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________________ अङ्क ८ ] क्या विशेषता है - इसमें परम्परासे चला आया हुआ अंश तो कितना है और कवियोंके द्वारा पल्लवित - परिवर्धित किया हुआ अंश कितना है । आदिपुराणका अवलोकन | गुणभद्रस्वामीने उत्तरपुराणकी समाप्ति शक संवत् ८२० ( विक्रम संवत् ९५५ ) में की है । अतएव आदिपुराण इसके कुछ पहले बन चुका था । इन दिनों में इसी प्रसिद्ध ग्रंथका स्वाध्याय कर रहा हूँ । यह स्वाध्याय बहुत बारीकीसे गहरी दृष्टि डालकर, किया जा रहा है । स्वाध्याय करते समय जो जो बातें मुझे सोचने-विचारनेकी, चर्चा करने की मालूम होती हैं उनका नोट भी मैं करता जाता हूँ । इन नोटों का मेरे पास एक अच्छा संग्रह हो गया है अब मैं चाहता हूँ कि इस संग्रह में से कुछ महत्त्वके नोटोंको समाजके विद्वानों के समक्ष उपस्थित करूँ, जिससे उन पर अनेक दृष्टियों से विचार होवे, और जनताकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषणकी ओर अधिकाधिक बढ़े । / १ सर्वसाधारणका यह विश्वास है कि पुराणादि कथाग्रंथोंमें जो कुछ लिखा गया है, उसका अक्षर अक्षर केवलीकथित है। ये सबके सब ग्रंथ भगवान्की दिव्यध्वनिके द्वारा ही प्रकट हुए हैं । परन्तु इस पुराणका स्वाध्याय करनेसे यह बात ठीक नहीं मालूम होती, किन्तु यह प्रकट होता है कि ग्रन्थरचना में ग्रन्थकर्ताओं को बहुत कुछ स्वाधीनता रहती है । वे गुरुपरम्परासे या शास्त्रपरम्परासे चले आये हुए कथासूत्रोंसे केवल नीवका काम लेते हैं, शेष सारी इमारतकी रचना करनेमें वे स्वतंत्र रहते हैं । इस इमारत के स्रष्टा स्वयं वे ही होते हैं । उसको सुन्दर, सरस, प्रभावोत्पादक बनाना यह उनकी प्रतिभाका काम है । जिसकी प्रतिभा जितनी अधिक उज्ज्वल होती है, वह अपनी इमारत को उतनी ही सुन्दर बनाकर दिखला सकता है। यही कारण है जो एक ही कथाको मूलभूत मानकर बनाये हुए दो कवियोंके ग्रन्थों में आकाश-पातालका अन्तर हुआ करता है । Jain Education International ३६३ afa या ग्रन्थकर्ताको इतनी भी स्वाधीनता न हो, तो उसका कवित्व या ग्रन्थकर्तृत्व ही क्या रहे? फिर तो उसमें और एक फोनोग्राफमें कोई फर्क ही नहीं समझना चाहिए, जैसा सुना वैसा ही कह दिया । कवि अपनी इस स्वाधीनता के कारण ही कवि कहलाता है | इस स्वाधीनताका उपयोग करके वह अपने कथापात्रोंके मुँहसे वेही बातें कहलाता है, जिनका कहलाना उसे अभीष्ट मालूम होता हैजिससे वह अपने ग्रन्थरचना के उद्देशकी सिद्धि समझता है और जो उसके देशकाल के अनुकूल होती हैं | नगर, पर्वत, नदी, स्त्री, पुरुष, बालक, साधु आदिके उन्हीं स्वरूपको वह चित्रित करता है जिनका उसके कल्पनाजगतमें संग्रह रहता है, और जिस रूपमें वे उसके नेत्रोंके सामने आया करते हैं । यही कारण है जो दाक्षिणात्यकवियोंके द्वारा बनाये हुए काव्यों में हम जिस पौराणिक स्त्रीके सुन्दर केशपाशोंको पुष्पोंसे सजा हुआ पाते हैं उसीको उत्तर प्रान्त कवियोंके काव्यों में उत्तरीय वस्त्रके भीतर छिपा हुआ देखते हैं । दक्षिणका कवि अपनी नायिकाको साड़ी पहनाता है और उत्तरका घाँघरा । आदिपुराण के कर्ता जिनसेनस्वामीका ही बनाया हुआ पाश्वभ्युदय नामका एक प्रसिद्ध काव्य है । उसको देखनेसे तो यह मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताको मूल कथामें भी परिवर्तन करनेका अधिकार रहता है । इस काव्य में कमठके जीव शम्बरको जो कि ज्योतिष्क देव हुआ था— यक्ष, ज्योतिर्भवनको अलकापुरी और यक्षकी वर्षशापको शम्बरकी वर्ष - शाप मान लिया है । इसके सिवाय शम्बर के पूर्व और वर्तमानके अनेक भावोंको वर्तमानभवके ही रूप में चित्रित कर दिया है । गरज यह कि कवियों और ग्रन्थकारों को जो रचनास्वातंत्र्य मि है, उससे वे मूल कथामात्रकी रक्षा करके अपनी ओरसे बहुत कुछ लिख सकते हैं । हम अपनी इस बातको पुष्ट करनेके लिए आदिपुराणमेंसे कुछ उदाहरण देंगे। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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