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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
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बारहवाँ भाग।
अंक ६.
जैनहितैषी।
जेष्ठ, २४४२. जून, १९१६.
AstamashasmanastasARASRFOR , सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । ? है प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥
और विरोध न हो मतभेदतें, हो सबके सब बन्धु शुभैषी । , भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनाहतषी ॥ OUPSRUUPUURDUSURSAT3
अनमेल विवाह ।
[ लेखक-श्रीयुत सूरजभानु वकील । ] यह बात सभी जानते हैं कि स्त्री और पुरुष दशामें भी गृहस्थीकी गाडीको आगे चलानेगृहस्थरूपी गाड़कि दो पहिये हैं। जिस तरह की कोशिश की जाती है और उससे सुख गाड़ीके दोनों पहिये समान होनेपर ही गाड़ी शान्तिकी आशा बाँधी जाती है, परन्तु चल सकती है-असमान अर्थात् छोटे बड़े होनेसे इस अनमेल विवाहका फल वही होता है जो नहीं चल सकती; उसी तरह स्त्री-पुरुषका होना चाहिए। इससे गृहस्थीका सारा ढाँचा उचित मेल होनेपर ही गृहस्थी भलीभाँति चल बिगड़ जाता है और दंगा-फिसाद, लडाई-झगसकती है, अनमेल होनेपर नहीं, परन्तु खेद ड़ा, रोना-झीखना, कलह, चिन्ता, दुराचरण, है कि भारतवर्षमें अनमेल विवाह कुछ कम निर्लज्जता और अपकीर्ति उत्पन्न होकर वह घर नहीं होते हैं-कभी आठ वर्षके बालकको १५ नरकका नमूना बन जाता है। केवल इतना ही वर्षकी कन्या ब्याह दी जाती है और कभी नहीं, इस अनमेल विवाहसे जो संतान पैदा ६० वर्षके बूढेके साथ आठ वर्षकी बालिकाका होती है वह निर्बल, साहसहीन, कायर, भीस गठजोड़ा कर दिया जाता है, और ऐसी और अपनी इच्छाओंकी ऐसी दास होती है कि
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__जैनहितैषी
उसको मनुष्यों में गिनना मानवजातिको बट्टा उमर बितावें । इसके सिवा मनुष्यमें वचनशक्ति लगाना है । इस समय भारतवर्षकी जो दुर्दशा भी है, जिसके कारण उसे यह अभिलाषा होती दिखाई देती है, उसका अधिकांश दोष यदि है कि वह एक ऐसा सच्चा मित्र बनावे जिसको अनमेल विवाहके सिर पर थोपा जाय तो अनु- वह अपने हृदयके विचार, अपनी गुप्त बातें चित नहीं है। यह एक चिन्ताकी बात है कि अपने दुख-दर्दको बेखटके सुना सके; जिसके हमारे सुधारकोंका इस ओर जितना ध्यान जाना सामने वह अपने हृदयको खोलकर रख सके चाहिए उतना नहीं जाता है।
और जिससे सच्ची सहानुभूति प्राप्त कर सके इसमें कोई सन्देह नहीं है, कि प्रकृतिने पुरु- ऐसा सच्चा मित्र पुरुषके लिए उसकी स्त्री और षकी अपेक्षा स्त्रीजातिको कद, ताकत और स्त्राके लिए उसका पुरुष ही हो सकता है. साहसमें हीन बनाया है । घोडासे घोडी क्योंकि इनकी प्रत्येक बातमें दोनोंका ही कमजोर होती है. बैलसे गाय कमजोर होती सुख-दुख गर्भित रहता है, परन्तु यह सब है, शुकसे शुकी निर्बल होती है, इसी तरह तब ही हो सकता है, जब स्त्री-पुरुषका जोड़ा मानवजातिमें भी पुरुषकी अपेक्षा स्त्री कमजोर समान और उपयुक्त हो। हुआ करती है । इसके अतिरिक्त स्त्री गर्भ- इसके सिवा विवाहके और भी कई उद्देश्य धारण करती है अर्थात् ९ महीने तक बच्चेको हैं; परन्तु इस विषयपर जितना अधिक विपेटमें धारण करती है, जिसके कारण वह दौड़- चार किया जाता है, उससे यही सिद्ध होता है धूप और अधिक परिश्रमका काम नहीं कर कि विवाहका कोई भी प्रयोजन अनमेल विवासकती है । बच्चा पैदा होने पर उसके स्तनोंमें हसे सिद्ध नहीं हो सकता है; प्रत्युत अनमेल दूध पैदा होजाता है और वह दो तीन वर्ष विवाह अनन्त आपत्तियोंका जन्मदाता और तक बच्चेका लालन-पालन करनेसे छुट्टी नहीं मनुष्यको मनुष्यत्वसे गिरा देनेवाला है । विवापाती है । इस कारण वह एक जगह रहनेके हके उद्देश्यों पर विचार करनेसे यह बात स्पष्ट लिए बाध्य है । अतएव अत्यंत प्राचीन समयसे रूपसे विदित होती है कि गृहस्थीकी महत्ता समाजने यह व्यवस्था की है कि स्त्री घरमें रह और गृहस्थका सुख एक पुरुष और एक स्त्रीके कर घरू कामोंका प्रबंध करे और पुरुष बाहर जोड़ेसे ही है । इसके विरुद्ध यदि एक पुरुष जाकर अपनी आजीविका चलावे; परन्तु और कई स्त्रियोंका विचित्र जोड़ा बनाया जाय ऐसा तब हो सकता है जब स्त्री-पुरुषका जोड़ा या एक स्त्री और कई पुरुषोंका एक अद्भुत समान और उपयुक्त हो। अनमेल अवस्थामें बंधान बाँधा जाय तो इससे विवाहका उद्देश्य ऐसी आशा करना केवल स्वप्न मात्र है। पूरा न होकर उससे अनेक तरहके दुख ही उत्पन्न ___ मनुष्यकी सभ्यता और धर्मके आचार्योंने होनेकी संभावना है। विवाहकी सृष्टि इस हेतुसे की है कि मनुष्य जब हम इस बातका विचार करते हैं कि पशुसमाजकी बहुत गिरी हुई और अत्यन्त हिंदुस्थानमें अनमेल विवाहकी प्रथा क्यों चल अशान्तिकारक अवस्थासे उन्नत होकर एक पड़ी, तब हमें मालूम होता है कि हमारा स्वार्थ पुरुष या एक स्त्रीसे अपनी कामवासनाको परि- ही इसका मूल कारण है । स्वार्थका मित रखकर शील और संतोषके साथ अपनी बहिरंग बहुत मनोहर और नानाप्रकारके लालच
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AARILALILARAmmOMITIRADITIC
अनमेल विवाह।
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दिखानेवाला होता है, परन्तु उसका फल आते ही पुरुषोंने भेड़ बकरियोंकी तरह स्त्रियोंका बहुत ही भयंकर और नाना तरहकी आपत्तियोंमें जखीरा जमा करना शुरू कर दिया और इस फँसानेवाला होता है । पुरुषने किसी समय सोचा काममें ऐसी बढ़ा चढ़ी होने लगी कि चाहे कितनी कि कमाई तो हम करते हैं और एडीसे चोटी तकलीफ और दुर्दशा क्यों न हो, पर मेरा तक पसीना बहाकर सब कछ बटोरकर घर में स्त्रियोंका जखीरा दसरेसे अधिक ही निकले। लाते हैं और स्त्री घर बैठे बैठे खाती है,इस कारण अस्तु यदि एकके पास दस स्त्रियाँ हुई तो वह सर्वथा हमारे आश्रित है और हमारी दासी दूसरा पन्द्रह संग्रह करनेकी कोशिश करने है; हमारा पूर्ण अधिकार है कि हम जो चाहें लगा । यह कोशिश बढ़ते बढ़ते सैकड़ों उससे काम लें । ऐसे विचारोंके कारण पुरुषोंने और हजारोंकी गिन्ती तक पहुँची । फल इसका स्त्रीको अर्धाङ्गिनी मानना छोड़ दिया और यह हुआ कि स्त्रियोंके संग्रह करनेके सिवा तभीसे उसके हाथसे गृहप्रबंधका काम भी पुरुषोंको और कोई कार्य ही न रहा। यहाँ तक निकल गया-वह केवल दासीके रूपमें रह कि राजाओंने प्रजाकी रक्षा, शिक्षा आदिका गई । इसका फल यह हुआ कि पुरुषोंके काममें खयाल छोड़कर अपनी सारी शक्तिको रनवासकी बाधा आने लगी और उसे घर-गृहस्थाके कामों- स्त्रियोंकी संख्या बढ़ानेमें ही लगा दी। जिन की भी चिन्ता रहने लगी । इससे स्त्री- पुराण और चरितग्रन्थोंको हम पढ़ते हैं, उनमें पुरुषमें जो प्रेम-बंधन या मित्रताका नाता अधिकतर यही कथन मिलता है, कि अमुक था वह टूट गया और पुरुषके लिए उसकी राजाने दूसरे राजापर इस हेतु चढ़ाई की थी, कि हृदयकी आकुलताको मिटानेवाला और उससे वह अपनी लड़कीको अमुक राजाके साथ व्याह सच्ची सहानुभूति रखनेवाला कोई आसरा न रहा। न करके मेरे साथ कर देवे । बस, केवल इसीके इसी तरह उसके घर-गृहस्थी सम्बन्धी और कई लिए खूब घमासान लड़ाई हुई, सहस्रों वीरोंके काम भी तितर बितर हो गये और पुरुष भारी धड़से सिर जुदा हुए और खूनकी नदियाँ बहीं । आपत्ति या उलझनमें पड़ गया; परन्तु उसके पुराण और चरितग्रन्थोंमें अपने देश या जातिस्वार्थ और स्त्रियोंकी निर्बलताने उसकी आँखोंको की रक्षाके लिए वीरोंके वीरत्व या आत्मोत्सर्गके न खुलने दिया-वह अपनी गलती न पहचान उदाहरण नामको भी नहीं मिलते हैं। उनके सका, वरन उसने यह विचारा कि गृहस्थीके पढ़नेसे तो यही विदित होता है, कि जिस समय चलानेके लिए जब एक स्त्रीरूपी दासीसे काम वे ग्रन्थ लिखे गये हैं, उस समय प्रतिदिन चारों नहीं चलता तो अनेक स्त्रियोंका संग्रह करना ओर स्त्रियोंके लिए ही भारी भारी युद्ध हुआ चाहिए और उनसे भिन्न भिन्न काम लेकर गृह- करते थे । बहादुर लोग अपने अपने राजाओंको स्थीको सुचारु रूपसे चलाना चाहिए। यह विचार नवीन नवीन स्त्रियाँ ताप्त करानेके लिए ही
** भारतमें बहुविवाहकी जो प्रथा चली है, उसका कारण विद्वान् लोग कुछ और ही बतलाते हैं । वे कहते हैं कि यह प्रथा आवश्यकताके कारण चली थी । जिस समय आर्य लोग यहां आकर और अनार्योंके प्रतिद्वन्दी हो कर बसे थे उस समय उन्हें अपना जनबल बढानेकी जरूरत थी और इसके लिए बहुविवाह बहुत ही उपयोगी है । एक ही पुरुष अनेक स्त्रियोंसे अनेक सन्तान उत्पन्न कर सकता है । वर्तमान महा. युद्ध यूरोपमें पुरुषोंको संख्या कमकर रहा है, इसलिए यूरोपके विद्वान् भी कहने लगे हैं कि अव हमें वहुविवाहकी रीति चलानी पड़ेगी।
-सम्पादक।
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जैनहितैषी
अपने गले कटवाते थे और दूसरोंके देना शुरू कर दिया । उस समयके जिन जिन काटते थे।
- महापुरुषोंका चरित पुराणों वा चरितग्रन्थोंमें । हिन्दुस्थानको इस बातका बड़ा भारी गौरव मिलता है, उनमें उनकी बहादुरी और बड़े बड़े प्राप्त है कि बहुत प्राचीन कालसे इस देशमें स्वयं- कृत्य केवल इसी एक बातसे भरे हुए हैं, कि वरकी रीति प्रचलित हो गई थी, और स्त्रीकी उन्होंने अमुक जगह जाकर इतनी कन्याओंके यहाँ तक कदर की जाती थी कि स्वयंवरके दिन डोले लिए, वा उनके अमुक सत्कृत्य या बहादुरी दूर दूर प्रदेशोंसे बड़े बड़े योग्य पुरुष इस पर उनको इतनी कन्यायें भेट दी गई ! बातकी उम्मेदवारीमें आते थे कि स्वयंवर रच- कन्याओंको धन-सम्पत्ति समझकर नजर नेवाली युवती हमारे ही गलेमें जयमाल डाले वा पुरस्कारमें देनेकी प्रथा भी अधिक स्थायी । और हमें ही पति स्वीकार करनेका अनुग्रह नहीं हुई । क्योंकि बलवान् पुरुष पहले हीसे इस दर्शावे; परंतु पुराणोंके देखनेसे मालूम होता बातका दावा करने लगे, कि अमुक कन्या जवान है, कि स्वार्थवश होकर लोगोंने स्वयंवरकी भी होनेपर हमको दी जाय । एक एक कन्यापर. मिट्टी खराब कर दी । स्वयंवरमें आये हुए बहुसं- कई बलवानोंका दावा होनेके कारण बेटीवालोंकी ख्यक विफल मनोरथ उम्मेदवारोंने लड़ाई आपत्ति कुछ कम न हुई । अतएव इस आपत्तिसे झगड़ा करना और बलपूर्वक कन्याको लेजानेके बचनेके लिए दूसरा सुगम मार्ग यह निकाला लिए युद्ध करना प्रारंभ कर दिया । इस तरह गया कि कन्या पैदा होते ही जानसे मार डाली स्वयंवरका शुभमंडप भी श्मसानभूमि बन जाय । तबसे कन्याओंके माँ बाप अपनी संतागया। ऐसे समयमें माँ-बापके लिए कन्यायें नके खूनसे आप ही अपने हाथ रंगने लगे, और घोर आपत्तिका कारण बन गई । यदि माँ-बाप इस तरह एक बड़ी भारी आपत्तिसे उनकी रक्षा स्वयंवर नहीं रचते और आप ही अपनी सम्मतिसे होने लगी । हम अंगरेज सरकारको धन्यवाद किसी योग्य वरके साथ कन्याका विवाह निश्चित दिये बिना नहीं रह सकते कि जिसने इस करते थे, तो अन्य बलवान् लोग फौजें लेकर चढ़ बड़े भारी पापसे हिंदुस्थानको बचाया; परंतु आते थे; यदि स्वयंवर रचते थे तो अंतमें झगडा उस पुरानी रीतिका प्रभाव अब तक हमारे होता था, किसी तरह निस्तार नहीं था। ऐसे हृदयपर जमा हुआ है । यद्यपि हम राज्यके कारणोंसे बेटीवाले बड़ी आपत्तिमें फँस जाते थे। भयसे कायासे उक्त पाप नहीं कर सकते हैं, पर इसी कारण किसकि घर कन्या पैदा होना उसके मन और वचनसे हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं। दुर्भाग्यका लक्षण समझा जाता था। उसी कन्या पैदा होनेके दिनसे ही हम उसका मरना दानसे उसके घर रोना पीटना शुरू हो जाता मनाते हैं और वचनसे ' मरजा, जलजा' आदि था । अन्तमें कन्याके माता पिताओंन खूब शब्द कहते हैं, यहाँ तक कि यदि हम उसके सोच विचार कर और सब तरहसे लाचार हो साथ लाड़-प्यार भी करते हैं तो कहते हैं-ला कर अपनी कन्याओंको भी अन्य धन-सम्पत्तिके तेरा गला काट हूँ, आ तेरा पेट फोड़ दूँ-या समान एक प्रकारका माल असबाब समडकर- कुएमें ढकेल दूँ ' इत्यादि। जिस प्रकार आजकल अफ़सरोंका डालामें फल प्राचीन कालमें कन्या-विवाहके समय बड़े फूल आदि दिये जाते हैं-अपनी कन्याओंको बड़े वीरोंकी सेना लेकर वरके चढ़ आने और
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MAHARIHARATIBHABITAMIRMIRMIRMAHARA
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न्याको भेटमें देनेके रिवाजका इतना चिन्ह अब को तैयार होते हैं और न बेटीवाला ही अपनी पी मौजूद है कि लड़केवाला बरातमें अपने सब बेटी व्याहनेको राजी होता है । पुरुषोंकी यह सम्बन्धियों और मित्रोंको इकट्ठा करके एक कामवासना इतने अधम दर्जेको पहुँच गई है नारी लाव-लशकरसे बेटीवाले पर चढ़ाई कि वे परस्त्रीसे अनुचित संबंध करके अपने करता है और जब बरात बेटी वालेके ग्रामके काले मुँहको बुरा नहीं समझते हैं। उन्होंने पास पहुँच जाती है, तब बेटीवाला अपने सम्ब- अपने स्वार्थसे व्याहता स्त्रीको अर्धाङ्गिनी माननेके न्धियों, मित्रों और ग्रामके मुखियोंको साथ लेकर बदले उसे उसको इतने नीचे गिरा दिया है, कि नकदी, जेवर और घोड़ा-घोड़ी आदि भेंटकी कई एक तो इस अनुचित कृत्यको अपनी स्त्रीके वस्तुयें लेकर हाजिर होता है और नम्रतापूर्वक सन्मुख करनेमें भी नहीं लजाते हैं और बेधड़क आगन्तुकोंको शान्त करता हुआ अपनी बेटीका उसकी छातीपर मूंग दलते हैं। बेचारी स्त्रीकी होला उनके हवाले करता है। जब तक बरात इतनी मजाल कहाँ कि वह मुँह खोल सके और उसके ग्राममें ठहरती है, तब तक वह अपनी अपने पतिके इन दोषोंपर नाराजी प्रकट कर शक्तिके बाहर उनकी सेवा करता है-बात बातमें सके । परन्तु यदि ऐसे बदकार पुरुषोंकी स्त्रियाँ अपनी नम्रता दिखाता है। परंतु बराती उस भी यदि अकस्मात पराये पुरुषकी तरफ देख भी लें पर ऐसी हुकूमत करते हैं-ऐसी लूट मचाते हैं तो वही पुरुष उनको जानसे मार डालनेके मानो उन्होंने उस ग्रामको लडाईमें जीता हो। योग्य ठहराते हैं और गैरतमें आकर कुछका
पुरुषोंकी स्वार्थवासना इतनेसे ही तृप्त नहीं कुछ कर डालते हैं। मानो कुशीलका दोष हुई-उनको स्त्रियोंका खैडाका खेडा जमा करने स्त्रियोंहीके लिए है-पुरुष उससे बिलकुल पर भी संतोष नहीं हुआ, बल्कि इससे उनकी बरी हैं। यदि इस बातपर आधिक विचार किया कामवासना यहाँ तक बढ़गई कि विवाहिता जाय तो उनका यह ढंग उनके विचारके अनुत्रियोंके सिवा उन्होंने अन्य बाजारु वा ग्राम्य- सार ठीक ही मालूम होता है; क्योंकि यदि स्त्रियोंसे इन्द्रियतृप्ति करना अनुचित-पाप- उनको धर्मका खयाल होता तो वे आप ही कुशीजनक नहीं समझा। पुरुष बेधड़क रंडियोंका लमें क्यों फँसते और यह सिद्धान्त ही क्यों नाच कराते हैं, बाप बेटा और बाबा पोता सब करते कि पुरुषोंके लिए कुशीलका दोष ही नहीं इकट्ठे होकर उन रंडियोंकी ओर बुरी दृष्टिसे है। अतएव वह धर्मके विचारसे स्त्रीको दोषी नहीं देखते हैं और असंकोच भावसे उनसे हँसी- ठहराते, बल्कि वह इस कारणसे दोषी ठहराते हैं कि मजाक करते हैं । पुरुषोंने इस घृणित शौकको वह उनकी धन-सम्पति है-उनकी दासी और गुयहाँ तक महत्त्व दिया है, कि वे जब किसी लाम है। इसी कारण किसी स्त्रीका पराये पुरुषकी स्त्रीको विवाह करके लाना चाहते हैं, और जि- ओर देखना विद्रोह है-पुरुषके आधिकारके बहार सके लिए बिरादरीके मुखियोंको साथ लेजाना जाना है और इसी कारण स्त्रीको यह अधिआवश्यक होता है, उस समय भी रंडियोंको कार नहीं है, कि पुरुषको परस्त्रीसे अनुचित साथ ले जाना और उनका नाच कराना अत्यन्त संबंध करनेसे रोके । क्योंकि अन्य-स्त्रियोंके साथ आवश्यक समझते हैं, क्योंकि रंडियोंको साथ सम्बन्ध करनेसे पुरुष अपनी सम्पत्तिका अधिक लिये बिना न तो बिरादरीके लोग बरातमें जाने- विस्तार करता है। यदि पुरुष धर्मका दावा
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SE
MAH ILAADARA
जनहितैषी
MORA
करके स्त्रीको दोषी ठहराता है तो कहना होगा विवाह योग्य समझे गये हैं। परंतु इसके साथ यह कि उसने अपने स्वार्थसे धर्म सिद्धान्तको भी एक विचार भी हिन्दुस्थानमें प्रचलित है कि बदल डाला है और अपनी इच्छानुसार मन-घड़न्त जो स्त्री अपने पतिके सामने मरती है वह भाग्यसिद्धान्त बना लिये हैं, क्योंकि धर्मशास्त्रोंमें तो वान् है और जो पतिके पीछे जीवित रहकर कुशीलका दोष स्त्री-पुरुष दोनोंके वास्ते समान विधवा बनती है वह अत्यन्त अभागी है । ऐसी ही लिखा है । पुरुषको अधिक वाध्य करनेके अवस्थामें जो स्त्री अपनेसे छोटे पतिके साथ लिए ' स्वदारासंतोष-वत' का उपदेश दिया है। विवाही जाती है वह तो भाग्यवान् है ही, क्योंकि
जैनधर्मकी कर्मफिलासोफी तो पुरुषोंको विवा- उसकी आयु पतिकी आयुसे अधिक होनेके कारण हिता स्त्री भी एकसे अधिक रखनेपर-कामलालसा व्यवहारमें यही आशा की जा सकती है कि वह अधिक होनेके कारण पापी ठहराये बिना नहीं पतिसे पहले ही चल देगी। इसी कारण यह छोड़ती है। कुछ भी हो स्वार्थान्ध पुरुषोंने धर्मके कहावत प्रसिद्ध हुई है-" बड़ी बहू बड़े भाग सिद्धान्तोंसे आँखें मीचकर मनमानी करने के लिए छोटी बहू छोटे भाग ।” परन्तु जहाँ दशवर्षकी कमर करती है। अस्तु, पुरुषों का स्वार्थ और स्त्रियों- बालिका सत्तर वर्षके बढ़ेके साथ व्याही जाती की निर्बलता उनकी आँखें नहीं खुलने देती है। हो वहाँ तो उसके विधवा होनेकी इन्तजारीमें ___ अब विचारनेकी बात है कि जहाँ स्वार्थने घड़ियाँ ही गिनना पड़ेंगी । इस कारण उसके इतना अंधकार कर रक्खा हो, जहाँ स्त्रियाँ दासी अभागिनी होनमें कुछ भी सन्देह नहीं है । परन्तु और पशुओंसे भी तुच्छ समझी जाती हों-वहाँ ऐसा वहीं होता है जहाँ लड़कीके मा बाप अपने अनमेल विवाह होना कौन आश्चर्यकी बात है? जैसे दामादोंसे-जो इस दुनियाके कुछ दिनके जहाँ स्त्रियाँ अर्धाङ्गिनी समझी जाती हैं, वहाँ ही मेहमान हैं-अपनी कन्याके तौलसे भी अधिक विवाहके असली उद्देश्यकी पूर्ति करनेके लिए रुपया गिना लेते हैं; और जहाँ वह बूढ़ा भी विवाह किया जाता है । वहाँ न तो अनमेल
मानो केवल इसी उद्देश्यसे इतने रुपये खर्च करता है विवाह ही होता है और न एकसे अधिक स्त्री कि वह अपने मरनेपर कोई चूड़ियाँ फोड़नेवालीविवाही जाती है । वहीं गृहस्थको सच्चा सुख उस
मना सब उसकी विधवा कहलानेवाली छोड़ जावे । अतएव मिलता है और वहीं लोग अपने देशकी और अपने मा-बापका घर रुपयोंसे भर देने, और अपनी जातिकी भलाई कर सकते हैं । यदि अपने पतिकी इच्छाको पूरी करनेके लिए विधवा स्त्रीको विवाह कर लाना उसको अद्वाडिन्नी बनकर घर बैठी रहनेके कारण वह भी एक तरबनानेके वास्ते नहीं है, बल्कि दासी वा पश- हसे भाग्यवान ही है। ओंकी तरह उनका संग्रह करनेके लिए है तो भारतवर्षकी जो जो जातियाँ अपनेको उच्च फिर इस बातके जाँचनेकी जरूरत ही क्या है समझकर धरती पर पैर नहीं रखना चाहती कि दोनोंका मेल ठीक है या नहीं । छोटे छोटे और जो अन्य जातियोंको बहुत ही तिरस्काबच्चोंकी दासियाँ क्या बूढ़ी स्त्रियाँ नहीं होती रकी दृष्टिसे देखती हैं, उनमें भी कन्याओंको हैं ? और इसी तरह क्या बूढ़े बूढ़े मनुष्योंके बेचनेसे बहुतसे बेटीवाले मालदार होते रहते हैं यहाँ छोटी छोटी लड़कियाँ दासीका काम नहीं और बहुतसे कबरमें पैर लटकानेवाले बूढोंके कर सकतीं ? ऐसे ही विचारोंसे इस देशमें अनमेल घर भी उनकी पोतीके बराबर छोटी पत्नियोंके
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अनमेल विवाह |
आने और विधवा होनेसे पवित्र होते रहते हैं । ये उच्चजातिके लोग कन्या -विक्रयको तो बेशक कुछ ऐबकी बात मानते हैं और उसके दूर करके लिए कुछ झूठमूठ कोशिश भी दिखाते हैं, यहाँतक कि कभी कभी पंचायत में ऐसे प्रस्ताव भी पास कर देते हैं कि कन्या - विक्रय करनेवाले जातिच्युत कर दिये जायेंगे, परन्तु वे अमलमें नहीं लाये जाते हैं | क्योंकि पंचायत के सर्दाको यह बहुत आसान बहाना हाथ लगा हुआ है कि बेटी बेचनेवाले बहुत ही गुप्तरीतिसे रुपया गिना लेते हैं । अतएव यह सिद्ध नहीं हो पाता है कि अमुक व्यक्तिने बेटीके बदले थैली ली है या नहीं । यदि अधिक सन्देह होनेपर पंचायत में उससे पूछा जाय तो वह अपनी निर्दोषता के विषय में कसम खानेके अतिरिक्त मंदिरमें जाकर और भगवान्की मूर्तिको हाथ लगाकर यह कहने को तैयार होता है कि मैं तो बेटी गाँव के कुएका पानी भी नहीं पीता ।
हमारे उच्च जाति भाई वास्तवमें कन्या - विक्रयको चाहे भला समझते हों चाहे बुरा; पर इसमें तो कुछ सन्देह नहीं है कि वे साठ साठ और सत्तर सत्तर वर्षके बूढ़ेका विवाह आठ आठ-दस दस वर्षकी कन्याके साथ होनेको जरा भी बुरा नहीं समझते हैं। बेटीका बेचना
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बहुत गुप्त रीतिसे होता है, उसका कुछ सबूत नहीं मिलता - यह सब सही है; पर उसका जो मूल कारण है वह दुनिया भर के सामने सूर्यके समान चमकता है । बगुलेके परोंके समान बिल्कुल सफेद बालोंवाला अमुक बूढा जिसके न मुँहमें दाँत हैं और न पेटमें आँत; और जिसको यमलोक लेजानेवाले यमदूत घड़ियाँ गिन रहे हैं - अपनी पोती और परपोती के समान नन्हीं बच्ची से विवाह करानेके लिए सिरपर मौर बाँधे और मुँह पर सहरा लटकाये दूलह बना है, परन्तु हमने तो आजतक नहीं सुना किसी जगहकी बिरादरीने ऐसे पुरुषकी बरात में जानेसे और मूछों पर ताव देकर लड्डू खाने से कभी इन्कार किया हो । ऐसे विवाहों में कोई कुछ भी रोक टोक नहीं करता है, बल्कि दोनों तरफके विरादरी वाले बड़ी खुशी और चाव साथ शुभलग्न और शुभमुहूर्त में शुभजोड़ीको मिला देते हैं - खूब बधाई गाई जाती है और 'अहिंसा परमोधर्मः' का आकाश तक ऊँचा झंडा उड़ाकर और अपनेको दयाधर्मका पालनेवाला मानकर मदसे अंगमें फूले नहीं समाते हैं । यही नहीं बरन वे संसारके सभी मनुष्यों को अपनेसे नीचा मानकर आनंदसे आयु व्यतीत करते हैं ।
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तु
बम्बई शहर और जैन-जनता।
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श्वेताम्बर जैन कान्फरेंसने एक कमेटी इस बम्बईमें जैनस्त्रियोंकी संख्या ५८६५ है, लिए बनाई थी कि वह बम्बई शहरके जैनोंकी शेष १५३९५ पुरुष हैं, अर्थात् पुरुषोंकी अमृत्युसंख्यापर विचार करे । हर्षका विषय है कि पेक्षा स्त्रियाँ लगभग तिहाई या प्रतिशत ३३ है; कमेटीने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित कर दी और परन्तु उनकी मृत्यु गत चौदह वर्षों में प्रतिशत वह इतनी महत्त्वकी है कि प्रत्येक जैनको- ३६ ते ४० तक हुई है । अर्थात् जैनियोंकी कमसे कम बम्बई निवासियोंको तो अवश्य ही तमाम मृत्युसंख्या यदि १०० हुई है। तो उनमें पढ़ना चाहिए । यदि सारे भारतके जैनोंकी स्त्रियोंकी ४० और पुरुषोंकी ६० हुई है। अर्थात् जनसंख्यापर विचार करनेके लिए भी एक ऐसी ही जैन पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियाँ और भी अधिक कमेटी बनाई जाय, तो उससे बहुत लाभ हो; मरती हैं । और बच्चोंकी मृत्यु तो उनसे भी हम जान सकें कि हमारी संख्या दरअसल अधिक है। घट क्यों रही है।
जिन सब रोगोंसे बम्बईके जैनोंकी मृत्यु __ बम्बई शहरमें रहनेवाले जैनोंकी संख्या सन् होती है उनमें चार मुख्य हैं--१ प्लेग, फेंफ१९०१ की मनुष्यगणनाके अनुसार १४२४८ ड़ेके रोग, ३ श्वासरोग और ४ जुदा जुदा तरथी, जो १९११ में बढ़कर २०४६० हो गई। हके ज्वर तथा कमजोरी आदि । गत चौदह वर्षों में अर्थात् यहाँ १० वर्ष ६२१२ की वृद्धि हुई। प्रतिशत ६० से लेकर.७५ तक आदमी इन्हीं पर इस बढ़तीका कारण यह है कि बाहरके चार रोगोंसे मरे हैं। लोग व्यापारादिके लिए आकर यहाँ बस गये कमेटीके सज्जन-जिनमें दो डाक्टर हैं-जैनोंकी हैं-कुछ यहाँकी पैदायशके कारण वृद्धि नहीं अधिक मृत्यु संख्याके नीचे लिखे कारण बतहुई । इसका पता तब लगता है जब हम यहाँकी लाते हैं। मृत्युसंख्या पर विचार करते हैं । बंबईमें पार- १ लगभग १२५७० जैन शहरके सघन सियोंकी जनसंख्या ५०९३१ है । गत चार और गन्दे मुहल्लोंमें रहते हैं और उनमेंसे अवर्षोंमें इस जातिके लोगोंकी प्रत्येक हजारके धिकांश लोग इकहरी, छोटी, यथेष्ट हवा और पीछे २२-२३ मोतें हुई हैं, परतु इन्हीं चार प्रकाशसे रहित; सस्ते किरायेकी कोठरियोंमें वर्षो में जैनोंकी मृत्युसंख्या प्रति हजार ६० से रहते हैं। जिस जगहमें रसोई बनती है, उसी लेकर ७० तक हुई है ! अर्थात् हमारी मृत्यु पार- जगहमें रातको सो जाते हैं। अतः स्वच्छ सियोंकी अपेक्षा लगभग तीन गुणी होती है ! सारे वायु और प्रकाशके बिना रोगोंके शिकार बन बम्बई शहरकी मृत्युका परिमाण प्रति हजार ४० जाते हैं।
और सारे भारतका ३४ है ! ग्रेटबिटन आदि २ स्त्रियोंका अधिकांश भाग प्रसूतिके समदेशोमें तो यह परिमाण १५ से अधिक यकी बीमारियोंसे मृत्युके मुखमें पड़ता है। कुछ कभी नहीं होता!
