भी किया था । वे शिल्पशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, इस कारण उन्हीं की देखरेखमें कारीगरों का काम होता था । प्रबन्धर्मे सब मिलाकर २६२ पद्य हैं। रचना सुन्दर है और इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वकी है । इसमें - कर्मासाहके उद्धारका विस्तृत विवरण दिया है और उस समयके गुजरात तथा मेवाड़के राजाओंके और दिल्ली तथा गुजरातके बादशाहोंके नाम और उनकी वंशावलियाँ भी दी हैं । यद्यपि वे निश्चित इतिहास - के अनुसार सर्वथा शुद्ध नहीं हैं; परन्तु फिर भी कामकी हैं । यह मूल प्रबन्धं केवल ३२ पृष्ठोंमें गया है । शेष भाग सम्पादक महाशयका - लिखा हुआ है और उसके लिखनेमें खूब परिश्रम Jain Education International इस लेख पर बहुत से आचार्योंकी सही है । इससे मालूम होता है कि उस समय से पहले जुदा जुदा गच्छके श्वेताम्बर साधुओंमें तीर्थके स्वामित्वके सम्बन्धमें झगड़े होते होंगे और आजकलके श्रावकोंके समान वे महाव्रती होकर भी आपसमें द्वेषभाव रखते होंगे । श्रावकों के विषयमें इतना ही मालूम होता है कि उनके धर्मज्ञानकी सीमा गुरुकी भक्ति करना या उसकी आज्ञा पालन करना, इससे आगे न थी । गुरुओं की प्रेरणा से वे मन्दिरादि बनवाने और संघ निकालनेमें लाखों करोड़ों रुपया खर्च कर देते थे । ये सब ऐसी बातें हैं, जिनपर विचार करने की आवश्यकता है । श्रीमान् मुनि जिनविजयजी ऐसे ऐसे ऐतिहासिक ग्रन्थ प्रकाशित करके जैनसाहित्यका बहुत बड़ा उपकार कर रहे हैं । ग्रन्थका मूल्य लागत से कम ही होगा, अधिक नहीं । ७- शत्रुंजयतीर्थरास । आनन्दकाव्यमहोदधिका चौथा मौक्तिक | जैनग्रन्थोंको छपाछपाकर मिट्टीके मोल बेचनेवाले बम्बईके ' सेठ देवचन्द For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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