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________________ जैनहितैषी ३६४ [ भाग १३ ' चौथे कालके प्रारंभमें, जब भगवान आदिनाथको अग्निको शान्त करनेके लिए पुराना घी ढूँढ़ना केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था तब, समवसरणसभामें चाहिए। परन्तु दूसरे ग्रन्थोंसे यह सिद्ध है कि उपस्थित होकर सौधर्मस्वर्गके इन्द्रने भगवानकी श्वेताम्बरसम्प्रदायकी उत्पत्ति महावीर भगवानके स्तुति करते हुए कहा था:- ... निर्वाणके ६-७ सौ वर्ष बाद हुई है । और यह न भुक्तिः क्षीणमोहस्य तवात्यन्तसुखोदयात् । चौथे कालकी आदिनाथ भगवानके समयकी बात क्षुक्लेशबाधितो जन्तुः कवलाहारभुग्भवेत् ॥ ३९ है जिसको बीते जैनग्रन्थोंके अनुसार आज असद्वद्योदयाद्भुक्तिं त्वयि यो योजयेदधीः। करोंड़ों वर्ष हो चुके हैं । तब उस समय श्वेताम्वर मोहानिलप्रतीकारे तस्यान्वेष्यं जरद्धृतम् ॥ ४०॥ सम्प्रदाय कहाँसे आया ? असद्वेद्यविषं घाति विध्वंसध्वस्तशक्तिकम् । _ यदि यह कहा जाय कि इन्द्रने अपनी स्तुतिमें त्वयकिंचित्करं मंत्रशक्त्येवापबल विषम् ॥४१॥ " जिन पर आक्षेप किया है वे श्वेताम्बर नहीं थे, तो असद्वद्योदयो घातिसहकारिव्यपायतः । इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि वे केवली भगवात्वम्यकिंचित्करो नाथ सामय्या हि फलोदयः॥४२ -आदिपुराणपर्व, २५ । नको तो मानते थे; परन्तु उन्हें भोजन करनेवाला समझते थे । अर्थात् वे अन्यमती नहीं, किन्तु एक भावार्थ-हे भगवन, मोहनीय कर्मके नष्ट हो । प्रकारके जैन ही थे और जैनधर्मके सिद्धान्तोंको, जानेसे आपके अनन्त सुखका उदय हो गया है, केवली भगवानके घातिया कर्मोंके नाश हो जानेको, इस कारण आप भोजन नहीं करते हैं । जो जीव नाव असाता वेदनीयके उदयको और मोहनीयके नष्ट भूखके दुःखसे दुखी हैं, वे ही कवलाहार या हो जानेसे अनन्त सुखकी प्राप्तिको मानते थे । इन "भोजन किया करते हैं । जो मूर्ख यह कहते हैं लोगोंने अवश्य ही श्रीतीर्थंकर भगवानके उपदेशसे कि आपके असातावेदनीयका उदय है, इस कारण ही उक्त कर्मसिद्धान्तों पर विश्वास किया होगा; आप भोजन भी करते हैं, उन्हें अपनी मिथ्यात्व- क्योंकि उस समय चतुर्थ कालकी आदिमें इन बातोंका रूपी अग्मिको शान्त करनेके लिए पुराना घी ढूँढना जाननेवाला और कोई नहीं था। तब यह कैसे चाहिए । घातिया कोंके नष्ट हो जानेसे जिसकी सम्भव हो सकता है कि भगवानके उपस्थित होते शक्ति नष्ट हो गई है, ऐसा असातावदनीरूप विष हुए भी उन्हींके अनुयायियों से कुछ ऐसे हों तो आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता । जिस तरह यह कहें कि भगवान् भोजन करते हैं और कुछ ऐसे मंत्रकी शक्तिसे जिसका बल नष्ट हो गया है, ऐसा हो हा गया ह, एसा हो जो यह कहें कि नहीं, वे कदापि भोजन नहीं विष किसीको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। करते हैं और अपने इस विवादको निबटानेके घातिया कर्मोकी सहायता नहीं रहनेसे हे नाथ, वास्ते भगवानसे पूछे ही नहीं कि आप भोजन करते हैं असातावेदनीका उदय भी आपके लिए आकंचि या नहीं । विना पूछे भी तो वे यह जान सकते थे कर है-कुछ प्रभाव डालनेवाला नहीं है । क्योंकि । क्या कि ये कभी भोजन करते हैं या नहीं । इस बातका सब सामग्रियोंके एकत्र होनेसे ही फलका उदय निर्णय हेतवादसे करनेकी तो उस समय जरूरत ही होता है। नहीं थी। गरज यह कि भगवानके समक्षमें देवये श्लोक स्पष्टतासे बतला रहे हैं कि इनमें जो राजने इस प्रकारकी स्तुति की हो जिसमें कि इस आक्षेप किया गया है वह श्वेताम्बर सम्प्रदायको प्रकारका कवलाहारसम्बन्धी विवाद हो, यह संभव लक्ष्य करके किया गया है और उन्हींको नहीं। यह सब ग्रन्थकर्ताकी रचना है। उस समय इसमें मूर्ख बतलाकर कहा है कि उन्हें मिथ्यात्वकी दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंके बीचमें जो विषाद चल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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