तो उसी समय मर जाती हैं और कुछ तरह
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HABAIIALIBABITA L BHAILIBHARA
बम्बई शहर और जैन-जनता பாயாயாயாயாயாயாயா
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तरहके गर्भ सम्बन्धी रोगोंसे आक्रान्त होकर वाली कोठरियाँ बनाई जायँ जिससे गरीब लोग दुःख भोगते भोगते बरसों बाद मरती हैं । इसका भी अच्छे आरोग्यप्रद स्थानोंमें रह सकें, २ दो कारण यथेष्ट आरोग्यप्रद स्थानका और सेवा- चार अच्छी व्यवस्थावाले 'जैन-प्रसूतिगृह' खोले शुश्रूषाका अभाव जान पड़ता है। यहाँ 'रुक्मणि
जायँ, जिनमें साधारण लोग अपनी स्त्रियोंको प्रसूतिगृह' नामकी एक संस्था है। उसमें जिन स्त्रियोंकी प्रसूति होती है उनमेंसे प्रतिशत केवल
भेजकर उनकी रक्षा कर सकें। ३ बम्बईसे २ स्त्रियाँ मरती हैं: परन्त जो स्त्रियाँ अपने घरों में बारहके आरोग्यप्रद स्थानोंमें जैन भाइयोंके ही बच्चा जनती हैं उनमेंसे प्रतिशत ४० मर लिए आरोग्य-भवन खोलना, जिनमें लोग जाती हैं!
बीमारी आदिके समय जाकर रह सकें और आ___३ लोग आरोग्यताके और शरीररक्षाके राम पासकें । ४ आरोग्यताके नियमोंका ज्ञाननियमोंको बहुत कम जानते हैं । कसरत करने विविध उपायोंसे फैलाया जाय । ५ जैन हास्पि
और शुद्ध हवामें रहनेकी ओर लोगोंका ध्यान टल और दवाखाने खोले जायँ, जहाँ बिनामूल्य नहीं है।
दवा दी जाय और रोगियोंकी परिचर्या भी की ४ बाल्यविवाह वृद्धविवाह आदि कुरीति- जाय । ६ बाल्यविवाह आदि कुरीतियाँ बन्द याँ भी जनसंख्याके ह्रासमें बहुत सहायता की जाय । करती हैं । इन दोनोंसे विधवाओंकी संख्या
इस लेखपर बम्बईके ही नहीं और और बढ़ती है । इसके सिवाय छोटी छोटी तेरह तेरहचौदह चौदह वर्षकी लड़कियाँ गर्भधारण कर लेती शहरोंके लोगोंको भी ध्यान देना चाहिए। हैं । इसका फल यह होता है कि प्रसतिके समय और वहाँकी मृत्युसंख्या आदिके जाननेका यत्न या तो वे मरणशरण हो जाती हैं या हमेशाके करना चाहिए । रिपोर्टमें बतलाया गया है कि लिए बीमार बन जाती हैं।
जैनोंका बहुत बड़ा भाग शहरोंमें रहता है । ___ इसके लिए कई उपाय भी बतलाये गये १०० मेंसे लगभग ३३ जैन शहरोंके रहने हैं-१ सस्ते किरायेकी स्वच्छ वायु और प्रकाश वाले हैं ।
a
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प्रोफेसर साहबका पत्र ।
SRIJUT Nathuram Premi, Sastri in his introduction to Vriha
Editor, JAINHITAISHI. daranya Sangraha writes “ JET sro Sir,
व कलिके संवत्से शकके संवत्को ग्रहण करना In the February and March Nos. TITET I $#$ 37TART FT (TE) À of the ‘Jain-Hitaishi’, Shrijut Ju- saa 800 (FO BO 034) Å ”...ce galkishore Muktar of Deobund has On this basis I .wrote the line in requested me to clear up the uncer- question, but in a footnote in my tainty with respect to the actual date original article pointed out the misof the consecration of the image of take of Pandit Jayaharlal. That I Gomatishwar. In this connection I did not agree with this will appear beg to state that as the Kalki Era from tho subsequent statement made begins from 1000 Bîr Nirvân Sam- by me that Nemichandra flourished vat and as it is written in the Vâhu- in the 11th century A. D. Unfortuvali Charitra that the image of Go- nately the footnote was left out by motishwar was consecrated in the inadvertence when the article was year 600 of the Kalki era, the actual printed in the “Digambar Jain " date of the establishment of the and this gave rise to the doubts in image is 1600 Bîr Nirvana Samvat the minds of readers. But now I or 1074 A. D. This date is in ac- hope this statement will remove cordance with the incriptions pub- all doubts. lished in Epigrahia Indica &c. which
I shall be much obliged if you contain the names of Rajamalla and Chamundaraya. This is why I wrote
would kindly publish a Hindi transin my article on Gomati Sâra that lation of the above extract in the Chamundaraya and Nemichanda coming number of Jain Hitaishi flourished in the 11th century A. D. and oblige
As about the line “This corresponds to Bikrama Samvat 735"
yours faithfully,
13-4-16. Saratchandra ghoshal, Srijut Jugalkishore is right in saying that this is a mistake. This is not
15, Nimtalla ghat street, my computation Pandit Jabaharlal
Calcutta.
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CHOHORITALIAM MELALBANAOLLE.
एक पत्र और उसका उत्तर। CATTERYTAMITTEmilfriHitHTRITIES
२८३
उपििलखित अंगरेजी पत्रका अनुवाद- इसी आधारपर मैंने उक्त विवादस्थ पंक्तिको श्रीयुत नाथूराम प्रेमी
लिखा था; साथ ही एक फुटनोटमें जो कि मेरे
__ असली निबंध लगा था, मैंने पं. जवाहरलालकी सम्पादक, जैनहितैषी.
इस गलतीको प्रगट कर दिया था। यह बात कि महाशय,
मैं इस गलतीसे सहमत नहीं हुआ मेरे 'जैनहितैषी' के ( गत ) फरवरी, और मार्चके बादके इस कथनसे प्रगट होती है कि नेमिचंद्र अंकमें, देवबन्द निवासी श्रीयत जगलकिशोर ईसाकी ११ वीं शताब्दीमें हुए हैं । दुर्भामुख्तारने मझसे उस भ्रमको साफ कर देनेकी ग्यसे वह फुटनोट उक्त निबंधके साथ “दिगम्बर प्रार्थना की है जो कि गोमटेश्वरकी मर्तिके अस- जैन" में छपते समय प्रमादवश छूट गया और ली प्रतिष्ठा-समयसे सम्बंध रखता है। इस विष- यही पाठकोंके हृदयोंमें भ्रमोत्पादनका कारण यमें मेरा यह निवेदन है कि चूंकि वीरनिर्वाण हुआ। परन्तु अब मैं आशा करता हूँ कि मेरे संवत् १००० से कल्की संवत् शुरू होता है इस कथनसे सब भ्रम दूर हो जायगा ।
और बाहुबलि चरित्रमें यह लिखा है कि गोमटे- यदि आप मेरे उपर्युक्त नोटका हिन्दी अनुश्वरकी मूर्ति कल्की संवत् ६०० में प्रतिष्ठित वाद जनहितैषीके आगामी अंकमें प्रकाशित कर की गई थी, इस लिए मूर्ति स्थापित किये जाने- नेकी कृपा करेंगे तो मैं इसके लिए आपका बहुत का असली समय वीरनिर्वाण संवत् १६०० अनुगृहीत होऊँगा। या ईसवी सन् १०७४ है। यह समय एपीग्रे
) आपका विश्वासपात्रफ़िका इण्डिका आदिमें प्रकाशित उन शिला ता. १३-४-१६९ लेखोंके अनुकूल है जिनमें राजमल्ल और चामु
" शरच्चन्द्र घोशाल। ण्डरायके नाम पाये जाते हैं। यही कारण है जिससे मैंने अपने गोम्मटसारपर लिखे गये
प्रत्युत्तर । लेखमें यह लिखा था कि, चामुण्डराय और नेमिचन्द्र ईसाकी ११ वीं शताब्दी में हए हैं। ऊपरका यह नोट लिखकर, श्रीमान् प्रोफेसर रही इस पंक्तिकी बात कि “यह कल्की संवत् ।
शरच्चंद्रजी घोशालने अपने अंग्रेजी लेखसे उत्पन्न ६०० विक्रम संवत् ७३५ के बराबर है।” उदाता प्रगटकी है वह निःसन्देह प्रशंसनीय
तु होनेवाले भ्रमको दूर करनेके प्रयत्न द्वारा जो श्रीयुत जुगलकिशोरजीका इसे एक भ्रम बत- है। आपके इस नोटसे यह बात तो साफ़ हो लाना सत्य है। यह मेरी गणना नहीं है। पं. .
जाती है कि 'कल्की संवत् ६००' विक्रम संवत् जवाहरलाल शास्त्रीने अपनी बृहद्रव्यसंग्रहकी
यसका ७३५ के बराबर नहीं है और इस लिए साधारण प्रस्तावनामें लिखा है:
जनताका इससे एक भ्रम दर हो जाता __“ यहाँ कल्की व कलिके संवत्से शकके है। परन्तु साथ ही एक नया भ्रम और संवत्को ग्रहण करना चाहिए । " " इसके अनु- पैदा होता है और दूसरा भ्रम बदस्तूर सार कल्की (शक )के संवत् ६०० (वि. सं. कायम रहता है । नया भ्रम यह पैदा होता है ७३५)में......." इत्यादि ।
कि प्रोफेसर साहबने इस नोटमें हेतुरूपसे यह
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जैनहितैषीImmmmmmmHITIES
प्रगट किया है कि हमने अपने उक्त लेखमें अतः 'एपीग्रेफिका एण्डिका ' आदिके उन शिचामुण्डराय और नेमिचन्द्रका समय ईसाकी लालेखोंके प्रगट होनेकी जरूरत है जिनसे प्रोफे११ वीं शताब्दी लिखा है । परन्तु 'दिग- सर साहबके इस समयका समर्थन होता हो और म्बरजैन' के गत खास अंकमें प्रकाशित आपके जिनके आधार पर प्रोफेसर साहबने उक्त समउक्त लेखको देखनेसे ऐसा मालूम नहीं होता। यका निश्चय किया है। दूसरा भ्रम वही संवत्के उसमें साफ़ तौरपर दोनोंका समय ईसाकी नाम तथा संवत्में तिथि, दिन और नक्षत्रादिकके १० वी शताब्दी लिखा है । उसीका मैंने उन योगोंके घटित होनेसे सम्बन्ध रखता है, जो अपने पूर्वके नोटमें उल्लेख भी किया था। प्रोफ़े- बाहुबलिचरित्रके उस पद्यमें वर्णन किये गये हैं, सर साहबने उसका कोई प्रतिवाद नहीं किया। जिसमें कल्क्यब्द ६०० का उल्लेख है और जिसे इससे आपके दोनों कथनोंमें सर्वसाधारणको मैंने अपने पहले नोटमें उद्धृत किया था। ईसवी भ्रममें डालनेवाला पूर्वापर विरोध पाया जाता सन् १०७४ विक्रम संवत् ११३१ और शक है और लगभग एक शताब्दीका अन्तर बैठता है। संवत् ९९६ के बराबर है । इन संवतोंमें किसी चामुण्डरायके विषयमें अभीतक जो कुछ प्रमाण भी संवत्का नाम ( उक्त पद्यमें वर्णित ) उपलब्ध हुए हैं उनसे चामुण्डरायका समय 'विभव ' नहीं हो सकता। यदि बाहुबलिइंसाकी १० वी शताब्दी ही निश्चित होता चरित्रके समय-सूचक इस कथनको और उसके है; ११ वाँ शताब्दीका उत्तरार्ध या ईसवी आधारपर प्रोफेसर साहबकी की हुई उक्त गणनाको सन् १०७४ नहीं होता । मिस्टर राइससाहबने सत्य माना जाय, तो ज्योतिषशास्त्रके उन नियअपनी 'इन्स्क्रिप्शन्सऐट श्रवणबेल्गोल' नामक मोंके प्रगट होनेकी भी जरूरत है जिनके आधार पुस्तककी प्रस्तावनामें लिखा है कि, चामुण्ड- पर विक्रम संवत् ११३१ या शक संवत् ९९६ रायने एक पराण बनाया है जिसमें उसके बन- का नाम 'विभव हो सके और जिनके कर समाप्त होनेका समय शक संवत् ९०० आधारपर इस सालकी चैत्र शुक्ला पंचमीको ( ई. सन् ९७८) दिया है । श्रीयुत पं. नाथू- रविवारका दिन, सौभाग्य योग और हस्त रामजी प्रेमी, चन्द्रप्रभचरितमें 'वीरनन्दि' का नक्षत्र सिद्ध किये जा सकें । निःसन्देह यह परिचय देते हुए, रत्नकविके 'पुराणतिलक' एक उलझन है, जिसके खुल जानेकी बहुत नामक ग्रंथके आधारपर, जो कि शक संवत् बड़ी जरूरत है । अतः प्रोफेसर साहबसे ९१५ ( ई. सन ९९३) में बनकर समाप्त हुआ मेरा पुनः निवेदन है कि वे कृपाकर फिरहै, लिखते हैं कि उस ग्रंथमें कविने अपने ऊपर से इस विषयपर विचार करें और उक्त भ्रमोंको चामुण्डरायकी विशेष कृपा होनेका उल्लेख किया दूर करनेका कष्ट उठाएँ । यदि जाँचसे उन्हें है । इस प्रकारके प्रमाणोंके मौजूद होते अपने इस नोटका उक्त कथन भी सत्य प्रमाहुए, प्रोफेसर साहबका चामुण्डरायको ईसाकी णित न होवे तो कृपया उसका भी प्रतिवाद ११ वीं शताब्दीके उत्तरार्धमें बतलाना और निकाल देवें जिससे सर्वसाधारणमें आपके उनके द्वारा ईसवी सन् १०७४ में गोम्मटेश्वरकी कथन-द्वारा किसी प्रकारका भ्रम न फैल सके । मूर्तिके प्रतिष्ठित किये जानेकी घोषणा करना, यह यहाँ मैं यह भी सूचित करदेना उचित समझसब पाठकोंके हृदयोंमें बहुत ही खटकता है। ता हूँ कि कहीं कहीं कल्क्यब्द ' के स्थानमें
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नेमिचरित काव्य ।
6 कल्यब्द , ऐसा पाठ भी पाया जाता है । राइस साहबने अपनी उक्त पुस्तककी प्रस्ताव नामें ' कल्यब्द ' का ही उल्लेख किया है । यदि यह पाठ सत्य हो तो यहाँ पर 'कलि ' अभि प्राय ' जैन कलि ' का ही लिया जा सकता है जिसको जैनी लोग ' पंचमकाल ' भी कहते हैं और जिसका प्रारंभ होना वीरनिर्वाणसे लग
।
काव्यमाला द्वितीय गुच्छकमें यह काव्य नेमिदूतके नामसे प्रकाशित हुआ है । पर वास्तवमें इसका नाम ‘नेमिचरित ' मालूम होता है स्वयं ग्रन्थकर्त्तीने इसके अन्तिम श्लोकमें जो 'नेवारत विशदं' पद दिया है, उससे भी इसका यही नाम प्रतीत होता है । यह 'मेघदूत' के ढँगका काव्य है और मेघदूतके ही चरण लेकर इसकी रचना की गई है। शायद इसीलिए इसे नेमिदूत नाम मिल गया होगा । परन्तु यथार्थ में इसमें दूतपना कुछ भी नहीं है । न इसमें नेमि
दूत बनाये गये हैं और न उनके लिए कोई दूसरा दूत बनाया गया है । राजीमतीने नेमि - भगवान्को संसारासक्त करनेके लिए जो जो प्रयत्न किये हैं, जो जो अनुनय विनय किये हैं और जो जो विरहव्यथायें सुनाई हैं उन्हींका वर्णन करके यह हृदयद्रावक काव्य बनाया गया है । अन्तमें राजीमत के सारे प्रयत्न निष्फल हुए । नेमिनाथने उसे संसारका स्वरूप समझाया विषयभोगोंका परिणाम दिखलाया, मानवज
की सार्थकता बतलाई और इसका फल यह हुआ कि राजीमती स्वयं देहभोगों से उदास
नेमिचरित काव्य ।
भग तीन वर्ष बाद माना जाता है । आशा है कि प्रोफेसर महोदय मेरे इस पुनः कष्ट देने को क्षमा करते हुए यथार्थ वस्तुका निर्णय करने और कराने में दत्तचित्त होंगे |
}
ता० ३-५-१६
२८५
निवेदक:जुगलकिशोर मुख्तार ।
होकर साध्वी हो गई ! यदि अन्त के दो श्लोकों में ये पिछली बातें न कही गई होतीं, तो इस काव्यका ' राजीमती - विप्रलम्भ ' या ' राजीम - तीविलाप' अथवा ऐसा ही और कोई नाम अन्वर्थक होता; परन्तु अन्तिम श्लोकोंसे इसमें नेमिनाथको प्रधानता प्राप्त हो गई है - राजीमती के सारे विरहविलाप उनके अटल निश्चय और उच्च चरित्रके पोषक हो गये हैं, इस लिए इसमें सन्देह नहीं कि इसका ' नेमिचरित ' नाम बहुत सोच समझकर रक्खा गया है ।
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इस काव्यकी रचना बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है । शब्दसौष्ठव भी अच्छा है । परन्तु जगह जगह क्लिष्टता आ गई है । दूरान्वयता बहुत है, प्रयत्न करनेसे विशेष परिश्रमसे कविका हृगत आशय समझमें आता है । पर इसमें कविका दोष नहीं - उसे लाचार होकर ऐसा करना पड़ा है । कविकुलगुरू कालिदास के सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूतके प्रत्येक श्लोकके चौथे चरण को अपने प्रत्येक श्लोकका चौथा चरण मानकर कविने इस काव्यकी रचना की है। ऐसी दशा में चौथे चरणोंके शब्दों, वाक्यों और उनके आशयोंकी अधीनता में
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२८६
जैनाहतैषी
पड़कर कवि और करता ही क्या ? अपने हृद्गत भावोंको दूसरे कविके शब्दों, वाक्यों और आशयोंके द्वारा रुद्ध हुए मार्गमेंसे प्रगट करनेके सिवा उसे कोई गति ही न थी । ऐसी परिस्थितिमें काव्यमें क्लिष्टता आना ही चाहिए। किन्तु इस पराधीन कार्यमें भी कविने जो काव्यकौशल दिखलाया है और जो मार्मिकता दिखलाई है, उससे अनुमान हो सकता है कि यदि कवि अपने भावोंको स्वच्छन्दतापूर्वक प्रकट करनेका-अपनी भावधाराको बिना बाधाके बहानेका मौका पाता, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह काव्य और भी ऊँचे दर्जेका काव्य बन जाता ।
इस काव्यके बनाने में कविको कितना परि श्रम करना पड़ा होगा इसका अनुमान पाठक तब कर सकेंगे, जब मेघदूतको सामने रखकर इस काव्यको पढ़ेंगे और मेघदूतके चौथे चरणोंके मूल भावके साथ इसके चौथे चरणोंके भावोंको मिलावेंगे । मेरी सप्रझमें यह काम वैसा ही कठिन है जैसा कि आमके एक पौधेको काटकर उसकी पींढ़में दूसरे पौधेकी कमलको जोड़ देना और दोनोंके शरीरको रसको और चेतना शक्तिको एक कर देना। पूरे काव्यका पाठ करके हम देखते हैं कि कविने इस कठिन कार्यमें अच्छी सफलता प्राप्त की है ।
इस काव्य के कर्त्ताका नाम विक्रम है । वह साङ्गणका पुत्र था | नेमिचरितके अन्तिम श्लोकसे कविका केवल इतना ही परिचय मिलता है । वह किस समय हुआ, किस वंशमें हुआ, किस स्थानमें उसका निवास था, उसने और किन किन ग्रन्थोंकी रचना की, इत्यादि बा - तोंका कुछ भी पता नहीं चलता । यदि उसने अपने किसी दूसरे ग्रन्थमें अपना परिचय दिया हो अथवा उसके समकालीन या पिछले किसी ग्रन्थमें उसका उल्लेख हो, तो इस समय तक ऐसे किसी ग्रन्थका हमें दर्शन नहीं हुआ । संस्कृतकी
रचनाशैली से अथवा काव्य में वर्णन की हुई बातों से भी कविके समयका थोड़ा बहुत अनुमान किया जा सकता है; परन्तु न तो इतनी हमारी शक्ति ही है और न हमें इतना अवकाश ही है कि इस कठिन कार्यको हम कर सकें ।
विक्रमकवि जैनधर्मानुयायी था, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह दिगम्बर सम्प्रदायका माननेवाला था या श्वेताम्बर सम्प्रदायका । काव्यवर्णित बातों से भी इस बातका निश्चय न हो सका । क्योंकि इसमें जो कुछ कहा गया है वह साम्प्रदायिक मतभेदकी सीमा से बाहर है । गुजरातीके एक ऋषभदास नामके कवि हो गये हैं । वे श्वेताम्बर थे । उन्होंने अपने पिताका नाम 'संघवी सांगण' लिखा हैं । यदि उन्हीं सांगणके ये भी पुत्र हैं तो फिर इन्हें भी श्वेताम्बर मानना पड़ेगा । पर यह जानने की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं है । दोनों ही सम्प्रदायके काव्यप्रेमी जन, अपना अपना समझ इसके रसका आस्वादन कर सकते हैं ।
कविका क्षेत्रज्ञान |
मेघदूत यक्षने अपनी प्रेयसी के पास सन्देशा भेजने के लिए बादलोंको मार्ग बतलाया है कि तुम अमुक अमुक स्थानोंसे होकर जाओगे, तो उसके समीप पहुँच जाओगे । इस मार्गसूचन में कालिदासने अपने भूगोलज्ञानका विलक्षण परिचय दिया है । विद्वानोंने निश्चय किया है कि उनके वर्णन में देशस्थानसम्बन्धी कोई भूल नहीं है, मानो कालिदासने स्वयं पर्यटन करके उक्त सब स्थान और नगरादि देखकर अपना काव्य लिखा था ।
