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जैनहितैषी-
[भाग १३
हम चाहते हैं कि सेठजी इन्दौरमें एक तैयार किये हैं। जैनसमाजमें विद्यालय कई हो विशाल पुस्तकालय अवश्य खोलें। यह बड़े ही चुके हैं, पर पुस्तकालय एक भी नहीं है, अतपुण्यका और जैनधर्मकी प्रभावनाका कार्य है। एव इस महान पुण्यकार्यकी ओर समाजके लक्ष्मीबो धर्मात्मा और पण्डितगण यह नहीं चाहते पुत्रोंका ध्यान शीघ्र ही आकर्षित होना चाहिए। हैं कि वह तीनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंका संयुक्त पुस्तकालय हो, उनसे हमारी सविनय प्रार्थना है जैनधर्मके विद्यार्थी एक अच्छे पुस्तकालयके कि वे केवल दिगम्बरसम्प्रदायके पुस्तकालयके अभावको निरन्तर अनुभव करते हैं। कभी कभी रूपमें ही उसकी स्थापना करावें। उसकी भी उन्हें बड़ा कष्ट होता है। जिस ग्रन्थको वे आज कम अवश्यकता नहीं है; बिलकुल न होनेसे तो चाहते हैं वह शक्तिभर प्रयत्न करने पर भी महीएक ही सम्प्रदायका होना अच्छा है । पर ऐसी नोंतक नहीं मिलता है। कभी कभी तो मिलता कृपा न करें, जिससे पुस्तकालय खुले ही नहीं। ही नहीं। इससे बहुतसे लोग निराश हो जाते हैं और
___अन्य किसी धर्मके विद्यार्थी बन जाते हैं। यह साहित्यकी उन्नतिके लिए, इतिहासकी खोजों- तो हुई समर्थोकी बात; और जो निर्धन हैं, उनकी के लिए और पदार्थका स्वरूप समझनेके लिए ज्ञानपिपासाके शान्त होनेका तो कोई उपाय ही पुस्तकालय कितनी आवश्यक संस्था है इसको नहीं है । जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, माणि साधारण लोग नहीं समझ सकते। जिनकी ज्ञान- कचन्द ग्रन्थमाला आदिके संचालकोंसे पूछिए कि पिपासाकी सीमा नहीं है, जिन्हें विविध ग्रंथका- उन्हें किसी एक ग्रन्थके प्राप्त करनेके लिए कितना रोंके विचारोंको तुलनात्मक पद्धतिसे अध्ययन परिश्रम करना पड़ता है और कितना समय करनेका महत्त्व मालूम है, जो प्रत्येक बातको खोना पड़ता है। ग्रन्योंकी प्राप्तिका साधन न स्पष्ट रूपमें समझना चाहते हैं और जो मतभेदोंके होनेसे कोई कोई ग्रन्थ तो हमें केवल एक ही मूलको खोज निकालना चाहते हैं, वे ही विद्वान् प्रतिके आधारसे प्रकाशित करना पड़ते हैं और पुस्तकालयोंकी महिमाको समझते हैं। अनेक अंशों- इस कारण उनका संशोधन जैसा चाहिए वैसा में यह कहना बहुत ही सत्य है कि जिस देशमें या नहीं होने पाता । जिस स्थानमें पुस्तकालय नहीं है वहाँ विशाल बुद्धिशाली विद्वान उत्पन्न नहीं हो सकते। जिस इस समय यदि कोई चाहे तो बहुत थोड़े समय जैनसमाजमें बड़े बड़े विशाल पुस्तकालय खर्चसे एक बहुत अच्छा पुस्तकालय बन सकता थे और वे सर्व साधारणके उपयोगमें आते थे उस है। कोई प्रयत्न करनेवाला हो तो इस समय समय जैनधर्मके जाननेवाले सैकड़ों प्रतिभाशाली हजारों हस्तलिखित ग्रन्थ इतने सस्ते मूल्यमें विद्वानोंका अस्तित्व था । इस समय पुस्तकाल- संग्रह किये जा सकते हैं, जितनेसे दूने मूल्यमें योंका अभाव है, अतएव अच्छे विद्वानोंका भी भी वे लिखाये नहीं जा सकते । ऐसे कई भण्डार अभाव है। दो चार ग्रन्थोंको पढ़ लेनेसे या मौजूद हैं, जिनके मालिक चुपचाप उन्हें बेच परीक्षायें पास कर लेनेसे कोई विद्वान् नहीं हो देने के लिए तैयार हैं और वे इस समय मिट्टीके सकता। बहुदर्शी विद्वानोंके बनाने के साधन पुस्त- मूल्यमें मिल सकते हैं। जयपुर आदि शहरोंमें कालय ही हैं, विद्यालय नहीं। संसारमें विद्याल- और उनकी देहातोंमें ऐसे अनेक निर्धन लोग हैं, याकी अपेक्षा पुस्तकालयोंने ही अधिक विद्वान् जो अपने घरोंमें निरर्थक पड़े हुए दो दो चार
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