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________________ अङ्क ८] कुछ इधर उधरकी। समझिए कि मेरे जैसे दश पाँच आदमियों- हूँ कि मेरा यह सिद्धान्त सर्वमान्य बनता जाता में ही माना जाता है। नहीं, इसका प्रचार है। आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई । मुझे खूब तेजीसे हो रहा है । यह बात दूसरी है कि आशा है कि आप भी कुछ समयमें मेरे साथी जिन परिस्थतियोंके कारण हताश होकर मैं बन जायेंगे और इन लिखने पढ़नेकी झंझटोंसे इसका अनुयायी बना हूँ, और लोग उनके छुट्टी पा जायँगे।" कारण नहीं बने होगे । वे आरामके लिए ही, आरामके भक्त हुए हैं और इस लिए इसके सच्चे (३) उपासक उन्हींको समझना चाहिए । वाबू लोगों- रुसमें बड़ी भारी अव्यवस्था हो रही है। का सम्प्रदाय इस सिद्धान्तका खास भक्त है। सेनापति, मंत्रि मण्डळ, प्रजावर्ग आदिमें घोर जैनसमाजमें ग्रेज्युएटोंकी संख्या कई सौ है, पर मतभेद हो रहा है। कोई किसीकी नहीं सुनता। देखते हैं कि उनमें प्रतिशत ९९ ' येन केन सब अपने अपने अधिकारोंको बढ़ानेकी फिक्रप्रकारेण । रुपया कमाकर दुनियाके मजे लूटने- में हैं । शत्रुको यह खासा मौका मिल गया है। वाले ही हैं। वे तत्त्वज्ञ हैं, जानते हैं कि इस जड- वह आपनी सारी शक्तिको लगाकर भीतरी समाजके लिए रोना-कलपना किसी प्राचीन पर्वत भागमें घुसता जा रहा है। हिन्दी जैनगजटके या पाषाणसमहके लिए रोना-झींकना है। इसलिए स्टाफमें भी इसी तरहकी अव्यवस्थाके समाचार मजेसे पैर पसार कर सोते हैं । इधर मेरे भाई मिले हैं । सम्पादक और प्रकाशकमें मनमोटाव पण्डित जन भी इसके कम भक्त नहीं है । वे हो गया है । प्रकाशकने अपने शत्रुओंपर ऐसे वार जैनपाठशालाओं और विद्यालयोंमें रहकर ही किये हैं, जिन्हें सम्पादक अपने युद्धशास्त्रके इस तत्त्वसे परिचित हो जाते हैं । वे बाहरसे नियमोंसे विरुद्ध समझते हैं । उधर महासभाके चाहे जितने 'बगुलाभगत ' बनें, पर अन्तरंगमें मंत्री भी उनसे टेढ़ी चाल चल रहे हैं। इससे उनके यही तत्त्व रम रहा है। उनमें शायद तंग आकर पुराने पक्षके वृद्ध सेनापति पं० रघुही दो चार अभागे ऐसे होंगे जो दिनमें कमसे नाथदासजीने अपना इस्तीफा पेश कर दिया है। कम दो घण्टे न सोते हों । विद्यालयोंसे नि- इतनी खैर है कि वे महासभाके अधिवेशन तक कलते ही वे पेन्शनके हकदार हो जाते हैं। अपना काम करते रहेंगे, पर उनकी इच्छाके अपनी अपनी श्रीमतियोंकी सेवा करना और विरुद्ध शत्रुपर जो वार किये जायेंगे, उनके ठीक दो तीन घंटे तर्जन गर्जनके साथ लडकोंको निशाने पर लगने न लगनेके वे जिम्मेवार न कुछ रटा देना, या भोले भक्तोंको शास्त्र सुना होंगे । इस आपसकी फूटसे भय है कि कहीं देना, बस इससे आधिक परिश्रम वे नहीं कर नया दल या शत्रु पक्ष कुछ अधिक लाभ न उठा सकते। यदि कहीं काम आधिक हुआ, तो लेवे । यदि इस समय वह अपनी 'तरो ताजा' चटसे वह जगह छोड़ कर दूसरी कोई पाठशाला ताकतको काममें लायगा, तो आश्चर्य नहीं जो तलाश कर ली । उनका पठन पाठन तो पण्डित वह मैदान मार ले जाय । सावधान ! होने के साथ ही समाप्त हो जाता है। मैं खुश -श्रीगड़बड़ानन्द शास्त्री। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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