यही बात नेमिचरितमें भी है । पहले पहले जब हमने इस काव्यको पढ़ा और इसमें गोमती वेत्रवती आदि नदियोंके नाम देखे, तब हमें क्षेत्रज्ञान के सम्बन्धमें अश्रद्धा हो गई ।
कविके
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क्योंकि ये नदियाँ जूनागढ़ और द्वारिकाके मार्गसे कई सौ कोस दूर हैं । परन्तु आगे जब हमने इस विषय की छानबीन की और काठिया वाड़का नकशा मँगाकर देखा, तब यह भ्रम दूर हो गया । हमें निश्चय हो गया कि कविकी इस विषयमें अच्छी जानकारी थी । यद्यपि उसका वर्णितक्षेत्र कालिदास के जितना बड़ा नहीं है; तो भी उसने उसमें पर्यटन किया है और ऐसा जान पड़ता है कि उसने स्वयं आँखों देखे हुए स्थानों का वर्णन किया है । आश्चर्य नहीं कि कवि काठियावाड़का या उसके आसपास के ही किसी स्थानका रहनेवाला हो ।
नीचे हम कुछ स्थानोंके विषयमें खुलासा करना चाहते हैं जिनका वर्णन नेमिचरितमें आया है:
—
नोमचरित काव्य ।
१ रामगिरि ( श्लोक १ ) - मेघदूतका रामगिरि अमरकंटक पर्वत है । परन्तु नेमिचरि तके कर्त्ताने यह नाम गिरनारके लिए दिया है । ऊर्जयन्तिगिरि, रैवताद्रि आदि नाम तो गिरना - रके जगह जगह मिलते हैं, पर यह नाम इस काव्यके अतिरिक्त कहीं नहीं देखा गया । संभव है कि कविने मेघदूतके चतुर्थचरणके वशवर्ती होकर -- जिसमें कि ' रामगिरि नाम पड़ा हुआ है — गिरनारका नाम रामगिरि न होनेपर भी अगत्या मान लिया हो और हमारे देशमें 'राम' शब्द इतना पूज्य है कि उसे किसी भी पूज्यतीर्थ के लिए विशेषणरूपमें देना अनुचित भी नहीं कहा जा सकता ।
२ द्वारिका (श्लोक १६ ) – गिरनार से द्वारिका वायव्य कोण में है । इसलिए इस श्लोक में कहा है कि द्वारिका जाने के लिए आपको उत्तरकी ओर जाकर फिर पश्चिमको जाना पड़ेगा ।
३ वेत्रवती ( श्लोक ० २६ ) - यह द्वारि का प्राकार के पास है । ६४ वें श्लोककी गोमती
२८७
और यह एक ही मालूम होती है । गोमती अब भी गोमती ही कहलाती है । वे या तो इसका दूसरा नाम होगा, या उसमें बेत अधिक होंगे, इसलिए कविने उसका इस अन्वर्थ नामसे उल्लेख किया होगा । मेघदूतके जिस चरणकी यह समस्यापूर्ति है उसमें यह शब्द पड़ा हुआ है, इसलिए कवि ऐसा करने के लिए विवश था । मेघदूतकी वेत्रवती मालवेकी बेतवा नदी है ।
6
४ स्वर्णरेखा (श्लोक ३२ और ४५ ) - यह नदी गिरनार पर्वतसे ही निकली है । छोटीसी पहाड़ी नदी है । इसकी रेतमें सोनेका बहुत सूक्ष्म अंश अब भी पाया जाता है । इसे लोग ' सुवरणा ' कहते हैं । आगे चलकर यह नदी शायद किसी दूसरे नामसे प्रसिद्ध है ।
1
५ क्रीड़ा पर्वत ( श्लो० २७ ) - ' तुलसीश्याम' नामक पर्वतको लोग श्रीकृष्णका कीड़ा पर्वत कहते हैं । इसपर रूठी रुक्मणिकी मूर्ति बनी हुई है ।
६ वामनराजाकी नगरी (श्लो० ३२ ) - इसको इस समय ' वणथली ' कहते हैं । जो कि 'वामनस्थली ' का अपभ्रंश है । यह जूनागढ़ स्टेटका एक कस्बा है और जूनागढ़ से लगभग ५ कोसकी दूरीपर है । यहाँ वह स्थान भी बना है जहाँ विष्णुने तीन पैरसे पृथ्वी मापी थी।
७ भद्रा (श्लो० ५० ) - यह नदी इस समय ' भादर' नामसे प्रसिद्ध है । यह जसदके पास पर्वत से निकली और नवीबन्दरसे आगे अरब समुद्र में मिली है । कविने इसके संगमस्थलका ही वर्णन किया है ।
८ पौर ( श्लो० ५१ ) – यह इस समय पोरबन्दर के नाम से प्रसिद्ध है । भद्रा ( भादर ) को पार करनेके बाद कविने इस नगर के मिलकी बात कही है ।
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२८८
+ जैनहितैषी-- ८गन्धमादन और बेणुनपर्वत (श्लो० काव्यमें क्षेपकसहित सभी श्लोकोंके चरणोंकी ५३ और ६१)-हालार और बरडो प्रान्तके पूर्ति की गई है और इसीलिए इसमें १२५ बीचकी पर्वतश्रेणीको 'बरडो' कहते हैं। संभ- श्लोक हैं । इससे मालूम होता है कि कविके वतः इसी श्रेणीके किन्हीं दो पर्वतोंका नाम समयमें उक्त क्षेपक श्लोक प्रचलित थे। गन्धमादन और बेणुन होगा । कविने इन दोनों- यह काव्य काव्यमालामें बहुत समय पहले का वर्णन पोरबन्दरसे आगे चलकर किया छप चुका है। पं० उदयलालजी काशलीवालने
इसका हिन्दी अनुवाद भी किया है जो गतवर्षमें ___ मेघदूतके मूल श्लोक ११५ हैं और १० छप चुका है। हो सका तो अगामी अंकमें इसके श्लोक क्षेपक बतलाये जाते जाते हैं । पर इस कुछ पद्योंकी बानगी भी दिखला दी जायगी ।
CHANAHANAGARILALLARAMINATIOMAHARA
C
HILLILLY
विधवा बहू और सधवा सास ।
ARTHAYRETIRITEREmmmmITHERPRETRINITIATTIRITTE
[ लेखक, कविवर पं० गिरिधर शर्मा।] (गीत)
सास न जाने सोच सोच क्या दृश्य कैसा दिखलाया राम।
फूली अंग न माय ॥ दृश्य० ॥ तरुण बहू विधवा हो बैठी।
करती घुल घुल काम। स्वर्ग सिधारे प्राणनाथकेसज धज सास बनाती तिस पर .
बाला बड़ी मलीन । देती उरमें डाम ॥ दृश्य०॥ पर, माँ, सुतके गये सजे यों, (२)
है आश्चर्य नवीन ॥ दृश्यः॥ बालबधू मनमार बिचारीबैठी मूंड़ मुड़ाय।
असती है, या सौतेली माँ, बाल बनाती लख लख दर्पण सास हृदय हुलसाय॥हश्य० ॥ विधवा पुत्रवधूके सन्मुख
या दत्तककी माँय
जो सजती हरषाय ॥ दृश्य० ॥ हियमें जले जले बाहर भीबहू आगके पास।
(७) जबाकुसुम बालोंमें डाले
राम करे क्या उसको गिरिधर चैन उड़ावे सास ॥ दृश्य० ॥
तू मत दे कुछ दोष । (४)
भारत सामाजिक दोषोंपर सोच सोच निज दशा बहू तो
तू निकाल निज रोष ॥ दुबली हो हो जाय।
कहे मन दृश्य दिखाया राम ।
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HARIRHABARRAIBARBARBARICILIDULIHEARBAALHALELEBRLEBRITALITY
आकांक्षा। ia [लेखक, श्रीयुत बाबू दयाचंद गोयलीय ।] जब मनुष्यको अपनी अज्ञानताका स्पष्ट आकांक्षासे सब चीजें सम्भव हो जाती हैं, रूपसे बोध हो जाता है तब उसके मनमें उन्नति- उन्नतिमार्ग खुल जाता है और उच्चसे उच्च की आकांक्षा उत्पन्न होती है जिसमें ऋषि मुनि पद भी जिसकी कल्पनाकी जा सकती है प्राप्त लीन रहते हैं । आकांक्षासे मनुष्य भूमिसे स्वर्गमें, हो जाता है। और तो क्या स्वयं मोक्षपद अज्ञान कूपसे ज्ञानमंदिरमें और अंधकारसे और केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाता है । ऐसी प्रकाशमें प्रवेश पाता है। इसके बिना अज्ञान कोई चीज नहीं है जिसका विचार किया जा अंधकपमें पशवत' विषयों में उन्मत्त हआ पडा सकता हो, परंतु जिसकी प्राप्ति न हो सकती हो । रहता है-जहाँ किसी प्रकारकी भी उन्नति नहीं आकांक्षासे ईश्वरदर्शन होते हैं और आनंदकर सकता।
- के द्वार खुल जाते हैं । जब तक मनुष्यको सांसा__ आकांक्षा और इच्छामें अंतर है। आकांक्षा रिक लालसायें लगी रहती हैं वह आत्मोन्नतिकी दया, प्रेम सत्यता, पवित्रता आदि स्वर्गीय पदा- आकांक्षा नहीं कर सकता, परंतु जब सांसारिक ोंके लिए होती है-जिनसे आत्मिक सख मिलता लालसायें कडुवी और दुःखरूप मालूम होने है । इच्छा सांसारिक विषयवासनाओं और भोग लगती हैं तब उसे आत्मोन्नतिका ध्यान होता विलासोंके लिए होती है-जिससे इंद्रियसुख
है । जब सांसारिक भोग विलासोंसे मनुष्यका मिलता है।
जी भर जाता है, उनसे रुचि हट जाती है, तब जिस प्रकार पंखरहित पक्षी नहीं उड़ सकता,
उसे स्वर्गीय सुख और आत्मानुभवके परमानंदउसी प्रकार आकांक्षा रहित मनुष्य उन्नति नहीं
की अभिलाषा होती है । जब प्रत्यक्षमें पापसे कर सकता और अपनी विषय वासनाओंपर
' दुःख मिलने लगता है तब पुण्य उपार्जन करनेविजय प्राप्त नहीं कर सकता। वह अपनी इंद्रियों
' की मनुष्यमें इच्छा होती है । दुःख भोगने परका दास बना रहता है और विषयोंके आधीन
सुखकी अभिलाषा होती है । वही अभिलाषा रहता है। उसके विचार स्थिर नहीं रहते ।
सच्ची अभिलाषा होती है । उसीसे मनुष्य स्वर्ग
।' सुख और परम्परा मोक्षआनंदका भोग कर सांसारिक घटनाओंके परिवर्तनके साथ उसका
सकता है । आत्मोन्नतिका अभिलाषी मनुष्य मन भी चंचल चलायमान रहता है। उस मार्गका अनुगामी है जिसके अंतमें शांतिका
जब मनुष्य आत्मोन्नतिकी अभिलाषा रखता विशाल और अनुपम मंदिर है । यदि वह मार्गमें है तब समझना चाहिए कि वह अपनी वर्तमान किसी जगह न रुके अथवा पीछे न हटे तो पतित दशासे असंतुष्ट है और उसमें परिवर्तन अवश्य एक दिन शांति-मांदरमें प्रवेश कर लेगा। करना चाहता है । यह इस बातको भलीभाँति यदि वह सदा अपने मनमें आत्माके स्वरूपको सूचित करता है कि वह विषय वासनाओंकी विचारता रहे, मोक्षका चिंतवन करता रहे, तो गाढ निद्रासे सचेत हो गया है और उसे वास्त- एक न एक दिन मोक्ष-महलमें पहुँच कर निजाविक जीवनकी सत्यताका बोध हो गया है। नंदको प्राप्त कर लेगा।
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MAI
TARAIIIIIIIII
२९०
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जैनहि
जितनी मनुष्य आकांक्षा रखता है उतना ही वह मार्ग भी उसे प्रगट हो जाता है। इस बातका उसे मिलता है। मनुष्य क्या हो सकता है भी उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि मैं कहाँसे इसका अनुमान उसकी आकांक्षाओंसे ही आया हूँ और कहाँ मुझे जाना है । किया जा सकता है । किसी वस्तुकी ओर मनको लगाना, मानो पहले उसकी प्राप्तिको निर्दि- विषयोंमें उन्मत्त हुए मनुष्यके लिए कोई ट करना है । जिस प्रकार मनुष्य छोटी छोटी मार्ग सरल और निश्चित नहीं है। उसके आगे चीजोंका ज्ञान और अनुभव प्राप्तकर सकता पीछे बिलकुल अंधकार है । वह क्षणिक सुखोंहै उसी प्रकार बडी बडी चीजोंको प्राप्तकर की जोहमें रहता है और समझने और जाननेके सकता है । जैसे उसने मनुष्यत्वको प्राप्त किया लिए तनिक भी उद्योग नहीं करता । उसका है वैसे ही ईश्वरत्वको प्राप्त कर सकता है। मार्ग अव्यक्त, अनवस्थित, दुःखमय और कंटकमनको ईश्वरकी ओर लगाना इसीकी अत्यंत मय होता है उसका हृदय शांतिसे कोसों दूर आवश्यकता है।
रहता है। पवित्रता और अपवित्रता क्या वस्तुयें हैं ? उच्च आकांक्षा रखने वाले मनुष्यके सामने पवित्र विचारोंका नाम पवित्रता है और अप- स्वर्ग और मोक्षका मार्ग खुला रहता है। उसके वित्र विचारोंका नाम अपवित्रता । जैसे मनष्य- पीछे सांसारिक इच्छाओंके पेचदार रस्ते बने के विचार हैं, पवित्र अथवा अपवित्र, उसीके रहते हैं जिनमें वह अबतक चक्कर खाता रहा है। अनुसार वह पवित्र वा अपवित्र कहलायगा । अब वह अपने मनको ज्ञान प्राप्तिमें लगाये हुए दूसरोंके विचारोंसे उसका कोई सम्बंध नहीं। आत्मबोधके लिए उद्योग, करता है। उसका हर एक अपने अपने विचारोंका उत्तरदाता है। मार्ग साफ और निष्कंटक है और उसके हृदयमें
यदि मनुष्य यह विचार करे कि मैं दूसरों- शांति और आनंदका अनुभव होने लगा है। के कारण अथवा घटनाओंके कारण अथवा सांसारिक इच्छा रखनेवाले मनुष्य छोटी अपने पूर्वजोंके कारण अपवित्र हैं तो यह छोटी वस्तुओंके पानेके लिए शक्ति भर उसकी भूल है । इस विचारसे वह अपनी भलों- उद्योग करते हैं जो बहुत शीघ्र नष्ट हो जाती को दूर नहीं कर सकता, अपनी बटियोंको हैं और जिनका चिन्ह तक भी शेष नहीं रहता। कम नहीं कर सकता, किंतु ऐसे विचारों- परंतु इसके विपरीत उच्च आकांक्षा रखने से सारी पवित्र आकांक्षायें नष्ट हो जाती हैं वाले मनुष्य धर्म, ज्ञान, बुद्धिसे सम्बन्ध रखने और मनुष्य इन विषय वासनाओंका दास बाली बड़ी बड़ी चीजोंक हासिल करनेके लिए बन जाता है।
भरसक उद्योग करते हैं जो कभी नष्ट नहीं जब मनुष्य इस बातका अनभव करता होती, किंतु मनुष्य जातिके उत्कर्ष और सुधारके है कि मुझमें जो जो त्रुटियाँ और अपवित्रतायें लिए सदैव स्मारकरूप रहती हैं। हैं उन्हें मैंने ही स्वयं उत्पन्न किया है और मैं जिस प्रकार एक व्यापारी निरंतर उद्योग ही उनका कर्त्ता और उत्तरदाता हूँ तब उसे करते रहनेसे अपने व्यापारमें सफलता प्राप्त उनपर जय प्राप्त करनेकी आकांक्षा होती है। करता है, उसी प्रकार एक ज्ञानी - पुरुष उच्च और किस तरहसे उसे सफलता हो सकती है आकांक्षा और उद्योगसे आत्मोन्नतिमें सफलता
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CHARITAMARHATARINAMAHABHARD
आकांक्षा। WERTiffitititiii R ETTYINR
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प्राप्त करता है। वह व्यापारमें दक्ष होता है, भी बढ़ सकती हैं । यदि इनको मनमें स्थान यह ज्ञानमें पूर्ण होता है।
__नहीं दिया जायगा, तो इनके स्थानमें कुत्सित ___ जब मनुष्य अपने मनमें आकांक्षाका आनंद इच्छायें अपना अधिकार जमा लेंगीं । प्रतिदिन अनुभव करने लगता है तब उसका मन तुरंत कुछ समयके लिए एकांतमें निर्जन स्थानमें-जहाँ शुद्ध हो जाता है और उसमेंसे अपवित्रताका तक हो सके खुली हवामें-जाकर अपने मनको मैल दूर हो जाता है । जब तक आकांक्षा रहती चारों तरफसे हटाकर सम्पूर्ण शक्तियोंको एकत्र हैं, अपवित्रताका प्रवेश नहीं हो सकता । कारण करना चाहिएं। ऐसा करनेसे मन आत्मीक कि एक ही समयमें पवित्र और अपवित्र दोनों क्षेत्रमें जय प्राप्त करने और ईश्वरीय ज्ञानके उपाप्रकारके विचार मनमें नहीं रह सकते । परंतु र्जन करनेके लिए तैयार होगा। आकांक्षा पहले बहुत थोड़ी देरतक रहती है। पवित्र चीजोंके प्राप्त करनेके लिए पहले मनको थोड़ी देरके बाद फिर मन उसी पहली हालतमें अपवित्र चीजोंसे हटाना चाहिए और इसके आजाता है । अतएव आकांक्षाको उत्पन्न करनेके ,
* लिए आकांक्षाकी जरूरत है । आकांक्षासे मन लिए निरंतर उद्योग करते रहना चाहिए।
वेग और निश्चयसे स्वर्गमें जा सकता है। ईश्वपवित्र जीवनका प्रेमी अपने मनको प्रतिदिन उच्च आकांक्षाओंसे विशुद्ध करता रहता है।
5 रीय ज्ञानका अनुभव करने लगता है, ज्ञानकी वह सबेरे प्रात:काल उठता है और दृढ विचारों वृद्धि करने लगता है और विशुद्ध केवलज्ञानके
और अविश्रांत श्रमसे मनको प्रबल बनाता रहता प्रकाशसे अपनेको सुमार्ग पर लगा सकता है । है। उसे इस बातका ज्ञान रहता है कि मनकी सत्यताकी आकांक्षा करना, पवित्रताकी अभिऐसी दशा है कि यह एक मिनटके लिए भी का
लाषा रखना और आत्मीक आनंदमें लीन होकर खाली नहीं रह सकता। यदि उच्च विचारों और
ऊंचे ऊंचे चढ़ना यही ज्ञानप्राप्तिका मार्ग है, पवित्र आकांक्षाओंसे इसकी रक्षा नहीं की जायगी, तो यह अवश्य नीच विचारों और कुत्सित इच्छा
शांतिके लिए यथेष्ट उद्योग है और ईश्वरीय ओंके आधीन हो जायगा।
मार्गका प्रारम्भ है। जिस तरह प्रति दिनके अभ्याससे सांसारिक जेम्स एलनकी Passion to peace नामक इच्छायें बढ़ती जाती हैं, उसी तरह आकांक्षायें पुस्तकके Apdiration शीर्षक निबंधका भावानुवाद ।
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मेरा दक्षिण - प्रवास | [ लेखक, श्रीयुत-उदयलाल काशलीवाल । ]
( २ )
मक देवीका मन्दिर है । उसमें वैसे तो अ बकरा आदि कई जानवरोंकी बलि दी जाती है, पर हर शनिवारको मुर्गे बहुत कटते है । उनके खूनसे मंदिरका आँगन तरबतर हो जाता है। इस मंदिरका प्रबंध मूढविद्री एक जैनी सेठके हाथमें है । गवर्नमेण्ट इसके प्रबंध लिए प्रतिवर्ष कुछ रुपया उन्हें दिया करती हैं, उससे वे मन्दिरका सब प्रबंध करते हैं । यह कहा जा सकता है कि वे स्वयं उस महा अनर्थको नहीं करते हैं, तथापि मन्दिरका सब प्रबंध उन्हींके हाथमें है और वे चाहें तो अनर्थको बंद भी करवा सकते हैं; फिर कारण है कि उनका उस ओर ध्यान नहीं जाता ? यदि वे स्वयं अपनेमें उतनी सत्ता नहीं देखते तो सरकार के द्वारा उसे बंद करवाने की कोशिश क्यों नहीं करते हैं? कदाचित् सरकार धार्मिक विचारोंमें हस्तक्षेप न करनेके कारण इसे बंद न करे तो उन्हें इसके प्रबंधसे अपना हाथ खींच लेना चाहिए । सुना जाता है कि मंदिरके वार्षिक देती है, उनमें से खर्च बहुत थोड़े किये प्रबंधके लिए गवर्नमेंट जो दो तीन हजार रुपये जाते हैं और इस तरह जितना रुपया बाकी बच रहता है, वह उन्हींके पास रहता है । इस लोभके मारे - इसी स्वार्थ के कारण वे उन निर राध मुकजीवों की हत्या के रोकनेका यत्न नहीं करते हैं ! जैनधर्म में ऐसे बड़े बड़े राजे महाराजे और चक्रवर्ती सम्राट् हो गये हैं कि जिन्होंने अपने धन-दौलतको, राज्य-वैभवको पैरों से ठुकरा दिया है और आप वनवासी योगी हो गये हैं;
दक्षिणकनाड़ाके जैनोंमें धार्मिक ग्रन्थोंके पठन-पाठनका प्रचार प्रायः नहींसा है और इसी कारण उनकी धार्मिक प्रवृत्ति आज कई बातों में बहुत ही बिगड़ गई है। उनमें निर्माल्यका प्रचार अन्य देवी-देवताओंका विशेषतासे आराधन, आदि कितनी ही बातें ऐसी प्रचलित हो गई हैं कि जिनसे वे अपने धर्मको भूलसे गये हैं । हमारे सुनने में यहाँ तक आया है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने कार्य्यकी सिद्धिके लिए देवीदेवताओं की मानता लेकर अन्य हिंसक जातिके लोगों द्वारा जीवों की बलि तक दिलाया करते हैं । इस बातपर यद्यपि सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता कि जैनी लोग जिनका कि अहिंसा ही परमधर्म है, इतनी नीच दशा पर पहुँच गये होंगे । पर हम इस बातपर एकदम अविश्वास भी नहीं कर सकते हैं - कारण हमें यह बात एक बड़े अच्छे और प्रतिष्ठित सज्जन से ज्ञात हुई है । यदि यह बात सच है तो कहना पड़ेगा कि दक्षिणप्रान्तका सीमान्त पतन हो है। किसे खयाल था कि जिस प्रान्त के प्राचीन नररत्नोंने आजके युगमें जैनधर्मकी लाज रखली है, उनके पीछे उस प्रान्तमें इतना अन्धेरा हो जायगा और वह उधर के ज्ञान सूर्यको एकदम सदा के लिए ढक देगा ?
