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________________ अङ्क ८] विविध प्रसङ्ग । ३७३ ये अपनेको परम निर्ग्रन्थगुरुओंके उत्तराधिकारी बनाना लाभकारी है । ये बेचारे नाम मात्रके समझते हैं और अपनी पूजा राजाओं और ऋषि- ‘जैन ' हैं; ये नहीं जानते कि जैनधर्ममें देव योंके तुल्य कराते हैं। जब ये भोजन करनेके और गुरुका स्वरूप कैसा माना है। इसी कारण लिए पूरे साज-सरंजामके साथ श्रावकके घर ये भट्टारकोंकी शिकार बन रहे हैं । भट्टारकोंकी जाते हैं तब आगे आगे बारोठ दुहाई देता चलता वर्तमान अवस्था भी दिगम्बर जैनधर्म के लिए बड़े है-'दिल्ली-गादी, जैनके राजा श्री १००८ भट्टारक भारी कलंककी बात है। परन्तु जब तक श्रावविजयकीर्तिजी महाराज ' आदि । भोजनशा. की बात मान । भोजनमा कांकी अवस्था नहीं सुधरी है. तब तक इनके लाके द्वारपर पहुँचकर दूध, दही, इत्रमिश्रित जल सुधरनेकी आशा करना व्यर्थ है। 'आदिसे ये अपने चरण धुलवाते हैं, और फिर ७ जैन भ्रातृसमाज। . भीतर जाकर कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं। इटावेके बाबू चन्द्रसेनजी वैद्य और उनके कुछ हर इसी समय इनके शिष्यों से कोई पण्डित-'ओह्रीं मित्रोंने 'जैनभ्रातृसमाज' नामकी एक एक नूतन श्रीभट्टारक विजयकीर्तिदेवाय जलं निर्विपामीति संस्था स्थापित की है। जैनधर्मको पालनेवाली तमाम स्वाहा ? आदि पाठ बोलकर श्राविकाओंसे अष्ट द्रव्योंद्वारा पूजा करवाता है। जातियोंमें परस्पर रोटी-बेटीव्यवहार होना उचित है, इस विषयका आन्दोलन करनेके लिए उक्त ___ भट्टारकोंकी ये और इस तरहकी और भी संस्थाने जन्म लिया है । जहाँ तक हम जानते हैं, अगणित लीलायें हैं, जिन्हें सुनकर और देखकर इस विषयमें जैनसमाजके प्रायः सभी विद्वान्-पुराने बड़ा ही दुःख होता है। जिस सम्प्रदायमें तिलतुष मात्र परिग्रह रखनेको भी अक्षम्य अपराध और नये दोनों दलके-सहमत हैं। आदिपुराण आदि पुराण-ग्रंथोंका मत भी-जो इस विषयके प्रधान बतलाया था, उसीके गुरु आज इस अवस्थाको पहुँच गये हैं और फिर भी पूजे जाते हैं, जैन प्रतिपादक हैं-इसके प्रतिकूल नहीं हैं । इस समय धर्मकी इससे आधिक दुर्दशा और क्या हो सकती जनाकी जितनी जातियाँ है, वे सब प्रायः वैश्यवर्णकी है ? हम देखते हैं कि जैनसमाजके विद्वानोंका, हैं । एक दो जातियाँ ऐसी हैं जिनके विषयमें अनुधनियोंका और धर्म धर्मकी पुकार मचानेवालोंका मान होता है कि वे जैनधर्म धारण करनेके पहले इस ओर जरा भी ध्यान नहीं है । उन्हें अपने इन शुद्र रही होंगी, परन्तु इस समय उनके आचरण और गुजरात, बिहार आदि प्रान्तोंके भोले भाइयोंकी व्यापार आदि वैश्योंके ही समान हैं, अतएव उन्हें अन्धश्रद्धा और मूर्खता पर जरा भी तरस नहीं वैश्य ही गिनना चाहिए । ऐसी दशामें आदिपुराण आता है। उन्होंने तेरहपन्थके उस 'मिशन' के. इन सबके पारस्परिक विवाहादि-व्यवहारका कभी कार्यको स्थगित कर दिया है जिसने सारे हिन्दी- विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि वह तो आज्ञा भाषाभाषी प्रान्तोंको भट्टारकोंकी चुंगलमेंसे सदाके देता है कि ब्राह्मण चारों वर्णकी कन्याओंके साथ, लिए मुक्त कर दिया है । उस 'मिशन 'को अब क्षत्रिय क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र कन्याओं के साथ, और फिरसे सचेत करना चाहिए और इन प्रान्तोंमें वैश्य वैश्य-शूद्रकन्याओंके साथ विवाह कर सकता शिक्षाप्रचारके द्वारा, उपदेशोंके द्वारा, धर्मके सच्चे है। कमसे कम इस बातका विरोधी तो कोई भी स्वरूपको प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थोंके द्वारा, तथा पुराना नया जैन शास्त्र नहीं है कि खण्डेलवाल और भी जो जो उपाय योग्य हों उनके द्वारा अग्रवालके साथ या परवार पद्मावती पुरवारके लोगोंकी अन्धश्रद्धाको दूर करना चाहिए। हमारी साथ विवाहसम्बन्ध न करे। गरज यह कि हमारी समझमें दूसरे धर्मवालोंको शास्त्रार्थ आदिके द्वारा धार्मिक आज्ञायें तो इस प्रथाके अनुकूल हैं: यदि जैन बनानेका यत्न करना उतना लाभकारी नहीं कोई प्रतिकूलता है तो गतानुगतिकताकी है। जितना अपने इन भाइयोंको सच्चे देवगुरुका श्रद्धानी संस्थाको इसीके ऊपर विजय प्राप्त करनी होगी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522834
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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