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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
तेरहवाँ भाग।
अंक
जैनहितैषी
श्रावण, २४४३. अगस्त, १९१७.
न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी॥
पुस्तकालय और इतिहास। गत महावीर-जयन्तीके समय इन्दौरके धन
जैनसमाजका ध्यान अब भी पस्तकाल- कुबेर सेठ हुकमचन्दजीने जो व्याख्यान दिया था योंकी ओर नहीं है । जान पडता है, वह इसके उससे मालूम हुआ था कि सेठजी और उनके महत्त्वको ही अभीतक नहीं समझा है। यही प्राताआका सहायतास इन्दारम 'महावार पुस्तकात कारण है, जो न तो धनी लोगोंका धन ही इस लय' नामका एक अच्छा पुस्तकालय खलेगा। ओर लगता है और न विद्वानोंकी विद्याका ही अब
नही नियमादी अवश्य ही इस प्रकारका पुस्तकालय केवल इस ओर आकर्षण होता है । आठ दस वर्ष उक्त सेठोंकी ही नहीं सारे जैनसमाजकी प्रतिष्ठा पहले स्वर्गीय बाबू देवकुमारजीका ध्यान इस और शोभाका निदर्शन होगा; परन्तु देखते हैं ओर गया था और उन्होंने एक बड़ा भारी पस्त- कि अभी तक उसकी कुछ भी चर्चा नहीं है। कालय खोलनेकी इच्छा भी प्रकट की थी। यदि सेठजी चाहें और वे जैनगजटके सम्पादक उनकी इच्छानुसार जब जैनसिद्धान्तभवनकी जैसे धर्मात्माओंके बहकानेमें न आ जावें, तो नीव पड़ी थी, तब आशा हुई थी कि यह जैन- उनके लिए यह बहुत ही मामूली कार्य है । जो धर्मका अध्ययन करनेवालोंके लिए एक अच्छा केवल भगवानकी प्रतिमाओंके बनावाने में ही लाख साधन बन जायगा । शुरू शुरूमें इस आशा- लाख रुपये खर्च कर देते हैं उनके लिए भगवानकी लताके मनोरम फल भी दृष्टिगोचर होने लगे थे; वाणीकी प्रतिष्ठामें लाख पचास हजार रुपया परन्तु आगे यह लता मुरझाने लगी। भविष्यके लगा देना कोई बड़ी बात नहीं है। सेठजीने विषयमें कुछ कहा नहीं जा सकता; पर इस समय प्रायः सभी प्रकारकी समयोपयोगी संस्थायें खोल तो जैनसिद्धान्त भवनकी दशा विशेष आशाजनक रक्खी हैं, एक पुस्तकालयकी ही कमी है, इससे नहीं है। अर्थात् इस समय तक जैनधर्मके अध्य- भी आशा होती है कि वे अपने वचनकी पूर्ति यन और अन्वेषणके लिए कोई भी उल्लेखयोग्य अवश्य करेंगे। संस्था नहीं है।
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