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ऐसी ही एक और हृदयद्रावक घटना मृड़ विद्री में एक प्रतिष्ठित जैनी द्वारा हो रही है - जिसे सनका हृदय काँप उठता है ! मूड़विद्रीसे कोई एक मील के फासले पर एक " महामारी " ना
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मेरा दक्षिण-प्रवास ।
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और उसी धर्मको हम भी पालते हैं पर उनमें उनकी सारी जिन्दगीको नष्ट कर देना है। उनका और हममें जमीन आसमानका अंतर है । वह समय विद्याभ्यास करनेका है, इस लिए उसका उन्होंने स्वार्थकी तीखी छुरीसे अपनेको बचाया उधर ही उपयोग करना उचित और आवश्यक है। था और हम स्वयं उसे अपने गलेपर रखकर जो बालक छुटपनसे पढ़ने लिखनेमें लगा दिये अपने साथ दूसरोंके हजारों गले उससे काट रहे जाते हैं, उन्हें यदि अन्य विषयोंकी साधारण हैं। स्वार्थ तुझे धिक्कार है ! क्या कनाड़ाके शिक्षाके बाद इन्हीं कामोंकी उत्तम शिक्षा दी जाय
जैनी भाई इस घृणित कामके रोकनेका कोई तो वे इन कामोंको बड़ी अच्छी तरह कर सकते प्रयत्न कर उन निरपराध पशुओंके अनन्त हैं और उसे उन्नतिपर पहुँचा सकते हैं। आशीर्वादका श्रेय लेंगे ?
___ इस ओर शिक्षाप्रचार न होनेका एक और दक्षिणप्रान्तकी जैसी धार्मिक स्थिति अच्छी कारण है । यहाँ अपने पिताकी जायदादका वानहीं है, उसी तरह वहाँकी सामाजिक स्थिति भी रिस या उत्तराधिकारी लड़का नहीं होता किन्तु अन्य प्रान्तोंकी अपेक्षा खराब है। मुझे कई भानजा होता है। इस कारण जो दो चार उदालोगोंसे मिलनेका मौका मिला, पर मुझे किसीके हरण हमारे देखनेमें आये उनसे जाना जाता है मुँहसे सामाजिक चर्चा सुनाई न पड़ी । जान पड़ा कि पिताका मोह या प्रेम अपने लड़के पर कि शिक्षाका प्रचार इस प्रान्तमें बहुत थोड़ा है कितने ही अंशोंमें कम हो जाता है । इससे उसके
और वह भी अन्य लोगोंकी देखादेखी अब कुछ लिखाने पढ़ानेकी ओर वे अधिक ध्यान नहीं कुछ होने लगा है। कनाड़ा प्रान्तके लोगोंमें शिक्षा- देते हैं । लड़का होशियार होनेतक अपने पिताप्रचार न होनेका एक बड़ा बाधक कारण यह है हीके पास रहता है और इस समय तक उसे कि यहाँकी बस्ती उत्तरप्रांतके लोगोंकी तरह शिक्षा नहीं मिलती है। जब वह मामाके घर समुदायरूप नहीं है। कोस-कोस, दो-दो कोसके जाता है तो उसे घरके काम धन्धोंमें फँस जाना फासले पर एक एक घर बसा हुआ है । जहाँ पड़ता है । इस तरह दोनों ही जगह उसके लिए उनका घर है उसीके आसपास उनकी खेती है। शिक्षाका द्वार बन्दसा हो जाता है । यह बात इधर प्रायः सभी जैनी भाई खेतीका धंदा करते मैंने आँखों देखी है कि एक दो विद्यार्थी जो हैं-रात दिन उन्हें खेतीके कामोंमें ही फंसे रहना दक्षिणकनाड़ाके उत्तरप्रांतमें पढ़नेके लिए चले पड़ता है। अतएव अपने बाल-बच्चोंके लिखाने आये हैं और उनके पिता, भाई, बन्धु आदि सब पढ़ानेकी ओर बहुत कम लोगोंका ध्यान जाता मौजूद हैं । उन्हें पाँच पाँच छह छह वर्ष इधर है । और न कोई जातीय सम्मेलन ही हुआ करते पढ़ते और रहते होगये परन्तु इतने सुदीर्घ समहैं, जिनमें कि अपनी सामाजिक स्थितिपर विचार यमें भी उन पत्थरके हृदयवाले उनके पिता और करनेका उन्हें मौका मिल सके । अतः इन लोगोंके भाई, बन्धुओंने अपने आँखोंके तारे प्यारे बच्चोंकी बाल--बच्चोंको जन्मसे ही इसी खेती आदिकी एक पत्र द्वारा भी खबर न ली-कुशलता न पूँछी! शिक्षा मिलती है और फिर उनकी सारी जिन्दगी इस उदाहरणसे पाठक जान सकते हैं कि कनाइसी काममें बीतती है । हमारा यह कहना नहीं ड़ाके जैनी भाई उक्त भानजेके उत्तराधिकारित्वहै कि खेती वगैरह करनी कोई बुरी बात है, परन्तु की प्रथाके कारण अपने लड़कों पर कितना बच्चोंको छुटपनहीसे इन कामोंमें लगा देना गाढ़ा प्रेम रखते हैं ! जब अपनी प्यारी संतान
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HARImmmmmmmmmm
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जैनहितैषी
पर ही उनका पूरा प्रेम नहीं, तब वे उनकी भाई अपनी समाजमें शिक्षा प्रचार करेंगे, तब ही शिक्षाकी अधिक चिन्ता न करें तो इसमें कोई वे अपनी वर्तमान परिस्थितिको सुधार सकेंगे। आश्चर्य नहीं है।
___ गत मनुष्यगणनाकी जो सरकारी रिपोर्ट कुछ लोग शिक्षाकी रुकावटका यह कारण प्रकाशित हुई है, उसके देखनेसे विदित होता है बतलाते हैं कि इधर जैनियोंके घर एक-एक, दो- कि दक्षिणकनाड़ाके जैनोंकी जन-संख्या कुल दो मीलके फासले पर बसे हुए हैं। उनके आस- ८००० के लगभग है। इधरके मूडबिद्री, पास ऐसा कोई पढाईका प्रबन्ध नहीं जहाँ वे कारकल सदृश स्थानोंके विशाल जैनमन्दिरों और अपने बच्चोंको पढ़नेके लिए भेज सकें। पर हमारी बहु-मूल्य प्रतिमाओंको देखकर तो यही जान समझमें यह साधारण कारण है। क्योंकि जिन्हें पड़ता है कि इस प्रान्तमें पहले जैनोंकी संख्या अपनी सन्तानको शिक्षा देना हो-और वे उसे बहुत ज्यादः होगी । वहाँके लोगोंके कहनेसे आवश्यक समझते हों तो अनेक ऐसे उपाय हैं जान पड़ा कि पहले यहाँ जैनोंके कोई छह जिनसे उसकी शिक्षाका प्रबंध किया जा सकता सात सौ घर थे । इसी तरह कारकलमें भी तीन है। कारकलमें एक जैन पाठशाला इसी लिए चार सौ घर थे । पर अब इन दोनों स्थानोंमें खोली गई कि उसमें आसपासके लड़के आकर जैनोंके घरोंकी संख्या केवल ३० बची है। विद्याभ्यास करें। पर उसके मुख्य स्थापक श्रीयुत् उनमेंसे मूड़विद्रीमें २५ के लगभग और कारएम. नमिराज पड़िवार और उसके प्रधानाध्या- कलमें पाँच हैं । इस भयंकर ह्रसका क्या कारण पक श्रीयुत पं. के. कुमारैयाजीसे मालूम हुआ हुआ ? इस विषयका गहरा अन्वेषण होना चाकि जैनियोंके लड़के ही पढ़नेको नहीं हिए । कुछ लोग इसका कारण यह बतलाते हैं आते । हमने पाठशालामें जाकर देखा कि इधरकी कई जैन जातियोंको सत्ताके जोतो उसमें अन्य जातियों के कोई २५-३० लडके रसे अन्य धर्मियोंने अपनेमें मिला लिया। इसके लड़कियाँ पढ़ती थीं और जैनियोंके सिर्फ दो लड़- सिवाय एक और कारण भी हमारी समझमें के थे ! मूडविद्रीमें भी एक पाठशाला है पर जै- आता है और वह-'भूतपाण्डि-एक्ट' है, जिससे न विद्यार्थियोंका वहाँ भी अभाव है ! मैंगलोरमें कि पिताकी जायदादका वारिस लड़का जो वहाँसे २४ मील दूर है-दो जैन बोर्डिंग न होकर भानजा होता है । जबसे भारतका हैं । एक दो वर्ष पहलेका है और एक अभी शासन न्यायशील वृटिश जातिके हाथमें श्रीयुत एम. नेमिराजने लगभग दस हजारके खर्च- गया है, तबसे भारतमें ऐसे कोई धार्मिक से तैयार कराया है। विद्यार्थी यहाँ भी थोडे ही आक्रमण नहीं हुए जो सत्ताके जोरसे जबरन हैं । इन सब बातोंसे यही जान पड़ता है कि लोग अपने धर्ममें शामिल किये गये हों । यहाँके बालक-बालिकाओंके अभिभावकोंका ही पर उधर जैनियोंकी संख्या तो पचास-पचइसमें अधिक दोष है । कितने आश्चर्यकी बात !
- हत्तर वर्ष पहले भी बहुत थी। तब यह कहा
जा सकता है कि उक्त कानूनसे भी जैनसमाहै कि सारे दक्षिणकनाड़ाके जैनोंमें एक भी जको बहुत हानि उठाना पड़ी है । यहाँके ग्रेज्युएट या धार्मिक विद्वान इस समय नहीं है। जैनोंके पास स्थावर सम्पत्ति ही प्रायः ज्यादा है जब समयकी स्थिति देखकर दक्षिणकनाड़ाके और वह पीड़ी-दरपीड़ीसे चली आती है।
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कानूनके अनुसार उसे बेचनेका किसीको आध- रहे हैं तब भी इसकी पुकार सरकारके कानोंतक कार नहीं है-उसका मालिक भानजा ही होता नहीं पहुंचाते हैं । हमारा अनुमान है कि यदि है । यदि किसीके भानजा न हुआ तो उसकी दक्षिणकनाड़ाके जैनी भाई अब भी न चेतेंगे तो स्थावर सम्पत्तिकी मालिक सरकार होती है। वह दिन बहुत दूर नहीं है जब कि इस प्रान्तके पिताने जो सम्पत्ति अपने परिश्रमसे पैदा की है इतिहास मात्रमें इस बातका जिकर रह जायगा
और यदि वह चाहे तो उसे अपने पुत्रको दे सकता कि इधर 'कोई जैन धर्मके पालने वाली जाति है या अन्य कामोंमें खर्च कर सकता है, पर हो गई है और अब उसका नाम भी नहीं है।' उसकी जो पीड़ी-दर-पीडीसे चली आई स्थावर स- इस ' भतपाण्डि-एक्ट । के सम्बन्धमें ऐसी म्पत्ति है उसकी आमदनीको जब तक वह जीता दन्तकथा चली आ रही है कि प्राचीन कालम इस रहे अपने कुटुम्बपालन आदिमें लगाता है, पर प्रान्तमें भतपाण्डि नामका एक बड़ा भारी जैनी उसके मलधनको वह किसी तरह नष्ट नहीं कर राजा हो गया है। उसके बारह लड़के थे। उसने सकता। उसका मालिक है उसका भानजा। एक बार जहाज चलानेका विचार किया और इसी तरह एकके बाद एक मालिक होता उसने एक बड़ा भारी जहाज तैयार करवाया। रहता है। पर मूल सम्पत्ति सदा क्षित जब जहाज समद्र में उतारा गया और चलनेकी रहती है। और किसीके यदि भानजा न हुआ तैयारी की गई तो जहाज वहीं अटक गया । उसे तो फिर वह सम्पत्ति सरकार जप्त कर चलाने के लिए बहत प्रयत्न किये गये पर वह लेती है । इस काननसे हजारों घरोंकी सम्पत्ति किसी तरह न चला। देवी-देवताआसे बहुत सरकारके खजानेमें पहुंच गई है और इस तरह प्रार्थनायें की गई-बहुतसी शपथें ली गई, पर जहाकुटुम्बके कुटुम्ब बरबाद हो गये हैं। ज न चला । रातको भूतपाण्डि इसी चिन्तामें
ऐसा ही कानून वहाँकी एक शूद्र जातिके पड़ा हुआ था। उस समय किसी यक्षने आकर लिए है । पर उसकी दशा कैसी है, इसका कहा “ तू मुझे नर-बलि भेट चढ़ा तब मैं तेरा ठीक पता नहीं । यह बला जैनियोंने जहाज चलने दूंगा।" भूतपाण्डिने उठकर यह अपने आप ही सरपर उठाई थी । कहा सब हाल अपनी स्त्रीसे कहा और उससे जाता है कि भानजेके मालिक होनेकी अपने बारह लड़कोंमेंसे एक लड़केको ‘यक्षरीति बहुत पुरानी है। सरकारने जब अपना बलि' के लिए माँगा। उसकी स्त्रीने साफ इंकार नया कानून जारी किया तब उसने जैनसमा- कर दिया । उसने कहा-मुझे तुम्हारे धन-दौलतजसे पूछा था कि तुम्हें इस कानूनमें कोई उज्र की इच्छा नहीं, मैं अपने लड़कोंको किसी तो नहीं है ? परिस्थिति और परिवर्तनके न तरह न दूँगी । स्त्रीका यह सूखा उत्तर पाकर समझने वाले स्वार्थियोंने कह दिया कि हमें इसमें भूतपाण्डि बड़ा निराश हुआ। उसने अपनी कोई उज्र नहीं। बस, तसे यह बला जैनोंके स्त्रीको बहुत कुछ समझाया-बुझाया, पर सब सिरपर पड़ गई, जिसका भयंकर परिणाम वे आज व्यर्थ गया । कोई उपाय न देखकर दुःख तक भोगते जाते हैं और न जाने कबतक और पश्चात्तापके मारे वह स्वतः अपनी बलि भोगना पड़ेगा। इस बातका अत्यंत खेद है कि देनेको तैयार हो गया । यह बात भूतपाण्डियहाँके भाई इस भयंकर प्रलयको आँखोंसे देख की बहनको मालूम हुआ । बहनका अपने भाई
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पर बड़ा प्रेम था । उसके एक मात्र लड़का था - वह अपने भाई के पास आकर बोली - "भैया, जहाज के लिए तुम्हें नरबलिहीकी जरूरत है न उसके लिए इतनी चिन्ताकी क्या जरूरत है ? मेरे लड़केको तुम खुशी के साथ इस काम में ले सकते हो । बहनका यह प्यार - यह अपूर्व स्वार्थत्याग देखकर भूतपाण्डि बहुत विस्मित तथा प्रसन्न हुआ । फिर वह अपने भानजेको बलि देनेके लिए जहाजपर ले गया । ज्यों ही वह बलि देने को तैयार हुआ त्यों ही यक्षने प्रगट होकर कहा - " बस मैं संतुष्ट हो गया । मुझे अब नरबलि नहीं चाहिए। इसके बदले मैं तुमसे यह चाहता हूँ कि तुम अपनी सब सम्पत्तिका मालिक अपने भानजेको बना दो और आगे के लिए अपने राज्य भर में यह कानून जारी कर दो कि अबसे पिताकी सम्पत्तिका अधिकारी पुत्र न होकर भानजा ही बनाया जाय । " भूतपाण्डिने यक्षके कथना नुसार वैसा ही किया। तभी से इस प्रान्त में भान - जेके मालिक होनेकी रीति चली आती है । इसके बाद भारतवर्ष में वृटिश शासन स्थापित होने के समय जिन्होंने जिस रीतिको पसंद किया उनके लिए वैसे ही कानून बना दिये गये और बाकी प्रजाके लिए ‘ हिन्दू–ला ’ जारी किया गया इस दन्तकथा में सत्यांश कितना है वह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। पर इतना अवश्य है कि कोई ऐसी घटना अवश्य हुई है कि जिसके इस कानूनकी सृष्टि हुई । अस्तु, जो हो, पर इस समय तो दक्षिणकनाडा के जैनों के लिए यह कानून कालसमान हो रहा है। उन्हें इसके विरुद्ध अपनी पुकार सरकार तक अवश्य पहुँचानी चाहिए। इसी में उनका हित है और ऐसा करनेसे ही वे चिरकाल तक जी सकते हैं ।
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जैनहितैषी ।
दक्षिणकनाड़ाके जैनियोंमें तीन जातियाँ हैं । जैन, शेट्टी और पुरोहित । इनमें जैन और
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शेट्टी जातियोंमें ४० - ५० वर्ष पहले परस्पर विवाह सम्बन्ध होता था, पर अब प्रायः नहीं होता है । कभी कोई ऐसा विवाह हो जाता है । पुरोहित लोग जातिके ब्राह्मण हैं । इस जाति लोगों के मैसूरप्रान्तके श्रवणबेलगोला आदि स्थानोंमें ज्यादः घर हैं । इनका विवाह सम्बन्ध इन्हींकी जातिमें होता है । ये जैन ब्राह्मण या उपा ध्याय कहलाते हैं । ये जैन मंदिरों में बतौर माली व्यास के रहते हैं । भगवानकी पूजन वगैरह ये ही लोग करते | पूजनमें जो द्रव्य चढ़ाया जाता उसे ये लोग ले लेते हैं । यहाँके जैनी इनके साथ खानपानमें परहेज नहीं करते हैं, वे इनके साथ बैठकर अच्छी तरह बिना संकोचके खाते पीते हैं । ये लोग जातिके ब्राह्मण हैं । ये कबसे जैनी हुए इसका कोई विश्वास योग्य प्रमाण नहीं मिलता है । कुछ लोगों का कहना है कि ये बहुत पुराने समयसे जैनधर्म ही पालते आते हैं। इधर जो अजैन ब्राह्मण जातियाँ हैं इनका उनके साथ कोई सम्ब न्ध नहीं है ।
शास्त्रों में जगह जगह मामेकी लड़कीके साथ ब्याह करने की जिस रीतिका जिक्र आया है वह रीति यहाँके जैनियोंमें अबतक जारी है । गोत्र वगैरहका झगड़ा इधर बिलकुल नहीं है । इधर इन बातों कोई हानि नहीं समझी जाती और तेकी है । उत्तरप्राँतकी कुछ जातियाँ इस विषसचमुच यह रीति बहुत उत्तम और सबके सुभीयमें बड़े ही अन्धरेमें पड़ी हुई हैं । उन्होंने इन साधारण बातोंको इतना महत्व दे दिया है कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं । परिणाम इसका यह हुआ कि ये बातें आज उन जातियों की काल बन गई । साधारण लोगोंके लिए इन बातों से बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ. उपस्थित होगई हैं । उत्तरप्रान्तकी जैन जातियाँ दक्षिणकना
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mmmmmmmmmmmumRA मेरा दक्षिण-प्रवास।
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डाके जैनियोंकी पद्धतिको स्वीकार करेंगे तो स्वेच्छाचारिणी होजायेंगी और फिर वे भयंकरसे समाजकी बड़ी भलाई हो।
__ भयंकर पाप करनेमें न हिचकेंगीं। उनकी आशा दक्षिणकनाड़ाके जैनोंमें एक बात यह और तृष्णा बढ़ती जायगी और परिणाम यह होगा
कि स्त्रियाँ एकके बाद दूसरा, दूसरेके बाद अच्छी है कि उनमें प्रायः बाल्यविवाह प्रच
तीसरा और तीसरेके बाद चौथा पति करके इसी लित नहीं है । लड़कोंकी उम्र २४-२५ और
तरह आगे आगे बढ़ती जायेंगीं। लेखकको इस लड़कियोंकी १४-१५ की हो जाती है तब ब्याह
बातके जाननेकी बड़ी इच्छा थी कि क्या विहोता है। इस कारण उनका दाम्पत्यजीवन सुखसे
धवा-विवाहका सचमुच ही ऐसा भयंकर परिणाम बीतता है।
होगा ? पर इधर विधवा-विवाहको जायज समहमारे यहाँ तो ये बातें बड़ी भयानक और पापका झनेवाली जातिको देखकर और उन विधवाओंमें, कारण समझी जाती हैं । लड़की, और उसका जो पुनर्विवाह करती हैं, किसी प्रकारका भयंकर १४-१५ वर्षकी उम्रमें ब्याह ! महान् अधर्म ! पाप या उन अप्राकृतिक कल्पनाओंको, जो निमहान् पातक ! अधर्म और पातकसे बचनेके षेधाकोंकी ओरसे की जाती हैं, न होती हुई सुनलिए जहाँ दस दस, ग्यारह ग्यारह वर्षके लड़के कर उसे जान पड़ा कि निषेधकोंकी वे सब कल्पनायें ब्याह दिये जाते हैं, उन जातियोंकी दशा क्यों न अस्वाभाविक और व्यर्थ हैं-उनमें तथ्य नहीं है। और भयंकर हो ? जो बेचारे अभी बच्चे हैं, ब्याह क्यों किसी खास व्यक्तिको लेकर यदि वे सबके लिए ही किया जाता है इसे समझते नहीं, उनका ब्याह एकसा समझते हैं तो फिर ऐसे अन्याय करनेवालोंके कर देना उनकी सारी जिन्दगी बरबाद करना है। उदाहरण पुरुषों और जिनका पति जीता है ऐसी
इधर 'विधवा-विवाह' की रीति भी प्रचलित स्त्रियोंमें भी मिल सकते हैं । इस युक्तिको देकर है। इस प्रथाका कबसे प्रारंभ हआ और जबरन किसीके सिरपर दोष मढ़ना और उस उसकी आवश्यकता पड़ी इसका पता नहीं चलता
जातिको घृणासे देखना अच्छा नहीं । उन्हें कोई है। सुना जाता है कि किसी भट्टारकने इस रीति
ऐसा प्रबल युक्तिवाद उपस्थित करना चाहिए को जारी किया था। तलाश करनेसे जाना गया
जिससे विधवा-विवाहके समर्थकोंका पक्ष कि उत्तरप्रान्तकी तरह इधर — विधवा-विवाह'
, निर्बल पड़ जाय और उन्हें विचार करनेका करने वालेको जातिच्युत नहीं करते हैं । जातिमें मौका मिले
. मौका मिले। उसके साथ एकसा ही बर्ताव किया जाता है। उत्तरप्रान्तकी तरह इस ओर कन्या-विक्रयकी सब उसके साथ बैठकर खाते पीते हैं। दक्षिण प्रथा नहीं है; हाँ, वृद्धविवाहकी प्रथाने अवश्य प्रान्तके जैनोंकी यह उदारता देखकर आश्चर्य होता ही इधर अपना पैर पसार रक्खा है । पर वह है। उत्तरप्रान्तमें यदि कभी कोई ऐसा कर बैठता उत्तरप्रान्तसे बहुत ही थोड़े परिमाणमें है । है तो वह घोरपातकी समझ लिया जाता है किसी बूढ़ेके पास अच्छी सम्पत्ति देखकर किसी जन्मभर उसे किसी तरह जातिमें शामिल होनेका किसी लोभी माता पिताका मन चल जाता है फिर सौभाग्य नहीं मिलता है।
और लड़की धनिकके घरमें जानेसे सुखसे रहेगी, कुछ लोगोंका कहना है कि 'विधवा-विवाह? इस विचारसे वे अपनी लड़कीको बूढ़ेके साथ प्रचलित होनेपर स्त्रियाँ अधिक पापिनी और ब्याह देते हैं । जाहिरमें कोई रुपया पैसा नहीं
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लिया जाता है, गुपचुपकी ईश्वर जाने । अब मैं आपने संग्रह कर रक्खी हैं और उन्हें बड़े प्रेमसे मूडबिद्रीसे फिर आगे बढ़ता हूँ।
पढ़ती हैं । बेंगलोर बड़ा शहर है । शहर और
छावनीकी आबादी मिलकर कोई दो लाखके मूडबिद्रीसे गाड़ी द्वारा मीजार, कलमुंडकुर लगभग है । मैसूरप्रान्तकी राजधानी इसे ही आदिमें अपने मित्रोंके यहाँ दो दो, चार चार कहना चाहिए । वहाँका सब राजकीय काम दिन ठहरता हुआ मैं मेंगलोर आया। मूढबिद्रीसे यहीं होता है । यहाँ कच्चा पक्का गोटा बहुत मेंगलोर लगभग २४ मील है । यह बड़ा बनता है। शहर है। इधर ईसाइयोंका बड़ा जोर है । यहाँ उनके कालेज स्कूल वगैरह सब हैं। यहाँ श्वेताम्बर जैनोंका भी एक मन्दिर है कनाड़ाप्रान्तमें चाँवल बहुत पैदा होते हैं और और उनकी ग्रहसंख्या भी अधिक है। ये सब बारहों महीने खाये जाते हैं । इधर काजकली, प्रायः मारवाड़ी हैं और व्यापारके लिए यहाँ नरियल, सुपारी, जहरीकचुले आदि बहुतसी आकर बसे हुए हैं । इनकी कपड़े, बर्तन, सराफी चीजें पैदा होती हैं। ये चीजें भारतके अन्य आदिकी बड़ी बड़ी दूकाने हैं। ये लोग बडे प्रान्तों में इधरहीसे जाती हैं। मेंगलोरमें दो जैन- हिम्मतवान हैं और व्यापारके लिए भारतके हर बोर्डिंग और एक जैनमन्दिर है । मन्दिर बड़ी हिस्सोंमें बसे हुए हैं । इसी कारण इनमें बड़े बड़े अव्यवस्थामें है । इतने बड़े शहरमें जैनियोंका धनवान् भी हैं। कूपमण्डूककी तरह घरहीमें रहनेसिर्फ एक घर है । एक बोर्डिंगमें कोई १५-२० वाले कायर दिगम्बर भाइयोंको इनके द्वारा इस विद्यार्थी हैं और दूसरेमें सात । दोनों बोर्डिंगमें विषयकी शिक्षा लेकर बाहर पैर बढ़ाना चाहिए। एक एक विद्यार्थी एफ. ए. में पढ़ते हैं और आर्थिक दशा व्यापारहीसे सुधर सकती है। बाकी कोई पाँचवी क्लासमें, कोई छटीमें और विद्वान् धरणेन्द्र पंडित यहीं रहते थे। मेरे कोई सातवींमें । नये बोर्डिंगके बनानेवाले एम्. पहुँचनेके एक महीने पहले उनका स्वर्गवास हो नोमिनाथ पड़िवार बड़े अच्छे स्वभावके और उदार चुका था। वे संस्कृतके बड़े अच्छे विद्वान थे। पुरुष हैं । ऐसे कामोंसे आपको बड़ा प्रेम है। इनके पास एक बहुत अच्छा श्रुतभंडार था । पर
मेंगलोरसे फिर रेल द्वारा बेंगलोर आया। तलाश करनेसे जानपड़ा कि वह सब अस्तव्यस्त थर्डक्लासकी टिकटके ५।) लगते हैं। यहाँ एक हो गया। उसकी पुस्तकें जिनके हाथ लगीं वे जैनमन्दिर है और दि० जैनोंके कोई २५-३० ही उन्हें दबा बैठे। घर हैं । यहाँके लोगोंमें बड़ी भक्ति है। कोई बेंगलोरसे मैसूर आया । थर्डक्लासके ॥-) त्यागी, महात्मा आता है तो वे बड़ी भक्तिसे लगते हैं । दो जैनमन्दिर हैं । श्रीयुत सेठ वर्द्धउसे आहारादि कराते हैं। जैन-स्त्री-समाजमें मानैया इस प्रान्तमें जैनियोंमें अच्छे धनी और श्रीमती सौभाग्यवती अनन्तम्मा विशेष उल्लेख प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपने एक जैनबोर्डिंग बना योग्य हैं । आप बड़ी ही सरल, धार्मिक प्रकृ- रक्खा है। उसमें कोई ४० के लगभग विद्यार्थी तिकी स्त्री हैं। आपकी मातृभाषा कनड़ी होने पढ़ते हैं। पाँच छह विद्यार्थी संस्कृत पढ़नेवाले पर भी हिन्दीभाषा पर आपका बड़ा अनुराग और शेष अंगरेजी पढ़नेवाले हैं । अंगरेजी पढ़नेहै। कोई सौ सवासौ रुपयोंकी हिन्दीपुस्तकें वाले विद्यार्थियोंके लिए धार्मिक शिक्षाके और
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AHIRWAIIMARATHIBHIBAHEBINIRA AE मेरा दक्षिण-प्रवास ।
atrimirmitiiiiiiiiiiifuiltimula
२९९
संस्कृत पढ़नेवाले विद्यार्थियोंके लिए अंगरेजी- ख्यक ग्रंथ थे। दुर्भाग्यसे आग लगजानेके कारण शिक्षाके प्रबन्धकी आवश्यकता है । बोर्डिंगकी राजमहलके साथ साथ ग्रन्थभण्डार भी भस्मीलायब्रेरीमें अन्य पुस्तकोंके अतिरिक्त कोई ६०- भूत हो गया । ७० ताड़पत्र पर लिखी संस्कृत और कनड़ी यहाँ पझैया नामक एक जैनब्राह्मण रहते भाषाकी पुस्तकें भी हैं । इन पुस्तकोंके देखनेसे हैं; गान विद्यामें वे बड़े कशल हैं ! इनको राज्यमझे यहाँ कवि हस्तिमल्लके बनाये मैथिली- की ओरसे अच्छा आश्रय है । एक श्रुतभंडार परिणय, अंजनापरिणय, और सुभद्रापरिणय इनके यहाँ भी है। खेद है कि लेखकको उस ये तीन नाटक मिले। श्रीयुत नमिसागरजी वर्णी- भंडारके देखनेका सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। के प्रयत्न और सेठ वर्द्धमानैयाजीकी उदारतासे यहाँसे श्रवणबेलगोला गया । श्रवणबेलगोला इन तीनों पस्तकोंको में अपने साथ ले आया तक रेल न होनेसे बैलगाड़ी द्वारा जाना पड़ा। हूँ । श्रीमाणिकचन्द्र दिगम्बरजैन ग्रन्थमालामें ये श्रवणबेलगोला यहाँसे ४० मीलके लगभग है । तीनों नाटक प्रकाशित होकर शीघ्र ही पाठकोंको मैसरसे श्रीयत पं० दौर्बलि जिनदास शास्त्रीका देखनेको मिलेंगे।
भी साथ हो गया था। इस प्रान्तके जैन-समामैसूरके पंचायति मंदिरमें भी एक श्रतभंडार जमे आप ही एक जैन-विद्वान् हैं। साहित्यमें है। उसमें २०० के लगभग ताडपत्र पर लिखी आपका अच्छा पाण्डित्य है । आपके साथ हुई पुस्तकें हैं। देखनेसे जान पड़ा कि उसमें वार्तालाप करनेसे एक बड़े महत्त्वकी बात विवैद्यक और ज्योतिषके ग्रन्थ ज्यादा हैं और वे दित हुई । आपने कहा-जैनधर्ममें जो संध्या, प्रायः अन्य धर्मियों के बनाये हुए हैं । जैनधर्मका आचमन, तर्पण, यज्ञोपवीत आदि जितने बाह्य उल्लेखयोग्य कोई ग्रन्थ न देख पड़ा ! आचार हैं-संस्कार हैं, वे सब जैनधर्ममें पीछेसे
। शामिल किए गये हैं। इसका कारण उन्होंने मैसूरकी सरकारी ओरियण्टल लायब्रेरी भी
। बतलाया-पहले यहाँ ब्राह्मणोंका बड़ा जोर था। देखी। उसमें ताड़पत्र पर लिखे और छपे ग्रन्थ बहत हैं। जैनधर्मके लिखित और मुद्रित सब नास्तिक. शद्र वगैरह कहकर उनका अपमान
। जैनियोंसे उनका बड़ा द्वेष था। जैनियोंको वे ग्रन्थ मिलाकर ५०-६० के लगभग हैं। उल्लेख ,
४ख करते थे। उन्होंने उस समयके राजाओंको अपने योग्य कोई ग्रन्थ नहीं।
हाथमें करके जैनविद्वानोंका उनके लिए आशीयहाँ संस्कृतके पठन-पाठनका अच्छा प्रचार वर्वाद देना तक बंद करवा दिया था। जैनधहै। संस्कृत प्रचारके लिए मैसूर इस प्रान्तकी ममें उस समय बड़े बड़े दिग्गज विद्वान् मौ. काशी समझा जाता है । यहाँ सरकारकी ओरसे जद थे । ब्राह्मणोंको यह भय सदा बना एक बड़ी भारी संस्कृत पाठशाला है। उसमें रहता था कि कहीं ये लोग राजाको अपने न्याय, व्याकरण, साहित्य आदि विषयोंकी २५० धर्ममें शामिल न करलें और फिर उससे के लगभग विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं।
हमारी आजीविका न चली जाय । जैनसुना गया कि पहले मैसूरके राजमहलमें एक धर्ममें उस समय यज्ञोपवीत आदि बाह्यविशाल ग्रन्थालय था। उसमें प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ आचार न थे और इसी लिए वे शूद्र समझे जाते संग्रह किये गये थे। उनमें जैनधर्मके भी बहुसं- थे । भगवज्जिनसेन उसी जमानेमें हो गये
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CHUNARISHMMMMMAMALAALI
JAN AEहितैषी
३००
हैं । उन्होंने उस समयकी परिस्थितिको देखकर लगभग सौ घर हैं । ४० घरके करीब
और जैनियोंके सिरसे शूद्रत्वका कलंक दूर उपाध्योंके हैं और बाकीके अन्य क्षत्रिय जैनोंके । करनेके लिए कई ब्राह्मणधर्मकी बातोंको यहाँके जैन लागे अपनेको क्षत्रिय कहते हैं। अपनेमें शामिल किया; और उनमें कुछ परि- जान पड़ता है मूडबिद्री आदिके जैन और वर्तन कर उन्हें जैनधर्मका रूप दे दिया। शेट्टीसे यह अलग ही जाति है। उनका इनका आदिपुराणका जरा गहरी दृष्टि से स्वाध्याय करने- परस्परमें शादी-ब्याह भी नहीं होता है । से जाना जाता है कि जैसा ब्राह्मण लोगोंने गाँवमें तीन जैनमन्दिर हैं। एक भट्टारकजीका अपने राजोंके लिए जैनविद्वानोंका आशीर्वाद मठ भी है। इस गद्दीपर बैठनेवाले सभी भट्टारक वगैरह देना बंद करवा दिया था, ठीक वैसा ही चारुकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध होते हैं। पहले उपदेश आदिपुराणमें जैनराजोंके लिए दिया भट्टारकजीका स्वर्गवास होजानेसे अभी नये भट्टागया है। ब्राह्मण लोग मिथ्यात्वी, धर्म-द्रोही हैं, रका पट्टाभिषेक माघ शुक्क १३ को हुआ है । उनसे जैनराजोंको कभी आर्शीवाद न लेना ये भट्टारक काञ्चीके रहनेवाले हैं। पढ़े-लिखे चाहिए । शास्त्रीजीने कहा-यही कारण है कि साधारण बतलाये जाते हैं । इस प्रान्तमें यह आदिपुराणके पहलेका इस विषयका कोई पद्धति अच्छी है कि जो नये भट्टारक नियत ग्रन्थ नहीं मिलता। यदि ये बातें जैनधर्ममें किये जाते हैं वे प्रायः ऐसे होते हैं जो पहले पहलेसे होतीं तो अवश्य कोई इस विषयका संसार सम्बन्धी सब बातोंका अनुभव कर चुके हों। पुराना ग्रन्थ मिलना चाहिए था। उत्तरप्रान्तकी तरह ढोंगी बालब्रह्मचारियोंको शास्त्रीजीके कहनेसे यह भी जान पड़ा कि सहसा अविचारके साथ गद्दीपर नहीं बैठा दिया मैसर महाराज वैसे हम लोगोंका आशीर्वाद बड़ी जाता है । और इस कारण यहाँके भट्टारक खशीसे लेते हैं पर राज-दरबारमें जैनविद्वान उन्हें प्रायः चारित्रके बिगड़े नहीं होते। समयको देखते आशीर्वाद नहीं देसकते। इसका कारण बत- हुए कहा जा सकता है कि भट्टारकोंकी अब कोई लाया जाता है कि पुराने समयसे ही ऐसी रीति जरूरत नहीं दीखती, पर कहीं यदि बैठाना ही चली आती है।
हो तो इसी रीतिका अनुकरण करना चाहिए । _ शास्त्रीजीने ब्राह्मणधर्मके सम्बन्धमें कहा कि उत्तरप्रान्तके पञ्चायतियोंको इस बातपर अधिक उससमय इस प्रान्तमें शैवधर्मका इतना प्रचण्ड ध्यान देना चाहिए। प्रभाव बढ़ गया था कि उससमयके शैवराजाने यहाँ जो गाँवमें भट्टारकजीके मठके सामने तलवारके जोरसे हजारों जैनोंको शैव बना लिया एक विशाल जैनमन्दिर है, वह वीरानसा पड़ा था । और जिन्होंने शैवधर्म ग्रहण करनेसे इंकार हुआ है । उसकी कुछ भी व्यवस्था नहीं है । किया वे तत्काल कत्ल कर दिये गये थे। जिस मन्दिरमें प्रतिमा हैं, पर साल-सँभाल कुछ नहीं शवराजाने यह अधर्म किया था वह पहले जैनी है । शायद ही कभी कोई उसमें झाडू लगाता था और किसी खास घटनाके कारण शैव हो गया होगा । जहाँ सौ घर जैनियोंके हैं वहाँ एक जैनथा। श्रवणबेलगोला छोटासा गाँव है। हजार मन्दिरकी ऐसी दशा हो यह बड़े दुःखकी बात आठ-सौ घरोंकी बस्ती है । पर जैनधर्मके लिए है । पञ्चोंको इसका कोई . प्रबन्ध करना यह बड़े ही महत्वका स्थान है । यहाँ जैनियोंके चाहिए ।
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MA N OROMOMIND
मेरा दक्षिण प्रवास। mmmmmmmmmmmmmm
३०१
यहाँ दो श्रुतभण्डार हैं । एक भट्टारकजीके नाथ जिनकी अर्द्धासन विराजमान प्रतिमा बड़ी मठमें और एक श्रीयुक्त पं० दौर्बलि जिनदा- सुन्दर है । इसके सामने दाई ओर भी एक मन्दिर है। सजी शास्त्रीके घर पर । शास्त्रीजीके भण्डारकी वह साधारण और अव्यवस्थित दशामें है । यहाँसूची जैनमित्रमें प्रकाशित हो चुकी है। से आगे चलकर जहाँसे गोमठस्वामीके मन्दिरकी भट्टारकजीके मठके श्रुतभंडारमें ग्रन्थोंका अच्छा सीमा शुरू होती है, वहाँ दरवाजेपर दोनों संग्रह बतलाया जाता है । लेखकको उस भंडारके बाजू कोई पाँच छह फुट ऊँची दो खड्गासन दर्शन न हो सके। उस समय पहले भट्टारकजी- श्याम प्रतिमायें हैं । यहाँसे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने का शरीरान्त हो चुका था और नयेका बाद गोमठस्वामीका मन्दिर आजाता है । दरपट्टाभिषेक नहीं हुआ था । इस कारण भंडार वाजेमें घुसते ही गोमठेशकी भव्यप्रतिमाका दर्शन बन्द था ।
होता है । उसे देखते ही नेत्र शीतल होजाते हैं, यहाँ एक निर्ग्रन्थ मुनिराज भी रहते हैं। प्रसन्नताके मारे दर्शकका चेहरा कमलकी तरह आपका नाम अनन्तकीर्तिजी है। पर आप खिल उठता है । उस समय जो आनंद हृदयमें निल्लीकारके नामसे प्रसिद्ध हैं । आप बड़े ही होता है वह इतना अधिक होता है कि उसे शान्त-स्वभावी हैं । सदा ही हँस-मुख रहते हैं। भीतर स्थान न मिलनके कारण मधुर हँसीके जिस पहाड़पर गोमठेश्वरकी प्रतिमा है उसी रूपमें वह बाहिर उबराता रहता है । पर चढ़ते समय पहले एक मन्दिर मिलता है, यह अनुभव होता है कि हम दुःखपूर्ण मर्त्यलोक उसमें आप रहते हैं । बारहों महीने आप नग्न छोड़कर किसी दिव्य लोकमें आ बसे हैं । चिन्ता, रहते हैं । आपका समय ध्यानमें अधिक व्यतीत दुःख, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि जितने होता है । कभी कभी सारी सारी रात ही विकार हैं वे सब उस समय न जाने कहाँ भाग ध्यानमें बैठे बीत जाती है । शास्त्रज्ञान आपका जाते हैं । हृदय भक्ति-सरोवरमें मग्न हो जाता साधारण है । मातृभाषा आपकी कनड़ी है। है। उससमय भक्तिभरे हृदयसे जो आराधना पर हिन्दीसे आपको बड़ा प्रेम है । हिन्दी की जाती है और उससे जो आँखोंसे पवित्र ग्रन्थोंका आप प्रायः स्वाध्याय करते रहते हैं। आनन्दाश्रुकी मोतीसी कुछ बूंदे गिरती हैं वे ग्यारह बजे आप आहारके लिए गाँवमें आते अमोल हैं-पवित्र आत्माओंके लिए त्रिलोक भी हैं । आहार मिलता है तो ले लेते हैं नहीं तो उनके सामने तुच्छ जान पड़ता है । वह भव्यशान्तिसे वापिस लौट जाते हैं। उत्तरप्रान्तके प्रतिमा इतनी सुन्दर है-इतनी मनोमोहक है कि ढोंगी त्यागियोंकी तरह आप कोई प्रकारका घंटों उसके दर्शन करते रहो वहाँसे हटनेकी आडम्बर नहीं दिखाते हैं । आपके दर्शनोंसे इच्छा ही नहीं होती। इस प्रतिमाको बने हुए लेखकको बड़ी शान्ति मिली।
कोई ९०० वर्ष हो गये, पर वह ऐसी जान जिस पहाड़पर गोमठस्वामीकी प्रतिमा है उसे पड़ती है मानो आज ही बनाई गई है । इस प्रतिविध्यगिरि कहते हैं। कोई दो फींग ऊपर चढ़ना माको देखनेके लिए बड़े बड़े अंग्रेजलोग आते पड़ता है तब गोमठस्वामीकी प्रतिमाके पास पहुँ. हैं । उनसे-कहते सुना गया है कि दुनियाँके चते हैं। जब एक फर्लागके करीब ऊपर चढ़ जाते हैं किसी हिस्सेपर इतनी सुन्दर मूर्ति नहीं है। तब बीचमें एक मन्दिर मिलता है । इसमें आदि- बुद्धोंकी मूर्तियाँ इससे भी बड़ी बड़ी बहुत
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जैनहितैषी
देखी गई पर निर्माण-सुन्दरतामें इस मूर्तिने है । अखण्ड एक ही पत्थरसे यह बनाई गई है। सबका नम्बर लेलिया है । मैसूर नरेश तो वर्ष बड़ी ही दिव्य प्रतिमा है । इस प्रतिमाके चारों भरमें कोई दो तीन वार इस प्रतिमाको देखनेको ओर जो दालान है उसके सामनेके दालानको आते हैं, ऐसा सुना जाता है।
छोड़कर शेष तीन दालानोंमें और भी बहुतसी
प्रतिमायें हैं । वे सब ही काले पत्थरकी हैं । ऊँचाई यदि हृदयके विरुद्ध कहना पाप हो-अ- उनकी ३ फीटसे ५ फीट तककी है । उनमें नुकूल कहना नहीं, तो मैं कह सकता हूँ कि खटा
ता म कह सकता हूक खड्गासन प्रतिमायें ही ज्यादा हैं। इस प्रतिमाके दर्शनका जो महत्व मुझे अनुभव
इस पहाड़के सामने ही एक दूसरा छोटा हुआ उतना सम्मेदशिखर और गिरनार जैसे
। पहाड़ है। उसकी चढ़ाई बहुत थोड़ी है । इसे महान् तीर्थोके दर्शनकर भी न हुआ । वहाँ महत्व
१ चन्द्रगिरि कहते हैं । इस पर कोई सोलह मन्दिर है तो सिर्फ इतना कि वह निर्वाणभूमि है।
' हैं। उनमेंसे दो तीन मन्दिरोंके चित्र 'जैनसिद्धापर इसके सिवा वहाँ जो हम लोगोंके लिए पवि
- न्तभास्कर' में निकल चुके हैं। एक मन्दिरमें त्रताके एक महान् आलंबनकी जरूरत है वह
श्रीपार्श्वनाथकी खड्गासन प्रतिमा कोई दस फीट आलम्बन वहाँ नहीं है । और यहाँ वह आलंबन
हाल ऊँची है । यह प्रतिमा भी बड़ी सुन्दर है। है और यही कारण है कि इस दिव्य प्रतिमाके
- पाँचवें श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामीके स्वर्गदर्शन कर जो शान्ति-लाभ होता है वह अन्य
वासकी गुहा इसी पहाड़ पर है । गुहा बहुत जगह नहीं होता । मेरे हृदयमें भावना हुई ।
हुई ही छोटी है। उसमें दो चरणपादुकायें हैं। यहाँसे कि यह प्रतिमा जैनधर्मके इतिहासकी एक
। थोड़ा और बढ़कर नीचा उतरनेसे एक चिरकाल तक स्थिर रहनेवाली कीर्ति है। जैनी -
" तालाब मिलता है । एक जैनमन्दिर यहाँ भी लोग जो प्रतिवर्ष लाखों रुपया तीर्थोके झगड़ोंमें :
है । इसमें पार्श्वनाथस्वामीकी पद्मासन सफेद बरबाद करते हैं क्या ही अच्छा हो यदि वे .
प्रतिमा बड़ी सुन्दर है । यह प्रतिमा कोई चार उस रुपयेको उधरसे बचाकर इस प्रतिमाकी
। फीट ऊंची है। रक्षाके लिए खर्च करें और इस छोटेसे पहाड़को,
, इन दोनों पहाड़ोंपर प्रत्येक मन्दिरका शिलाजो चारों ओरसे अस्तव्यस्त पड़ा हुआ है,
९. लेख है । उनमें सब मन्दिरोंके बनाने वगैरहका एक दिव्य-स्थान-स्वर्गसा बनादें । मैनें परमात्मासे प्रार्थना की कि “ प्रभो, आप इन वर्त- पूरा पूरा परिचय दिया गया है । इस प्रान्तके
जैनधर्मके इतिहासकी एक पुस्तक भी बहुत मानके झगड़ालू जैनियोंको सुबुद्धि दो जिससे -
पहले मैसूर गवर्नमेंटकी ये भाई भाई आपसमें न कट-मरकर अपने धन .१९
ओरसे प्रकाशित हो
' चुकी है । उसका नाम है “ इन्स्क्रप्शन्स और समयका सदुपयोग करना सीखें और पवि- चुका ।
एट दि श्रवणबेलगोल " उसकी कीमत सात त्र जैनधर्मके इतिहासकी नीब सुदृढ़ करनेकी एट
रुपया है । उसमें सब शिलालेखोंकी नकल ओर इनका ध्यान जाय।"
और गोमटस्वामी तथा अन्य कई मन्दिरों और इस प्रतिमाको गंगवंशीय महाराज राचमल्लके स्थानोंके फोटू दिये गये हैं । इस प्रान्तमें मूडमंत्री और सेनापति चामुण्डरायने प्रतिष्ठित किया बिद्री, कारकल, मेंगलोर, बेंगलोर, मैसूर, श्रवणहै । यह खुले स्थानमें है और सफेद पत्थरकी बेलगोला आदि जितने स्थानोंके दर्शन किये,
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HAIRAMATIBAIRILD
हिन्दी।
३०३
उनमें काले पत्थरकी और खड़ासन प्रतिमायें फिर वहाँसे हुबलीका टिकट लिया। हुबलीमें अधिक देखनेमें आई । कहीं कहीं बैठी प्रतिमायें जैनियोंके कोई ३५० घर हैं। नया जैनमन्दिर भी हैं, पर उनमें अर्द्धपद्मासन-एक पाँव ऊपर तैयार हो रहा है। यहाँसे हुटगीका टिकट लिया । रखे हुई ही-ज्यादा हैं । उत्तरप्रान्तमें ऐसी हुटगीमें गाड़ी बदलनके लिए कोई तीन घंटा अर्द्धपद्मासन प्रतिमाओंका नाम भी नहीं है। रहना पड़ा । यहाँसे पाँच बजे दिनको मदरास इसका कारण नहीं जान पड़ता।
मेलमें सवार होकर सबेरे साढ़े छह बजे बम्बई यहाँसे बैलगाड़ी द्वारा टिपटूर आया । और पँहुच गया।
हिन्दी। . [ले-श्रीयुत रामचरित उपाध्याय ।]
[१] छत्र-धारिणी देख तुझे कब, हम सुखसे सोवेंगे हिन्दी। तेरे विघ्नोंके बादल कब, तितर वितर होवेंगे हिन्दी ॥
भारतभरकी प्रिय माता है, मनमें शोच न कर तू हिन्दी। ईश्वर तेरा भी त्राता है, दुष्टोंसे मत डर तू हिन्दी ॥
[३] सच कहता हूँ भारतका तब, उन्नति-कमल खिलेगा हिन्दी । सब भाषाओंसे तुझको जब, ऊँचा स्थान मिलेगा हिन्दी ॥
तेरे सुखद न्यायका दिन वह, बहुत शीघ्र आवेगा हिन्दी । धैर्य सहित उद्यम करती रह, समय पलट जावेगा हिन्दी ॥
तेरी सुन्दरता सच्चाई, किसे न अपनाती है हिन्दी। या तेरी है व्यर्थ बडाई, अब तक दुखपाती है हिन्दी ॥
फिरभी अपने सत्व सभी तू, निश्चित है पावेगी हिन्दी। घर घरमें सोल्लास कभी तू, पूजित हो जावेगी हिन्दी ॥
. [७] कर्मवीर तेरे उद्धारक भारतमें उपजेंगे हिन्दी। तेरे सुख समृद्धिके हारक, हठको छोड़ भजेंगे हिन्दी ॥ सबको दुख मिलता है जगमें, सुख पानेके पहले हिन्दी । इसी लिए निज उन्नति-मगमें, काँटोंके क्षत सहले हिन्दी ॥
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- स्वामी विवेकानंदके उदार उपदेश।
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[ लेखक-श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा । ] .-जो मनुष्य धर्म-पागल होता है, उसका हम अपने क्षुद्र मनोविकरोंसे लड़ने लगेंगे, सिर दूसरी भाषामें परमात्माका नाम सुनकर उनको दबानेके लिए बराबर टक्कर लेने लगेंगे, तत्काल ही फिर जाता है। धर्म-पागल मनुष्यको रातदिन उनसे कशम-कश करने लगेंगे और सार और असारका कुछ विचार नहीं होता। उनके दमन करनेके लिए पूर्ण उत्साह और वह व्यक्ति विषयक विचारोंमें इतना डूबा रहता शक्तिसे काम लेने लगेंगे तब ही समझेंगे कि है, कि दूसरे मनुष्योंकी सत्यताके विषयमें अब वास्तविक धर्मतृष्णा उत्पन्न हुई है। .. विचार करनेका उसे स्वप्न भी नहीं आता । वह –धर्म, यह परमार्थ-ज्ञानका भाँडार-अत्युच्च केवल इतना ही देखता है कि सामनेवाला पुरुष विद्यापीठ है । यह न कहीं मोल बिकता है न स्वधर्मी है या परधर्मी ? उसके सारासार विचा- किसी पुस्तकसे ही निकलता है । चाहे तुम रोकी केवल इतनी ही सीमा है । इसका सारे संसारके कोने कोनेमें ढूँढ डालो, चाहे यह परिणाम होता है, कि उसे स्वधर्मी
। हिमालय, आल्प्स या काकेशस पर्वतको (चाहे वह चरित्र हीन हो या लाखों अप- है
देख डालो, चाहे महासागरकी तलीमें इसका पता राध ही क्यों न करता हो ) बहुत ही
बहुत सा लगाओ और चाहे मरुधरके या आफ्रिकाके सज्जन, प्रामाणिक, विश्वासी और दयालु
बाल मैदानोंकी रेतीका जर्रा जरी उथल-पाथल कर दिखाई देता है, और परधर्मी, (चाहे वह कितना ही दयालु और श्रेष्ठाचारी क्यों न हो) डालो, मगर जबतक तुम्हें सत्गुरुके दर्शन न होंगे
अत्यंत-क्रूर, मायाचारी, मिथ्यात्वी, नास्तिक और तबतक वह तुम्हें कहींसे भी नहीं मिलेगा। निन्य दिखाई देता है। इतना ही नहीं प्रत्यत संसारमें सर्वसाधारण गुरुओंकी अपेक्षा, धर्मपागल अन्यमतावलम्बियों-परधर्मियोंपर जल्म अत्यन्त श्रेष्ठ और परम सन्माननीय गुरु निराले करनेसे भी पीछा नहीं हटता है।
ही होते हैं। ये गुरु ईश्वरीयसत्ता लेकर आये -जब हमारी ज्ञान तृष्णा पूर्ण होगी तब हुए केवल अवतारी पुरुष होते हैं । उनमें जो कुछ हम चाहेंगे वही हमें मिल जायगा। इतना सामर्थ्य होता है कि वे किसीके मस्तक यह नियम अनादि है । जिस वस्तुपर हमारा पर हाथ रख कर, शरीरपर उँगली लगाकर अन्तःकरण जड़ जायगा वही वस्तु निस्सन्देह ज्यादा क्या, केवल दृष्टिपात मात्रसे ही उसको हमें मिलेगी, अन्यका मिलना सर्वथा असंभव आत्मज्ञान सिखा देते हैं और उसका उद्धार है । वास्तविक धर्मतृष्णाका उत्पन्न होना महा कर लेते हैं। कठिन कार्य है। यह बात हमें जितनी सरल भक्तिमंदिरकी नींव पवित्रताकी स्फटिक मालूम होती है, उसे कार्यके रूपमें लाना उतनाही शिलापर जमाई गई है । बाह्यशरीरशुद्धि कठिन है । शास्त्र-पुराण पढ़ने या पुस्तकें और अन्नकी स्वच्छता रखना बहुत ही सरल पढ़लेने या सुन लेनेहीसे धर्मतृष्णा उत्पन्न हो है; परन्तु अन्तरंगके निर्मल और पवित्र हुए जाती है, यह कहना सर्वथा भूल है । जब विना बाह्यशुद्धि सब निरर्थक है।
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TADARADARIA
AEWATER AHININNAMENT HTMLECRPATTHARE
९
जैन लेखक और पंचतंत्र ।
UNT
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EWANATANE ENTENAME
INDIANEWANDIANTA RTING TENANTETWENTATION
सन् १८५९ ईसवी में प्रसिद्ध जर्मन अध्यापक कि बैनफेकी कई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खोजोंको थीओडोर बैनफेने पंचतंत्रका अनुवाद प्रका- निरर्थक समझकर फेंक दिया । शित किया। इस अनुवादके प्रकाशित होते ही बैनफेकी प्रधान खोज यह थी कि बहुत साहित्यकी खोजमें एक नवीन युगका प्रारंभ हो
सी यूरोपीय आख्यायिकाओं और अनेक कहागया । उस समय पंचतंत्रकी छपी हुई केवल एक ही आवृत्ति उपलब्ध थी। चूँकि बैनफे एक सच्चे
नियोंका निकास भारतवर्षसे हुआ है। इस विद्वान थे इस लिए उन्हें केवल उसी आवृत्ति
खोजके प्रतिवादियोंमेंसे जहाँ तक मुझे मालूम का अनुवाद कर देनेसे संतोष न हुआ; किन्तु
है केवल एक विद्वान ही ऐसा है जो संस्कृत
जानता है। परन्तु यह विद्वान, जिसने एक उन्हें जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ मिल सकी वे
छोटी सी पुस्तक अन्य साहित्यों पर भारतीयसब उन्होंने इकट्रीं की। दुर्भाग्यवश इन प्रतियों
". कहानियोंके प्रभावके विषयमें लिखी है, भारकी संख्या थोड़ी ही थी। उन्होंने अपनी पुस्तकमें
तीय कहानियोंके जो थोड़ेसे छपे हुए संग्रह एक प्रस्तावना भी लिखी, जिसने यह दिखला दिया कि सभ्य संसार पर भारतीय कथा-साहि
उपलब्ध हैं उनमेंसे कुछसे ही परिचित है; त्यका कितना बडा प्रभाव पड़ा है।
उसको भारतवर्षके उस विपुल कथा-साहित्यफ्रांसीसी विद्वान् सिलवेस्टे डी सेसी, जो की कुछ भी खबर नहीं है जो अभी तक "कलेलह-दमनह" की अरबी आवृत्तिके प्रथम प्रकाशित नहीं हुआ और केवल हस्तलिखित
ग्रंथों में ही मिलता है। सच पूछो तो उसने संपादक थे, उन पथप्रदर्शकोंमें हो गये हैं जो
केवल यही साबित किया है कि वह जिस विषय समय समय पर प्रकट होते हैं और साहित्यकी १ खोजमें भावी संततिके लिए नये मार्ग ढूंढ पर लिख रहा है उससे अनभिज्ञ है । परन्त निकालते हैं । इस विद्वान्के बाद बैनफेका ही तुलनात्मक कथा-साहित्यमें जो विद्वान् अत्यन्त नम्बर है; परन्तु बैनफेको जो सामग्री उपलब्ध प्रवीण हैं-यद्यपि वे भारतीय भाषाओंसे अनहुई वह बहुत थोड़ी थी, इस लिए अपने अध्यय- भिज्ञ हैं-बैनफेके विरोधी नहीं हैं । जुहानीज नसे जो परिणाम उन्होंने निकाले उनमें त्रुटियों- बोलट्रेको, इमैन्युएल कौसकिनको, और विक्टर से बचना असंभव था । उनकी पुस्तककी इन चौविनको, जिनका देहान्त हुए कुछ ही महीने चरियोंको और महत्त्वपूर्ण परिणामोंको पहले हुए हैं और जिन की मृत्युसे रैनहोल्ड कोहलर पहल विद्वानोंने ऐसा सत्य समझ लिया कि उन्हें और फेलिक्सली बेचकी मृत्युके समान साहित्यउन बातोमें किञ्चित् भी संदेह न रहा। कुछ सम- संसारको बड़ा भारी धक्का पहुँचा है, इस बातमें यके बाद लोगोंको संदेह होने लगा। बैनफेकी कभी संदेह न हुआ कि उत्तरी और पश्चिमी कई दलीलोंकी कमजोरी लोगोंकी समझमें आने एशिया, आफ्रिका और यूरोपकी जातियोंमें जो लगी और कुछ विद्वानोंने इतना साहस किया आख्यायिकायें और दूसरी तरहकी कहानियाँ
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A
mAILITARATHIMALARI
जैनहितैषी
प्रचलित हैं उनका निकास भारतवर्षसे ही हुआ भाषासे सिरिया देशकी भाषामें इस ग्रंथका है, और डोहनार्टने तो यह भी साबित कर अनुवाद किया और फिर सन् ७५० ईसवीके दिया है कि हबशी ( नीयो ) जातिके गुलाम लगभग अब्दुल्ला इबल मुकफकाने इसका अनुइन कहानियोंको आफ्रीकासे अमेरिका ले गये। वाद आरबी भाषामें कर डाला । अब्दुल्लाके उपर्युक्त विद्वानोंने बैनफेकी इस प्रधान खोज अनुवादसे फिर इस ग्रंथके योरोपीय भाषाओंमें पर विश्वास ही नहीं किया, किन्तु उन्होंने बहुतसे अनुवाद हुए, जिसके द्वारा पश्चिममें इस उसकी सत्यता कई नई बातोंमें भी प्रमाणित ग्रंथका सब ग्रंथोंसे आधिक प्रचार हो गया। कर दिखाई।
___ यह बात आजसे बहुत पहले मालूम हो ___ इस निबंधके लेखकने एक लेखमें (जो चकी थी कि “ कलैलह-दमनह" का निकास
जैन शासन के दीपमालिकाके विशेष भारतवर्षसे हुआ है। सिलविस्ट्रे डी सेसीने इस अंकमें प्रकाशित हो चुका है ) यह दिखाया ग्रंथके इतिहास और प्रचारका स्पष्ट वर्णन लिखा है कि ईसाई धर्मकी पुस्तकोंमें, बाईबिलमें और था और अन्य विद्वानोंने १९ वीं शताब्दाम परानी और नई दोनों तरहकी तौरेतोंमें भी इस वर्णनमें कई नई खोजें बढ़ाई। भारतवर्षका बहुत कुछ प्रभाव मौजूद है।
_ परन्तु, इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथका निकास भारअरबी और फारसी सहित्य भारतीय-कहा- तवर्षसे कैसे हआ और अपने ही देशम नियोंसे भरे पड़े हैं, और अब यह प्रमाणित हो ,
गत १. सदियों तक इसका क्या हाल रहा, इन दो विचुका है कि आरव्योपन्यास, जो अरबीभाषामें ।
- षयोंके संबंधमें लोगोंको बहुत कम बातें मालूसबसे प्रसिद्ध कथा-ग्रंथ है और जिसका अनु
सका अनु- म थीं। उस समय इस ग्रंथकी छपी हुई आवृवाद कई भारतीय भाषाओंमें हो चुका है,- त्ति केवल एक ही थी। यह आवृत्ति कोजगाटेनप्रधानतः भारतवर्षसे ही निकला है।
1 ने सन् १८४८ ईसवी में प्रकाशित कराई थी। ___ समस्त मध्य-कार्लमें ईसाई संन्यासी और
. मुझे खेदके साथ कहना पड़ता है कि यह आवृपादरी अपने धर्मोपदेशोंमें बहुतसी कथाओं
" ति तीन भिन्न भिन्न आधारोंसे बहुत ही बुरी और निदर्शनोंका प्रयोग किया करते थे। ये
तरह तैयारकी गई थी। बैनफेकी कई त्रुटिकथायें यूरोपकी लगभग सभी जातियोंके यहाँ
। योंका एक कारण यह भी है कि उन्होंने लैटिन और ( यूरोपीय ) देशी भाषाओंके अपनी खोजोंमें इसी आवृत्तिको मूलाधार माग्रंथों में अब तक मिलती हैं । उस समय यूरोपके ना था। चूँकि बैनफेके समयमें योरोप वाले बहुत कम लोगोंको यह मालूम था कि वे जैनोंको बौद्धोंका एक संप्रदाय मात्र समझते भारतीय-कहानियोंका प्रयोग करते थे।
इसलिए बैनफेने पंचतंत्रके मूल लेखकको इन कथा ग्रंथों में सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ कलैलह- बौद्ध ठहराया । बैनफेने समझा कि ' कलैलहदमनह है। फारसके हकीम बरज़ाने इस ग्रंथका दमनह किसी एक ग्रंथका अनुवाद है और इसअनुवाद मूल संस्कृतसे पहलवी भाषामें सन् का कर्ता भी कोई एक ही मनुष्य है, परन्तु अ५७० ईसवीके लगभग किया; बडने पहलवी सलमें यह ग्रंथ कई भिन्न भिन्न ग्रन्थोंका संThe Arabian Nights, अर्थात् अलिफलैला। ग्रह है। अपनी आवृत्तिके विषयों कोज़गार्टिन१ ईसवी सन् ५०० से १५०० तक। का कथन है कि यह बौद्धोंके एक मूल
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ALLAHABHARATALABICTIRALATALATAR
जैन लेखक और पंचतंत्र। EMAITRINTIMAT urnimfiniti
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ग्रंथका रूपान्तर (परिवर्तित अनुवाद ) है जो अध्ययन करना अत्यन्त चित्ताकर्षक मालूम हुआ। ब्राह्मणों द्वारा हुआ है । ब्राह्मणोंने अपने ऐतिहा- पहले पहल जब मैंने अपना अध्ययन आरसिक और साहित्यिकप्रेमके कारण इस ग्रंथ. म्भ किया तब मुझे यह आवश्यकीय मालूम को नष्ट होनेसे बचा लिया; उन्होंने इसका रू- हुआ कि छपी हुई आवृत्तियोंको छोड़ कर पान्तर किया और इसके वे सब अध्याय छोड़ मूलग्रंथ और उसके रूपान्तरोंकी हस्तलिखित दिये जो उनके तथा उनके धर्मके प्रतियोंकी परीक्षा की जाय । मैंने यही किया प्रतिकूल थे।
और मुझे इस काममें कई वर्ष लग गये । मैंने इस निबंधके लेखकको ये सब समस्यायें पंचतंत्रकी केवल उन्हीं हस्तलिखित प्रतियोंकी बहुत ही चित्ताकर्षक मालूम हुई । अति प्रा
परीक्षा ही नहीं की जो योरोप और भारतवर्षके
- सार्वजनिक पुस्तकालयोंमें मिल सकीं, किन्तु चीन कालमें योरोपमें सभ्यता एशिया
__भारतीय, और योरोपीय विद्वानोंकी कृपासे मैंने से आई, यह एक ऐसी बात है, जिसको
निजी पुस्तकालयोंमेंसे हस्तलिखित प्रतियोंकोई भी मनुष्य, जो इतिहास जानता है,
९) का बहुत बड़ा संग्रह प्राप्त कर लिया । अब अस्वीकार नहीं कर सकता । यह प्राचान मेरा अध्ययन समाप्त होगया है और मैं अपने कथा-ग्रंथ, जिसका . अथशास्त्र.. अथात् अध्ययनके परिणामोंको पुस्तकाकार प्रकाशित राजनीतिका संग्रह भी कह सकते हैं, अपने
करना चाहता हूँ। मैंने यह पुस्तक जर्मन भाषादेश ( जन्म-स्थान ) से चलते चलते संसारक में लिखी है और इसका नाम " पंचतंत्र; दूसरे सिरेके देशोंमें पहुंच गया और इसकी
है। उसका इतिहास और उसका भौगोलिक गतिको न तो मतमतान्तरोंकी, नीति-शास्त्र विभाग । " रक्खा है। विषयक सिद्धान्तोंकी और भाषाकी भिन्नतायें
___ पंचतंत्रके इतिहासके विषयमें मैंने जो खोजें ही रोक सकी और न भिन्न भिन्न देशों और जातियोंके रीति-रिवाजोंने ही इसकी गति- का ह
की हैं उनसे ऐसा परिणाम निकला है कि उसकी
: आशा न तो मैं और न कोई यूरोपीय अथवा का विरोध किया; किन्तु यह ग्रंथ जिन जातियों
. भारतीय विद्वान कर सकता था । इन खोजोंने में पहुँचा वहीं समाजके संस्कृत और साधारण वर्गोंका सदियों तक प्रेम-पात्र बना रहा-यह
। मुझ पर यह प्रकट कर दिया है कि
जैनोंके साहित्यने, और विशेषकर बात बड़ी ही कुतूहलजनक है और यह सिद्ध
गुजरात निवासी श्वेताम्बरोंके साहित्यकरती है कि दूरवर्ती पूर्व और दूरवर्ती पश्चिममें विचारोंका लेन-देन ख़ब होता था। और ने संस्कृत और भारतवर्षकी देशी भाषाओं मुझे इस ( सार्वभौमिक-धर्मशास्त्र ) के--क्योंकि
पर बड़ा भारी प्रभाव डाला है और इन
खोजोंसे मुझे इस आशातीत बातका भी पता इसका यह नाम बहुत ही उपयुक्त है-इतिहासका
लगा है कि शुकसप्तति (शुक-बहत्तरी) नामक १. यदि इस चित्ताकर्षक विषयका विशेष ज्ञान
वाद हो प्राप्त करना हो तो कीथ-फाक्नर द्वारा संपादित “कलै- चुका है और फिर मुसलमानोंने इस ग्रंथका बह-दमनह" की प्रस्तावना देखनी चाहिए (कैम्ब्रेज प्रचार किया है और वे ही योरोप तक इस यूनीवर्सिटी प्रेस, १८८५ ई.)।
ग्रंथको ले गये हैं।
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जैनहितैषी -
कदाचित् कोई यह संदेह करे कि मैंने जो परिणाम निकाले हैं उनका कारण यह है कि मैं जैनोंका -- उनके धर्मका -- पक्षपाती हूँ, अथवा यह बात है कि मैंने केवल जैन ग्रंथोंके आधार पर ही खोजकी है, इस लिए मैं यहाँ पर यह कहे देता हूँ कि पहली बातका उत्तर यह है कि जब मैंने अपना पंचतंत्र विषयक अध्ययन आरम्भ किया तब मुझे जैनोंका अथवा उनके साहित्यका बहुत ही अल्प ज्ञान था, और दूसरी बातका उत्तर यह है कि मैंने इन वर्षोंमें पंचतंत्र की जितनी हस्तलिखित प्रति याँ मिल सकीं उन सबको इकट्ठा करनेका यथाशक्ति प्रयत्न किया— इसके लिए मुझे सैकड़ों पत्र लिखने पड़े और बहुत धन खर्च करना पड़ा । मुझे अपने अध्ययन के शुरू यह आशा थी कि बैनफेके परिणामोंकी पुष्टि होगी, परन्तु इसके बिलकुल विपरीत हुआ, और इस परिणामका कारण न तो पक्षपात है और न यह है कि मैंने सत्य की खोजमें कुछ उपेक्षा की हो, किन्तु इसका कारण यह है कि जैनॉने और विशेषकर गुजरातके श्वेताम्बरोंने केवल हेमचन्द्रके ही समय में नहीं, किन्तु इस विद्वान्के बहुत समय पहलेसे और बहुत समय बाद तक अपने देशकी सभ्यता पर बड़ा प्रबल और हितकर प्रभाव डाला । उन्होंने केवल आपने धर्मकी ही उन्नति न की, जिसके द्वारा उनके देशबन्धुओंने मनुष्यों और पशुओंके प्रति दयाभाव रखना और उनके शासकोंने प्रजापुर न्याय करना सीखा; किन्तु उन्होंने संस्कृत और प्राकृतमें, ब्रजभाषा और अपनी बोली गुजराती में साहित्य और ज्ञान संबंधी उन्नति भी की। साथ ही साथ जैनके श्रावकोंने विशाल मंदिर बनवाये, जिनसे देश सुशोभित हो गया और ग्रह-निर्माण- कलाकी
वृद्धि हुई । उन्होंने हज़ारों हस्तलिखित ग्रंथों नकल करवाई और अपने मुनियोंके लिए ग्रंथभंडार स्थापित कराये । ये मुनि भी संकीर्ण विचारके न थे । हेमचन्द्रके समान उन्होंने अन्य धर्मानुयायियों के शास्त्र भी पढ़े, और यही कारण है कि उनका आत्मिक संस्कार, जिसका प्रमाण उस विपुल जैनसाहित्यसे जो इस समय उपलब्ध है भले प्रकार मिलता है और भारतवर्ष | जैन भरमें कदाचित् सबसे बढ़ा चढ़ा था लेखकोंके बिना प्रकृतसाहित्य क्या होती ? मेरा यह अटल विश्वास है कि जैनी अपने उच्च आत्मिक संस्कार के कारण ही भारतवर्षमें सर्वसाधारणके बीच में और हिन्दू तथा मुसलमान राजाओंके दरबार में अपने आपको और अपने प्रभावको बनाये रहे । जो मनुष्य विद्वान् न थे उनके लिए जैनोंने देशी भाषाओं में मनोहर साहित्य तैयार किया और राजाओंके दरबारमें उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दिग्गज विद्वानोंका साहित्य-रचना और विद्वत्तामें मुकाबला किया और उन्होंने इस तरहसे जो मान्यता ( गौरव ) प्राप्तकी उसके द्वारा उन्होंने राजाओंका ध्यान अपनी प्रजापर न्यायपरता और दयाशीलता के साथ शासन करनेकी ओर आकर्षित किया ।
यह दिखलाने के लिए कि साहित्य-रचना - में यह मान्यता कहाँ तक प्रकट हुई और जैन साधुओंने अपने देशवासियोंकी शिक्षाक सीमाको बढ़ानेका कितना प्रयत्न किया मैं संक्षेपमें अपने पंचतंत्र संबंधी अध्ययनके परिणामोंका उल्लेख करता हूँ ।
मूलग्रंथका कर्ता विष्णुशर्मा नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण था । यह ग्रंथ लगभग ३०० और ५७० ईसवी सन्के बीच में लिखा गया होगा । इस ग्रंथका कर्ता बैनफेके कथनानुसार
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KAILAIMIMILITATARRImaRITICID
जैन लेखक और पंचतंत्र
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बौद्धधर्मानुयायी न था, किन्तु वह एक वैष्णव पद्य-अंश दिया हुआ है और उसमें एक अकेला था और मालूम होता है कि वह काश्मीरका गद्य-वाक्य भी दिया है, जिसको इस संक्षिप्त रहनेवाला था। उसका उद्देश्य राजकुमारोंको गद्य-संस्करणके नकल करनेवालेने भूलसे अर्थशास्त्र अर्थात् राजनीतिशास्त्र सिखलाना था। श्लोक समझ लिया था, परन्तु वह वास्तवमें इसी लक्ष्यसे उसने एक प्रख्यायिकाके रूपमें कौटिल्यके अर्थशास्त्रका एक गद्य-वाक्य है। पाँच तंत्र लिखे और उनके बीच बीचमें वि- इस बातसे यह 'मालूम होता है कि नैपाली विध ग्रंथोंमेंसे श्लोक उध्दत करके रख दिये संस्करणके मूलमें और इस मूलमें यह भेद है
और कहीं कहीं कौटिल्यके अर्थशास्त्रमेंसे, कि इस संस्करणमें बहुतसे अंश ऐसे भी हैं जिसे पंडित आर. शर्मा शास्त्री, बी. ए. ने सौभा- जो हितोपदेशमें मिलते हैं । परन्तु श्लोकों ग्यवश खोज कर हालमें ही प्रकाशित किया है, और कथाओंकी संख्या और क्रममें नेपाली गद्य-वाक्य भी उध्दृत किये। इसी कारण पंचतंत्रका मूल संस्करण दक्षिण-भारतके पंचग्रंथकारने अपने ग्रंथका नाम 'तंत्र-आख्या- तंत्रके मूल संस्करणसे संपूर्ण समानता रखता है । यिका' रक्खा । बैनफेको जो हस्तलिखित उसके लेखकने पहले और दूसरे तंत्रोंके क्रमको प्रतियाँ मिलीं उनमें कुछ कथायें और श्लोक केवल उलट दिया है; हितोपदेशके कर्ता नाराबाहरसे मिलाये हुए हैं, परन्तु फिर भी यह यणने भी ऐसा ही किया है। आसानीके साथ दिखाया जा सकता है कि मैं यहाँपर विस्तारपूर्वक नहीं लिख सकता शेषांश मल ग्रंथ है और इसी मलमेंसे कलै- और न मैं उन प्रमाणोंको दोबारा लिख सकता लह-दमनहके शुरूके पाँच अध्यायोंका और हूँ जो मैं अपनी उपर्युक्त पुस्तकमें दे चुका हूँ। उत्तर-पश्चिमी भारतकी पंचतंत्र नामक संक्षिप्त यहाँपर इतना कहना काफी है कि उत्तरीआवृत्तिका प्रादुर्भाव हुआ है।
पश्चिमी-संक्षिप्त-संस्करण, जिसके कर्ताका अ. कलैलह-दमनह नामक पुस्तकके विषयमें स्तित्व कालिदासके बाद मिलता है, क्योंकि मैं यहाँ कुछ नहीं कहता; क्योंकि जिस किसी- उसने कुमारसम्भवके द्वितीय सर्गका ५५को इस प्राचीन पहलवी आवृत्ति और उसके
वाँ श्लोक उद्धृत किया है, उत्तरी-पश्चिमी
भारतसे और बंगालसे पूर्णतया बहिष्कृत कर रूपान्तरोंका हाल जाननेकी जिज्ञासा हो वह
दिया गया । बंगालसे इसे नारायण पंडितकृत सुगमताके साथ कीथ-फाकनरकी पुस्तकको
हितोपदेशने बहिष्कृत कर दिया । नारायण जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है-पढ़
पंडित बंगालमें ईसवी सन् ८०० और १३७३ सकता है।
(जो सबसे प्राचीन उपलब्ध हस्तलिखित प्रतिउत्तरी-पश्चिमी-भारतका संक्षिप्त संस्करण की तारीख है ) के बीचमें विद्यमान होंगे, जिसका नाम पंचतंत्र है, अब उत्तरी-पश्चिमी
१. विण्टरनिजने उल्लेख किया है कि इस ग्रंथमें भारतमें नहीं मिलता । हमको इस संस्करणका ।
'दनिार' शब्द कई बार आया है। दिनेरियस पता दो स्थानोंसे मिलता है, एक तो दक्षिण ना
नामक रोमन सिक्केको लैटिनमें दीनार कहते हैं। भारतमें इस संस्करणकी हस्तलिखित प्रतियाँ सर्वत्र शिलालेखोंसे मालूम होता है कि ईसाकी दूसरी मिलती हैं और दूसरे इसकी केवल एक हस्त- सदीके पहले ही 'दि ' की इ ( लघु ) ई ( दीर्घ) लिखित नेपाली प्रति उपलब्ध है जिसमें केवल में बदल गई।
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KALAILERATIRATRAILERTAIRMALAImm
जैनहितैषी
क्योंकि उन्होंने कामन्दकीयनीति और मायके विस्तृत संस्करणसे पंचतंत्रके जैन-संस्कर. ग्रथोंसे वाक्य उद्धृत किये हैं । हितोपदेशका णोंके प्रभावका पता लगता है, क्योंकि उनमें अनुवाद बहुतसी योरोपीय और एशियाकी बहुत-सी कथायें ऐसी मिलती हैं जो पहले पभाषाओंमें ( अर्थात् अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेञ्च, ग्रीक, हल जैन संस्करणोंमें ही लिखी गई हैं। बंगाली, ब्रजभाषा, गुजराती, हिन्दी, उर्दू,मराठी, ये जैनसंस्करण जिनका नाम पंचतंत्र नहीं नेवाडी, फारसी और तैलंग ) में होगया, और किन्तु पंचाख्यान है, भारतीय कथा-साहित्यके इनमेंसे कई भाषाओंमें उसका अनुवाद कई इतिहासके लिए सबसे अधिक महत्त्वके हैं। बार हुआ है। उदाहरणार्थ जर्मनमें इसके छ: ऊपर कहा जा चुका है कि जैनोंने और विशेऔर अँगरेजीमें आठ अनुवाद मौजूद हैं। षकर गुजरातके श्वेताम्बरोंने अपने देशकी
पंचतंत्रके जिन संस्करणोंका उल्लेख हम सभ्यतामें बहुत बड़ा योग दिया है। उन्होंने ऊपर कर आये हैं उनमें जैनोंकी कृति बहुत एक विपुल कथा-साहित्य लिख डाला है । जिअधिक नहीं है। तंत्र-आख्यायिका एक वैष्णवकी सके द्वारा उन्होंने आख्यायिकाओं, पशु-कथकृति है और यही बात उत्तरी-पश्चिमी-संक्षिप्त ओं, उपन्यासों और गल्पोंके रूपमें अपने संस्करणके विषयमें है, जिससे दक्षिणी और धर्मके सिद्धान्तोंका प्रचार किया । इस लिए नेपाली पंचतंत्र और हितोपदेशका विकाश हुआ यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि जैन साहै। हितोपदेश स्वयं एक शैव विद्वान्की कृति है। धुओं और श्रावकोंने पंचतंत्रके कई रूपान्तर परन्तु यह बात बड़ी विचित्र है कि हितोप- कर डाले और उसको सर्वथा भिन्न भिन्न रूपोंमें देशकी वज्रभाषाका रूपान्तर हमको दो जैन बदल दिया । हस्तलिखित ग्रंथोमें मिला है। इन दोनों ग्रंथोंमें इन जैन संस्करणोंमें अर्थात् पंचाख्यानमें जुदा जुदा पाठ हैं और इनमेंसे कमसे कम जो ग्रंथ सबसे अधिक महत्त्वका है वही सबएक ग्रंथ गुजरातमें लिखा गया था । प्रसिद्ध से प्राचीन है । इसको किसी जैनसाधुने गुजगुजराती पंडित लल्लूलालने स्वयं कहा है कि रातमें लिखा था । दुर्भाग्यवश न तो उनके मेरी 'राजनीति' किसी संस्कृत ग्रंथका अनु- नामका ही पता है और न समयका; क्योंकि वाद नहीं है, किन्तु मैंने उसे ब्रजभाषाकी एक अभी तक किसी ऐसी हस्तलिखित प्रतिका प्राचीन पुस्तकके आधार पर लिखा है। ब्रज- पता नहीं लगा जिसमें ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति भाषाकी यह प्राचीन पुस्तक हितोपदेश और हो । परन्तु ग्रंथकर्ताने, जैसा कि स्वपंचतंत्रके चतुर्थभाग अर्थात् पंचतंत्रके जैन गीय अध्यापक प्रिजोबेलने बतलाया है, रुद्रटसंस्करणको मिलाकर बनाई गई है। और यह का एक श्लोक उद्धृत किया है, इस लिए उसने बहुत कुछ संभव है कि उसका कर्ता केवल गुज- यह पंचाख्यान लगभग ८५० ई० के बाद राती ही नहीं, किन्तु जैनधर्मानुयायी भी हो। लिखा होगा और चूंकि पूर्णभद्रने पंचाख्यानसंस्कृत और देशीभाषाओंमें दक्षिणी-पंचतंत्रके के आधार पर अपना ग्रंथ लिखा है, इस लिए अब भी बहुतसे संस्करण मिलते हैं। देशी भाषा- यह पंचाख्यान ११९९ ई० अर्थात् संवत् ओंके कई संस्करणोंसे और संस्कृत भाषाके एक ११५५ के पहले लिखा गया होगा।
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पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर | लेखक, श्रीयुत-भैयालाल जैन ।
इस महापुरुषका जन्म कलकत्तेसे ५२ मील पश्चिमकी ओर हुगली जिलेके वीरसिंह नामक एक छोटेसे ग्राममें सन् १८२० ईमें हुआ था । जब ये पाँच वर्षके हुए तब इनका वहाँकी ग्रामीणशाला में विद्यारम्भ कराया गया । वहाँ तीन वर्षतक इनने लिखना पढ़ना सीखा । फिर इनके पिता इन्हें कलकत्ता ले गये, जहाँ कि वे स्वतः नौकरी करते थे । और इन्हें संस्कृत विद्यालय में प्रवेश करा दिया । यहाँ इनने २० वर्षकी आयुतक विद्याध्यान किया ।
था,
बालक ईश्वर, जो कुछ प्रतिदिन पढ़ता था, वही उसे रात्रिको, अपने पिताको सुनाना पड़ता और यदि वह एक शब्द तो क्या, एक अक्षर भी भूलता तो पिता उसे बड़ी निर्दयतासे बंड देते थे। बहुधा अड़ोसी पड़ोसी आकर उसके पितासे उसपर दया करनेको कहा करते थे एकबार बालक ईश्वर कालेजके क्लार्क के भाग गया था । उसने उसपर बहुत सहानुभूति दिखलाई और उसे फिर घर पहुँचा दिया ।
।
घर
घरपर छोटे बालकको बहुत कड़ा परिश्रम करना पड़ता था । उसको अपने कुटुम्बके लिए जिसमें इनके अतिरिक्त इनके पिता और दो छोटे भाई थे, अनाज मोल लेने बाज़ार जाना पढ़ता था, घर झाड़ना बुहारना पड़ता था, लकड़ी काटना पड़ती थी और भोजन भी बनाना पड़ता था । कभी कभी तो रसोई बना नेके लिए अन्न भी न रहता था । १० बजे रात्रिको सोते थे । इनके पश्चात् इनके जिनको कि १२ बजे रात्रितक काम
पिता
करना
पड़ता था, अपना कार्यबन्द करते ही, इन्हें फिर जगा दिया करते थे और तबसे ये प्रातःकाल तक पढ़ा करते थे ।
इनके पिता के पास इतना द्रव्य नहीं था जिससे इनको ' फेशनेबल कपड़े बनवा जा सकें । ओढ़ने के लिए एक मोटी चादर, पहिननेके लिए सादी धोती और 'स्लिपरस' पाकर ही बालक ईश्वरको सन्तुष्ट रहना पड़ यह सादी पोशाक ये अपने जीवन भर धारण किये रहे । यहाँ तक कि जब थे धनवान् और प्रसिद्ध हो गये तब भी सिवाय पोशाकके इनने और कुछ नहीं पहना ।
इस
इतना कड़ा शारीरिक परिश्रम करने पर तथा पेट भर भोजन न मिलने पर नींद भी न सोनेपर, ईश्वरचन्द्रने संस्कृत बहुत ही शीघ्र अध्ययन करली । इनको पारितोषकपर, पारितोषक और छात्रवृत्ति - स्कालरशिप - पर छात्रवृत्तियाँ मिलती चलीं गईं । जब संस्कृत पूर्ण अभ्यास कर चुके तब २० वर्षकी अवस्था - में इन्हें ' विद्यासागर ' की उपाधि मिली ।
विद्यासागरको शीघ्र ही सरकारी नौकरी प्राप्त हो गई । इनको पहले पहल फोर्ट विलियम कालेजमें ५० रुपया मासिक पर हेडपंडितकी जगह मिली । इसके पश्चात् संस्कृत कालेजके प्रोफेसर - अध्यापक - नियुक्त किये गये । और फिर उसी कालेजके प्रिंसपल हो गये । सब विद्यार्थी इन पर बहुत प्रेम रखते थे । जितने ये सख्त प्रिंसपल थे, उतने ही दयालु भी थे । ये बहुत गरीब लड़कों की फीस और उन्हें हमेशा पुस्तकें देते रहे ।
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எய்யாயாயாயாயாயாயாயாக
जैनहितैषी
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जनाहिता
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अन्तमें विद्यासागर शालाओंके निरीक्षक- घर जाते और उसकी शैय्याके पास बैठ कर इन्स्पेक्टर-नियुक्त किये गये । इन्होंने बंगाल उसकी सेवा करते थे। जब ये धनवान हो गये तब प्रान्त भरमें दौरा किया और हर जगह शालायें सैकड़ों दीन विधवाओं और असहाय अनाथोंका खोलीं । इसके बहुत समय पूर्व इन्होंने अपनी पोषण करने लगे । इनका नाम बंगाल के प्रत्येक जन्मभूमिमें एक मुफ्त शिक्षाकी शाला, एक स्त्री पुरुषकी जिव्हापर रहने लगा । अमीर गरीब रात्रि शाला, एक कन्याशाला और एक औषधा- ऊंच नीच सब इनपर एकसी प्रीति रखते थे। लय खोल रक्खे थे । और इन सबका खर्च कोई भी भिक्षुक कभी इनसे निराश होकर नहीं अपनी ही जेबसे देते थे।
लौटा । इनने अपने फाटक पर कभी किसी दरतीन वर्ष इन्स्पेक्टर रहनेके पश्चात् इन्होंने वान् या चौकीदारको नहीं रक्खा, इस विचारसे कि नौकरीसे स्तीफा दे दिया, और शेष जीवन कदाचित् कोई दीनपुरुष जो इनसे मिलना चाहे भर, इन्होंने अपना, अपने कुटुम्बका तथा अपने कहीं बैरंग ही न लौटा दिया जावे । एक वाक्यमें माता पिताका पोषण, पुस्तकें लिख लिख यह कह सकते हैं कि, विद्यासागर दयाके अवतार कर किया।
थे। उनने अपना जीवन परोपकारके लिए उत्सर्ग ये इतनी शुद्ध सादी और सुन्दर भाषा कर दिया था। लिखते थे और इनके लिखने की शैली ऐसी विद्यासागरकी अपने पिता पर बहुत प्रीति अच्छी थी कि इनकी पुस्तकें हर जगह पढ़ी थी। उन्हें वे अपनी छात्रावस्थामें सब पारितोजाने लगीं और इससे इनको खासी षक और छात्रवृतियाँ, ज्योंकी त्यों दे दिया आमदनी हुई।
करते थे । ज्योंही उनको एक नियत वेतन देशके शासकगण और मंत्री लोग कानन मिलने लगा त्योंही वे उसमेंसे आधा अपने बनाते समय, हिन्दू रीति-रिवाजोंके सम्बन्धमें, पिताको देने लगे, और उनके जीवन भर, अपनी इनकी सलाह हर बातमें लेते थे। इनकी बहुत कमाई का भाग उन्हें देकर, उनका आरामसे, भारी प्रतिष्ठा की जाती थी क्योंकि सब लोगों- पोषण करते रहे। को ज्ञात था कि ये अपने समयके सबसे बुद्धि- वे अपनी मातापर, सच्चे हृदयसे प्रेम मान, अच्छे और सबसे विद्वान् पुरुषों में से हैं। रखते थे, और उनकी सक्ष्म आज्ञाका भी पालन बीस वर्षके पश्चात् भारत सरकारने इन्हें सी. करते थे। एक समय उनकी माताने जो कि
आई. ई. की पदवीसे विभूषित किया। अपने गाँव पर थीं, इन्हें देखनेको बुला भेजा। ___ विद्यासागर बहुत ही दयालु और उदार पुरुष श्रावणका महीना था । वर्षा अपनी युवावस्थाथे । बालकपनसे ही ये दीन और दुःखियोंकी में थी। नदी नालोंका खूब पूर चढ़ रहा था । अपनी शक्ति भर सहायता करते रहे । शालामें ऐसे समयमें विद्यासागर पाँवपियादे ही चल जब ये किसी दिन भूखे बालकको देखते थे दिये । मार्गमें इन्हें दो नदियें मिलीं; परन्तु पार तो अपने थोड़ेसे भोजनमेंसे कुछ भाग उसे दे उतरनेके लिए वहाँ नौकाका निशान तक नहीं दिया करते थे। यदि इनकी शालाका कोई वि- था। रात्रिका समय था, तो भी विद्यासागर अपनी द्यार्थी बीमार होता तो बालक ईश्वरचन्द्र उसके जान हथेली पर लेकर, दोनों को तैर गये ।
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विद्यासागर से जो बड़े बूढ़े होते थे उन्हें ये बड़ी आदरकी दृष्टिसे देखते थे । जब ये संस्कृत कालेज के प्रिंसपल हुए तो कालेजके वृद्ध क्लार्क जोकि इन्हें लड़कपनसे जानते थे और जिन्होंने कि इन्हें एक बार, इनके पिता - के कोप से बचाया था, इनके अपने समीपसे निकलने पर इन्हें सम्मान देने के निमित्त वे अपनी कुर्सीसे उठ खड़े हुए; परन्तु प्रिंसपलने बुद्ध महाशयको उनको कुर्सी पर आरामसे बिठाकर कहा, “मैं आपका अभी बालक ईश्वर ही हूँ; मेरे साम्हने खड़े होकर, कृपया मेरे हृदयको दुखित मत कीजिए । "
इस सभ्य और दयालु महापुरुषका देहान्त सन् १८९१ ई. में हुआ । इनकी मृत्युपर यूरोपीय तथा देशी लोगोंने एकसा शोक प्रगट किया । जब लोगोंने यह हृदयविदारक समाचार सुना कि, उनका एक दयालु और प्रिय सुहृद उनसे हमेशा के लिए जुदा हो गया तो हज़ारों लोग छाती फाड़ फाड़ कर रोए ।
ARA TARA!
पठन क्योंकर हो ? BnsensenssØØØN
लेखक, बाबू जुगल किशोर, मुख्तार ।
प्रथम तो ' पठनं कठिनं प्रभो । सुलभ पाठक - पुस्तक जो न हो । हृदय चिन्तित देह सरोग हो, पठन क्योंकर हो, तुम ही कहो ?
रामनाथ ।
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रामनाथ
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( ले०, पं० शिवसहाय चतुर्वेदी ) रामनाथका स्वभाव संसार में होनेवाली नित्यकी घटनाओंको खूब बारीकीके साथ देखनेका नहीं था । तो भी उनको बिलकुल लापरबाहीके साथ उड़ाकर उसके दिन निश्चिन्तता पूर्वक नहीं कटते थे । रामनाथके माता पिता वह जब छोटासा था तभी मर गये थे, इस कारण उसका लालनपालन मामाके घर हुआथा । अब भी वह वहीं रहता था । छुटपन से दूसरे के घर दूसरेके अनुग्रह से पाले-पोसे जानेपर भी उसके स्वभावका तेज हीनता के मध्य में बिलकुल नहीं ब था । किसी परान्नभाजी - दूसरे के टुकड़े तोड़ने वाले मनुष्यकी स्वाधीनताकी स्पर्धा संसारकी दृष्टिसे अच्छी नहीं समझी जाती । इसी कारण रामनाथको कोई अच्छी दृष्टिसे नहीं देखता था । जो उसके मुख पर नहीं कह सकतेथे, वे पीठ पाछे, और जो उसके सामने खुले शब्दों में कहनेकी क्षमता रखते थे वे समयानुसार मौके मौके पर रामनाथको समझाने की चेष्टा करते थे, परंतु फल कुछ न होता था, उसकी लापरवाही और भी अधिक बढ़ जाती थी ।
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भय और शासन क्या वस्तु है इसे रामनाथ बिलकुल नहीं जानता था उसके कोषमें इन शब्दों का नाम भी न था; इस कारण खुशामद करके भी कोई उससे एक भी काम नहीं करा सकता था। उसके स्वभाव में एक ऐसी दृढ़ता थी कि वह कठिन से कठिन प्रसंग पर भी कभी एक कौंड़ी व्यर्थ खर्च नहीं करता था । जहाँ उसका कोई मतलब या काम होता था वहाँ वह ठीक समय पर पहुँचता था, और काम निकल जाने -
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जैनहितैषी ।
पर उसी समय वहाँसे चला आता था । किसी विपदग्रस्त मनुष्यके साथ घड़ी भर में वह अत्यंत प्रसन्नमनसे अंतरङ्गता बढ़ा लेता था, पर उसकी सहायता कर चुकने पर दूसरे ही दिन वह इस तरह विस्मरण हो जाता था कि उसका नाम भी भूल जाता था । उसके स्वभावमें ऐसी आश्चर्यमय विशेषता थी कि किसी कामके परिणामसे उसे कभी हर्ष या विषाद नहीं होता था । वह जिस कामको करता था यदि उसमें उसे उत्साह मिलता था तो वह उस कामको बहुत साधारण रीतिसे चलाता था, किन्तु यदि उसमें बाधा पहुँचती थी तो वह अंधजिह से उत्तेजित होकर उस कामकी साधना में और भी अधिक दृढ़ता से
लग जाता था ।
छुटपनमें जब वह ग्राम्य-पाठशाला में पढ़ता था उस समय कई एक शैतान और मंदबुद्धि सहपाठियोंके साथ मार-पीट या लड़ाई-झगड़ेमें बाजी मारले जानेके सिवाय उसने और किसी विषय में सफलता नहीं पाई थी । किन्तु जब १० वर्षकी उमरमें मामा साहबके अनुग्रहसे जबलपूरके एक अंग्रेजी विद्यालयकी सातवीं श्रेणीमें ३६ विद्यार्थियोंके नीचे उसका नाम लिखा गया, तब उसका उत्साह एकदम बढ़ गया । वह कठिन गरमी, घोर वर्षा और दारुण शीतकाल में अपने शरीर और आराम के लिए कुछ भी अवसर न देकर सहपाठियोंकी प्रतिद्वन्दितामें इस तरह उतर गया कि जब वार्षिक परीक्षाका फल प्रकाशित हुआ, तब छत्तीस विद्यार्थियोंमें वही प्रथम आया । इस तरह वह वर्ष - प्रतिवर्ष प्रत्येक श्रेणीमें उत्तीर्ण होने लगा । जब बीस वर्षकी अवस्था में परिचित तथा आत्मीय बंधुओंसे श्रद्धा और भक्ति का उपहार पाकर वह बी. ए. की अंतिम परि क्षामें विशेष सन्मानपूर्वक उत्तीर्ण हुआ तब
उसकी भाग्यलक्ष्मी अत्यंत स्तुति-वाद के संघा तसे एकाएक विमुख हो गईं ।
रामनाथ के मामा सरयू प्रसाद मिश्र एक तार केदार थे, इस लिए कानूनी व्यवसाय अर्था वकीली ही उनके लिए सबसे अधिक मनुष्यत्वका परिचय देनेवाली विद्या थी । इसी लिए उन्होंने अपने भानजे रामनाथको आगे कानून पढ़ने की आज्ञा दी । परन्तु रामनाथने अत्यन्त दृढ़ और स्पष्टशतिसे लिख भेजा कि " वाक्य-विक्रय करके आजीविका चलाना मेरे जैसे क्षुद्र प्रकृति आदमीके लिए संभव नहीं है, मैं एम. ए. पास करके अध्यापकी कार्यमें व्रती होना चाहता हूँ । ” मामा साहबने गरम होकर उसको जिद छोड़ देनेके लिए लिखा, परन्तु रामनाथने रुष्ट होकर उनके पत्रका जवाब तक न दिया ।
इसी समय एक और घटना घटी । रामनाथके बी. ए. पास होनेका समाचार चारों ओर फैलते ही रामनाथके पिताके वासस्थान सिंहपुरके जमीदार बाबू बदरीप्रसादजीने शीघ्र ही रामनाथके साथ अपनी कन्याका संबंध करनेके लिए सरयूप्रसादके पास नाई भेजा ।
ऐसे गण्य और प्रसिद्ध धनी जमीदार के साथ विवाह संबंध करने के लिए सरयूप्रसादको विशेष आग्रह हो सकता है, परन्तु इस विषय में रामनाथ एकदम उदासीन है । एक बड़े घर से सम्बन्ध बढ़ानेकी मामाकी इच्छा और अपने भविष्य सौभाग्यकी आशा के सम्बन्धमें लिखे हुए एक विशद और विस्तृत पत्रके उत्तर में रामनाथने घर न जाकर बड़ी नम्रता और सन्मान के साथ मामाको प्रणाम लिखकर, बहुत ही संक्षिप्त और सरल भाषामें इस मनलुभानेवाले संबंधके विषयमें कुछ ऐसी बातें लिख भेजीं जिससे सरयूप्रसाद, बदरीप्रसाद बाबूके प्रस्तावित विषय पर एकदम निरुत्तर होगये और उसी दिन से उन्होंने
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रामनाथ ।
हार करना भी बंद कर दिया ।
अकृतज्ञ और उच्छृङ्खल भानजेके साथ पत्रव्यव - पूर्ति और लड़ाई-झगड़ों के प्रतिकार के लिए अपन शक्तिके अनुसार धन और सामर्थ्य से सहायता करता था । असहाय दीन दुखियों और पीड़ितों की सेवा-शुश्रूषा, मृतकोंके अग्निसंस्कार और भूखे दरिद्रोंको भोजन की व्यवस्था करनेमें उसका सारा समय बीतता था ।
इसी एक मामूली घटना को लेकर मामा भानजे तथा जमीदार और तालूकेदारके बीच वैमनस्य होगया। रामनाथको मालूम हुआ कि मैं पराधीन हूँ और मामाकी कृपासे पढ़ रहा हूँ । उसके मनमें इस पराधीनताकी तीव्रताका अनुभव होते ही उसने लिखना पढ़ना सब छोड़ दिया । रामनाथने जबसे कालेज में पढ़ना शुरू किया था तबसे वह मामा साहबके खर्चके भारको कम करनेके लिए शहर में ट्यूशन करता था और इस तरह अपना आधा व्यय निकाल लेता था । यदि वह चाहता तो उसके समान परिश्रमी और उद्योगी पुरुषके लिए शेष आधा खर्चा और जुटा लेना भी कोई कठिन न था, किन्तु उसने ऐसा करनेकी जरूरत न समझी थी । अब मामाके साथ मनमुटाव हो जानेसे उसके हृदयमें एक गंभीर अभिमान की वेदनाका संचार हो गया, इस लिए उसने अपने भविष्य की लेशमात्र भी परवा न करके अपने पैतृक ग्रामके समीपी नरसिंहपुर के अँगरेज़ी स्कूलमें तीसरे शिक्षककी जगह पर नौकरी करली और अपने पितांके भद्रासनको पुनः संस्कृत करके रहना प्रारंभ किया । रामनाथ मामाके घर नहीं गया, उसने केवल एक पत्रद्वारा अपनी नौकरीका समाचार उनको लिख भेजा । मामाने पत्रोत्तर नहीं दिया, रामनाथने भी फिर और पत्र नहीं लिखा ।
रामनाथ दिनकी पाठशाला में काम करता था और रातको अपने घर स्थापित किये हुए नाइटस्कूलमें बिना कुछ फीस लिये नगरके सब श्रेणीके बालकोंको कई उपयोगी विषयों की शिक्षा दिया करता था । अवसर पड़ने पर नगरके समस्त सम्प्रदायों से मिलकर उनके अभावोंकी
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उधर बाबू बदरीप्रसाद बदला लेनेकी चि न्तामें व्यस्त रहते थे । परन्तु थोड़े ही दिनों में अपनी ओरसे उपस्थित की गई सैकड़ों अड़चनों और बाधाओं के प्रति उस स्पष्टवक्ता सर्वप्रिय और निर्भीक युवककी बिलकुल लापरवाहीको देखकर उन्हें विस्मित और कुण्ठित होना पड़ा । बदरीप्रसाद समझदार आदमी थे - वे समझ गये कि ऐसे तुच्छ बहानों ( मिसों ) से एक शिक्षित और चतुर व्यक्तिसे वैर मँजाना कुछ सहज काम नहीं है । इस लिए वे समयकी प्रतीक्षा करने लगे । इधर हठी रामनाथ मगरके साथ वैर करके जलमें रहनेके प्रचलित प्रवादको जितना स्मरण करने लगा, उसको व्यर्थ करने के लिए उसमें उतनी ही दृढ़ता बढ़ने लगी ।
इस तरह एक वर्ष बीत गया । रामनाथके मामा अकस्मात् एक प्राणघातक बीमारी से पीड़ित हुए । समाचार पाते ही रामनाथने बिना बुलाये जाकर मामाकी मरणपर्यंत खूब जी लगाकर सेवा-शुश्रूषा की । रामनाथका मामा मरते समय उसे हृदयसे आशीर्वाद और अपने छोटे बच्चोंकी तथा धन- सम्मत्तिकी रक्षाका भार दे गया ।
श्रद्ध हो चुकने पर मामीने स्नेहके साथ रामनाथको अपने पास ही रहने के लिए अनुरोध किया, परन्तु रामनाथ न माना वह अत्यन्त नम्रतापूर्वक इंकार करके अपने घर लौट आया । वह अपना नियमित काम करने के बाद रातको जागकर परीक्षा के लिए मिहनत करने लगा ।
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AMITAMARHI
जैनहितैषीHTTREETTERESTHETAN
रामनाथके साथी " बूढ़े तोतेको पढ़नेका शौक को कुछ दुःख नहीं हुआ; किन्तु पड़ौसकी स्त्रि चर्राया है। " कह कर उसकी हँसी उड़ाया योंके कोलाहलमय संसर्गसे वह एकदम कैसी नि करते थे। परन्तु रामनाथ उनकी हँसी-दिल्लगीको दयताके साथ बंचित कर दी गई इस बातर्क कानों परसे उड़ा दिया करता था और इस याद आते ही वह रामनाथको किसी तरह क्षम विषयमें कभी उन्हें उत्तर न देता था। नहीं कर सकी । रामनाथने घर आते ही उस
छह महीनाके पीछे वह एक विचित्र काम की आँखोंसे छल-छल करके गिरते हुए जलके कर बैठा-अपने सगे सम्बन्धियोंसे कुछ सलाह देखकर कहा-" क्यों क्या हुआ ?" लिये बिना ही, बिलकुल सादी रीतिसे, एक रामनाथने पत्नी प्रत्युत्तरमें निःसंकोचभावर मृत्यु-शय्यापर पड़ी हुई विधवा स्त्रीकी अस- हँसकर कहा-“परचर्चा और कुत्सित पर हाया कन्याके साथ विवाह करके उसे अपने निन्दामें जो तुम्हारे समयका अपव्यय (बेजा. शून्य घरमें ले आया। विवाहके दूसरे दिन ही खर्च ) होता था, वह बंद हो गया, अच्छा ही विधवाकी मृत्यु हो गई । उसने मरते समय दामा- हुआ । अब तुम निश्चिन्त होकर पढ़ने लिखने दको आशीर्वाद देकर अत्यंत शान्तिपूर्वक अंतिम मन लगाओ।" स्वास छोड़ी । इस विवाहके कारण रामनाथकी इन बातोंसे लक्ष्मीको कुछ अधिक संतो बड़ी निन्दा हुई; पर उसने इसकी तिलभर नहीं हुआ । रामनाथ जब स्कूलको जाता थ भी परवा न की।
तब वह अपनी मृत साताकी याद कर करके -उधर रामनाथके विवाहके दूसरे ही दिन कुछ समय खूब रो लिया करती थी। रामनाथ बाबू बदरीप्रसाद जमीदारने एक दूसरे ग्रामके यथा समय स्कूलसे आकर उसको मृदु-भर्त्सना वृद्ध जमीदारके अक्षरशत्रु पुत्रके साथ अपनी के साथ साथ थोड़ी बहुत सान्त्वना देता था प्रियतमा कन्याका बड़ी धूमधामके साथ विवाह एक दिन रामनाथ उस मृत चांडालकी निः कर दिया। इस विवाहोत्सवमें रामनाथको छो- संतान विधवा स्त्रीको घर ले आया और उसे इकर गांवके सभी आदमी निमंत्रित हुए थे। अपनी माता मानकर घरमें रख लिया। लक्ष्मी
कुछ महीने बाद एक दरिद्र कुटुम्बहीन और क्रोधसे जलकर कहने लगी- “ क्या नीचोंके समाजसे परित्यक्त चांडालकी मृतदेह उठाने सिवा तुम्हें कोई नहीं मिलता ? संसारमें
और उसके अग्निसंस्कार करनेके अपराधमें राम- नीच ही तुम्हारे सब कुछ हैं ! " नाथ अत्यंत निठुराईके साथ जाति-च्युत कर दि- रामनाथने हँसकर कहा-“ हाँ नीच ही या गया । इससे जब अड़ौस-पड़ौसके लोगोंने उ- हमारे सब कुछ हैं । किन्तु अब तुमको एक सके बैठकखानेमें आकर चिलम तमाखूकी काम करना होगा--दो-पहरके समय इस धूम मचाने और पढ़नेमें व्याघात पहुँचाना बंद बेचारीको महाभारतका शान्तिपर्व थोड़ा थोड़ा कर दिया, तब रामनाथ समाजको धन्यवाद दे सुनाना होगा और उसके मनको बहलाना कर एक बहुत बड़े आरामका अनुभव करने ल- होगा--समझी ?" गा। परन्तु घरके भीतरकी दशा ठीक इसके पड़ौसिनियोंकी पर-चरित्र-सम्बन्धी अन्धविपरीत हुई-दासियाँ घरका काम करनेके लिए चर्चा-समिति द्वारा गाठत मन्तव्यके अनुसार नहीं आती हैं, इस बातसे परिश्रमी पत्नी लक्ष्मी- लक्ष्मीने कहा- “ तुम्हारा व्यवहार ऐसे छोटे
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रामनाथ ।
लोगोंहीके साथ रहता है- क्या तुम्हें बड़े आदमी नहीं मिलते ? "
रामनाथने उद्वेगरहित होकर कहा - " बड़े आदमियोंसे मिलने वाले तो सैकड़ों लोग हैंबेचारे इन गरीबों से मिलनेवाला कौन है ? "
लक्ष्मीने फिर कुछ नहीं कहा । वह यत्नपूर्वक शोक-संतप्त चांडाल-वधूको सान्त्वना देकर और दोपहर को महाभारत सुना सुना कर उसका मन बहलाने लगी ।
[२]
परीक्षाका समय आते ही रामनाथ स्कूल के कामसे छुट्टी लेकर परीक्षा देनेके लिए इलाहा - वाद गया । जिस दिन वह परीक्षा देकर घर लौटा उसके दूसरे दिन प्रातःकाल नयेगंजके शेखइमामीने आकर रोते रोते कहा - " आपकी गैरहाजिरी में जमीदार बाबूके कोपसे मेरे ऊपर एक बड़ी विपद आ पड़ी है । मेरे घरको एक सरकारी संकीर्ण रास्ता गया है । उसके दोनों ओर ४-५ फैली हुई शाखाओंके बेरी आदि के पेड़ थे उनके कारण रास्ता बहुत संकीर्ण होगया था और चलने वालोंको तकलीफ होती थी, इस कारण मैंने वे वृक्ष चार पाँच महीने पहले कटाव दिये । इस समय बाबू बदरीप्रसाद जमीदार उस जरासी बातको लेकर झगड़ा करके मेरा सर्वनाश करनेपर उतारू हुए हैं । यहाँ तक कि अब स्त्रियोंके सन्मानकी रक्षा करना भी मेरे लिए कठिन हो गया है 1
।
गये
रामनाथ उसके साथ घटना स्थल पर और वहाँपर अपनी आँखोंसे सब देखभालकर और उसके मुखसे जमीदार के अन्याय और अत्याचारकी बातें सुनकर अत्यंत क्रोधित हो उठे । ऐसे नरा - धम और स्वार्थी मनुष्यसे मिन्नत करके मामल तय करा लेने के विरुद्ध उनका मन एकाएक उग्र हो गया । रामनाथने शेखइमामी से व्यग्रता -
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के साथ पूछा – “कोई गवाह है ? " शेख - इमाम ने कहा "हाँ मेरे मामा शेख कल्लू हैं जो जमीदार के यहाँ नायव हैं, एक और गवाह है परन्तु वह भी जमीदारके अनुग्रह से पलता है । "
रामनाथ शेखकल्लूको अच्छी तरह जानते थे । एक समय वह उनके मामा के यहाँ गुमास्ता था। इस समय कामकाज की होशियारीके का - रण वह बदरीनाथ बाबूके यहाँ सबसे बड़ा कचारी बन गया है । शेख कल्लूकी उमर बीत गई है, वह सब तरहसे शान्त और बुद्धिमान होने पर भी प्रजा -पीड़नके काममें बिलकुल मालिककी प्रसन्नता के लिए भी इस तरह अपममताहीन और धर्मरहित है । बहुत से लोग ना स्वभाव एकदम बदल देते हैं ।
रामनाथ उसी समय उसी वेषसे, दोपहर की धूपमें, हलसे जोते हुए उत्तप्त खेतोंको लांघता हुआ शेखइमामी के साथ सिंहपूरकी जमीदारी कचहरी में जा पहुँचा । दरवाजे पर खड़े हुए पहरेदारोंको लाँघ करके रामनाथ कचहरी के भीतर गया । उस समय जमीदार बाबू स्नान भोजन के लिए भीतर चले गये थे । नायब गुमास्ता लोग भी जल्दी जल्दी शेष कामको पूरा करके उठनेकी तैयारी कर रहे थे ।
जमीदार के नायव अलपाकाकी एक टिहुनी तक मिरजाई पहिने हुए हुक्का पी रहे थे और एक गुमास्ता सिरपर फेल्प टोपी, बदन में एक अँगरेजी ढंगका कोट और नीची धोती पहने हुए पास खड़ा होकर एक रजिस्ट्री की दलील पढ़कर सुना रहा था । एक मैलीसी कमीज और स्लीपर जूता पहिने शुष्क और कठोर - मूर्ति रामनाथके अकस्मात् सामने आकर खड़े हो जानेसे शेखकल्लूका हुक्का पीना रुक गया वह विस्मित होकर कहने लगा- “क्या है ?”
रामनाथने भूमिका वगैरह न बाँधकर पास ही खड़े हुए शेखइमामीको एकदम सामने खींचकर,
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SAHLIBABALIBHIBALIBAILY
जैनहितैषी।
अनुरोध नहीं बल्कि आदेशकी तौरपर दृढ़स्वरसे कहा-" मालिक ५ बजे आते हैं, या तो जबतक कहा-“ अब गरीबोंको तंग करनेसे बाज आओ, बैठौ या लौट जाओ, फिर आना ।" इस झूठे मामलेमें गवाही मत दो।"
रामनाथ न तो बैठा और न लौटा,-वह मालिन वेषधारी अपरिचित व्यक्तिकी इस गर्जकर बोला-" तुम गवाह हो ? शेखकल्लू ! बड़ी भारी धृष्टतासे चकित होकर नवयुवक तुम जानवरका चमड़ा पहिनकर जानवरके पास गुमास्तेने शीघ्र ही सूखेपनसे कहा-" तुम कौन नायवी करनेके लिए आये हो ? जीने मरनेकी हो ? क्या पागल तो नहीं हो गये ? ” परवा न करके हाथके ज़ोरसे गरीबोंके गलेपर __रामनाथने उसकी ओर नहीं देखा, उन्होंने शेख छुरी चलाओगे ! भोजनके बिना जिन अभाकल्लूको दृढ़ताके साथ फिर अपना वक्तव्य सुना गोंके प्राण छटपटा रहे हैं, जो बरसामें भीग करके, दिया, और जब शेखइमामी अपने धर्मावतार धूप-गरमीमें जलकर और रोग-शोकमें संतप्त मामाके सामने रोते रोते धर्मकी दोहाई, रक्तका रहकर भी रातदिन परिश्रम कर करके तुम्हारे सम्पर्क, नाड़ीकी एकता आदि आध्यात्मिक- खजानेको भरते हैं-जिनके परिश्रमसे पैदा किये तत्त्व लेकर प्रार्थना करनेको उद्यत हुआ, तब हुए धनको-रक्तको-साल दरसाल किस्तके रूपमें रामनाथने सिंहकी तरह गरज कर उसे इस तरह चूस कर तुम्हारी चरबी बढ़ गई है-उन बेचारोक दिया कि इमामीको फिर एक वाक्य कहने रोंको निदर्य होकर पीसनेके लिए गाँठका पैसा की भी हिम्मत न हुई।
खर्च करके मुकद्दमा चलाओगे ? तुम्हारा सत्याशेखकल्लू रामनाथको अच्छी तरह जानता नाश हो और तुम्हारे जमीदारका सत्यानाश था एक समय वह उससे डरता भी बहुत था- हो । शेखइमामी! चलो, आओ, देखा जायगा ये परन्तु इस समय माथा गरम और पेटे भूखा होने- क्या करते हैं ? यहाँ सभी जानवर नहीं बसते के कारण मर्मघाती वचनोंकी हूलसे उसका हैं, आदमी भी हैं ।" चित्त जल उठा उसने अपने स्वभावसिद्ध गुणके शेख इमामीको साथ लेकर रामनाथ जल्दीसे अनुसार मृदुवचनोंसे इमामीको कई तीक्ष्ण चला गया।
और मान्तिक बातें सुनाई और बुद्धिमान् राम- शेखकल्ल उठकर खड़ा होगया, नवयुवक नाथ बाबूको अनधिकार-चर्चा छोड़कर अपने गमास्ता दलीलको हाथमें लिए हुए एक ओर चरखामें तेल डालने-अपने कामसे प्रयोजन बैठ गया। बाहर दरबाजेपर खड़े हुए पहरेवाले रखनेके लिए उपदेश दिया । रामनाथने अस- अपनी अपनी लाठियोंको संभाल कर एक दूसहिष्ण होकर कहा-“ हम बातको लेकर रको मुँह ताकने लगे। झगड़ा करनेके लिए नहीं आये हैं- कामके लिए आये हैं।"
बहुत दौड़-धूप और परिश्रमके बाद शेख शेखकल्लूने अत्यंत उदासीनतासे आँखोंका इमामीके मुकद्दमेंका अंत हुआ । रामनाथने चस्माँ निकालकर मधुर वचनोंसे कहा-“ठीक अपनी गाँठका रुपया खर्च करके अच्छे अच्छे है, किन्तु यह बात तो मेरे हाथकी नहीं है, वकील मुख्तारोंको लगाकर बड़ी सरगरमीसे मालिकके हाथकी है-उन्हें आने दो।" मुकद्दमा लड़ा । फल यह हुआ कि शेख
नवयुवक गुमास्तेने धीरे और शीघ्रतास' इमामी बेकुसूर कह कर छोड़ दिया गया, और
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LITEmmmmmunimum
रामनाथ।
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यहाँ तक कि काटे हुए पेड़ोंके मूल्यस्वरूप जो इधर जमीदार बाबूको मुकद्दमा हार जानेके एक रुपया दशआना दंड देनेका विधान हुआ कारण बड़ी लज्जा हुई; वे अपमानके बोझसे दबसे था वह भी प्रधान गवाह शेखकल्लूके दोषसे गये । शेखकल्लू स्वास रोगसे पीड़ित रहता ही रद्द होगया । गवाहके कठहरेमें खड़े होकर एक था,इधर कई दिनोंसे बीमारी बढ़ जानेके कारण वार उसके मुँहसे “ हाँ" के बदले 'न' निकल उसे लाचार होकर नौकरी छोड़ देना पड़ी । बते ही यह आपत्ति खड़ी हुई । फिर वकीलोंकी हुदिन व्यापी रोगकी ताड़ना और मानसिक जोरदार बहससे सब मामला बिगड़ गया और दुश्चिन्तोंओंके कारण शेखकल्लूका शरीर सूखकर शेखइमामी बिलकुल बे-दाग छोड़ दिया गया। काँटा हो गया था। अब वह किसीसे मिलता जुलता
शेखइमामीके मुकद्दमेंसे छुटकारा मिलनेके नहीं हैं, अपने घर चारपाई पर पड़ा रहता है। दूसरे दिन ही रामनाथकी परीक्षाका फल प्रकाशित
" उसके मकानके पाससे जमीदारके सिपाही जब हुआ । रामनाथ प्रथम नम्बरमें पास हो गया।
किसी आसामीको मारते पीटते हुए लेजाते हैं इस संवादको सुनते ही वह विशेष प्रसन्न न हो ।
" तब उन लोगोंके सकरुण रोदनको सुनकर वृद्ध सका, क्यों कि इस समय वह ऋण चकानेकी शखकल्लू आखाम पानी भरकर भगवानका नाम चिन्तामें लगा हुआ था। जब तक एक काम
लेने लगता है। उसके सामने रहता था, तब तक वह उसी कामको पूर्ण उद्यमके साथ करता था: एक काम- छह महीनके बाद रामनाथने सब ऋण चका को पूरा किये विना वह किसी नई चिन्ता या दिया और कुछ पैसा भी अपनी गाँठमें कर लिया। संकल्पको अपने मनमें स्थान न देता था । उसने लक्ष्मीको लिखा-" मैं शीघ्र ही घरको बडी मिहनतके बाद छत्तीसगढकी एक आता हूँ।" रियासतमें हाईस्कूलकी हेडमास्टरी मिली- शेखइमामीने उत्साहित होकर तीन चार तनरव्वाह २००) थी । नौकरी लगते ही एक दिन परिश्रम करके मकानके चारों ओरका घास दिनका विलम्ब न करके रामनाथ उसी दिन छ- कूड़ा छीलकर साफ़ कर दिया । नियत दिनको त्तीसगढको रवाना हो गया। घर जाकर स्त्रीसे कई जगहोंसे नाना तरहकी तरकारियाँ लाकर मिलने और रोने-गाने द्वारा विदाके आडम्बरको रख दी और ग्वालोंसे दूध दहीका प्रबंध कर बढ़ानेकी उसकी बिलकुल इच्छा न थी, इसलिए दिया । सफ़ेद धुली धोती और सिरपर लाल चांडालकी स्त्रीकी देखरेखमें अपनी स्त्रीको रख- साफेको बाँध कर शेखइमामी यथा समय कर और इमामी आदिसे मौखिक खोज खबर स्टेशन पर बाबूसाहबको लेनेके लिए गाड़ी लेते रहनेकी कह कर वह चला गया ! इधर लेकर पहुँच गया ।। उसके जानेसे नाइटस्कूल बंद हो गया। ट्रेन आगई । बाबूरामनाथ एक हाथमें बेग और
कृतज्ञ इमामी दोनों वक्त घर आकर मातृ दूसरेमें ट्रंक लिये हुए गाड़ीसे उतरे । उन्होंने स्वरूपिणी लक्ष्मीकी खोज खबर ले जाता था और उतरते ही इमामीसे कुशलता पूछी । इमामीने प्रतिदिन रातको परिवार सहित आकर, आप सलाम करके बड़े उत्साहके साथ गांवका बाहर मकानमें सो रहता और स्त्रीको लड़कों आद्योपान्त संक्षिप्त वृतान्त कह सुनाया। रामनाथ सहित भीतर सोनेके लिए भेज देता था। गाड़ीमें आ बैठे-इमामी विचित्र शब्दके साथ बैलों
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________________ 220 mmmmm जैनहितैषी की पूंछको ऐंठ कर चौड़े रास्तेसे गाड़ीको घरकी चीत कर रहा है , पडौसी इमामीको बुलाने और दौड़ाने लगा-गाड़ी घरके दरवाजे पर आया है। आकर खड़ी हो गई। ___रामनाथने शीघ्र ही कहा-" इमामी !" ___ हाथमें बेग और काँधे पर ट्रॅक रक्खे हुए इमामीने हाथ जोड़कर कहा- हुजूर / " इमामीने रामनाथके साथ घरमें प्रवेश किया / रामनाथ विना कुछ कहे सुने इमामीको साथ चांडाल-बधूने घूघट खींचकर दूरसे ज़मीनपर लेकर कल्लूके घरकी ओर चलने लगा। पड़ोसिर रखके रामनाथको प्रणाम किया। रामनाथ सी भी विस्मित होकर पीछे पीछे हो लिया / उससे कुशल पूछकर भीतर चला गया। उनके पहँचनेके कुछ समय पहले ही शेख किसीने बाहरसे इमामीको पुकारा / वह ट्रंक कल्लकी मृत्यु हो गई थी, स्त्री शोकसे व्याकुल रखकर बाहर चला गया। होकर पतिके पैरों के पास रोरो कर लोट रही रामनाथने भीतरकी ओर नजर डाली / थी। रोगी और दुबला तीन वर्षका बालक इस लक्ष्भीके नेत्र पतिदर्शनके लिए उत्सुक हो रहे दुखका कारण कुछ न समझकर माताके रोनेके थे। मधुरहास्य और सुन्दर वस्त्रभूषणोंसे सुस- भयसे मृतक पिताके वक्षःस्थलपर पड़कर रोरोकर ज्जित लक्ष्मी पतिको देखते ही चूड़ियोंके शब्दके सिसक रहा था। साथ माथेका कपड़ा खींचकर एक ओर सरक रामनाथने जाकर जल्दीसे बच्चको उठा गई / स्त्रियाँ कितनी ही पुरानी क्यों न हो-बहुत लिया / बच्चा रोते रोते थक गया था, कुछ दिनोंके बाद पतिको देखने पर लज्जा करती ही शान्त होते ही उसने पीनेके लिए पानी माँगा। हैं। रामनाथने आगे बढ़कर अपने दोनों हाथोंसे रामनाथ उसको गोदमें लेकर जल्दी जल्दी स्त्रीको अपनी ओर खींचकर पूछा-“अच्छी हो?" अपने घर आया और लक्ष्मीसे बोला-" घरमें लक्ष्मीका गला भर आया, वह शीघ्र ही दूध है ? यदि न हो तो इसे कुछ पानी बोली-" और तुम ? " ही पिलाओ।" ठीक उसी समय पास ही रोनेकी आवाज लक्ष्मी एक ग्लासमें दूध ले आई और उसने सुनाई दी-रामनाथने चकित होकर स्त्रीको छोड़- बच्चेको बड़े स्नेहके साथ रामनाथकी गोदसे कर कहा-" कौन है ? " अपनी गोदमें ले लिया। लक्ष्मीने मलिन मुखसे कहा-"शेखकल्लू बहत रामनाथने कुछ संकोचके साथ कहा-" मैं दुःखी है, जब इमामी स्टेशनको गया था उस मर्देको छकर आया हूँ।" समय कोई उसको बुलानेके लिए आया था लक्ष्मीने स्वामीको प्रणाम करके और उनके परंतु.........।" पैरोंकी रज माथेपर लगाकर कहा.-"तुम पवित्र रामनाथ शीघ्र ही वहाँसे चला गया / बाहर हो !" जाकर देखा कि इमामी एक पड़ौसीसे बात (प्रवासीसे अनुवादित) For Personal & Private Use Only